बालक के सामाजिक विकास में शिक्षक की भूमिका स्पष्ट कीजिए
बालक के सामाजिक विकास में शिक्षक की भूमिका
बालक के सामाजिक विकास में शिक्षक की भूमिका बालक के सामाजिक विकास में शिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। शिक्षक को बालक के समाजिक विकास में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1. सुधारात्मक अनुशासन-
शिक्षकों द्वारा लागू किया गया अनुशासन सुधारात्मक ढंग पर आधारित होना चाहिए। बालकों को पूरी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। अनुशासन, स्नेह, श्रद्धा और लोकतांत्रिक तत्वों द्वारा संचालित होना चाहिए। भय का वातावरण नहीं होना चाहिए। शिक्षण की विधियाँ रोचक होनी चाहिए। शिक्षण में मनोविनोद और वाद-विवाद के लिए पूर्ण स्थान होना चाहिए।
2. जिज्ञासा के प्रति सजगता
बालकों में अनेक नवीन बातें जानने की जिज्ञासा अत्यन्त प्रबल होती है। बालकों को डांट फटकार नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे उनकी जिज्ञासा समाप्त हो जाती है और अध्यापक के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है।
3. कक्षा में उचित नियंत्रण
प्रत्येक शिक्षक को अपनी कक्षा में सदैव उचित नियंत्रण रखना चाहिए। बिना बालक को अनुशासन में रखे कक्षा की व्यवस्था अच्छी नहीं रखी जा सकती और शिक्षण कार्य भली-भाँति नहीं चल सकता। कक्षा में उचित नियंत्रण थोपा हुआ नहीं होना चाहिए। ऐसा करने पर बालक भी उद्दण्ड नहीं बनते।
4. सहयोगी वातावरण-
जो शिक्षक न तो निरंकुश होते हैं और न दुर्बल, उनके द्वारा उत्पन्न किया गया वातावरण बालकों में सहयोगी और सहकारी भावना उत्पन्न करने में सहायक रहता है। बालकों को शिक्षक द्वारा मिल-जुलकर समूह में कार्य करने का अवसर देना चाहिए तथा समूह में ही उनसे चर्चा करनी चाहिए।
5. नेतृत्व करने के लिए प्रेरित करना-
शिक्षकों द्वारा बालकों को नेतृत्व करने के लिए प्रेरित करना चाहिए, उन्हें स्वयं अपने संवेगात्मक और मानसिक विकास के लिए सहायता और समन्वयक निर्देश मिलने चाहिए। इस प्रकार उपयुक्त वातावरण द्वारा बालकों में सामाजिक भावना का विकास सम्भव होता है।
- कक्षा का वातावरण एवं बाल-विकास-लेविन, मिलिट तथा वाईट के अनुसार विभिन्न कक्षाओं का वातावरण भिन्न-भिन्न होता है। कुछ कक्षाओं में छात्र और शिक्षक परस्पर मिलकर यह निश्चय करते हैं कि उन्हें क्या कार्य करना है? यह लोकतन्त्रात्मक कक्षा होतो है तथा इसका वातावरण लोकतंत्रीय होता है।
- लोकतंत्रात्मक कक्षा के छात्र आपस में सहयोग करते हैं तथा मित्र-भाव रखते हुए यहाँ तक कि शिक्षक की अनुपस्थिति में भी मिलकर सौहार्द्रपूर्ण ढंग से अपना कार्य करते हैं।
- कुछ कक्षाओं में शिक्षक इस बात के निर्देश देता है कि छात्रों को क्या करना है। यह प्राधिकारवादी कक्षा होती है तथा इसका वातावरण प्राधिकारवादी रहता है। इस प्रकार की कक्षा में अनुशासन के नाम पर बच्चे वही करते रहते हैं, जो शिक्षक कहता है, किन्तु उनकी इसमे रुचि नहीं होती। इस प्रकार के वातावरण वाली कक्षा में बालकों की या तो विद्रोह वृत्ति होती है या उनमें अत्यन्त निष्क्रियता आ जाती है। उनमें अपने-अपने साथियों के प्रति बैर-विरोध भी जागृत हो जाता है। शिक्षक की अनुपस्थिति में वे कोई भी रचनात्मक कार्य नहीं कर पाते। कुछ कक्षाएँ ऐसी भी होती हैं जहाँ शिक्षक कार्य के बारे में कोई संकेत नहीं देता पर इस सम्बन्ध में बच्चा कोई सुझाव देता है तो स्वीकार कर लेता है। ऐसी कक्षा में वातावरण नीरस हो जाता है तथा व्यवस्था और उत्पादकता का अभाव बना रहता है। बालक परस्पर बातें करते हैं और उनमें द्वेष-भाव उत्पन्न होता है।
- थाम्पसन ने भी कक्षा के वातावरण और बाल विकास पर उसके प्रभाव के अध्ययन हेतु कुछ शिशु-शालाओं का अध्ययन किया। उसने शिशु-शालाओं के बालकों के दो समूह किए जो बुद्धिलब्धि में, सामाजिक, आर्थिक में तथा शिक्षकों के द्वारा किए गए व्यक्तित्व सम्बन्धी मूल्यांकन में समान थे।
- पहले समूह के बच्चों के साथ शिक्षकों का व्यवहार स्नेहपूर्ण था तथा वे बड़े धैर्य से उनकी समस्याओं को समझने वाले थे, किन्तु वे दूर रहते थे और बालकों को इस बात की पूरी स्वतंत्रता दे रखी थी कि वे अपनी क्रियाओं की स्वयं ही योजना बनायें। यह उदारवादी स्वतंत्र वातावरण था।
- दूसरे समूह के बालकों के शिक्षकों का भी व्यवहार स्नेहपूर्ण था, किन्तु वे बीच-बीच में निर्देश भी देते थे। यह वातावरण उदारवादी एवं प्राधिकारवादी का मिश्रित रूप था। इस वातावरण में शिक्षित बालकों का दृष्टिकोण रचनात्मक अधिक और विध्वंसात्मक कम था। इनमें सामाजिकता की भावना एक-दूसरे के प्रति अधिक थी। वे नेतृत्व सम्बन्धी उत्तरदायित्व वहन करने के लिए सक्षम थे। इस प्रकार इस अध्ययन से स्पष्ट है कि कक्षा का वातावरण उदारवादी और प्राधिकारवादी दोनों का मिश्रित रूप होना चाहिए, क्योंकि ऐसा वातावरण बालक-विकास के लिए काफी उपयुक्त रहता है.