बालक के विकास में विद्यालय की भूमिका | Role of School in Child Development

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बालक के विकास में विद्यालय की भूमिका

बालक के विकास में विद्यालय की भूमिका | Role of School in Child Development


 

बालक के विकास में विद्यालय की भूमिका 

  • विद्यालय-शिशु के लिए विद्यालय जाने का अर्थ विकास करना है। घर में रहने वाला बच्चा जब अपने साथियों को विद्यालय जाते हुए देखता है तो वह समय की प्रतीक्षा करता है कि वह कब विद्यालय जायेगा? बच्चे विद्यालय के प्रति निष्ठावान होते हैं और वहाँ जाकर अनेक सामाजिक दायित्वों को सीखते हैं। विद्यालय वाल-विकास के सक्रिय साधन हैं। ये औपचारिक साधन के रूप में बालक के बहुमुखी विकास का दायित्व निर्वाह करते हैं। जॉन डीबी के अनुसार, "विद्यालय एक ऐसा विशिष्ट वातावरण है, जहाँ जीवन के गुणों और विशिष्ट क्रियाओं और व्यवसायों की शिक्षा बालक के निहित विकास के लिए दी जाती है।'

 

  • इसलिए वह अपने से बड़ों से कुछ न कुछ प्रश्न करता रहता है। इस अवस्था में स्मरण शक्ति भी पर्याप्त विकसित हो जाती है। बच्चे रचनात्मक कार्यों में रुचि लेने लगते हैं। कश्यप पुरी के अनुसार- "प्रायः 6 से 12 वर्ष के मध्य बालक पूर्व अनुभवों को याद करने योग्य हो जाते हैं। वे अपने हाथ से कार्य करने में अधिक रुचि दिखाते हैं, सामूहिक खेलों में भाग लेते हैं तथा टोली बनाकर खेलना पसन्द करते हैं।

 

  • इस आयु वर्ग में बच्चों की भाषा संगठित हो जाती है। विद्यालय भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। वे उनके शब्द कोष में अर्थपूर्ण शब्दों की वृद्धि करते हैं तथा उनके विचारों को व्यक्त करने के लिए छोटी-छोटी वाक्य रचनाएँ करने में सहायता देते हैं। यहीं से मौखिक भाषा के साथ लिखित भाषा सीखने का क्रम चलता है। स्तर के अनुसार उनकी भाषा का विकास होता है और बालकों की मौखिक एवं लिखित दोनों ही भाषाओं का पर्याप्त विकास हो जाता है। उनमें उच्चारण-शुद्धता और लेखन-शुद्धता भी आ जाती है।

 

  • प्राथमिक शिक्षा स्तर पर बालक का बाल्यकाल होता है। विद्यालय बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक एवं चारित्रिक विकास तथा सर्वांगीण विकास हेतु शिक्षण, खेल-कूद एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करता है। विद्यालय निर्धारित विषय एवं पाठ्यक्रम, या शिक्षण-पद्धति, खेलकूद कार्यक्रम साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर बाल-विकास का दायित्व निर्वाह करता है। वह उनकी जिज्ञासाओं की पूर्ति हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहता है।

 

बालक की शिक्षा में विद्यालय की भूमिका-

जॉन डीवी के अनुसार, 'विद्यालय एक ऐसा विशिष्ट वातावरण है, जहाँ जीवन के गुणों और विशिष्ट क्रियाओं एवं व्यवसायों की शिक्षा बालक के निहित विकास के लिए दी जाती है।' वास्तव में विद्यालय एक विशिष्ट वातावरण का नाम है, जहाँ पर सम्पन्न होने वाली सभी क्रियाएँ बालक के विकास के लिए उत्तरदायी हैं। अतः यह माना जाता है कि विद्यालय बालक के विकास का केन्द्र है तथा बालक को सामाजिकता के योग्य बनाने वाली महत्वपूर्ण संस्था भी।

 

सामान्यतया विद्यालय बालक के विकास में निम्नलिखित योगदान करते हैं-

 

1. विद्यालय बालकों को स्वास्थ्यप्रद और शिक्षाप्रद वातावरण प्रदान करते हैं। इस प्रकार के वातावरण में उनका शारीरिक और मानसिक विकास उचित ढंग से होता है। विद्यालय सक्रिय वातावरण के निर्माता हैं। कार्य और अनुभव के द्वारा बालक विद्यालय में सक्रिय बना रहता है। विद्यालय विकासोन्मुख वातावरण प्रदान कर वे सभी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है, जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो। 

2. विद्यालय बालकों को विभिन्न सामाजिक क्रिया-कलापों में भाग लेने के समुचित अवसर प्रदान करता है. जिसके फलस्वरूप उसमें सामाजिकता की भावना का विकास होता है। 

3. विद्यालय घर के वातावरण के अभावों की पूर्ति करता है। जिन बालकों के घर का वातावरण शैक्षिक नहीं होता, वे भी विद्यालय में इस अभाव की पूर्ति कर लेते हैं। 

4. विद्यालय बालकों को साध्य प्राप्त करने के लिए समुचित साधनों का ज्ञान देकर महत्वपूर्ण योगदान देता है। 

5. विद्यालय छात्रों में निर्णय, तर्क, चिन्तन, मनन तथा क्रियाशीलता उत्पन्न करता है। 

6. बालक वाद-विवाद, कविता-पाठ, प्रतियोगिता तथा अन्य साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेकर अपना साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विकास करता है। विद्यालयों में ही बालकों की रचनातमक शक्ति और बहुआयामो प्रतिभाओं का विकास होता है। 

7. विद्यालय सामूहिक खेल-कूद व्यायाम का आयोजन करके बालकों के शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है। 

8. वह बालकों में सहयोग, सहानुभूति, सहकारिता और नेतृत्व की भावना का विकास करने में अहम् भूमिका का निर्वाह करता है।  

9. विद्यालय बालकों में नागरिक गुणों का विकास करने तथा लोकतंत्र का पाठ सिखाने का महत्वपूर्ण योगदानं देते हैं। 

10. छात्रों में चरित्र निर्माण करने तथा आदर्श का चयन करने में सहायता देने में भी विद्यालय का योगदान रहता है। 

11. विद्यालय बालकों में भावात्मक एवं राष्ट्रीय एकता की भावना उत्पन्न करने तथा राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने में भी योगदान देते हैं। 

12. बुनियादी विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प का प्रशिक्षण देकर बालकों में व्यावसायिक क्षमताओं का विकास करने में भी विद्यालयों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

 

संक्षेप में विद्यालय ऐसी संस्थाएँ हैं, जो बालकों को मन, मस्तिष्क, शरीर, स्वास्थ्य, स्वच्छता, सामुदायिक भावना, देश-प्रेम, चरित्र, मानवीय गुण और सामाजिक मूल्यों का प्रशिक्षण देकर एक आदर्श नागरिक के रूप में तैयार करने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है।

 

प्राथमिक (बाल्यावस्था) विद्यालय के शिक्षाकाल में ध्यान देने योग्य बातें-

प्राथमिक विद्यालय स्तर पर बालक शाला जाने लगता है। अतः इस समय उसकी शिक्षा व्यवस्था अत्यन्त सोच-विचार कर करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में सामान्यतया निम्नलिखित बातें ध्यान में रखना चाहिए-

 

(1) इस अवस्था के बालकों में जिज्ञासा प्रवृत्ति प्रबल होती है, अतः उसे उचित ढंग से सन्तुष्ट किया जाना चाहिए। 

(2) बालक द्वारा पूछे गए प्रश्नों का समुचित उत्तर देना चाहिए।

'(3) सामाजिकता के विकास के लिए बालकों को सामूहिक खेलों में भाग लेने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए तथा विद्यालय में स्काऊटिंग व गर्ल-गाईड जैसे संगठनों की व्यवस्था की जाना चाहिए। 

(4) शिक्षा का पाठ्यक्रम बालकों की रुचियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। 

(5) शिक्षकों को नियमित रूप से पढ़ाना चाहिए। 

(6) बालकों के लिए हस्तशिल्पों तथा कलात्मक कार्यों का आयोजन किया जाना चाहिए। 

(7) बालक को रचनात्मक प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करना चाहिए। 

(8) ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए जो बालक के वैयक्तिक और सामूहिक गुणों का विकास कर सकें। 

(9) विद्यालयों को बालकों में तर्क, चिन्तन, मनन और क्रियाशीलता उत्पन्न करना चाहिए। 

(10) विद्यालय को बालकों में संकीर्णता के भाव समाप्त कर उदार दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए। 

(11) विद्यालय को समग्र बाल विकास हेतु विकासोन्मुख वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए।

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