भक्ति का अर्थ एवं स्वरूप | Bhakti Ka arth Evam Swaroop

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भक्ति का अर्थ एवं स्वरूप

भक्ति का अर्थ एवं स्वरूप | Bhakti Ka arth Evam Swaroop

भक्ति का अर्थ एवं स्वरूप 

भक्ति पूर्व-मध्यकालीन साहित्य का मूलभूत तत्व है। आइए हम भक्ति को समझने की कोशिश करते हैं। ईश्वर के प्रति श्रद्धाप्रेमसमर्पण की भावना ही भक्ति हैं। 'भक्तिशब्द की निष्पत्ति भज्’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है 'भजना। अर्थात् ईश्वर का चिंतन-मननउसके गुणों का श्रवण-कीर्तनउसकी सेवा करना। कामक्रोधमदमोहलोभ आदि सांसारिक प्रवृत्तियों का शमन कर ईश्वर के प्रेम में डूबे रहना। भारतीय चिंतन परम्परा में ईश्वर-प्राप्तिमोक्ष के तीन मार्ग बतलाए गए हैं-कर्मज्ञान और भक्ति। कर्म का सम्बन्ध व्रततपजपतीर्थ यज्ञादि कर्मकाण्डों से जिनका सम्यक् व्यवहार कर मनुष्य ईश्वर के सानिध्य - साक्षात्कार का लाभ प्राप्त करता है। ज्ञान का सम्बन्ध ईश्वर विषयक तत्व- चिंतन से हैइसमें सम्यक ध्यान-समाधि द्वारा व्यक्ति ब्रह्मानंद को प्राप्त करता है। भक्ति विशुद्ध भाव मूलक हैइसके लिए न तो कर्मकाण्ड अपेक्षित है और न ही तत्व-चिंतन। भक्ति मार्गमें ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा-समर्पण द्वारा ही मनुष्य मुक्तिपद को प्राप्त करता है। नारद भक्ति सूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूपाएवं 'अमृतस्वरूपाकहा गया है 'सात्वस्मिन परम प्रेमरूपाअमृतस्वरूप च।तात्पर्य यह है कि ईश्वर के प्रति परम प्रेम जो अमृत के समान फलदायक हैंवही भक्ति है। इस भक्ति को प्राप्त करने पर व्यक्ति सांसारिक इच्छाओं और बंधनों से ऊपर उठ जाता हैवह आनंदमग्नआत्माराम हो जाता नारद मुक्ति सूत्र में कहा गया है- उस परम प्रेमरूपा और अमृतस्वरूपा भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सिद्ध हो जाता हैअमर हो जाता है और भी तृप्त जाता है। उस भक्ति को प्राप्त करने के बाद मनुष्य को न किसी वस्तु इच्छा रहती है न वह शोक करता हैन वह द्वेष करता हैन किसी वस्तु में ही आसक्त होता है। उस प्रेमरूपा भक्ति को प्राप्त करे वह प्रेम में उन्मत्त हो जाता है।” “शाण्डिल्य भक्ति-सूत्रमें ईश्वर में परम अनुरक्तिको भक्ति कहा गया है- सा परानुक्तिरीश्वरे। अर्थात् ईश्वर के प्रति अत्यंत गहरी निष्ठा - प्रेम की अनुभूति - अभिव्यक्ति ही भक्ति है। ईश्वर प्राप्ति के जो कर्मज्ञानभक्ति तीन मार्ग बतलाए गए हैइनमें उत्कट राग की उपस्थिति भक्ति मार्ग में ही होती है। ज्ञान एवं कर्म मार्ग में प्रेम को केन्द्रीय महत्व नहीं दिया गया है। भक्ति पर व्यावहारिक लौकिक दृष्टि से विचार करते हुए आचार्य शुक्ल ने श्रद्धा और प्रेम के योग को भक्ति कहा है। भक्ति की व्याख्या करते हुए वह लिखते हैं- जब पूजा भाव की बुद्धि के साथ श्रद्धा-भाजन के सामीप्य लाभ की प्रवृत्ति होउसकी सत्ता के कई रूपों के साक्षात्कार की वासना होतब हृदय में भक्ति का प्रादुर्भाव समझना चाहिए। जब श्रद्धेय के दर्शनश्रवणकीर्तनध्यान आदि में आनंद का अनुभव होने लगे जब उससे सम्बन्ध रखने वाले श्रद्धा के विषयों के अतिरिक्त बातों की ओर भी मन आकर्षित होने लगेतब भक्ति रस का संचार समझना चाहिए। ” (चिंतामणिभाग-1, पृ0 26) स्पष्ट है कि शुक्लजी के मत में भक्ति के लिए ईश्वर के प्रति सिर्फ प्रेम भाव ही नहीं पूज्य भाव भी होना चाहिएभक्त ईश्वर की महिमा - महत्व से अभिभूत रहता हैवह उन्हें अपना सर्वस्व अर्पित करउन्हीं को अपना सर्वस्व मान लेता है।

 

भक्ति को ईश्वर प्राप्ति का सबसे सुगम माध्यम माना गया है। सहजसाध्य होने के कारण ही आचार्यों ने भक्ति को प्रमुखता दी है- 'अन्य स्मात् सौलभ्यं भक्तौ शास्त्रों में कहा गया है कलियुग में केवल ईश्वर के नामस्मरण द्वारा ही जीव का उद्धार हो जाता है वह परम पद को प्राप्त कर लेता है। नारद भक्ति सूत्र में भक्ति को निष्काम कहा गया हैक्योंकि वह निरोध स्वरूप है। निरोध का अर्थ सांसारिक विषयों-प्रपंचों से विमुख होकर चित्त को पूर्णतया ईश्वरोन्मुख कर देना। भक्त मनवचनकर्म से अपना सर्वस्व अर्पित कर प्रभु को भजता है। उसके लिए शास्त्रीय विधि विधानलौकिक कर्मों का कोई महत्व नहीं हैभक्ति ज्ञानमूलककर्ममूलक न होकर भावमूलक है। नारद भक्ति-सूत्र में कहा गया है- 'वह प्रेमरूपा भक्तिकर्मज्ञान और योग से भी श्रेष्ठकर हैक्योंकि वह फलरूपा है अर्थात् उसका कोई अन्य फल नहीं हैवह स्वयं ही फल है। ?" भक्ति ही भक्त का चरम लक्ष्य हैवह साधन भी है और साध्य भी । इस भक्ति की प्राप्ति प्रभुकृपा से होती है। भक्ति के लिए प्रभु का गुण श्रवण और कीर्तन-गान अनिवार्य तत्व है। नारद के अनुसार उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण समपर्ण और विस्मरण में परम व्यापकता होनी चाहिए 'नारदस्तु तदर्पिताऽखिला चारिता तद्विस्मरणे परम व्याकुलतेति।भक्ति के स्वरूप के संदर्भ में नारद ने कहा है- 'प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है- गूंगे के स्वाद की तरह । .... गुणरहित हैकामनारहित हैप्रतिक्षण बढ़ता रहता हैविच्छेद रहित हैसूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और अनुभवरूप है। उस प्रेम को प्राप्त करके प्रेमी उस प्रेम को ही देखता हैप्रेम को ही सुनता है, .. वह प्रेम प्रेम का ही वर्णन करता है और प्रेम का ही चिंतन करता है अर्थात् अपनी मन-बुद्धि इंद्रियों से केवल प्रेम का ही अनुभव करता हुआ प्रेममय हो जाता है।आचार्य शुक्ल के अनुसार भक्ति सांसारिक व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है और ईश्वर के प्रति भी । ईश्वरीय भक्ति की विवेचना करते हुए उन्होंने लिखा है- 'भक्ति का स्थान मानव हृदय है- वहीं श्रद्धा और प्रेम के संयोग से उसका प्रादुर्भाव होता है। अतः मनुष्य की श्रद्धा के जो विषय ऊपर कहे जा चुके हैंउन्हीं को परमात्मा में अत्यंत विशद रूप में देखकर उसका मन खींचता है और वह उस विशद-रूप विशिष्ट का सीमाप्य चाहता हैउसके हृदय में जो सौन्दर्य का भाव हैजो शील का भाव हैजो उदारता का भाव हैजो शक्ति का भाव है उसे वह अत्यंत पूर्ण रूप में परमात्मा में देखता है और ऐसे पूर्ण पुरुष की भावना से उसका हृदय गदगद हो जाता है और उसका धर्मपथ आनंद से जगमगा उठता है। धर्म-क्षेत्र या व्यवहार पथ में वह अपने मतलब भर ही ईश्वरता से प्रयोजन रखता है। रामकृष्ण आदि अवतारों में परमात्मा की विशेष कला देख एक हिंदू की सारी शुभ और आनंदमयी वृत्तियाँ उनकी ओर दौड़ पड़ती हैउसके प्रेमश्रद्धा आदि को बड़ा भारी अवलंब मिल जाता है। उसके सारे जीवन में एक अपूर्व माधुर्य और बल का संचार हो जाता है। उसके सामीप्य का आनंद लेने के लिए कभी वह उनके आलौकिक रूप-सौन्दर्य की भावना करता हैकभी उनकी बाल लीला के चिंतन से विनोद प्राप्त करता हैकभी-धर्म-वंदना करता है-यहाँ तक कि जब जी में आता हैप्रेम से भरा उलाहना भी देता है। यह हृदय द्वारा अर्थात् आनंद अनुभव करते हुए धर्म में प्रवृत्त होने हो सुगम मार्ग है।' (चिंतामणि भाग-1, पृष्ठ 31 ) भक्ति के इस स्वरूप प्रकृति के कारण ही शुक्ल जी ने भक्ति को धर्म की रसात्मक" अनुभूति" कहा है। दरअसल भक्ति ईश्वर के प्रति समर्पण की एक रागयुक्त प्रवृत्तिअवस्था है। भागवत पुराण में भक्ति के नौ साधनों-श्रवणकीर्तनस्मरणपादसेवनअर्चनावंदनादास्यसंख्य तथा आत्मनिवेदन शरणागति का उल्लेख मिलता है। इसे ही नवधा भक्ति कहा गया है। दरअसल ये प्रभु की भक्ति की विभिन्न प्रक्रियाएं हैं। परम्परा में भक्ति के दो रूप बतलाये गए है- गौणी और परा । गौणी भक्ति के अंतर्गत देवपूजाभजन-सेवा आदि प्रवृत्तियाँ आती है। पराभक्ति को सर्वश्रेष्ठ और सिद्धावस्था का सूचक माना गया है। गौणी भक्ति को साधकर ही भक्त पराभक्ति की अवस्था में पहुँचता है। गौणी भक्ति के भी दो भेद हैं- वैधी और रागानुगा । वैधी भक्ति शास्त्रानुमोदित विधि विधान पर आधारित है औरा रागानुगा भक्ति का आधार प्रेम अथवा राग है। रामागनुगा भक्ति के दो रूप है संबंध रूपा और कामरूपा। विभिन्न सांसारिक संबंधों- भावों का ईश्वरोन्मुखीकरण ही सम्बधरूपा भक्ति है। भक्त ईश्वर से विभिन्न संबंध-भाव निवेदित स्थापित कर भक्ति करता है इसके अन्तर्गत पाँच भावों को स्वीकारा गया है-शांतदास्यसख्यवात्सल्य और कांत या माधुर्य भाव। कामरूपा भक्ति कांत या माधुर्य भाव की भक्ति है इसके अंतर्गत भक्त प्रणय या दांपत्य भावना से प्रभु की भक्ति करता है।

 

अब आप भक्ति के तात्विक स्वरूप से परिचित हो चुके है अब हम भक्ति के उदय की पृष्ठभूमि को समझने का प्रयास करेंगे।

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