सिंहलद्वीप - वर्णन खण्डः सप्रसंग व्याख्या |पद्मावत का द्वितीय खण्ड व्याख्या - Part 01 | Sihaldveep Explanation in Hindi

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सिंहलद्वीप - वर्णन खण्डः सप्रसंग व्याख्या |पद्मावत का द्वितीय खण्ड व्याख्या - Part 01

सिंहलद्वीप - वर्णन खण्डः सप्रसंग व्याख्या |पद्मावत का द्वितीय खण्ड व्याख्या - Part 01 | Sihaldveep Explanation in Hindi



सिंहलद्वीप - वर्णन खण्ड : व्याख्या भाग -  प्रस्तावना (Introduction)

 

यह पद्मावत का द्वितीय खण्ड है। इस खण्ड में सिंहलद्वीप (पद्मावती की जन्मस्थली) को कवि ने सातों द्वीपों में सर्वश्रेष्ठ चित्रित करते हुए वहाँ की नारियाँ पद्मिनी नारी दिखाई देती हैं। सिंहलद्वीप का शासक गन्धर्वसेन उल्लिखित है। जिसका वैभव स्वर्ग तुल्य है । वहाँ के बागों में आम, कटहल, आदि अनेक प्रकार के वृक्ष लगाए गए हैं। यहाँ सिंहलद्वीप - वर्णन खण्ड की सप्रसंग व्याख्या प्रस्तुत है।

 

सिंहलद्वीप - वर्णन खण्डः सप्रसंग व्याख्या


सिंघल दीप कथा अब गावौं सप्रसंग  शब्दार्थ व्याख्या


सिंघल दीप कथा अब गावौं। औ सो पदुमिनी बरनि सुनावौँ । 1 । 

बरन क दरपन भांति बिसेखा। जेहि जस रूप सो तैसेइ देखा । 2 । 

धनि सो दीप जहं दीपक नारी औ सो पदुमिनी दइअ अवतारी । 3 । 

सात दीप बरनहिं सब लोगू एकौ दीप न ओहि सरि जोगू 4 । 

दिया दीप नहिं तस उजियारा सरां दीप सरि होइ ना पारा। 5 ।

 जंबूदीप कहौं तस नाहीं । पूज न लंक दीप परिछाहीं 6 ।

दीप कुसस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानुस हरा । 7 

सब संसार परथमैं आए सातौं दीप । 

एकौ दीप न उत्तिम सिंघल दीप समीप ॥ 2/1

 

शब्दार्थ - 

बरनि = वर्णन करके ।

बरन क =वर्णन की। 

विसेखा = विशेषता 

जस = जैसा ।

दइअ = दिया है। 

अवतारी=ईश्वर।

सरि=समता 

जोगू=योग्य 

दिया दीप =  काठियावाड़ का समीपवर्ती दीउ नाम का द्वीप 

सरां दीप = सरन नामक द्वीप (सुमात्रा)।

जंबू दीप = यह सम्भवतः एशिया महाद्वीप का द्योतक है क्योंकि भारतवर्ष इसी द्वीप का एक खंड माना गया है (इसका उल्लेख पुराण आदि ग्रंथों में मिलता है) 

लंक-दीप यह वर्तमान लंका का वाचक माना जा सकता है। 

आरन=जंगल

सिंघल दीप - सिंघल का सामान्यताः अर्थ लंका ग्रहण किया जाता है किन्तु यह जायसी द्वारा कल्पित द्वीप है। क्योंकि लंका का तो जायसी ने छठी पंक्ति में पृथक रूप में उल्लेख किया है। 

दीप महुस्थल =  यह भी जायसी द्वारा कल्पित द्वीप है। 

मानुस हरा = मानवों से रहित ।

 

संदर्भ - 

इन पंक्तियों में जायसी ने पद्मावती के जन्म-स्थल सिंहलद्वीप को सुन्दरता में अप्रतिम चित्रित किया है।

 

व्याख्या - 

अब मैं सिंहलद्वीप की कथा का वर्णन करता हूं और पद्मिनी का वर्णन सुनाता हूं । काव्य-वर्णन की विशेषता दर्पण की भांति होती है, उसमें जिसका जैसा रूप होता है, वह उसमें वैसा रूप देख सकता है। अर्थात् प्रत्येक पाठक अपनी भावनाओं के अनुरूप काव्य-वर्णन का भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण कर सकता है। वह सिंहलद्वीप धन्य है जहां सौन्दर्य का दीपक की भांति प्रकाश विकीर्ण करने वाली नारियां हैं और ईश्वर ने उन्हें पद्मिनी जाति का बनाया है अथवा जहां ईश्वर ने पहिनी (पद्मावती) को जन्म दिया है। लोग सात द्वीपों का वर्णन किया करते हैं। किन्तु उसके समान एक भी द्वीप नहीं है। दिया नामक द्वीप में उसके समान प्रकाश नहीं है। सरन द्वीप भी उसकी समता करने में असमर्थ है। यदि उसके समान जम्बू द्वीप को बताऊं तो कहना पड़ता है कि वह भी उसके तुल्य नहीं है। लंकाद्वीप उसकी परछाई की भी समता नहीं कर सकता। कुशा या कुशास्थल नामक द्वीप जंगल में है जबकि मरुस्थल नामक द्वीप जनशून्य होने के कारण उसकी बराबरी नहीं कर सकता ।

 

इस संसार में सर्वप्रथम इन्हीं सातों द्वीपों को माना जाता था, या इन्हीं द्वीपों की रचना की गई थी, किन्तु इनमें से एक भी द्वीप सिंहलद्वीप के समान उत्तम नहीं है । सिंहलद्वीप अनुपमेय है।

 

साहित्यिक सौन्दर्य - 

1. इन पंक्तियों में जायसी ने जिन सात द्वीपों का उल्लेख किया है उन्हें कुछ विद्वानों ने द्वीपों के स्थान पर पद्मिनी जाति की नारी के सात अंगों की सुन्दरता का प्रतीक स्वीकार किया है, जो इस दृष्टि से और भी उचित प्रतीत होता है। स्वयं कवि ने ही यह संकेत कर दिया है।

 

बरन का दरपन भांति बिसेखा। जेहि जस रूप सो तैसेइ देखा ।"

 

इन द्वीपों के प्रतीकार्य इस प्रकार हैं-दिया द्वीप नेत्र सरन दीप = कान जम्बू द्वीप जामुन जैसे काले केश। लंकाद्वीप = कटि प्रदेश कुरु स्थल द्वीप ( पाठान्तर कुंभस्थल द्वीप) = उरोज । कुश द्वीप = गुह्यांग का बालों से युक्त भाग । महुस्थल = गुह्यांग। कवि का अभिव्यंग्यार्थ यह प्रतीत होता है कि सिंहलद्वीप अर्थात् ब्रह्मरंध्र के महत्व की बराबरी नारी के सात द्वीप रूपी सात अंग नहीं कर सकते । 

साहित्यिक सौन्दर्य = उपमा, प्रतीप अलंकार ।

 

गंध्रपसेन सुगंध नरेसू सप्रसंग  शब्दार्थ व्याख्या

गंध्रपसेन सुगंध नरेसू । सो राजा यह ताकर देसू  1 

लंका सुना जो रावन राजू । तेहू चाहि बड़ ताकर साजू 2 | 

छप्पन कोटि कटक दर साजा । सबै छत्रपति ओरंगन्ह राजा । 3

सोरह सहस घोर घोरसारा। सावंकरन बालका तुखारा। 4 । 

सात सहस हस्ती सिंघली । जिमि कबिलास एरापति बली । 5 । 

असुपती क सिरमौर कहावा। गजपती क आकुंस गज नावा। 6 

नरपति क कहाव नरिंदू । भुअपती क जग दोसर इंदू |7 

अइस चक्कवै राजा चहूं खंड भै होइ । 

सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न कोई ॥ 2 / 2 |

 

शब्दार्थ-

धगंध्रवसेन=गंधर्वसेन । 

सुगंध = यशस्वी ।

ताकर =उसका 

चाहि = अधिक । 

कटक = सेना 

दर=दल

औरंगन्ह= सेवा करना । 

घोरसारा=अश्वशाला 

बालका = बलवान 

सावंकरन = श्यामकर्ण अर्थात् काले कानों वाले घोड़ों की जाति विशेष । 

तुखारा - तुषार देश के घोड़े । 

कबिलास = स्वर्ग । 

एरापति = इन्द्र का हाथी । 

असुपती - अश्वपति । 

दोसर = दूसरा 

इंदू = इन्द्र । 

चक्कवै= चक्रवर्ती राजा 

भै = भय। 

सरबरि-बराबरी ।

 

संदर्भ - सिंहलद्वीप के नरेश गंधर्वसेन के बल-वैभव का वर्णन किया गया है।

 

व्याख्या -

उस सिंहलद्वीप का नरेश गंधर्वसेन बड़ा ही यशस्वी राजा है। वह यहां का नरेश है और यह उसका देश है। लंका में जो रावण का राज्य सुना जाता है, गंधर्वसेन का राज्य उससे भी बढ़कर था। उसके यहां छप्पन करोड़ सेना थी और वह सब सिंहासनस्थ नरेशों का भी राजा अर्थात् चक्रवर्ती राजा था। उसकी अश्वशाला में सोलह हजार बलवान घोड़े थे, जो या तो श्यामकर्ण जाति के थे अथवा तुषार देश के थे। (आचार्य शुक्ल ने इस पंक्ति का पाठान्तर 'स्यामकरण अरु बांक तुखारा' ग्रहण किया है), उसके सात हजार सिंहली हाथी थे, जो स्वर्ग के हाथी ऐरावत के समान बलशाली थे। वह अश्वपति राजाओं में सर्वश्रेष्ठ था और ऐसे राजाओं को जो अपने यहां बहुत से हाथी रखते थे अपने समक्ष ऐसे झुकने को विवश कर देता था जैसा- अंकुश के सामने हाथी झुक जाता है। वह नरपतियों में नरेन्द्र कहलाता था और भूपतियों के लिए संसार में दूसरे इन्द्र के समान था ।

 

वह ऐसा चक्रवर्ती नरेश था कि उसका आतंक चारों खण्डों में परिव्याप्त रहता था। देश-देशान्तर के सभी नरेश उसके सामने आकर सिर झुकाते थे और कोई भी उसकी समता नहीं कर सकता था। 


साहित्यिक सौन्दर्य 

1. कविलासकैलाश, शिवलोक जायसी शिवलोक में ही इन्द्र को भी मानते हैं, जैसे 

राजा कहै गरव के हौ इन्द्र ? सिवलोक । " 

2. आईन-ए-अकबरी में राजाओं के चार भेद माने गए हैं (क) अश्वपति, (ख) गजपति, (ग) नरपति, (घ) गढ़पति । 

3. असम, व्यतिरेक, उपमा अलंकार ।

 

जबहि दीप निअरावा जाई जनु सप्रसंग  शब्दार्थ व्याख्या


जबहि दीप निअरावा जाई जनु कवितास निअर भा आई । 1 । 

घन अंबराउं लाग चहुं पासा । उठै पुहुमि हुति लाग अकासा। 2

 तरिवर सबै मलै गिरि लाए भै जंग छांह रैनि होइ छाए 3 

मलै समीर सोहाई छाहां। जेठ जाड़ लागै तेहि माहां। 4। 

ओही छांह रैनि होई आवे हरिअर सबै अकास दिखावे।5। 

पथिक जीं पहुंचे सहि धामू दुख विसरे सुख होई बिसरामू |6|

जिन्ह वह पाई छांह अनूपा। बहुरि न आई सही यह धूपा। 7 

अस अंबराउं सघन घन बरनि न पारौं अंत। 

फूलै फरै छहूं रितु जानहु सदा बंसत ।। 2 / 3

 

शब्दार्थ-

निअरावा= समीप आया। 

कबिलास= कैलास, स्वर्ग। निअर=समीप । 

अंबराउं = आम का बाग । 

पुहुमि हुति = पृथ्वी से लेकर 

लाग-लगाए गए हैं। 

ओही = उस 

हरिअर = हरा 

सहि = सहकारा 

घामू= धूप 

पथिक = पथिक । 

पारौं = पाना।

बरनि न पारौं अंत = वर्णन करके अन्त नहीं मिलता।

 

संदर्भ -

 यहां कवि जायसी सिंहल के आम के बागों का वर्णन करते हुए पारमार्थिक विश्राम पाने का संकेत कर रहे हैं।

 

व्याख्या- 

जब द्वीप के समीप आए तो ऐसा लगता है कि कैलाश समीप आ गया है। चारों ओर घनी अमराइयां लगी हैं वे इतनी विशाल हैं कि ऐसा लगता है मानो पृथ्वी से उठकर आकाश को स्पर्श करना चाहती हों। वहां के सब वृक्ष ऐसे सुरभित हैं मानो मलय गिरि से लाए गए हों। उनकी छाया इतनी सघन है कि संसार में उन्हीं के कारण रात्रि होती है। उस छाया में मलय वायु सुहावनी लगती है। वहां जेठ के महीने में भी जाड़ा रहता है। उस छाया में रात्रि सी हो आती है अर्थात् सघन छाया के कारण रात्रि जैसा अंधकार रहता है और वृक्षों की हरीतिमा के कारण आकाश भी हरा दिखलाई पड़ता है। वहां जो कोई भी मुसाफिर धूप सहकर पहुंचता है वह अपने ताप-जन्य दुःख को भूलकर आराम पा जाता है। जिसको एक बार वह छाया उपलब्ध हो जाती है, उसे फिर यहां आकर धूप नहीं सहन करनी पड़ती है।

 

वह आम का बाग इतना सघन है कि उसका वर्णन करके अन्त नहीं पाया जा सकता उसकी सघनता वर्णनातीत है। वह छहों ऋतुओं में पुष्पित फलित होता है और वहां सदैव वसन्त ऋतु ही छायी रहती है।

 

साहित्यिक सौन्दर्य -

1. डॉ. त्रिगुणायत के शब्दों में “यह सम्पूर्ण अवतरण पूर्ण रहस्यात्मक है। यहां पर उस रहस्यात्मक लोक का वर्णन किया गया है जिसकी साधना में रहस्यवादी लगे रहते हैं। यह रहस्यलोक भावमूलक भी है और योगपरक भी। भावना की दृष्टि से इसे हम कवि की रहस्यपूर्ण भावमयी कल्पना मानते हैं योगी की दृष्टि से यह सहस्त्रारि का वर्णन है जो निश्चय ही बड़ा रहस्यपूर्ण है।"

 

2. 'जिन्ह पाई .... यह धूपा' में स्पष्ट रहस्यात्मक संकेत किया गया है। 

3. उत्प्रेक्षा, संबंधातिशयोक्ति अलंकार । 


फरे आंब अति सघन सुहाए। शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या

फरे आंब अति सघन सुहाए। औ जस फरे अधिक सिर नाए । 1 ।

कटहर डार पींड सों पाके बड़हर सोउ अनूप अति ताके 2 |

खिरनी पाकि खांड असि मीठी जाबु जो पाकि भंवर असि डीठी। 3 । 

नरिअर फरे फरी खुरहुरी फुरी जानु इन्द्रासन पुरी 141 

पुनि महु चुबैसो अधिक मिठासू मधु जस मीठ पुहुप जस बासू 15। 

और खजहजा आव न नाऊं देखा सब रावन अंबराऊं । 6 । 

लाग सबै जस अंब्रित साखा । रहै लोभाइ सोइ जोइ चाखा । 7 । 

गुआ सुपारी जायफर सब फर फरे अपूरि । 

आस पास घनि इंबिली औ घन तार खजूरि ॥2/4

 

शब्दार्थ - 

जस = जैसे 

फरे = फले। 

कटहर =  कटहल 

पीड = तना 

बड़हर = बड़हल 

ताके = उसके । 

पाकि=पकी - हुई। 

असि = जैसी। 

जांबु = जामुन 

डीठी = दिखाई देती है। 

नरिअर = नारियल 

खुरहुरी =  एक बेल- विशेष। 

फुरी = फलो सें लदी ।

महु = महुआ। 

पुहुप = पुष्प 

खजहजा = खाने योग्य 

अंबित = अमृत

गुआ = एक तरह की सुपारी (यदि इसे गावा का अपभ्रष्ट रूप माना जाए तो अर्थ होगा अमरूद ) | ( शुक्ल जी ने इसका पाठान्तर लवंग स्वीकार किया है) । 

इंबिली = इमरी । 

तार =  ताड़ |

 

संदर्भ - सिंहलद्वीप के सघन बागों का वर्णन किया गया है।

 

व्याख्या 

वहां के आमों के अत्यधिक सघन बाग फलों से युक्त हैं और वे जितनी अधिक मात्रा में फले हुए हैं उनकी डालियाँ उतनी ही अधिक झुकी हुई हैं। कटहल के वृक्ष शाखाओं से लेकर तनों तक फलों से लदे हुए वहां के बड़हल के फल भी इस प्रकार अनोखे थे। खिरनियां पककर खांड जैसी मीठी हो गई थीं और जामुनों का रंग पकने पर भौंरो जैसा काला प्रतीत होता था। वहां के बागों में नारियल के वृक्ष और खुरहरी की बेलें भी फलों से युक्त थीं और वे बाग शोभा में इन्द्र-कानन जैसे प्रतीत होते थे। वहां के वृक्षों से जो पके महुए चू रहे थे वे अत्यधिक मीठे थे। उनमें से पुष्पों जैसी सुगन्ध आती थी जबकि वे शहद जैसे मीठे थे। वहां पर और भी इतनी प्रकार की मेवाएं थीं कि उनके नाम तक नहीं याद आते। इतने प्रकार के फल और मेवाएं तो रावण के ही बाग में देखी जा सकती हैं। शाखाओं पर लगे हुए फल और मेवाएं अमृत जैसी मीठी थीं। उन्हें जो भी चख लेता था, उनके प्रति वही मोहित हो उठता था। थे ।

 

वहां पर गुआ नामक सुपारी (अथवा पाठभेद के अनुसार लौंग और सुपारी) जायफल और नाना प्रकार के बहुत से फल लगे हुए थे। इन बागों के आस-पास इमली, ताड़ और खजूर के घने वृक्ष लगे हुए थे ।

 

साहित्यिक सौन्दर्य 1. 

1- प्रथम पंक्ति पर 'नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनो जना' का प्रभाव है। 

2. नाम परिगणनात्मक शैली में वृक्षों और फलों का वर्णन किया गया है। 

3. उपमा, उत्प्रेक्षा अलंकार ।

 

बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाषा करहिं शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाषा करहिं हुलास देखि कै साखा । 1 

भोर होत बासहि चुचुही बोलहिं पांडुक एकै तुही। 2 

सारी सुवा सो रहचह करहीं गिरहिं परेवा और करबरहीं।3

 पिउ पिउ लागे करैं पपीहा । तुही तुही कह गुडुरू खीहा । 4 

कुहू कुहू कोइल करि राखा । औ भिंगराज बोल बजु भाषा । 5 । 

दही दही कै महरि पुकारा। हारिल बिनवै आपनि हारा | 6 | 

कुहकहिं मोर सोहावन लागा होइ कोराहर बोलहिं कागा। 7 । 

जावंत पंखि कहे सब बैठे भरि अंबराउं आपनि आपनि भाषा लेहिं दइअ कर नांउ ॥ 2/5

 

शब्दार्थ - 

पंखि = पक्षी । 

हुलास = उल्लास। 

भोर = प्रभात । 

बासहिं = बोलते हैं। 

चुहचुही = फुल सुंघनी । 

पांडुक = फाख्ता 

एक तुरी = एक तू ही है 

सारो = मैना, सारिका 

सुवा-तोता। 

रहचक  करिहैं = चहचहाते हैं

परेवा = कबूतर 

करवरहीं = गुटरंगू की आवाज करते हैं। 

गुडुरू = एक पक्षी विशेष 

खीहा = खीझता। 

भिंगराज-भृंगराज 

जांवत = जितने। 

महरि= ग्वालनि 

कोराहर= कोलाहल 

 

व्याख्या 

सिंहलद्वीप के बागों में नाना प्रकार के पक्षी बसते और तरह-तरह की बोलियां बोलते हैं वहां के वृक्षों की हरी-भरी और फलों से लदी शाखाओं को देखकर वे उल्लास व्यक्त करते हैं। प्रभात होते ही चुहचुही बोलने लगती है। पांडुक पक्षी एकै तुही' की ध्वनि निकालता है। मैना और तोता चहचहाते हैं। लोटन कबूतर जमीन पर धूल में लोटते और गुटरगूं करते हैं। पपीहा पक्षी पिउ-पिउ की बोली बोलता है। जबकि गुडुरू पक्षी तुही तुही की वनि करता हुआ खीझता है। कोयल कुहू कुहू की बोली बोलती है जबकि भृंगराज पक्षी बहुत सी बोलियां बोलता है। महरी ( ग्वालिन) चिड़िया दही-दही की आवाज लगाती है और हारिल अपनी हालत का निवेदन करता है। कुहुकते हुए मोर बड़े ही मनभावा प्रतीत होते हैं। कौए बोलते हैं तो उनकी आनज में कोलाहल होने लगता है।

 

कवि कहता है कि मैंने उपर्युक्त जिन पक्षियों का नामोल्लेख किया है वे सब अमराई अर्थात् जहां बहुत से बाग लगे हुए हैं, में बैठे रहते हैं और अपनी-अपनी भाषा में उस ईश्वर के नाम का जाप करते रहते हैं ।


साहित्यिक सौन्दर्य 

1. पक्षियों की बोली को सुनकर अपनी-अपनी मनोवृत्ति के अनुसार श्रोता भिन्न-भिन्न - अर्थ लगा सकते हैं। चूंकि जायसी का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर है, अतः उन्हें पक्षी ईश्वर का नाम स्मरण करते प्रतीत होते हैं। 

2. पक्षियों के वर्णन में नाम-परिगणनात्मक शैली का आश्रय लिया गया है। 

3. अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश और उत्प्रेक्षा अलंकार ।


पैग पैग पर कुआं बावरी साजी बैठकशब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या

पैग पैग पर कुआं बावरी साजी बैठक औ पावरी । 1 । 

औरु कुड बहु ठावहिं ठांऊ। सब तीरथ और तिन्हके नाऊं | 2 | 

मढ़ मंडप चहुं पास संवारे जपा तपा सब आसन मारे। 3 । 

कोई रिखेस्वर कोइ सन्यासी । कोइ रामजन कोइ मसवासी । 4 । 

कोइ ब्रह्मचर्ज पंथ लागे कोइ दिगम्बर आहिं नांगे।5

कोइ सरसुती सिद्ध कोई जोगी । कोइ निरास पंथ बैठ बियोगी | 6 | 

कोइ महेसुर जंगम जती कोइ एक परी देवी सती। 7। 

सेवरा खेवरा बानपरस्ती सिथ साधक अवधूत । 

आसर मारि बैठ सब जारि आतमा भूत || 2/6 |

 

शब्दार्थ

पैग पैग = कदम-कदम। 

बैठक=  बैठने का स्थान, बेंचें। 

पांवरी = सीढ़ियाँ ।

 कुंड = तालाब । 

ठावहिं ठांऊ = स्थान-स्थान पर मढ़-मठा 

जपा तपा= जपी और तपस्वी । 

रिखेस्वर = महान ऋषि । 

मसवासी = एक माह तक व्रत रखने वाला । 

दिगम्बर = नंगा, जो वस्त्र न पहनते हों, जैन धर्म का एक संप्रदाय । 

सरसुती = सरस्वती साधु । 

आछहिं नांगे=नंगा रहता है। 

निरास = किसी से कुछ आशा न रखने वाले

महेसुर = शिवोपसक। 

जंगम = एक प्रकार का शैव साधु । 

जती= शक्ति का उपासक 

सेवरा= श्वेताम्बर धारी जैन साधु। 

खेवरा जैन साधु-विशेष 

बानपरस्ती = वानप्रस्थ । 


संदर्भ - 

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने सिंहलद्वीप में स्थल- स्थल पर बने हुए कुएं-तालाब और तपस्वियों का वर्णन किया है।

 

व्याख्या -

कदम-कदम पर कुएं और बावडियां बनी हुई हैं। उनमें अर्थात् कुओं के चारों ओर चौकियां और बावड़ियों में नीचे उतरने के लिए तथा कुंओं की जगत पर चढ़ने के लिए सीढ़यां बनी हुई हैं स्थान-स्थान पर बहुत से कुंड अर्थात् जलाशय बने हुए हैं। वे सब तीर्थ हैं और उनके नाम भी तीर्थों के आधार पर हैं। चारों ओर मठ और मण्डप शोभायमान हैं। वहां जप और तप करने वाले साधु आसन लगाकर बैठे हुए हैं। उनमें से कोई ऋषीश्वर है तो कोई संन्यासी है, कोई राम का भक्त है तो कोई दिशाओं को ही वस्त्र मानकर नंगा रहने वाला दिगम्बरी (जैन) साधु है । कोई सरस्वती-साधक है, तो कोई योगी है कोई वियोगी बनकर संसार की समस्त आशाओं को त्यागकर साधु हो गया हैं । कोई महेश्वर- पंथ का अनुयायी है तो कोई जंगम शैव है, कोई यती है तो कोई साधना द्वारा शक्ति की पूजा करता है।

 

श्वेताम्बर जैन साधु, क्षपणक जैन साधु, वानप्रस्थी, सिद्ध, साधक और नाथपंथी साधु (अवधूत) आदि नाना भांति के ईश्वर के उपासक आसन मारकर बैठे हुए हैं और साधना के कष्टों द्वारा अपने शरीर और मन को तपाकर शुद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

 

साहित्यिक सौन्दर्य - 

मसवासी साधु डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार “मथुरा की कंकाली टीले से प्राप्त एक जैन शिलालेख में तपस्विनी विजयश्री जैन श्राविका को एक मास का उपवास करने वाली कहा गया है गरुड़ पुराण में अध्याय 122 में मासोपवास वृत्त का विधान है इसके अनुसार यह व्रत आश्विन शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक रखा जाता है। महाभारत में भी मासोपवास करने वाले जोगी का उल्लेख है ।

 

जंगम 

 यह लिंगायत साधुओं का एक वर्ग है जो विविध घंटियों से युक्त एक लम्बा-सा चोलना पहनते हैं। और उन घंटियों को बजाते चलते हैं यह शिव के उपासक होते हैं।

 

निरास वियोगी - 

इसका संकेत उन सूफी संतो की ओर भी हो सकता है जो ईश्वार के वियोग में साधनालीन रहते हैं, और गोस्वामी तुलसीदास द्वारा निर्दिष्ट ऐसे साधुओं के विषय में भी हो सकता है, जिनके लिए उन्होंने कहा है- "नारि मुई गृह संपति नासी, मूंड मुंडाय भवे संन्यासी ।"

 

मानसरोदक देखिअ काहा भरा समुंद अस  शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या

मानसरोदक देखिअ काहा भरा समुंद अस अति अवगाहा । 1 । 

पानि मोति अस निरमर तासू अंब्रित बानि कपूर सुवासू | 2 

लंक दीप के सिला अनाई। बांधा सरवर घाट बनाई । 3

खंड खंड सीढ़ी भई गरेरी । उतरहिं चढ़हिं लोग चहुं फेरी । 4 । 

फूला कंवल रहा होइ राता । सहस सहस पंखुरिन्ह कर छाता । 5 । 

उलथहिं सीप मोति उतिराहीं । चुगाहिं हंस और केलि कराहीं । 6 । 

कनक पंखि पैरहिं अति लोने । जानहु चित्र संवारे सोने 7

 ऊपर पाल चहूं दिसि अंब्रित फर सब रूख । 

देखि रूप सरवर कर गई पिआस औ भूख ॥2 / 7

 

शब्दार्थ- 

मानसरोदक = मानसर नामक तालाब । 

अस = ऐसा। 

अवगाहा = गंभीर, अथाह । 

पानि = जल। 

निरमर=निर्मल । 

तासू = उसका 

अव्रित = अमृत 

वानि =  जैसा 

सुवासू = सुगंधित 

अनाई = अंगाई 

गरेरी = घुमावदार 

छाता = छत्ता । 

राता = लाल । 

उथलहिं=उलटते । 

उतिराहीं = तैरते । 

केलि= क्रीड़ा। 

लोने = सुन्दर । 

पाल - किनारा। 


संदर्भ 

सिंहलद्वीप के मानसर यश मानसरोदक नामक तालाब का वर्णन ।


व्याख्या 

मानसरोवर का तो देखना ही क्या? वह तो इतना विस्तृत और गहरा है मानों समुद्र भरा हुआ हो - उसका जल मोती की भांति स्वच्छ है। मिठास की दृष्टि से उसका जल अमृत तुल्य है जबकि उसमें कपूर की जैसी सुगन्धि आती रहती है। इसके सरोवर के घाटों में निर्माण के लिए लंकादीप से शिलाएं मंगाई गई हैं। उनके खंड-खंड में घुमावदार सीढ़ियाँ बनी हुई हैं जिन पर लोग चारों ओर उत्तरते-बढ़ते रहते हैं अर्थात् घुमावदार सीढ़ियाँ होने के कारण जब लोग उतरते-चढ़ते हैं तो चारों ओर को फिरते जाते हैं। मानसरोवर में लाल रंग के सहस्त्रदल कमल खिले हुए हैं। सीपियों के उलट जाने से तालाब में मोती तैरने लगते हैं, जिन्हें चुगते हुए हंस नाना प्रकार की क्रीड़ाएं करते हैं। सुनहरे पंखों वाले अत्यधिक सुन्दर अन्य पक्षी भी तालाब में तैरते रहते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानों वे सोने के द्वारा संभालकर बनाए गए हैं।

 

तालाब के ऊपर चारों ओर ऊंचे किनारे बने हुए हैं और उन पर अमृत तुल्य मीठे फलों से युक्त वृक्ष लगे हैं। तालाब की सुन्दरता देखकर देखने वालों की भूख और प्यास मिट जाती है। हुए

 

साहित्यिक सौन्दर्य - उपमा और उत्प्रेक्षा ।

 

पानि भरइ आवहिं परिहारीं पानि भरइ आवहिं परिहारीं 


पानि भरइ आवहिं परिहारीं । रूप सुरूप पदुमिनी नारीं। 1 । 

पदुम गंध तेन्ह अंग बसाहीं । भंवर लागि तेन्ह संग फिराहीं । 2 । 

लंक सिंधिनी सारंग नैनी। हंसगामिनी कोकिल बैनी। 3 । 

आंवहि झुंड सो पांतिहि पांती। गवन सोहाइ सी भांतिहि भांती । 4 । 

केस मेघावरि सिर ता पाईं। चमकहिं दसन बीजू की नाई । 5 

कनक कलस मुख नंद दिपाहीं । रहस कोड सो आवहिं जाहीं । 6

जासौं वै हेरहिं चख नारा। बांक नैन जनु हनहिं कटारी । 7 । 

मानहु मैंन मुरति सब अछरी बरन अनूप । 

जेन्हिकी ये पनिहारी सो रानी केहि रूप ॥ 2 / 8

 

शब्दार्थ- 

सुरूप = सुन्दरता में। 

पदुम = पद्म 

तेन्ह = उनके 

लंक= कमर । 

सारंग = हिरणी । 

पांतिहि पांती = पंक्तियों में। 

गवन =जाना । 

मेघावरि = काली घटा 

सिर ता पाईं = सिर से लेकर पैरों तक। 

दसन = दांत 

बीजु-बिजली । 

नाई= तरह । 

मुरति=मूर्ति 

दिपाहीं चमकना 

रहस= आनन्द । 

कीड-क्रीड़ा । 

चख-आंखें । 

जनु = मानों।

मैन= कामदेव

अछरीं= अप्सरा

 

संदर्भ - सिंहलद्वीप की पनहारियों का वर्णन ।

 

व्याख्या

 जायसी वर्णन करते हैं कि मानसरोदक पर जो पनहारियाँ जता भरने के हेतु आती हैं, सुन्दरता और - आकृति की दृष्टि से पमिनी जाति की स्त्रियां हैं। उनके शरीरांगों में कमल जैसी सुगन्धि बसी हुई है अतः गंध लोभी भ्रमर उनके साथ-साथ उड़ते फिरते हैं उनकी कटि सिंहनी जैसी क्षीण है जबकि उनके नेत्र मृगियों जैसे है। उनकी गति हंसों की गति के तुल्य है जबकि उनकी आवाज कोकिला जैसी मधुर हैं ये पनहारिया झुंडों में पंक्ति बनाकर आती हैं और उनका जल भर कर जाना भी अत्यधिक शोभायमान प्रतीत होता है। उनके मेघ घटाओं के समान केश सिर से लेकर पैरों तक विकीर्ण रहते हैं और उनके दांत बिजली के समान चमकीले होते हैं। उनके मुख चन्द्रमा के समान शोभायमान हैं जबकि उनके शरीरों पर स्वर्ण कलश सुशोभित हैं वे आनन्दपूर्वक क्रीड़ाए करती हुई आती-जाती हैं। ये नारियां जिसकी और अपने नेत्रों से देखती हैं उसे मानों अपने तिरछे नैनों की कटारी से मार डालती हैं उनके कटाक्षों से उसका हृदय बिंध जाता है।

 

ये सब पनहारियाँ कामदेव की मूर्तियां प्रतीत होती हैं और उनका रूप-रंग अप्सराओं के तुल्य हैं जिस रानी की ऐसी पनहारियां हों, न जाने वे रानियां स्वयं कितनी सुन्दर होंगी। 


साहित्यिक सौन्दर्य 

1. भंवर लागि तेन्ह संग फिराहीं में भ्रम अलंकार ।

2. मानहु मैंने..... अनूप में उत्प्रेक्षा अलंकार । 

3. चमकहीं दसस बीजुकी नाई में उपमा अलंकार । 

4. लंक सिंहनी सारंग नैनी में रूपक अलंकार ।

 

टिप्पणी- पद्मिनी जाति की नारियों के शरीरांगों से कमल-गंध आने की कवि रुदि है स्त्रियों के चार भेदों - पदिमनी, चित्रणी, शखिणी और हस्तिनी में से पदिमनी जाति की नारियां सर्वोत्तम स्वीकार की जाती हैं।

 

ताल तलावरि बरनि न जाहीं सूझइ वार शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या-


ताल तलावरि बरनि न जाहीं सूझइ वार पार तेन्ह नाहीं । 1 । 

फूले कुमुद केत उजिआरे जानहं उए गगन मंह तारे। 2 । 

उतरहिं मेघ चढहिं लै पानी चमकहिं मंछ बीजु की बानी । 3 । 

पैरहिं पंखि सो संगहि संगा। सेत पीत राते बहु रंगा । 4 

चकई चकवा केलि कराहीं निसि बिछुरहिं और दिनहिं मिलाहीं ।5 

कुरलहिं सारस भरे हुलासा । जिअन हमार मुअहिं एक पासा। 6 

केंवा सोन ढेर बग लेदी रहे अपूरि मीन जल भेदी 7

नग अमोल तेन्ह तालन्ह दिनहिं बरहिं जनु दीप 

जो मरजिआ होइ तहं सो पावइ वह सीप ॥ 2 / 9 ॥ 

शब्दार्थ-

तलावरि= तलैया ।

 कुमुद = कमल । 

केत= श्वेत कमल । 

उए = निकले। 

बीजु - बिजली। 

मंछ- मछली । 

बानी = तरह । 

राते= लाल । 

केलि= क्रीड़ा। 

मुअहिं=मरेंगे। 

केंवा = जल-पक्षी विशेष 

सोन= कलहंस। 

ढेक= एक तरह का बगुला । 

बग= बगुला । 

लेदी = छोटी जल मुर्गाबी । 

अपूरि= भरे रखना।

 मरजिआ = गोताखोर ।

 

संदर्भ - सिंहलद्वीप के ताल तलैयों का वर्णन ।

 

व्याख्या - 

सिंहलद्वीप में इतनी अधिक संख्या में ताल-तलैये हैं कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। उनकी संख्या का वार-वार (सीमा, ओर-छोर ) नहीं समझ पड़ता। उनमें कुमुद और श्वेत कमल खिले हुए शोभायमान हो रहे हैं। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो आकाश में ( तालाब का नीला जल) तारे निकले हुए हैं। उन तालाबों में बादल उतरते हैं और जल भरकर ऊपर उड़ जाते हैं। तालों के जल में उछलती मछलियां बिजली की भांति चमकती रहती हैं उनमें श्वेत, पीले और लाल रंग के बहुत से पक्षी साथ-साथ तैरते रहते हैं। उनमें चकवा और चकवी क्रीड़ाएं करते रहते हैं, जो रात्रि को बिछुड़कर दिवस में पुनः मिल जाते हैं। समस्त पक्षियों के जोड़े उल्लास मग्न होकर बोलते हैं और यह कहते प्रतीत होते हैं कि हमारा जीवन ही उत्तम है क्योंकि हम प्रेमी-प्रेमिका साथ-साथ जीते-मरते हैं जल के अन्य भी अनेक प्रकार के जीव जैसे केवा, सोन, ढेक, बग और लेदी आदि तथा जल का रहस्य जानने वाली मछलियों से सिंहलद्वीप के ताल तलैया भरपूर हैं।

 

इन तालाबों में अपार बहुमूल्य नग हैं, जो उनके जल में दिन के दीपक की भांति चमकते रहते हैं- उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो दीपक जल रहे हैं। हां वे गोताखोर उन सीपों को प्राप्त कर सकते हैं जिनमें रत्न होते हैं, जो अपने प्राणों को हथेली पर रखकर तालाबों के जल में गोता लगाते हैं। 


साहित्यिक सौन्दर्य -

1. जानंहु उए गगन महं तारे में अनुप्रास अलंकार 

2. 'उतरहिं मेघ चढहिं लै पानी' में मानवीकरण अलंकार 

3. 'चमकहिं मंछ बीजु की बानी' में उपमा अलंकार 

4. 'नग अमोल जनु दीप' में उत्प्रेक्षा अलंकार

 

अन्तिम पंक्तियों में कवि का व्यंग्यार्थ यह है कि वह ही साधक जो प्रेम मार्ग की साधना में अपने प्राणों की चिन्ता नहीं करता, ईश्वर के प्रेम-रूपी मोतियों को प्राप्त करने में सफल हो सकता है।


 सिंहलद्वीप - वर्णन खण्डः सप्रसंग व्याख्या |पद्मावत का द्वितीय खण्ड व्याख्या - Part 02

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