सिंहलद्वीप - वर्णन खण्डः सप्रसंग व्याख्या |पद्मावत का द्वितीय खण्ड व्याख्या - Part 02 | Sihaldveep Explanation in Hindi शब्दार्थ सप्रसंग व्याख्या

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 सिंहलद्वीप - वर्णन खण्डः सप्रसंग व्याख्या |पद्मावत का द्वितीय खण्ड व्याख्या - Part 02 


सिंहलद्वीप - वर्णन खण्डः सप्रसंग व्याख्या |पद्मावत का द्वितीय खण्ड व्याख्या - Part 02 


पुनि जो लाग बहु अंब्रित वारी। फरीं अनूप होइ रखवारी । 1 । 

नवरंग नीबू सुरंग जंभीरा। औ बादाम बद अंजीरा । 2 । 

गलगल तुरंज सदाफर फरे। नारंग अति राते रस भरे। 3 । 

किसमिस सेब फरे नौ पाता । दारिवं दाख देखि मन राता । 4 । 

लागि सोहाई हरपारेउरी ओनइ रही केरन्ह की घउरी ।5

फरे तूत कमरख औ निउंजी। राय करौंदा बैरि चिरउंजी। 6 । 

संखदराउ छोहारा डीठे। औरु खजहजा खाटे मीठे । 7। 

पानी देहिं खंडवानी कुअंहि खांड बहु मेलि 

लागीं घरी रहट की सींचहिं अंब्रित बेलि ॥2/10 ॥

 

शब्दार्थ - 

अंबित वारी=अमृत तुल्य मीठे फलों का बाग । 

फरीं = फलयुक्त 

जंभीरा= नींबू की जाति का खट्टा-मिट्टा फल 

बद-बेदाना। 

गलगल = एक प्रकार का रसीला नींबू 

तुरंज- चकोतरा। 

सदाफर = शरीफा। 

नारंग = नारंगी । 

राते = लाल । 

दारिवं = अनार 

नौ = नए 

राता =लाल । 

दाख-अंगूर। 

हरपारेउरी =  कमरख की जाति का फल जो खट्टा होता है। 

ओनइ = झुक रही है। 

केरन्ह =  केला । 

तूत = शहतूत ।

निउंजी = लीची ।

राय करौंदा = बड़ी जाति का करौंदा । 

संखदराउ = एक खड्डा फल । 

खजहजा= मेवे । 

खंडवानी = शर्बत । 

घउरी = गुच्छा 

घरी = घड़ियां । 

संदर्भ - सिंहलद्वीप के बागों में लगे नाना प्रकार के फलों के वृक्षों का वर्णन है। 


व्याख्या - 

सिंहलद्वीप के ताल-तलैयों के चारों ओर आस-पास अमृत तुल्य मीठे फलों की वाटिकाएं सुशोभित हो रही हैं। वे पूर्ण रूप से फलों से लदी हुई हैं और उनकी रखवाली की जा रही है। इन बागों में नारंगीनींबूसुन्दर जंभीरबादाम बेदानाअंजीरगलगलचकोतरा और शरीफा आदि फल लगे हुए हैं। इनके साथ ही गहरे लाल रंग की रसभरी नारंगियां लगी दिखाई दे रही हैं किशमिश और सेब नये पत्तों के साथ फले हुए हैं। अनार और दाखों को देखकर मन प्रसन्न हो उठता है। इन वाटिकाओं में हरपारेउरी शोभायमान हो रही है और केले के फलों की गाहरे झुकी हुई है। शहतूतकमरखलीचीरायकरौंदासन्तराछुहारा और खजहजा शोभायमान हो रहे हैं। इन वृक्षों के फलों को सरस बनाने के उद्देश्य से कुंओं के जल में बहुत-सी खांड घोलकरउस मीठे पानी से वृक्षों की सिंचाई की जाती है। वहां रहटें लगी हुई हैं जिनकी घड़ियों (बाल्टियांहो सकता है पहले रहटों में मिट्टी के धड़े ही लगाए जाते थे) से अमृतमयी लताओं अथवा अमृततुल्य मीठे फलों वाली लताओं की सिंचाई की जाती है।

 

साहित्यिक सौन्दर्य - 

कवि का रुझान वृक्षों के नाम परिगणित कराने की ओर रहा है। 


पुनि फुलवारी लागि चहु पासा शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


पुनि फुलवारी लागि चहु पासा। बिरिख बेधि चंदन भै बासा। 1 । 

बहुत फूल फूली घन बेली केवरा चंपा कुंद चंबेली । 2 । 

सुरंग गुलाल कदम और कूजा । सुगंध बकौरी गंधप पूजा । 3 । 

नागेसरि सदबरग नेवारी। औ सिंगारहार फुलवारी । 4 । 

सोन जरद फूली सेवरी रूप मंजरी औ मालती । 5 । 

जाही जूही बकचुन लावा। पुहुप सुदरसन लाग सोहावा।6

बोलसिरी बेइलि औ करना। सबहि फूल फूले बहु बरना । 7 । 

तेन्ह सिर फूल चढ़हि वै जेन्ह माथें मनि भागु । 

आछहिं सदा सुगंध भे जनु बंसत और फाग ॥ 2 / 11॥ 


शब्दार्थ 

चहुं पासा = चारों ओर 

घन बेली = सघन लताएं । 

केवरा = केतकी की जाति का सुगन्धित पुष्प जिसके अर्क को पानी आदि में डाला जाता है। 

कूजा = एक प्रकार का ग्रीष्म ऋतु में फूलने वाला गुलाब 

गंध्रप=गन्धर्वसेन। 

बकौरी- गुलबकावली । 

नागेसरि = नागकेशरि । 

सदबरग = गेंदा या गेंदा से मिलता-जुलता पुष्प । 

नेवारी = नव मल्लिका 

सोन जरद= सोन जुहीएक प्रकार का पीला फूल। 

सेवती =  एक प्रकार का गुलाब। 

जूही=एक प्रकार की चमेली रूप 

मंजरी = लाल रंग की चमेली जैसा फूल जो सदाबहार रहता है। 

बेइलि = बेला। 

सुदरसन = एक बड़े आकार का श्वेत पुष्प ।

 

संदर्भ - 

सिंहलद्वीप की वाटिकाओं का वर्णन ।

 

व्याख्या - 

फिर वहां चारों ओर जो फुलवारियां लगी हुई हैं। वृक्षों में प्रविष्ट करके चंदन की सुगन्ध व्याप्त हो गई है। घनवेलीकेवड़ाचम्पाकुन्दचमेली बहुत से फूलों से फूली हुई है। लाल गुलाबकदम्बकुब्जक और सुगन्धित गुलबकावली से राजा गंधर्वसेन पूजा करते हैं। नागकेसरगेंदानेवारीहारसिंगारसोन सेवतीरूपमंजरीमालतीजाहीजूही आदि के फूलों के समूह लगे हैं। सुदर्शन का पुष्प सुशोभित हो रहा है। मौलश्रीबेला और करना आदि सभी फूल नाना रंगों के फूले हुए हैं।

 

ये पुष्प उन्हीं के शीश पर चढ़ा करते हैं जिनके मस्तक से सौभाग्य की मणि होती है अर्थात् जो अत्यधिक सौभाग्यवान होते हैं। ये सदैव सुगन्धि विकीर्ण करते रहते हैंजिससे वहां सदैव वसंत ऋतु और फाग जैसी स्थिति रहती हैं।

 

साहित्यिक सौन्दर्य 

1. सुरंग गुलाल- गंधर्व पूजाइस पंक्ति का संबंध डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने नरेश - पूजा के पुष्पों से जोड़ा हैजबकि इसका यह अर्थ अधिक उचित रहेगा कि गंधर्व - पूजा की सामग्री है।  गंधर्वसेन की 

2. आछहिं......और फागु में उत्प्रेक्षा अलंकार ।

 

सिंघल नगर देखु पुनि बसा शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


सिंघल नगर देखु पुनि बसा । धनि राज असि जाकरि दसा । 1 । 

ऊंची पंवरी ऊंच अवासा। जनु कबिलास इन्द्र कर बासा। 2 

राऊ रांक सब घर घर सुखी । जो देखिअ सो हंसता मुखी 3 | 

रचि रचि राखे चदंन चौरा। पोते अगर मेद औं केवरा । 4 । 

सब चौपारिन्ह चदंन खंभा । ओठंधि सभापति बैठे सभा । 5 । 

जनहु सभा देवतन्ह कै जुरी । परी द्रिस्टि इन्द्रासन पुरी | 6 | 

सबै गुनी पंडित और ग्याता। संसकिरत सबके मुख बाता। 7 

ठिक पंथ सवारहिं जस सियलोग अनूप घर घर नारि पदुमिनी मोहहिं दरसन रूप ॥ 2 / 12

 

शब्दार्थ 

जाकरि = जिसकी । 

पंवरी = सीढ़ी। 

अवास= आवासमहल 

राऊ = राजा। 

रांक= निर्धन 

हंसता =  मुखी प्रसन्न चित्त 

चौरा = चबूतरे। 

पोते-पुताई की है। 

अगर अगरु। 

मेद = एक सुगन्धित द्रव्य जो कस्तूरी की भांति किसी पशु की नाभि से निकलता था। 

ओठघि = पीठ टिकाकर 

चौपारिन्ह= चौपाल |


संदर्भ - 

सिंहलद्वीप के ऊंचे महलों और चौपालों आदि का वर्णन ।

 

व्याख्या - 

तदनन्तर भली प्रकार बसा हुआ सिंहलनगर दिखाई पड़ता है। यह नगर इतना सुन्दर है कि जिस - राजा की ऐसी स्थिति है वह धन्य है। यहां ऊंची-ऊंची पौड़िया और द्वार हैं तथा ऊंचे भवन हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो यह इन्द्र का निवास स्थान कैलास (इन्द्रपुरी) है। यहां के राजा और रंक सभी सुखी हैं जिसे भी देखिए वहीं प्रसन्न चित्त दिखाई देता है। यहां के भवनों के बाहर चंदन के चबूतरे बने हुए हैं जो अगरमेद और गोरोचन से सिंचित (सुवासित) रहते हैं समस्त चौपालों में चंदन के स्तंभ लगे हुए हैं और उनमें आयोजित होने वाली सभाओं में उन स्तम्भों से पीठ टिकाकर सभापति बैठते हैं। यहां के निवासियों की सभा देखने में देव तुल्य प्रतीत होती है और नगर इन्द्र की पुरी जैसा दिखलाई देता है। यहां के निवासी बड़े ही गुणवान विद्वान और ज्ञानी हैं और सभी के मुख से संस्कृत में बातें निकलती हैं। यहां के निवासी अपने इहलोक या सांसारिक मार्ग को संवारते रहते हैं अथवा यहां के भवन इस प्रकार सजे हुए हैंमानो शिवलोक के भवन हों। यहां घर-घर में पद्मिनी जाति की स्त्रियाँ है जिनकी सुन्दरता मन को मोहित कर लेती है।

 

साहित्यिक सौन्दर्य - 

1. 'औहिक पंथ संवारहिके स्थान पर शुक्ल जी ने 'अस के मंदिर संवारेपाठ ग्रहण किया है। इस पंक्ति का डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने यह अर्थ किया है। “वहां मार्ग इस प्रकार संवारे गए हैंजैसे शिवलोक में सुन्दर होते हैं, " जबकि शुक्ल द्वारा गृहीत पाठ का अनर्थ होगा 

2. “ सिंहल नगर के भवन (मन्दिर) इस प्रकार सजे हुए हैंमानो अनुपम कविलोक हो । 

3. 'ऊंची पौरी..... बासातथा सब 'चौपारहिं पुरीमें उत्प्रेक्षा अलंकार है। 

4. 'घर घर', 'रचि..... रचिमें पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार । 

5. 'तस कै... अनूपमें उत्प्रेक्षा अलंकार ।

 

पुनि देखि सिंघल की हाटा शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या

पुनि देखि सिंघल की हाटा। नवौ निद्धि लछिमी सब बाटा । 1 । 

कनक हाट सब कुंहकुंह लीपी। बैठ महाजन सिंघल दीपी । 2 । 

रचे हथोड़ा रूपई ढारी चित्र कटाउ अनेग संवारी। 3 ।

 रतन पदारथ मानिक मोती। हीर पंवार सो अनबन जोती । 4 । 

सोन रूप सब भएउ पसारा । धवलसिरी पोतहिं घर बारा 5 । 

औ कपूर बेना कस्तूरी चंदन अगर रहा भरिपूरी। 6 । 

जेई न हाट एहि लीन्ह बेसाहा। ताकहं आन हाट कित लाहा । 7 । 

कोई करै बेसाहना काहू केर बिकाइ । 

कोई चला लाभ सौं कोई मूर गवाई ॥ 2 / 13 ॥

 

शब्दार्थ - 

हाटा=बाजार। 

बाटा=रास्ते । 

कनक हाट= शर्राफा । 

कुहंकुहं=कुंकुम 

सिंघल दीपी = सिंहलद्वीप के । 

हथोड़ा = कड़े। 

रूपंइ = चांदी को। 

अनेग-उनके 

सोन रूप = सोना चांदी 

पवार = पन्ना । 

अनबन = अद्वितीय। 

पसारा = फैला  हुआ । 

धवलसिरी=श्वेत रोली । 

बेना=खशउशीर ।

बेसाहा= सौदा खरीदना। 

आन=दूसरा। 

लाहा = लाभ। 

आन=दूसरी 

विकाइ = विक्री 

मूर= मूलधन पूंजी।

 

संदर्भ - सिंहलद्वीप के बाजारों का वर्णन

 

व्याख्या

तदनन्तर सिंहल नगर के बाजार देखने योग्य हैं। इन बाजारों के भागों में अर्थात् मार्ग के दोनों ओर नव निधियाँ और लक्ष्मी ( वैभवधन) दिखाई पड़ती है। यहां के नकक-हाट की अर्थात् सोने-चाँदी के बाजार या शर्राफ की दुकानें कुंकुम से लिपी रहती हैं जिनपर सिंहलद्वीप के महाजन बैठते हैं। ये चांदी को डालकर हाथों के कड़े बनाते हैं और उनके अनेक प्रकार के चित्रों और कटाइयों से सुसज्जित करते हैं। सोने और चांदी का यहां व्यापक प्रसार रहता है और समस्त घरद्वार श्वेत-रोली से पुते रहते है। यहांरत्नपदार्थमणिकमोतीहीरे और पन्ने तरह-तरह की ज्योति विकीर्ण करते हुए रखे रहते हैं। यहां सर्वत्र कपूरखसकस्तूरीचंदन और अगर आदि की सुगंधि प्रसारित रहती है। जिसने इस बाजार में व्यवसाय अर्थात् लेन-देन या खरीद-फरोख्त न की उसे अन्य किसी बाजार में कहां लाभ हो सकता है?

 

इस बाजार में कोई क्रय करता है और कोई अपनी वस्तुओं को विक्रय करता है। इस क्रय-विक्रय में कोई तो लाभार्जन कर लेता है जबकि कोई अपनी पूंजी या मूलधन से भी हाथ धो बैठता है। 


साहित्यिक सौन्दर्य -

इन पंक्तियों में समासोक्ति अलंकार के माध्यम से जायसी ने इस व्यंग्यार्थ की व्यंजना कराई कि इस दुनियां रूपी बाजार में आकर कुछ प्राणी तो पुण्य कृत्यों रूपी लाभार्जन करते हैं जबकि दूसरे अपने कुकर्मों के माध्यम से पापी बनकर अपनी पिछली स्थिति को भी बिगाड़ लेते हैं। 

2. समासोक्तिअनन्योपमा अलंकार ।

 

पुनि सिंगार हाट धनि देसा शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


पुनि सिंगार हाट धनि देसा। कई सिंगार तहं बैठी बेसा । 1 । 

मुख तंबोर तन चीर कुसुंभी। कानन्ह कनक जराऊ खुंभी। 2 । 

हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं। नर मोहहिं सुनि पैगु न जाहीं। 3। 

भौंह धनुक तह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौ फेरी | 4 | 

अलक कपोल डोल हंसि देहीं । लाइ कटाख मारि जिउ लेहीं 5

कुच कंचुक जानहं जुग सारी अयं देहिं सुभावहिं डारी|6| 

केत खेलार हारि तेन्ह पासा। हाथ झारि होई चलहिं निरासा । 7 । 

चेटक लाइ हरहिं मन जौ लहि गथ है फेंटा ।

 सांठि नाठि उठि भए बटाऊ ना पहिचान न भेंट ॥2 / 14 ॥

 

शब्दार्थ 

सिंगार हाट= वेश्याओं का बाजार । 

धनि = धन्य है धनवान 

कइ = करके 

बेसा=वेश्या 

तंबोर=पान । 

कुसुंभी-रंगाचीर साड़ी । 

कानन्ह कानों में 

खुंभी-कान का आभूषण विशेष। 

बीन= बीणा । 

पैगु न जाहीं = एक कदम भी आगे नहीं जाते। 

धनुक= धनुष । 

अहेरी = बहेलिएशिकारी 

सान सौं फेरी = शान पर तीव्र करके । 

अलक=घुंघराले बाल। 

कटाख-कटाक्ष । 

जुग-दो। 

सारी = गोटा। 

ढारी=ढलका । केत कितने ही । 

तेन्ह = उनके । 

चेटक = जादू-टोना ।

गथ = पूंजी। 

फेंट = कमर में 

सांठि नाठि = सम्पत्ति नष्ट होने परधन न रहने पर 

बटाऊ = मार्ग  का यात्री ।

 

संदर्भ - सिंहल नगर के वेश्या बाजार का वर्णन । 


व्याख्या 

तदन्तर मैं वहां के वेश्या बाजार का वर्णन करता हूं जो धन्य है (शुक्ल जी ने 'धनि के स्थान पर - 'भलपाठ ग्रहण किया है जो अधिक उचित प्रतीत होता है।) जहां वेश्याएं शृंगार करके बैठी रहती हैं। उनके मुख में तम्बाकू सुशोभित रहते हैं। जबकि वे शरीर पर कुसुम्भी रंग के वस्त्र धारण करती हैं। उनके कानों में रत्न जड़ित खुशी शोभायमान रहती है। उनके हाथों में वीणाएं रहती हैं जिन पर वे इतनी मधुर राग-रागनियां गाती हैं कि मृग तक मोहित हो जाते हैं- अपनी सुधि-बुधि भूल जाते हैं। मनुष्य तो उन्हें सुनकर ऐसे मोहित हो जाते हैं कि एक कदम तक आगे नहीं बढ़ पाते। उनके नेत्र अहेरियों जैसे हैं जबकि भृकुटियां धनुष-वत् कुटिल हैं। भौंहों रूपी धनुष पर चढ़ाकर उनके नेत्र रूपी शिकारी शान पर चढ़ाए हुए तीव्र दृष्टि-रूपी बाणों का प्रहार करते हैं। उनके कपोलों पर घुंघराले केश मंडराते रहते हैं। उधर से गुजरने वालों की ओर वे विहंस कर देखती हैं और कटाक्षों के प्रहार से उनकी जान ले लेती हैं-गंतुक उन पर जी-जान से फिदा हो जाते हैं। उनके कंचुकी में कसे हुए उरोज मानो दो गोटें होती हैं जिनपर से वे सुन्दर ढंग से अपना आँचल खिसका देती हैं। कितने ही खिलाड़ी इन पासों से खेलकर हार चुके हैं और अपनी पूंजी को गंवाकर लौट जाते है।

 

इन वेश्याओं का स्वभाव यह है कि जब किसी की गांठ में सम्पत्ति होती है तब वे जादू-टोना करके उसके मन को हर लेती हैंजबकि गांठ की पूंजी नष्ट होने पर उस व्यक्ति के प्रति उनका व्यवहार उस राहगीर की भांति होता है जिससे जान-पहचान नहीं होती अथवा यदि होती भी हैं तो क्षण भर की होती है। 


साहित्यिक सौन्दर्य –

 1. 'धनिके स्थान पर 'भलपाठान्तर इस दृष्टि में उपयुक्त प्रतीत होता है कि जायसी जैसे संत द्वारा वेश्या-हाट को धन्य कहकर प्रशंसा करना अनुचित प्रतीत होता है। 

2. केत खिलार- 'निरासाके माध्यम से कवि का अभिव्यंग्य यह है कि बहुत से मूर्ख मनुष्य सांसारिक प्रलोभनों में फंसकर अपने पुण्यों को गंवा बैठने के कारण अंततः इस संसार से निराश होकर कूच करते हैं। 

3. 'भौहं मनुष्य .... केरीमें सांगरूपक अलंकार । 

4. 'कुचं कंचुक... सारीमें उत्प्रेक्षा अलंकार । 

5. 'केत खिलारी ..... निरासामें समासोक्ति अलंकार ।

 

लेले बैठ फूल फुलहारी शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


लेले बैठ फूल फुलहारी । पान अपूरब धरे संवारी । 1 । 

धा सबै बैठुलै गांधी। बहुल कपूर खिरौरी बांधी | 2 | 

कहूं पंडित पढ़हि पुरानू । धरम पंथ कर करहिं बखानू 3 | 

कतहूं कथा कहै कछु कोई । कतहूं नाच कोड भलि होइ । 4 । 

कतहूं छरहटा पेखन लावा । कतहूं पाखंड काठ नचावा। 5 । 

कतहूं नाद सबद होइ भला । कतहूं नाटक चेटक कला । 6 । 

कहुं काहु ठग बिद्यालाई । कतहुं लेहिं मानुस बौराई । 7 । 

चरपट चोर धूत गठिछोरा मिले रहहिं तेहि नांच । 

जो तेहि नाचं सजग भा अगुमन गथ ताकर पै बांच । 12/15 ।।

 

शब्दार्थ - 

फुलहारी = मालिनें।

सोंधा = एक प्रकार की गंध 

खिरौरी = टिकिया । 

छरहटा=बहेलिया । 

गांधी = इत्र बेचने वाले गांधी। 

पाखंड आडम्बर करने वाले । 

काठ= कठपुतली वाला। 

चेटक कला = जादू की कलाएं। 

बौराई = पागल कर देना । 

गठिछोरा=गांठ खोल लेने वालागिरहकट। 

ओहि =उस । 

चरपट = चालाक । 

अगुमन= पहले से। 

बांच-बच पाती है। 

पथ = पूंजी ।

 

संदर्भ -

 सिंहल नगर के बाजारों में कवि ने मालिनगंधीनट-बाजीगरगिरहकट आदि का वर्णन किया है।

 

व्याख्या -

 सिंहल नगर के बाजारों में मालिने फूल ले-लेकर बैठी रहती हैं और अनोखे पान सजाकर रखती हैं। इत्र बेचने वाले या गंधी नाना प्रकार की सुगन्धियां लेकर बैठते हैं और कपूर से भली प्रकार सुगन्धित करके कत्थे की सुगन्धित टिकियां रखे हुए हैं। कहीं पर पंडित पुराणों आदि धार्मिक ग्रंथों का पाठ कर रहे हैं तो कहीं अन्य धर्मों के आचार्य अपने धर्म का वर्णन कर रहे हैं। कहीं पर कोई कुछ कथा कह रहा हैतो कहीं पर उत्तम नाच-कूद हो रहा है। कहीं पर बहेलिया पक्षी पकड़कर ला रहा हैतो कहीं पर नाटक और जादू के खेल हो रहे हैं। कहीं पर किसी ने ठगी-विद्या लगा रखी है अर्थात् वह लोगों को ठग रहा है तो कहीं पर कोई किसी मनुष्य को बावला बनाकर लूट रहा है।

 

इस नाच-नाटक आदि में चालाकचोरधूर्त और गिरहकट मिले रहते हैं जो दर्शकों की पूंजी हर लेते हैं। वहां उन्हीं की पूंजी सुरक्षित रह पाती है जो पहले से ही सावधान रहते हैं ।

 

साहित्यिक सौन्दर्य - 

1. कतहुं चिरहंटा पंखी लावाशुक्ल जी ने यह पाठ दिया ग्रहण किया है जिसका अर्थ ऊपर हुआ है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल और डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने इसका पाठान्तर यह दिया है

 

"कतहुँ छरहटा पेखन लावा।”

 

जिसका अर्थ है कहीं ऐन्द्रजालिक (छरहटा ) अपना खेल या तमाशा दिखा रहे हैं। 

2. इन पंक्तियों में समासोक्ति अलंकार है जिसके माध्यम से कवि ने इस ओर इंगित किया है कि जो लोग इस जगत में पहले से ही सचेत रहते हैंमाया रूपी वंचकों द्वारा उनकी पुण्य रूपी पूंजी ठगी जाने से बच जाती है।

 

पुनि आइअ सिंघल गढ़ पासा का बरनौं शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या

पुनि आइअ सिंघल गढ़ पासा का बरनौं जस लाग अकासा । 1 । 

तरहिं कुरुम बासुकि कै पीठी। ऊपर इन्द्रलोक पर डीठी। 2 । 

परा खोह चहुंदिसि तस बांका। कांपै जांघि जाइ नहिं झांका। 3 । 

अगम असूझ देखि डर खाई। परै सो सप्त पतारन्ह जाई । 4 । 

नव पंवरी बांकी नव खंडा । नवहुं जो चढ़े जाइ ब्रह्मंडा । 5 । 

कंचन कोट जरे कौसीसा। नखतन्ह भरा बीजू अस दीसा 6 । 

लंका चाहि ऊंच गढ़ ताका । निरखि न जाइ दिस्टि मन थाका । 7 । 

हिअ न समाइ दिस्टि नहिं पहुंचै जानहु ठाढ़ सुमेरु 

कह लगि कहीं उंचाई ताकरि कहं लगि बरनौं फेरु ॥ 2 / 16 ॥

 

शब्दार्थ- 

जस=जैसे। 

तरहिं=ताल में नीचे 

कुरुम = कच्छपकछवा । 

डीठी = दृष्टि । 

खोह = खाई । 

परै = भरी जाए। 

सप्त पतारन्ह = सातवें पाताल 

पंवरी = पौड़ियापोल 

नखतन्ह = तारे। 

बीजु = बिजली । 

दीसा = दिखाई देता है ।

दिस्टि= दृष्टि 

ताकरि= उसकी। 

फेरु= घेरा। 

कोट= गढ़ |

 

संदर्भ - 

प्रस्तुत पंक्तियों में जायसी ने सिंहलद्वीप स्थित सिंहल नगर में बने सिंहलगढ़ (दुर्ग) का वर्णन किया है। 


व्याख्या - 

अब मैं सिंहलगढ़ का वर्णन करता हूं अथवा अब हम सिंहलगढ़ के समीप आते हैं। (कवि ने यह वर्णन ऐसे किया है जैसे कोई गाइड दर्शकों को नाना वस्तुओं के विषय में बताया करता है)। आकाश को स्पर्श करने वाले इस दुर्ग का मैं क्या वर्णन करूं। इस दुर्ग की नींव तो नीचे की ओर वासुकी नाग और कच्छप की पीठ पर स्थित हैजबकि ऊपर की ओर यह इन्द्रलोक से लगा दृष्टिगत होता है। इसके चारों ओर बड़ी बांकी खाई खुदी हुई हैं वह इतनी नीची है कि नीचे की ओर देखते हुए यह भय लगता है कि यदि इसमें गिरे तो गिरकर सातवें पाताल में जा पहुचेंगे। नौ पौड़िया दुर्ग में (द्वार) और नौ ही मंजिले हैं जो इन नौ खंडों पर चढ़ने में सफल हो जाता है वह ब्रह्माण्ड में पहुँच जाता है। यह दुर्ग स्वर्ण-निर्मित है और उसमें नग और शीशे जड़े हुए हैं। यह ऐसा जाज्वल्यमान प्रतीत होता है मानो नक्षत्रों से परिपूर्ण बिजली हो । यह किला लंका की अपेक्षा ऊंचा है। इसकी ऊंचाई देखी नहीं जाती । इसकी ओर देखने पर दृष्टि और मन थक जाते हैं।

 

यह दुर्ग इतना अधिक ऊंचा है कि इसकी उच्चता हृदय में नहीं समाती और न वहां तक दृष्टि ही पहुँच पाती है यह ऐसा लगता है मानो विशालकाय सुमेरू पर्वत हो। इसकी ऊंचाई और घेरे का मैं कहां तक वर्णन करूं - अर्थात् वह वर्णनातीत है।

 

साहित्यिक सौन्दर्य - 

1. जायसी के इस वर्णन में हठयोग की साधना की स्पष्ट छाप है। “नव पंवरी ब्रह्मण्डा - से जायसी का अभिप्राय यह है कि जो साधक कुंडालिनी हो नव-खंडों के पार से जाकर दशम द्वार या ब्रह्माण्ड में पहुँचा देता हैवही योग साधना की चरम उपलब्धि को प्राप्त करता है।

 

2. शरीर रूपी दुर्ग के नव-द्वार निम्नांकित स्वीकार किए जाते हैं- 2 कान, 2 आंख, 2 नसिका छिद्र, 1 मुख, 1 मलेन्द्रिय और 1 मूत्रेन्द्रिय । इनके अतिरिक्त दसवां छिद्र या द्वार ब्रह्मरन्ध्र माना जाता है। कबीर ने कहा भी है

"दस द्वारे कौ पींजरातामें पंछी पौनु । 

रहिबे को आचरज महाउड़े तो अचरजु कौनु ।”

 

3. कुछ टीकाकारों ने नव-द्वारों से नौ इन्द्रियों का अभिप्राय ग्रहण किया है। जो इस दृष्टि से अनुपयुक्त है पाचं कर्मेन्द्रियों और पांच ज्ञानेन्द्रियों में से कौन सी एक इन्द्री को छोड़ा जाना चाहिए।

 

4. 'का बसी अकांक्षामें उत्प्रेक्षा अलंकार । 

5. 'कंचन ..... दीसामें उपमा अलंकार । 

6. नव पंवरी ब्रह्माण्ड समासोक्ति अलंकार । 

7. पूरी पंक्तियों में अतिशयोक्ति अलंकार ।

 

निति गढ़ बांचि चलै ससि सूरू शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


निति गढ़ बांचि चलै ससि सूरू। नाहिं त बाजि होइ रथ चूरू।1। 

पंवारी नवौ बज्र कइ साजी सहस सहस तह बैठे पाजी | 2 | 

फिरहिं पांच कोटवार सो भंवरी। कांपैं पांय चंपत वै पंवरी। 3 । 

पंवरिहि पंवरि सिंह गढ़ काढ़े। डरपहिं राय देखि तेन्ह ठाड़े 4 

बहु बनान वै नाहर गढ़े । जनु गाजहिं चाहहिं सिर चढ़े 5

 टारहिं पूंछ पसारहिं जीहा कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा । 6 । 

कनक सिला गाढ़ि सीढ़ी लाई । जगमगाहिं गढ़ ऊपर ताई 7 । 

नवौ खंड नच पंवरीं औ तह बज्र केवार ।

 चारि बसेरें सों चढ़े सत सौं चढ़े जो पार ॥ 2/17 ॥

 

शब्दार्थ - 

बांचि = बचकर 

सुरू = सूर्य 

नांहि त=नहीं तो। 

बाजि घोड़ाटकराकर । 

कइ = की। 

पाजी पैदल 

भंवरी = चक्कर लगाना । 

कोटवार = कोतवाल 

राय = राजा । 

चंपत = गुजरतेपार करते। 

गढ़ि = दुर्ग 

बनान=प्रकार से । 

गाजहिं = गरजेंगे। 

जीहा=जीभ 

कुंजर= हाथी 

लीहा = पकड़ा। गुंजरि गरजकर गढ़ि बनाकर ताईं तक । चारि बसेरें = सूफी मत की चार अवस्थाओं रूपी चार पड़ाव शरीअततरीकतहकीकतमारिफत । केवार=पांच शासककोटपाल ।

 

संदर्भ - सिंहलगढ़ का वर्णन ।

 

व्याख्या - 

सिंहलगढ़ की ऊंचाई का वर्णन करते हुए जायसी कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा नित्यप्रति इस दुर्ग से बचकर निकलते हैं नहीं तो इससे टकराकर उनके रथ चूर-चूर हो जाएं। उसके नवीं द्वार हीरा (वज्र ) से सजे हुए हैं अथवा इसके नौ द्वार वज्र-तुल्य कठोर हैं और उन पर एक-एक हजार सैनिक (रक्षा के लिए) बैठे रहते हैं। वहां पांच कोतवाल चक्कर लगाते रहते हैं अतः इन द्वारों को पार करते हुए भय से कदम डगमगाने लगते हैं और पैर कांपने लगते हैं। प्रत्येक पंवरी पर सिंहों के चित्र खिंचे रहते हैं जिन्हें खड़े देखकर (साक्षात् सिंह समझकर ) राजा भी डर जाते हैं ये सिंह इस प्रकार बनाए गए हैं कि उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो ये गरजकर सिर पर चढ़ जाएंगे। ये पूंछ उठाकर जिहा बाहर निकाले हुए हैं अतः उन्हें देखकर हाथियों को यह भय लगता है कि वे गरजकर उन पर टूट पड़ेंगे। स्वर्ण-शिला से बनाकर सीढ़ी लगाई हुई हैजो दुर्ग के ऊपरी भाग तक जगमगाती रहती हैं।

 

इस दुर्ग के नौ मंजिलों में नौ पौड़ियां या द्वार हैंजिन पर वज्र के किवाड़ लगे हुए हैं। इस पर चढ़ने में तभी सफलता मिल सकती है जब सत्य का आजय लेकर चार पड़ाव ( बसेरे) डालते हुए चढ़ा जाए।

 

साहित्यिक सौन्दर्य -

1. जायसी ने इन पंक्तियों में सांगरूपक अलंकार के माध्यम से सिंहलगढ़ पर चढ़ाई को हठयोग की साधना का स्थानापन्न चित्रित किया है हां रूपक का पूर्णतः निर्वाह नहीं हो पाया है। हठयोग की साधना में मानव पिंड को ही ब्रह्माण्ड माना जाता है- उनकी मान्यता है कि जो ब्रह्माण्ड में है वही पिंड में है। इस कल्पना के आधार पर वे कुंडलिनी को सुषुम्ना नाड़ी से होकर मूलाधारस्वाधिष्ठान आदि चक्रों में होते हुए ब्रह्मांध्र तक ले जाते हैं। जायसी ने इन षट्चक्रों के स्थान पर नौ द्वारों का उल्लेख किया है। उन्होंने काम-क्रोधलोभ मद और मोह को पांच कोतवाल दिखाया है जो जीवात्मा रूपी पधिक को दुर्ग-रूपी ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट नहीं होने देते। 


पाजी- 

सूफी मत के अनुसार मनुष्य और परमात्मा के बीच एक सहस्त्र पढ़ें हैं। यहां एक-एक पाजी एक-एक पर्दे का प्रतीक है। 

चारि बसेरे 

सूफी साधना के चार पड़ावों शरीअत तरीकतहकीकत और मारिफत के अनुरूप ही नासूत, - मलकूतजबरूत और लाहूत दशाएं होती हैंजिन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है

 

1. नासूत- 

ह मनुष्य की साधारण अवस्था होती है। इसमें साधक को शरीअत के कायदे-कानूनों को मानना पड़ता है। 

2. मलकूत- 

इस अवस्था में साधक का मन भौतिक इच्छाओं से ऊपर उठ जाता है इसमें साधक को तरीबत की सहायता लेनी पड़ती है। 

3. जबरूत- 

इसमें साधक को आध्यात्मिक शक्ति मिल जाती है। इसमें वह हकीकत से परिचित हो जाता है। उसे ईश्वरीय ज्ञान उपलब्ध हो जाता है और उससे मिलने के व्यवधान नष्ट हो जाते हैं।

 

4. लाहूत - 

इस चौथी अवस्था में साधक राग से अतीत होकर परमात्मा में लीन हो जाता है।

 

2. डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत ने इन पंक्तियों का निम्नांकित हठयोगिक अर्थ दिया है। 


"इस शरीर रूपी गढ़ में सूर्य और चन्द्रमा अलग-अलग रहते हैं। यदि उनका मिलन हो जाए तो उनका स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो जाए (होय बाजि रथचूर) नवों चक्र वज्र के समान दुर्भेद्य है। उनके द्वार पर सशस्त्र सहस्त्र दुष्ट मनोविकार बाधक रूप में रहते हैं। वह साधक को चक्र भेदन नहीं करने देते। अतः उस साधना मार्ग में चरण रखते हुए भय लगता है और बड़े संभलकर पैर रखने पड़ते हैं। हर चक्र की अधिष्ठात्री कोई-न-कोई देवी है। उनका सिंह साधक को चक्र भेदन में अग्रसर नहीं होने देताऐसा लगता है कि गरजकर सिर पर चढ़ बैठेंगे। उनके डर से साधक अपनी साधना से परांग मुख होने लगता है। अज्ञान रूपी हाथी उन सिंहों को देखकर डर जाते हैं। उस गढ़ तक सोने की सीढ़ियां बनी हुई हैं। सुषुम्ना का रंग योग ग्रन्थों में स्वर्णिम बताया गया है। इसीलिए कनक सीढ़िया कहा गया है इस शरीर रूपी सिंहलगढ़ में नौ चक्र हैं। इन चक्रों के नौ द्वार हैं। वे द्वार वज्र के समान दुर्भेद्य हैं। जो साधक चार पड़ावों प्रत्याहारध्यानधारणसमाधि के क्रम से सत्य के सहारे साधना करता है वही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।"

 

चारि बसेरे 

चारि बसेरे का सूफी-साधना-परक अर्थ ऊपर दिया गया है। डॉ. त्रिगुणायत के शब्दों में इसका - योगपरक अर्थ इस प्रकार है-

 

"योगपरक अर्थ लेने में यहां पर चार प्रकार के योगों की व्यंजना की जाएगी उनके नाम हैं- हठयोग मंत्रयोगलययोग और राजयोग. 

 

वेदान्त की दृष्टि से यहां पर साधन-चतुष्ट्य की ओर संकेत माना जाएगा। 


3. 'निति गढ़ ...................चूरुमें सम्बन्धातिशयोक्ति अलंकार । 

4. 'फिरहिं ...............पांच साजीमें रूपक अलंकार । 

5. जनु गाजहिं  ............ चढ़ेमें उत्प्रेक्षा अलंकार ।


नवौं पंवरि पर दसौं दुआरू शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


नवौं पंवरि पर दसौं दुआरू । तेहि पर बाज राज घरिआरू । 1 |

घरी सो बैठि गर्ने घरिआरी पहर पहर सो आपनि बारी। 2 । 

जबहिं घरी पूजी वह मारा घरी घरी घरिआर पुकारा। 3 । 

परा जो डांड जगत सब डांडा का निचिंत मांटी कर भांडा । 4 । 

तुम्ह तेहि चाक चढ़े होड़ कांचे आए फिरै न थिर होई बांचे |5 |

घरी जो भरै घटै तुम आऊ का निचिंत सोवहि रे बटाऊ | 6 | 

पहरहि पहर गजर निति होई । हिआ निसोगा जाग न सोई । 7 ।

मुहमद जीवन जल भरन रंहट घरी की रीति । 

घरी सो आई ज्यों भरी ढरी जनम गा बीति ॥ 2 / 18 ॥

 

शब्दार्थ

दसौं - दुआरू = दशम द्वारब्रह्मरन्ध्र 

राज घरिआरू = राजा का घंटा 

घरिआरी =  घंटा बजाने वाला । 

पूजी= पूरी हुई। 

डांडा = दण्डित किया। 

डांड = घड़ियाल बजाने का डंडा ।

तेहि चाक= उस समय रूपी चक्र पर।

निचिंत= निश्चित । 

मांटी कर भांडा-मिट्टी का बर्तन अर्थात् मानव शरीर 

थिर=स्थिर। 

बांचे= बचाता है। 

आऊ=आयु। 

गजर=आठ घड़ी या एक पहर (3 घंटे) व्यतीत होने पर जोर से घड़ियाल बजाया जाता था उसी को गजर कहते हैं। राजदरबारों में आठ घड़ी या एक पहर के बाद पहरा बदल जाता था। 

ढरी = खाली हो गई। 

गा बीति= व्यतीत हो गया।

 

संदर्भ - 

नव पौढ़ियों के वर्णन के उपरान्त प्रस्तुत पंक्तियों में जायसी ने दशम द्वार या ब्रह्मरंध्र का वर्णन किया है।

 

व्याख्या - 

शरीर रूपी दुर्ग में नव पंवरियों के उपरान्त दसवां द्वार है। उस पर राजा का घंटा बजता है। घंटा बजाने वाला बैठा घड़ियां गिनता रहता है और अपनी बारी (पालीघड़ियाल बजाने की ड्यूटी) के प्रत्येक पहर के उपरान्त जोर से घड़ियाल बजाता है अथवा वह पहरे वालों को अपनी-अपनी बारी आने की सूचना देता है। जब उसकी बारी की आठ घड़ियां (एक प्रहर) पूरी हो जाती हैं तो वह घड़ियाल को कुछ देर तक निरंतर बजाता है जिससे घड़ियाल से घड़ी घड़ी की ध्वनि निकलने लगती हैं घड़ीवाल पर डंडे की चोट पड़ने से आवाज निकलती है कि उसने सारे संसार को एक घड़ी से दंडित कर दिया है उसकी आयु एक घड़ी कम कर दी है) फिर मिट्टी के बर्तन की भांति नश्वर जीवन निश्चित क्यों है?- अर्थात् वे हरि-स्मरण में शीघ्रता क्यों नहीं करते। अरे नश्वर प्राणियों ! तुम कुम्हार के चक्र रूपी चाक पर कच्ची मिट्टी की भांति चढ़े हुए हो। इस संसार में तुम लौट आने (मरने) के लिए आए होयहां स्थिर नहीं रह सकते (कुम्हार के चक्र पर भी मिट्टी स्थिर नहीं रहती) ज्यों-ज्यों घड़ी समाप्त होती जाती है उसी अनुपात में तुम्हारी आयु घटती जाती है अरे जीवन मार्ग के पथिक तू निश्चित होकर क्यों सो रहा हैनित्यप्रति प्रत्येक पहर के उपरान्त गजर बजता रहता है। घड़ियाल पर देर तक चोंटे लगती जाती हैं। किन्तु तेरा हृदय ऐसा शोकरहित है ( शुक्ल जी ने इसका पाठान्तर बंजर ग्रहण किया है जो अधिक उपयुक्त है) कि तू उसे सुनकर भी नहीं जागता । 'बंजरपाठ ग्रहण करने पर अर्थ होगा कि तेरा हृदय ऐसा वज्र-तुल्य है कि तू इस चेतावनी को सुनकर भी नहीं जागता

 

कवि मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं कि मनुष्य का जीवन रहट की घरियाओं की भांति भरता-ढलता रहता है। जैसे रहट की घरियाएं भरकर आती हैं और ढल जाती हैं (खाली हो जाती हैं) उसी प्रकार जीवन जगत् में आता है और समाप्त हो जाता है।

 

साहित्यिक सौन्दर्य 

1. 'जबहिं घरी पूजी - प्राचीन काल में आजकल जैसी घड़ियां नहीं थीं। पहले जल से भरी नांद या बड़े बर्तन में एक ऐसी कटोरी डाल दी जाती थीजिसके तले में छिद्र होता था। एक व्यक्ति उस कटोरी को देखता रहता था कि वह जल में भरकर कब डूबती है। जैसे ही तल में छिद्र में से आने वाले पानी के कारण वह कटोरी भर कर डूबती थीयह मान लिया जाता था कि एक घड़ी समय समाप्त हो गया है और इस तथ्य की सूचना घड़ियाल बजाकर दी जाती थी। 

2. 'पहर पहरतथा 'घरी घरीमें पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार । 

3. 'घरी 4. 'का निचिंत घरीतथा 'डांड और डांडा में यमक अलंकार । भांडामें रूपक अलंकार 

5. 'मुहम्मद...... रीतिमें उपमा अलंकार ।

 


 गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या

गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी । पानी भरहिं जैसे दुरुपदी । 1 । 

औरू कुंड एक मोतीचूरू। पानी अंबित कीच कपूरू । 2 । 

ओहि क पानि राजा पै पिया। बिरिध होइ नहिं जौ लहि जिआ । 3 । 

कंचन बिरिख एक तेहि पासा जस कलपतरु इंद्र कबिलासा  । 4 ।  

मूल पतार सरग ओहि साखा । अमर बेलि को पाव को चाखा । 5 । 

चांद पात और फूल तराईं। होइ उजिआर नगर जंह ताई | 6 | 

वह फर पावै तपि के कोई बिरिध खाइ नव जोवन होई। 7

राजा भए भिखारी सुनि वह अति भोग 

जेई पाबा सो अमर भा ना किछु व्याधि न रोग ॥2 / 19 ॥

 

शब्दार्थ 

नीर खीर = जल और दूधइड़ा और पिंगला 

दुरुपदी =द्रोपती  

ओहि क = उसका

बिरिध= वृद्ध 

जौ लहि = तब तक । 

कंचन = सोना (स्वर्ण) । 

बिरिख = वृक्ष। 

चांद पात = चांदी के पत्ते । 

फूल तराईं= तारे फूल हैं। 

फर= फल। 


संदर्भ - 

सिंहलद्वीप की नीर-क्षीर की नदियांमोतीचूर कुंडकंचन-वृक्ष आदि के माध्यम से योग-साधना का वर्णन

 

व्याख्या- 

उस गढ़ पर जल और दूध की दो नदियां हैं (इड़ा और पिंगला नामक नाड़ियां हैं) द्वीपदी (कुंडलनी) जैसी नदियां वहां पानी भरती हैं अथवा उनमें द्रौपदी के अक्षय चीर की भांति अक्षय जल भरा रहता है। वहां एक मोतीचूर नामक कुंड है। उसका पानी अमृत तुल्य और कीचड़ कपूर जैसी है। उसका जल लेने का अधिकार मात्र राजा का होता है। उस पानी को पी लेने वाला जब तक जीवित रहता है कभी वृद्ध नहीं होता। उसके समीप ही एक स्वर्ण-वृक्ष हैजो इन्द्र के कैलास के कल्पतरु के तुल्य है। उस वृक्ष की जड़ पाताल में है जबकि शाखाएं स्वर्ग तक फैली हुई हैं। उस पर छाई हुई अमर बेल को कौन पाता है और कौन चख सकता हैउस वृक्ष के चन्द्रमा रूपी पत्ते हैं और तारों रूपी फूल हैं। उसका प्रकाश वहां तक फैला रहता हैजहां तक यह नगर है। उसके फल को तपस्या करके ही प्राप्त किया जा सकता हैउसे यदि कोई वृद्ध भी खा लेता है तो उसे नवजीवन (नवयोवन) की प्राप्ति हो जाती है।

 

उस अमृत भोग के विषय में सुनकर राजा राज-पाट छोड़कर भिखारी बन गए हैंउसे जो भी प्राप्त कर लेता है वही अमर हो जाता है और उसको किसी प्रकार की मानसिक या शरीरिक बीमारी नहीं रहती।

 

डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत ने इन पंक्तियों का हठयोगपरक अर्थ किया है- “इस शरीर रूपी गढ़ में दो आत्मा रूपी नदियां प्रमुख हैं- प्राप्त आत्मा और प्राप्तव्य आत्मा । द्रौपदी के सदृश जीव शक्ति (कुंडलिनी) सुषुम्ना रज्जु ब्रहार रूपी कुण्ड में पानी भरती है वहां ब्रह्मरंध्र रूपी मोतीचूर का कुण्ड है उसका पानी अमृत तुल्य है वहां जी चन्द्र तत्व है उससे अमृत झरा करता है। उस ब्रह्मरंध्र के अमृत को कोई राजयोगी ही पान कर पाता है। उसको पान करने वाले जब तक जीवित रहते हैं तब तक वृद्ध नहीं होते। उस ब्रह्मरंध्र के समीप सुषुम्ना का कंचन वृक्ष हैं। वह इन्द्रलोक के कल्पतरु के सदृश है (व्यंजना है कि जिस तरह से कल्पवृक्ष मनुष्य की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करता है उसी प्रकार सुषुम्नर साधना मनुष्य की सम्पूर्ण इच्छाओं को पूर्ण कर देती है ।) उस सुषुम्न रूपी की जड़ मूलाधार में रहती है और सहस्त्रार रूपी स्वर्ग में उसकी शाखाएं रहती है । सुषुम्ना की बेल अमर हैं उसकी सिद्धि कोई बिरला व्यक्ति ही पा सकता है। सहस्त्रार में जो चंद्र तत्व है मानों वह उस वृक्ष के पत्ते हैं और सहस्त्रदल के ज्योतिकण उस सुषुम्ना रूपी वृक्ष के फूल हैं। उससे सम्पूर्ण ब्रह्मरंध्र ज्योतिर्मय रहता है। उस ब्रह्मरंध्र के अमृतफल को कोई तपस्या करके प्राप्त करता है। वृद्ध उसे यदि खा ले तो युवा हो जाए।  

उस ब्रह्मरंध्र के अमृत को प्राप्त करने के लिए राजा भी भिखारी हो गए। जिसने उसे प्राप्त किया वही अमर हो गया। उसे कोई व्याधि और रोग नहीं सताते।”

 

साहित्यिक सौन्दर्य 

1. डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इन पंक्तियों का निम्नांकित आध्यात्मिक संकेत बताया है "इस छन्द में हठयोग के तत्वों की ओर कुछ इस प्रकार संकेत ज्ञात होता है- यह मानव शरीर ही गढ़ है। यथा 

गढ़ तस बांक जैसि तोरि काया । परखि देखु ओहि कै छाया”

 

इस काया-गढ़ में नीर तथा क्षीर नाम की नदियां इड़ा तथा पिंगला नाड़ियां है। मोतीचूर्ण का कुंड सुषुम्ना है। कंचन-वृक्ष अमृत बल्ली हैजो पाताल (मूलाधार चक्र) से लेकर आकाश (सहस्त्रार) तक फैली हुई है। उसी का प्रकाश समस्त कायागढ़ में होता रहता है-काया की समस्त चेतना उसी का परिणाम है। इस अमृत वल्ली का फल आत्मानुभव है जिसका सेवन करने में जरा मरण का भय नहीं रहता है। इस अमृत फल को तप के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है इसको प्राप्त करने के लिए भर्तृहरि जैसे राजा भिखारी बने। इसको प्राप्त करने के लिए अनन्तर प्राणी को किसी प्रकार की शारीरिकमानसिक व्याधियां कष्ट नहीं पहुंचा सकती हैं।”

 

2. सम्पूर्ण छन्द में समासोक्ति अलंकार। 

3. परिहारी दूरपदीमें उपमा अलंकार । 

4. 'पानी .... अमृतमें रूपक अलंकार । 

5. 'कंचन बिरिछ कविलासामें उपमा अलंकार 

6. 'चांद .... तराईमें रूपक अलंकार । 


गढ़ पर बसहिं चारि गढ़पती । असुपति गजपति और नरपती |1|

सब क धौरहर सोने साजा औ अपने अपने घर राजा । 2|

रूपवंत धनवंत सभागे। परस पखान पंवरि तेन्ह लागे 3 । 

भोग बेरास सदा सब माना। दुख चिंता कोउ जरम न जाना। 4|

मंदिर मंदिर सब के चौपारी बैठि कुंवर सब खेलहिं सारी |5| 

पांसा ढरै खेल भलि होई। खरग दान सरि पूज न कोई ।6। 

भांट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोर सिंघली । 7 |

मंदिर मंदिर फुलवारी चोवा चंदन बास 

निसि दिन रहै बंसत भा छहु रितु बारहु मास 2 / 20

 

शब्दार्थ-

चारि=चार 

असुपति = अश्वपति । 

धौरहर = महल । 

परस पखान = पारस पत्थर 

पंवरि=ड्यौढ़ी |। 

बेरास=विलास। 

सारी=पांसे का खेल। 

खरग= तलवार । 

सरि पूज न कोई= कोई समता नहीं कर सकता। 

भांट=चारणभाट। 

सिंघली=लंका के। 

मंदिर मंदिर = भवन भवन में। 

रितु = ऋतु । 

बारहु मास = बारह महीनें । 


संदर्भ -

सिंहलगढ़ के चार गढ़पतियों के वैभव का वर्णन । 


व्याख्या - 

गढ़ पर चार अधिकारी गढ़पतिअश्वपतिगजपति और नरपति रहते हैं। सभी के सोने के महल बने हुए हैं और वे भी अपने-अपने घर के राजा हैं। वे सभी बड़े ही सुन्दरधनवान और सौभाग्यवान हैं और उनकी ड्यौढ़ियों में पारस पत्थर लगे हुए हैं। वे सदैव भोग विलास करते हैं और उन्होंने जीवन में दुःख तथा चिन्ता का कोई नाम तक नहीं जाना है। सभी के भवनों के बहिर्भाग में चौपालें बनी हुई हैंजहां बैठकर कुंवर सार-पासे खेलते हैं। पासों को डालकर सुन्दर खेल खेला जाता है। खड्ग-संचालन और दान देने में उनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। भाट लोग उनकी कीर्ति का भली प्रकार वर्णन करते हैं और उनसे पुरस्कार स्वरूप घोड़े तथा सिंहली हाथी प्राप्त करते हैं।

 

प्रत्येक भवन में फुलवारी लगी हुई है तथा चोवा और चन्दन की सुगन्धि फैली रहती है। उनके भवनों में षट्-ऋतुओं और बारहों मासों में अहिर्निश बसन्त ऋतु छाई रहती है।

 

साहित्यिक सौन्दर्य - 

1. 'खरग...... कोईमें अनन्वयोपमा अलंकार 

2. प्रथम पंक्ति में वृत्यनुप्रास, 'चोवा चंदनमें छेकानुप्रास अलंकार


टिप्पणी- प्राचीन काल में राजकुमार और राजकुमारियों के खेल के संदर्भ में सार -पासे का बहुधा उल्लेख मिलता है।


पुनि चलि देखा राज दुआरू शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


पुनि चलि देखा राज दुआरू। महिं घूबिअ पाइअ नहिं बारू |1|

हस्ति सिंघली बांधे बारा जनु सजीव सब ठाढ़ पहारा |2|

कवनी सेत पीत रतनारे। कवनौ हरे धूम औ कारे |3। 

बरनहि बरन गगन जस मेघा औ तिन्ह गगन पीठ जनु ठेघा | 4 । 

सिंघल के बरने सिंघली एकेक चाहि सो एकेक बली।5। 

गिरि पहार पब्बै गहि पेलहिं । बिरिख उपारि झारिमुख मेलहिं 6 । 

मात निमत सब गरजहि बांधे। निसि दिन रहहिं महाउत कांधे । 7|

धरती मार न अंगवै पावं धरत उठ हालि। 

कुरुम टूट फन फाटे तिन्ह हस्तिन्ह की चालि ॥ 2 / 21 ॥

 

शब्दार्थ – 

दूआरू=द्वारा। 

महिं= अन्दर 

घूबिअ=घूमकर 

बारू= द्वार। 

बारा = द्वार पर। 

जनु = मानो 

कवनौ=कोई 

धूम = धूप के रंग के ।

रतनारे= लाल। 

बरन= रंग। 

ठेघा=टिका हुआ। 

पब्बै= पर्वत । 

गहि = पकड़कर। 

पेलहिं = ठेल देते हैं। 

बिरिख= वृक्ष 

उपारि= उखाड़ कर 

मात=मतवाले। 

निमत=मदहीन ।

अंगवै= अंगीकार कर लीमान ली। 

कुरूंम= पृथ्वी के नीचे स्थित महाकच्छप ।

तिन्ह=उन ।

 

संदर्भ - सिंहल - नरेश के राज-द्वार पर बंधे हाथियों का वर्णन ।

 

व्याख्या- 

तदनन्तर चलकर राजद्वार को देखिए। ऐसा द्वार सारी पृथ्वी पर घूमने अर्थात् चक्कर लगाने पर भी नहीं मिल सकता। राजद्वार पर सिंहली हाथी बंधे हुए हैं। वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो सजीव या साक्षात् पर्वत हों। उन हाथियों में से कोई श्वेत रंग का है तो कोई पीलाकोई लाल है तो कोई हरा कोई धूप जैसे रंग का है तो कोई काला है। उनके रंग आकाश के बादलों जैसे हैं। वे इतने ऊंचे हैं कि ऐसा प्रतीत होता है मानो उन्होंने आकाश को अपनी पीठों पर टिकाया हुआ है। यह वर्णन सिंहल के सिंहली हाथियों का है। उनमें एक से बढ़कर एक बलवान हैं। वे गिरि पहाड़ और पर्वतों को पकड़कर ठेल देते हैं तथा वृक्षों को उखाड़कर उन्हें झगड़ते हुए अपने मुख में दबा लेते हैं। वे सब चाहे मदोन्मत्त हों यहा मदहीनराजद्वार पर बंधे हुए गरजते रहते हैं और महावत उनके कंधों पर रात-दिन बैठे रहते हैं। 

इन विशालकाय हाथियों के भार को पृथ्वी भी सहन नहीं कर पाती और उनके पांव रखते ही हिल उठती है। इन हाथियों के चलने के बोझ से महाकच्छप की पीठ टूट गई जबकि शेषनाग के फन फट गए।

 

साहित्यिक सौन्दर्य-

1हस्ति .............पहारामें उत्प्रेक्षा अलंकार। 

2. 'बरनहिं  ............. मेघामें उपमा अलंकार 

3. औ तिन्ह  ............. ठेकामें उत्प्रेक्षा अलंकार। 

4. 'गिरि पहार  ............. मेलहि में अतिशयोक्ति अलंकार 

5. 'धरती भार  ............. की चालीमें अत्युक्ति अलंकार

 

पुनि बांधे रजबार तुरंगा शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


पुनि बांधे रजबार तुरंगा । का बरनौं जस उन्हके रंगा ॥1 ॥ 

लील समुंद्र चाल जग जानै हांसुल भंवर किआह बखानै । 2 । 

हरे कुरंग महुअ बहुभांती गर्र कोकाह बोलाह सो पांती ॥3। 

तीख तुखार चांड और बांके । तरपहिं तबहि तायन बिनु हांके | 4 | 

मन तें अगुमन डोलहिं बागा देत उसास गगन सिर लागा। 5 । 

पावहिं सांस समुंद पर धावहिं । बूड़ न पावं पार होइ आवहिं । 6 । 

थिर न रहहिं रिस लोह चबाहीं । भांजहिं पूछि सीस उपराहीं । 7 

अस तुखार सब देखे जनु मन के रथवाहा । 

नैन पलक पहुंचावहिं जहं पहुंचा कोउ चाहा ॥ 2 / 22 ॥

 

शब्दार्थ - 

रजवार = राजद्वार। 

लील-नीले 

समुद्र = बादामी 

हांसुल= कुम्मैत। 

भंवर = मुश्की 

किआह = लाल व कल छौंहें

कुरंग = लाख जैसे रंग के 

महुअ = महुए के रंग के 

गर्र = लाल और श्वेत का मिश्रण

कोकाह= श्वेत । 

बोलाह = जिसके गर्दन और पूंछ के बाल पीले हों। 

चांड = प्रचंड 

तायन = चाबुक 

सांस= इशारा 

लोह= लगाम में लगा मुंह का लोहा । 

रथवाह = रथ खींचने वाले । 

अगुमन=आगे 

रिस = क्रोध में 

बूड़ = डूबना 

तुखार = तुखार देश के घोड़े ।

 

संदर्भ - 

सिंहल - नरेश के राजद्वार पर बंधे अश्वों का वर्णन । 

व्याख्या- 

तदनन्तर राजद्वार पर बंधे घोड़े देखिए। उनके जैसे सुन्दर रंग हैंउनका क्या वर्णन करूं उनमें कोई नीले और कोई बादामी रंग का है जिनकी तीव्रगति से सारा संसार परिचित है। उनमें से कुछ अश्व कुम्मैतमुश्की और कोकाह जाति के हैंकुछ अश्व हरेलाल और महुए के रंग के हैं और कुछ गर्दन और पूंछ के श्वेत बालों वाले घोड़े हैं। तुखार देश के तुखारी घोड़े बड़े ही तेजप्रचण्ड और बलवान हैं। वे बिना चाबुक हिलाए ही बिना हांके ही भागने के लिए व्यग्र रहते हैं। बाग हिलाने पर वे मन से भी अधिक तीव्र गति से दौड़ते हैं और उछाल लेते ही अपना सिर ऊंचा उठाकर आकाश से लगा लेते हैं (अर्थात् दुपाए खड़े हो जाते हैं) अथवा उनकी बाग हिलाने पर मनुष्य सांस भी नहीं ले पाता कि वे आकाश से बातें करने लगते हैं। इशारा पाने पर वे समुद्र पर भी दौड़ जाते हैं। उनकी टॉप (तीव्रगति के कारण ) जल में डूबती नहीं हैं अपितु वे पार निकल आते हैं। वे अपने स्थान पर जरा भी स्थिर नहीं रहते और क्रोध में लगाम के लोहे को चबाने लगते हैं। जब वे दौड़ते हैं तो अपनी पूंछों को मोड़कर सिर पर कर लेते हैं। तुखार देश के ये घोड़े देखने में ऐसे प्रतीत होते हैं मानों मन रूपी रथ के वाहक हों अर्थात् उनकी गति मन जैसी तीव्र है। वे नेत्रों के पलक झपकते ही इच्छित गंतव्य स्थान पर पहुंचा देते हैं । 


साहित्यिक सौन्दर्य 

1. इन पंक्तियों से जायसी की घोड़ों विषयक बहुज्ञता का परिचय मिलता है।  

2. 'अस ............ तुखार  रथुवाहुमें उत्प्रेक्षा अलंकार ।

3. 'नैन...........................चाहमें अतिशयोक्ति अलंकार ।


 राजसभा पुनि दीख बईठी इंद्रसभा जनु शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


राजसभा पुनि दीख बईठी इंद्रसभा जनु परि गइ डीठी । 1 । 

धनि राजा अस सभा सवारी। जानहु फूलि रही फुलवारी । 2 । 

मुकुटबंध सब बैठे राजा दर निसान निति जेन्ह के बाजा । 3 ।

रूपवंत मनि दिपै लिलाटा। मांयें छात बैठ सब पाटा । 4 |

मानहु कंवल सरोवर फूलै सगा क रूप देखि मन भूलै |5 | 

पान कपूर मेद कस्तूरी। सुगंध बास भरि रही अपूरी |6 | 

मांझ ऊंच इंद्रासन साजा। गंधबसेनि बैठ जहं राजा 17। 

छत्र गगन लहि ताकर सूर तवै जसु आपु |

सभा कंवल जिमि बिगसै मांथे बड़ परतापु ॥ 2 / 23 ॥

 

शब्दार्थ - 

बईठी = बैठी हुई। 

डीठी = नजर मेंदृष्टि में 

अस=ऐसी 

मुकुटबध= मुकुट बांधे हुए 

दर=द्वार |

निसान=नगाड़े। 

छात=छत्र। 

मेद= सुगन्धित द्रव्य 

अपूरी = पूर्ण 

लहि = तक। 

तवै= तपता 

जसु = यश 

आपु= स्वयं ।

 

जिमि तरह बिगसे होती है। परितापु प्रतापतेज

 

संदर्भ - गंधर्वसेन के राज दरबार का वर्णन।  


व्याख्या - 

इसके पश्चात् (आगे चलने पर) राज सभा बैठी दृष्टिगत होती है। उसे देखकर ऐसा लगता है मानो इन्द्रसभा पर नजर पड़ गई हो। वह राजा धन्य है जिसकी ऐसी सुसज्जित सभा है। उसमें बैठे प्रसन्न वदन नरेशों को देखकर ऐसा लगता है मानों फुलवारी खिली हुई हो। उसमें सभी नरेश मुकुट बांधकर बैठे हैं। इनके द्वारों पर सदैव दुदुभि या नगाड़े बजते रहते हैं। ये राजा बड़े ही रूपवान हैं और उनके मस्तकों पर मणियां सुशोभित रहती हैं। इनके मस्तकों पर मुकुट हैं और ये सभी सिंहासनों पर बैठे हैं। ऐसा लगता है मानों तालाब में कमल खिले हुए हैं। राज सभा की सुन्दरता देखकर मन सब कुछ भूल जाता है। राज सभा में पानकपूरमेद और कस्तूरी की सुगन्धि पूर्णतया परिव्याप्त है।

 

मध्य में एक ऊंचा सिंहासन सुशोभित है जो इन्द्रासन जैसा है। उस पर गंधर्वसेन नरेश बैठा हुआ है। राजा गंधर्वसेन का छत्र आकाश तक है। वह ऐसा तेजस्वी है जैसे स्वयं सूर्य ही तप रहा हो। राजसभा के सदस्य राजा मानो कमल हैं जो सूर्य रूपी गंधर्वसेन को देखकर प्रमुदित हो रहे हैं। उसका मस्तक बड़ा ही प्रतापशाली है।

 

साहित्यिक सौन्दर्य - 

1. 'राज सभा.... गई डीठीमें उत्प्रेक्षा अलंकार । 

2. धनि राजा..... फुलवारीमें उत्प्रेक्षा अलंकार । 

3. 'मानहुं कवल...... भूलैमें उत्प्रेक्षा अलंकार । 

4. 'सभा कमल जिमि बिगसैमें उपमा अलंकार । 


साजा राज मंदिर कबिलासू  शब्दार्थ सप्रसंग  व्याख्या


साजा राज मंदिर कबिलासू । सोने कर सब पुहुमि अकासू | 1 । 

सातखंड धौराहर साजा । उहै संवारि सकै अस राजा | 2 |

हीरा ईंट कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा । 3 ।

जावंत सबै उरेह उरेहे। भांति भांति नग लाग उबेहे । 4 | 

भा कटाव सब अनबन भांति । चित्र होत गा पांतिहि पांती | 5 | 

लाग खंभ मनि मानिक जरे । जनहु दिया दिन आछत बरे । 6 

देखि धौरहर कर उजियारा छपि गे चांद सूर और तारा। 7। 

सुने सात बैकुंठ जस तस साजे खंड सात । 

बेहर बेहर भाठ तेन्ह खंड खंड ऊपर जात ॥2 / 24 ॥

 

शब्दार्थ - 

कबिलासू= कैलास 

पुहुमि= पृथ्वी । 

धौराहर= श्वेत महलधवल गृह । 

उहै  = उसको 

अस= ऐसा । 

गिलावा=गारा।

लै=तक। 

उरेहे = चित्रित किए। 

कटाव = नक्काशी । 

अनबन भांति = अनेक प्रकार से । 

आछत होते हुए = भी। 

जस= जैसे। तस=तैसे ।

बेहर बेहर = पृथक् पृथक्। 

उजियारा = उजाला।

बरे= जल रहे हैं।

 

संदर्भ - गंधर्वसेन के राजमहल का वर्णन

 

व्याख्या - 

दुर्ग में गंधर्वसेन का कैलास की भांति राजमहल सुशोभित हैजिसकी पृथ्वी अर्थात् फर्श तथा आकाश अर्थात् दीवारें और छतें स्वर्ण-निर्मित हैं। उसका धवलगृह सतखंडा है। कोई गंधर्वसेन जैसा राजा ही अपने महल को इस प्रकार सम्भाल सकता है। यह राजमहल कपूर के गारे में हीरे रूपी ईटों को चिनकर बनाया गया है और उसमें नग जड़ते हुए उसे ऊंचाई की दृष्टि से स्वर्ग तक ले जाया गया है अर्थात् वह गगनचुम्बी है। जितने भी प्रकार के चिह्न हो सकते हैं वे सभी इसमें चित्रित किए गए हैं और उसमें तरह-तरह के नग लगाए गए हैं। उसमें नाना प्रकार की पच्चीकारी की गई है और चित्रों की पंक्तियां बनाई गई हैं। उसमें जो स्तम्भ लगे हुए हैं उनमें मणि- माणिक जड़े हुए हैं। वे इतने चमकीले हैं कि उनके कारण ऐसा प्रतीत होता है मानो दिवस में दीपक जल रहे हैं। इस धवलगृह का प्रकाश या चमक को देखकर चांदसूर्य और तारे (लज्जावश) फीके पड़ गए हैं।


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