आदि कालीन साहित्य वर्गीकरण: रासो सहित्य |रासो सहित्य की जानकारी | Raso Sahitya Ki Jaankari

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 आदि कालीन साहित्य वर्गीकरण: रासो सहित्य

आदि कालीन साहित्य वर्गीकरण: रासो सहित्य |रासो सहित्य की जानकारी | Raso Sahitya Ki Jaankari

 

रासो सहित्य की जानकारी 

रासो काव्य के रचना- स्वरूप के संबंध में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार की धारणाओं को व्यक्त किया है। 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार बीसलदेव रासो में प्रयुक्त 'रसायनशब्द ही कालान्तर में 'रासोबना। मोतीलाल मेनारिया के अनुसार- "जिस ग्रंथ में राजा की कीर्तिविजययुद्ध तथा वीरता आदि का विस्तृत वर्णन होउसे 'रासोकहते है ।" 


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- 

रासो तथा रासकपर्याप्त है और वह मिश्रित गेय-रूपक है ।" डा० भागप्रसाद गुप्त के अनुसार विविध प्रकार के रासरासावलय रासा और रासक छन्दों रासक और नाट्य- रासकउपनाटकों रासक रास तथा रासो-नत्यों से भी रासो- प्रबन्ध - परम्परा का संबंध रहा है- यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता।

 

रास काव्य मूलतः रासक छन्द का समुच्चय है। अपभ्रंश में 29 मात्राओं का एक रासा या रास छंद प्रचलित था। विद्वानों ने दो प्रकार के 'रासकाव्यों का उल्लेख किया है- कोमल और उद्धत । प्रेम के कोमल रूप और वीर के उद्धत रूप का सम्मिश्रण पथ्वीराज रासो में है। 

चारण साहित्य की जिस समय रचना हो रही थी वह समय अनुकूल नहीं थाक्योंकि पूरा देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। प्रत्येक राज्य का राजा अलग होता था। प्रत्येक राज्य में आये दिन युद्ध हुआ करते थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन सामाजिक स्थिति खंडित पड़ी हुई थी। उस समय एक धर्म के लोग दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के लोगों को नीचा दिखाने की चेष्टा में लगे हुए थे ।

 

रासो साहित्य सामंती व्यवस्था प्रकृति और संस्कार से उपजा हुआ साहित्य है।

 

(i) रास काव्य परंपरा का विकासः 

रासो काव्य की परंपरा संस्कृत व प्राकृत में नहीं मिलती। अपभ्रंश वैविध्य में जैसा कि विवेचन मिलता है। रासो ग्रंथों का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है- 

(क) उपदेश रसायन-

 इसके रचनाकार श्री जिनदत्त सुरि हैं। इसका रचनाकाल 1200 वि० के लगभग है। इसका विषय जैसा कि नाम से प्रकट हैधर्मोपदेश है।

 

(ii) भरतेश्वर बाहुबली रासः 

इसके रचनाकार शलिभद्र सूरि हैं। इसकी रचना संवत् 1241 में की गई। इस ग्रंथ में भरतेश्वर तथा बाहुबली का चरित्र वर्णन है। कवि ने इन दोनों राजाओं की वीरता युद्ध आदि का विस्तार से वर्णन किया हैकिन्तु हिंसा और वीरता के पश्चात् विरक्ति और मोक्ष के भाव प्रतिपादित करना कवि का मुख्य लक्ष्य रहा है। 205 छंदों में रचित यह एक सुन्दर खंडकाव्य है।

 

(iii) स्थूलभद्र रासः 

जिन धर्म सूरि ने 1209 ई० में इस ग्रंथ की रचना की। इस कृति का नायक स्थलिभद्र कोशा नाम की वेश्या के साथ भोगलिप्त रहता है। अंत में स्थलिभद्र को कवि ने जैन धर्म की दीक्षा लेने के बाद मोक्ष का अधिकारी सिद्ध किया है। इस काव्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है फिर भी इसकी भाषा का मूल रूप हिंदी ही है।

 

(iv) चंदनबाला रासः 

उसके रचियता कवि आसगु है। यह कृति पैंतीस छंदों का एक लघु खंड काव्य हैजिसकी रचना 1200 ई० के लगभग आसगु नामक कवि ने जालौर मे की थी। इसकी कथानायिका चन्दनबाला चम्पा नगरी के राजा दघिवाहन की पुत्री थी। एक बार कौशाम्बी के राजा शतानकि ने चम्पा नगरी पर आक्रमण कियाजिसमें उसका सेनापति चन्दनबाला का अपहरण कर ले गया और एक सेठ को बेच दिया। सेठ की स्त्री ने उसे अपार कष्ट दिए । चन्दनबाला अपने सतीत्व पर अटल रहकर सब दुःख सहती रही और अंत मे महावीर से दीक्षा लेकर मोक्ष को प्राप्त हुई। इस प्रकार लघु कथानक पर आधारित यह जैन रचना करूण रस की गंभीर व्यंजना करती है।

 

(v) नेमिनाथ रासः 

इस ग्रंथ की रचना सुमति मणि ने 1213 ई० मे की थी। 58 छंदों की इस रचना में कवि ने नेमिनाथ का चरित्र सरस शैली में प्रस्तुत किया है। रचना की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित राजस्थानी हिंदी है।

 

(vi) रेवतं गिरी रासः 

इस काव्य कृति के रचियता विजयसेन सूरि है। उन्होंने इस ग्रंथ की रचना 1231 ई० में की थी। इस काव्य में तीर्थकर नेमिनाथ का प्रतिमा तथा रेवंतागिरी तीर्थ का वर्णन है। प्रकृति के रमणीक चित्र इस काव्य के भाव पक्ष तथा कलापक्षों का भंगार करते हैं।

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