आदि कालीन साहित्य वर्गीकरण: नाथ साहित्य |नाथ साहित्य के बारे में जानकारी | Nath Sahitya Ki Jaankari

Admin
0

आदि कालीन साहित्य वर्गीकरण:   नाथ साहित्य, नाथ साहित्य के बारे में जानकारी

आदि कालीन साहित्य वर्गीकरण:   नाथ साहित्य |नाथ साहित्य के बारे में जानकारी  | Nath Sahitya Ki Jaankari

नाथ साहित्य के बारे में जानकारी 

 

नाथ साहित्य उपदेशात्मक साहित्य ही है जिसे 'धार्मिक साहित्यभी कहा जा सकता है। नाथों में 'गोरखएकमात्र ऐसे योगी हैं जो कबीरादि संतों पर विशेष रूप से प्रभाव डालते हैं। गुरू गोरखनाथ ने तथा उनके अनुयायियों ने गद्य तथा पद्य दोनों में ही पुस्तकें लिखी हैं। जो पुस्तकें नाथ साहित्य से संबंधित हैउनके नाम ये है 'गोरखनाथ की बानी' 'गोरख सार' 'गोरख - गणेण गोष्ठी', 'गोरखनाथ', 'की सत्रह कला', 'महादेव गोरख संवाद', 'दत्तात्रेय गोरख संवादविराट पुराण', 'नखइ बोध', 'योगेश्वरी साखी तथा 'गोरख योग

 

महायान से बज्रयानबज्रयान से सहजयान और सहजयान से नाथ सम्प्रदाय का विकास हुआ। जीवन को कर्मकाण्ड के जाल से मुक्त कर सहज रूप की ओर ले जाने का श्रेय नाथों को ही जाता है। इस प्रकार यह सम्प्रदाय सिद्ध-सम्प्रदाय का विकसित एवं पल्लवित रूप है। सिद्धों की विचारधारा को लेकर इस सम्प्रदाय ने उसमें नवीन विचारों की प्राण-प्रतिष्ठा की है।

 

डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार इस सम्प्रदाय के सिद्ध-मत', 'सिद्ध मार्ग', योग-मार्ग', 'योग- सम्प्रदाय', 'अवधूत-मत', 'अवधूत-सम्प्रदाय आदि नाम स्वयं सम्प्रदाय में अधिक प्रचलित है। मनुष्यों में मत्स्येन्द्रनाथ इस परम्परा के सर्वप्रथम आचार्य माने जाते हैं। ये कौल साधक थे। कौल - साधना में साधक का प्रधान कर्त्तव्य जीव-शक्ति को जागत करना है जो जगत् में व्याप्त है और जो कुण्डलिनी के रूप में मनुष्य शरीर में स्थित है। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं शिव थे। उनके पश्चात् मत्स्येन्द्रनाथ हुए और उनके शिष्य गोरखनाथ थे। नाथों की संख्या प्रधानतः नौ मानी जाती है। नागार्जुनजड़भरतहरिश्चन्द्रसत्यनाथगोरखनाथचर्पटजलन्धर और मलयार्जुनकिन्तु नाथ पंथियों के भी 84 सिद्ध कहे जाते हैं।

 

इस सम्प्रदाय में इन्द्रिय-निग्रह पर विशेष बल दिया गया। इन्द्रियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण नारी है। अतः नारी से दूर रहने की शिक्षा दी गयी है। इस संबंध में डॉ० शिवकुमार ने कहा है "सम्भव है कि गोरखनाथ ने बौद्ध विहारों में भिक्षुणियों के प्रवेश का परिणाम और उनका चारित्रिक पतन देखा हो तथा कौल पद्धति या वज्रयान के वाममार्ग में भैरवी और योगिनी रूप नारियों की ऐन्द्रिक उपासना में धर्म को विकृत होते देखा हो।"

 

नाथपंथ की दार्शनिकता सैद्धान्तिक रूप से शैवमत के अन्तर्गत है और व्यावहारिकता की दष्टि से हठयोग से संबंध रखती है। मूलतः हठयोग देह-शुद्धि का साधन मात्र है। नाथ साहित्य के महत्त्व की ओर संकेत करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, "इसने परवर्ती संतों के लिए श्रद्धाचरण प्रधान धर्म की पष्ठभूमि तैयार कर दी थी। जिन संत साधकों की रचनाओं से हिंदी साहित्य गौरवान्वित हैउन्हें बहुत कुछ बनी बनायी भूमि मिली थी। डा० रामकुमार वर्मा ने नाथपंथ के चरमोत्कर्ष का समय बारहवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के अन्त तक माना है। उनका मत है कि नाथ पंथ से ही भक्तिकाल में संत मत का विकास हुआ था जिसके प्रथम कवि कबीर थे। इस मन्तव्य का समर्थन कथ्य और शिल्प दोनों दष्टियों से हो जाता है- नाथपंथी रचनाओं की अनेक विशेषताएँ संत काव्य में यथावत् विद्यमान है। डा० लक्ष्मीसागर ने लिखा है, "यद्यपि कबीर द्वारा प्रवर्तित संत-साहित्य पर सिद्धों का भी प्रभाव हैकिन्तु उसकी नींव नाथ पंत ने ही डाली थी। सिद्ध यदि पूर्वी भारत में क्रियाशील थेतो नाथ- पंथियों का क्षेत्र राजपूताना और पंजाब अर्थात् पश्चिमी भारत था ।"

 

(i) गोरखनाथः 

नाथपंथियों में सबसे अधिक प्रभावशाली गोरखनाथ है। ये मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य थे। राहुल सांस्कृत्यायन ने गोरखनाथ का समय 845 ई० माना है। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी उन्हें नवीं शती का मानते हैं और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तेरहवी शती का बतलाते है। डा० पीताम्बरदत्त बडथ्वाल ग्यारहवी शती का मानते हैं तथा डा० रामकुमार वर्मा शुक्ल भी इस मत से सहमत हैं। गोरखनाथ का मुख्य स्थान गोरखपुर माना जाता है किन्तु इनके मत का अधिक प्रचार पंजाब तथा राजस्थान में हुआ।

 

(ii) रचनाएँ 

इनके ग्रंथों की संख्या चालीस मानी जाती हैं किन्तु डा० बड़थ्वाल ने केवल चौदह रचनाएँ ही उनके द्वारा रचित मानी हैंजिनके नाम हैं-सबदीपदप्राणसंकलीसिष्यादरसननरवै - बौधअभेमात्रा जोगआतम-बोधपन्द्रह तिथिसप्तवारमघीन्द्र गोरखबोधरोमावलीग्यानतिलकग्यानचौंतीस एवं पंचमात्रा । गोरखनाथ ने षट्चक्रों वाला योग-मार्ग हिंदी साहित्य में चलाया था। इस मार्ग में विश्वास करने वाला हठयोगी साधना द्वारा शरीर और मत को शुद्ध करके शून्य में समाधि लगाता था और वही ब्रह्म को साक्षात्कार करता था गोरखनाथ ने कहा है कि वीर वह हैजिसका चित्त विकार-साधन होने पर भी विकृत नहीं होता। 


नौ लख पातरि आगे नाचैपीछे सहज अखाड़ा। 

ऐसे मन लै जोगी खेलैतब अंतरि बसे भँडारा । 

मूर्त जगत् में अमूर्त का स्पर्श करते हुए उन्होंने लिखा है, 

अंजनमाँहि निरंजन चेट्यातिल मुख भेट्या तेल । 

मूरति माँहि अभूरति परस्याभया निरंतरी खेल ।। 


गोरखनाथ की साहित्यिक देन 

चौरासी सिद्धों में सरहप्पाकण्हप्पालूहप्पा तथा नौ नाथों में गोरखनाथ की साहित्यिक देन के आधार पर हम उसे तीन वर्गों में बाँट सकते हैं-

 

1. जीवनदष्टि से योगदान। (दार्शनिक) 

2. भाषा के विकास की दृष्टि से योगदान (भाषा वैज्ञानिक) 

3. काव्यरूपों की दृष्टि से योगदान (काव्यशास्त्रीय) 


विचारों की दृष्टि से जो योगदान नाथों ने दियावह इस प्रकार रहा है-

 

1. वैदिक दर्शन के विरोधियों तथा पक्षधरों को मध्यवर्गी विचारधारा से प्रभावित किया है। बौध धर्म तथा शांकर अद्वैत को विचारों के धरातल पर समीप लाकर नाथों ने अपनी योग साधना से शैव तथा शाक्त दर्शन को भी मिलाने का कार्य किया है। 

2. इंडापिंगलासुषुम्नासुरति निरतिसूर्यएवं चन्द्रनाड़ियों आदि के अशास्त्रीय प्रयोग को लोकशास्त्रीय हठयोगी पारिभाषिक शब्दावली में समाविष्ट करके शरीर में ही सष्टि की कल्पना की। 

3. ब्रह्म कर्मकाण्डीय साधना की अपेक्षा आन्तरिकसहज अथवा हठयोगी साधना पर बल दिया हैजिसका प्रभाव कबीर आदि संतों की वाणियों में देखा जा सकता है। 'महाकुण्डलिनिअथवा पराशक्तितो सारे संसार में व्याप्त है परन्तु स्त्री का प्रतिरूप कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य के शरीर में ही व्याप्त है। उसी की साधना करने से मनुष्य आत्मतत्व को पहचान लेता है। 

4. ब्रह्मा सष्टि को मिथ्या बताकर लोगों को शांकर अद्वैत के मायावाद के निकट लाने का कार्य भी नाथों ने किया ।

5. शिव तथा शक्ति की एकता दिखाकर नाथों ने एक नई तथा वांछनीय विचारधारा से लोगों को भारतीय जीवन-दर्शन से जोड़ने को अनुपम कार्य किया। गुरू गोरख तथा उसके गुरू मत्स्येन्द्र नाथ (मछेन्द्र नाथ) के वार्तालाप से यह तथ्य स्पष्ट किया जा सकता है कि नाथों ने शिव एवं शक्ति को कैसे मिलाकर प्रस्तुत किया है।

 

गुरू गोरख पूछते हैं- 

"स्वामि! कहाँ बसे शक्ति और कहाँ बसे सीव?

कहाँ बसै पवनाकहाँ बसे जीव

कहाँ होइ इनका परचाल है?" गोरख संवाद

 

गुरु मछेन्द्र नाथ उत्तर देते हैं 

"अबधू! अधैँ बसै सक्तिअधैँ बसै सीव 

मध्य बसै पवनिऔ अन्तर बसै जीव ।

 सारे सरीर होत इनका परचाल है। " गोरख संवाद

 

भावार्थ यह है कि वेदान्तीय वाक्यों का अनुवाद करके यह स्थापना की गई कि मैं ही ब्रह्म हूँ और सारा संसार ब्रह्ममय है।शिव तथा शक्ति तो शरीर के आधे-आधे भाग में व्याप्त हैं। इसी विचारधारा ने आगे चलकर शिव का अर्धनारीश्वर रूप भी बनाया। दर्शन की रहस्यात्मक शास्त्रीय मान्यताओं को नाथों ने उन बोलियों में अभिव्यक्त किया जिससे प्रभावित होकर कबीरादि संतों की रहस्योक्तियों तथा विरोधाभासी कथन की उलटबांसियों को प्रेरणा मिली ।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top