रासो काव्य परंपरा का विकास | Raso Kavya Parampara Ka Vikas

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 रासो काव्य परंपरा का विकास

रासो काव्य परंपरा का विकास | Raso Kavya Parampara Ka Vikas
 

 रासो काव्य परंपरा का विकास

छंद वैविध्य परक रासो परंपरा की संदेश रासक सुप्रसिद्ध रचना है।

 

1. पथ्वीराज रासो 

2. बीसलदेव रासो 

3. परमाल रासो 

4. खुमान रासो 

5. हम्मीर रासो 

6. विजयपाल रासो

 

1. पृथ्वी राज रासो: 

पृथ्वीराज रासो को हिन्दी भाषा एवं साहित्य का प्रथम महाकाव्य होने का गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। वीरगाथा कालीन ग्रंथों में यही ग्रंथ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वास्तव में वीरगाथा कालीन साहित्य की प्रतिनिधि रचना होने के कारण इसका महत्त्व साहित्यिक मानदण्ड स्थिर करने में भी सहायक है। इस ग्रंथ के रचियता चन्दवरदाई हैं जो पथ्वीराज चौहान के सखादरबारी कवि तथा एक वीर सेनापति रहे। इस ग्रंथ की कथावस्तु में अग्निकुल के राजपूतों की उत्पत्ति से लेकर मुहम्मद गौरी द्वारा पथ्वीराज के पकड़े जाने तक का समग्र जीवन तथा ऐतिहासिक घटनाओं के साथ-साथ पथ्वीराज तथा जयचन्द की शत्रुता एवं संयोगिता स्वयंवर आदि का भी वर्णन किया है। 

इस ग्रंथ की रचना 69 समयों (अध्यायों) में की गई है।

 

2. बीसलदेव रासो:

इस वीर गीत काव्य की रचना संवत् 1212 विक्रमी में हुई थी। इस की रचना करने वाले नरपति नाल्ह है। उन्होंने अपने आश्रयदाता विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव के चरित्र का सुन्दर वर्णन किया है। बीसलदेव बड़े वीर तथा पराक्रमी राजा थे उन्होंने यवनों के विरूद्ध कई सफल युद्ध किए।

 

3 परमाल रासो: 

इस ग्रंथ के रचनाकार जगनिक नामक भाट कवि हैं जिनका समय सवंत् 1230 है। जगनिक ने अपने आश्रयदाता चन्देले राजा परमाल के दरबार में रहते हुए वीर गीत काव्य की (52 लड़ाइयों की रचना की।

 

4.खुमान रासोः 

यह प्रबन्धात्मक काव्य दलपति विजय नामक कवि द्वारा रचित है। ऐसा स्वीकार किया जाता है कि इस ग्रंथ की जो मूल प्रति उपलब्ध हुई है। उसमें चितौड़ के द्वितीय खुमान के युद्धों का वर्णन हैजिसका समय 870 तथा 900 संवत् के बीच माना गया है। जो प्रति वर्तमान युग की लिखी अथवा छपी मिलती हैंउसमें बहुत परिवर्तन मिलता है। आधुनिक उपलब्ध प्रतियों को देखकर यह निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है कि मूल ग्रंथ की सामग्री क्या है। इस ग्रंथ की भाषा डिंगल ही है जो पुरानी राजस्थानी या मारवाड़ी कही जा सकती है।

 

रासो साहित्य का वर्णन 

रासो साहित्य सामंती व्यवस्थाप्रकृति और संस्कार में उपजा हुआ साहित्य है। जिसका संबंध पश्चिमी हिंदी प्रदेश से है। इसे 'देशभाषा काव्य नाम से भी अभिहित किया जाता है। इस साहित्य के रचनाकारों को हिन्दू राजपूत राजाश्रय में रहने वाले चारण या भाट समाज में सम्मान का स्थान प्राप्त था । ये चारण कला पारखी और कला - रचना में निपुण होते थे। ये लोग योद्धा भी थे।

 

जब भी कोई लिपिकार किसी पुरानी पोथी को लिपिबद्ध करता है तो वह अपने समकालीन राजाओं से सम्बद्ध कथानकों को इसलिए जोड़ देता है ताकि उसके आश्रयदाता को भी महत्त्व मिल जाये। यह तथ्य खुमाण रासोमें जुड़े बाद के प्रक्षिप्त अंश को देखने से स्पष्ट हो जाता है। डा० नगेन्द्र के शब्दों में "वत्त-संग्राहकों के पास इतिहास को समझने की पैनी दष्टि थीइसीलिए राजस्थान में रहते हुए भी वे आदिकाल की समाप्ति को भक्तिकाल और रीतिकाल के भण्डार में डालने का दुराग्रह करके यश अर्जित कर रहे हैंजबकि वह सामग्री उन कालों की प्रवत्तियों से किसी भी रूप में मेल नहीं खाती। इन लोगों ने रचनाकारों के नामों के संबंध में भी भ्रम पैदा कर दिया है।"

 

इस ग्रन्थ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति पूना संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें कुल पाँच हजार छंद हैं। इसमें समकालीन राजाओ के आपसी विवादों के बाद हुई एकता के साथ-साथ अब्बासिया वंश अलमॉमू खलीफा और खुमाण के साथ हुए युद्ध का चित्रण मिलता है। इस कृति का प्रमुख सरोकार राजा खुमाण का चरित्रांकन करना है। उनके चरित्र के दो प्रस्थान बिन्दु हैं- एक युद्ध और दूसरा प्रेम इसकी भाषा राजस्थानी हिंदी है। यथा 

"पिउ चितौड़ न आविऊ सावण पहिली तीज । 

जोवै वाट रति विरहिणीखिणखिण अणवै खीज ।। 

संदेसो पिउ साहिबापाछो फिरिय न देह। 

पंछी घाल्या पीज्जरेघूटण रो संदेस" ।। 


 

5.विजयपाल रासोः

मिश्रबंधुओं ने इस परम्परा की एक कृति 'विजयपाल रासो का उल्लेख किया है जिसके रचियता नल्लसिंह है। इस कृति का नायक विजयपाल सम्भवतः विश्वामित्र गोत्रीय गुहिलवंशीय राजा विजयपाल से भिन्न है जिसने 'काईनामक वीर योद्धा को पराजित किया था। इस राजा के प्रयोत्र विजय सिंह का एक हिंदी शिलालेख दमोह ( म०प्र०) में प्राप्त हुआ है। इस रचना में रचनाकार ने राजा विजयपाल सिंह और बंगराजा के बीच हुए युद्धों को सजीव रूप में चित्रित किया है। इसका रचनाकाल सन् 1298 ई० है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसी नाम की दूसरी कृति का उल्लेख भी किया है जिसके रचनाकार मल्लदेव है। शिल्प विधान की दष्टि से यह आदिकाल के बाद की रचना ठहरती है।

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