रामायण का मूल्यांकन - रामायण का कला पक्ष| Ramayan Kala Paksh

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 रामायण का मूल्यांकन - रामायण का कला पक्ष

रामायण का मूल्यांकन - रामायण का कला पक्ष| Ramayan Kala Paksh
 

रामायण का कला पक्ष

  • रामायण में हृदयपक्ष का प्राधान्य होने पर भी कलापक्ष की अवहेलना नहीं है। वाल्मीकि की भाषा उदात्त भावों की अभिव्यक्ति का समर्थ माध्यम है। छोटे-छोटेप्रायः समासविहीन पदों में महर्षि ने बड़े ही सरस तथा सरल शब्दों के द्वारा अपने भावों की अभिव्यंजना की है। शाब्दी सुषमा की ओर महर्षि का ध्यान स्वतः आकृष्ट हुआ है तथा उन्होंने इसका प्रकटीकरण बड़ी सुन्दरता तथा भावुकता के साथ किया है। आनुप्रासिक शोभा के लिए एक पद्य का दृष्टान्त पर्याप्त होगा।

 

तस्य संदिदिहे बुद्धिस्तथा सीतां निरीक्ष्य च । 

आम्नायानामयोगेन विद्यां प्रशिथिलामिव ||

 

अलंकार से विहीनसुषमा से हीन सीता को देखकर हनुमान जी ने बड़े कष्ट से पहचाना कि यही सीता हैजिस प्रकार संस्कार से हीन तथा अर्थान्तर ( भिन्न अर्थ ) में प्रयुक्त वीणा को सुनकर श्रोता बड़ी कठिनता से उसके स्वरूप को पहचानता है (सुन्दर काण्ड 15/37):

 

दुःखेन बुबुधे सीतां हनुमान् अनलंकृताम् । 

संस्कारेण यथा हीनां वाचमर्थान्तरं गताम् ।।

 

इसी प्रकार उत्प्रेक्षा का प्रदर्शन भी बड़ा चमत्कारपूर्ण है। लंका-दाह के अनन्तर हनुमान अरिष्ट पर्वत के ऊपर जब चढ़ते हैं (सर्ग 56), तब वाल्मीकि ने उत्प्रेक्षाओं की झड़ी लगा दी है- एक से एक नवीन चमत्कारी उत्प्रेक्षा जिसे कवि की वाणी ने स्पर्श कर उच्छिष्ट नहीं बना डाला है। पर्वत के श्रृगों से लटकने वाले मेघों के द्वारा प्रतीत होता है कि वह पहाड़ चादर ओढ़े हुए है:

 

सोत्तरीयमिवाम्भोदैः श्रृगान्तर विलम्बिभि ।

 

जल की बाढ़ की गम्भीर गड़गड़ाहट के कारण वह पर्वत अध्ययन-सा प्रतीत होता है तथा अनेक झरनों के शब्दों से वह गीत गाता सा मालूम पड़ रहा है (सुन्दर काण्ड 56/28)

 

तोयौघनिःस्वनैर्मन्द्रैः प्राधीतमिव सवर्तः । 

प्रगीतमिव विस्पष्टं नानाप्रस्रवणस्वनैः ॥

 

  • अलंकारो का यह विन्यास पाठकों के हृदय में केवल कौतुक तथा चमत्कार उत्पन्न करने के लिए नहीं किया हैप्रत्युत् यह रसानुकूल है मूल रस का पर्याप्त रूप से पोषकसंवर्धक तथा परिवृंदक है। रूपक की भी छटा कम सुहावनी नहीं है। तात्पर्य यह है कि रामायण में कला बनाते हैं। पक्ष का विकास भी बड़ी सुन्दरता के साथ किया गया है। तथ्य यह है कि रसमग्न कवि जान-बूझकर किसी शाब्दी शोभा या आर्थी छटा से अपने काव्य को चमत्कृत इस तथ्य को हमारे आलंकारिकों ने खूब पहचाना है और इसीलिए आनन्दवर्धक रसपेशल अलंकार के लिए 'अपृथक् यत्ननिर्वर्त्यहोना नितान्त आवश्यक गुण मानते हैं रसात्मक अलंकार के लिए कवि को कोई प्रयत्न अलग नहीं करना पड़ता। रसाविष्ट दशा में वे स्वत: आविर्भूत हो जाते हैंयह तथ्य हमारे आलोचकों ने वाल्मीकि की काव्य कला के विश्लेषण से अवगत किया ।

 

  • वाल्मीकि की प्रतिभा तथा योग्यता की एक महती दिशा अभी तक सामान्य आलोचकों की दृष्टि से ओझल रही है। वाल्मीकि हमारे आदिकवि ही नहीं हैप्रत्युत् आदि आलोचक भी हैं। काव्य का नैसर्गिक रूप क्या होता हैमहाकाव्य के भीतर किन मौलिक उपादानों का ग्रहण होता है आदि प्रश्नों का प्रथम उत्तर हमें 'वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध होता है। संस्कृत साहित्य में 'महाकाव्यकी कल्पना रामायण के साहित्यिक विश्लेषण का निश्चित परिणाम है। रामायण के अन्तरंग तथा बहिरंग की समीक्षा करके संस्कृत साहित्य को वर्धिष्णु तथा समृद्ध बनाया। काव्य के अन्तरंग के अन्तरंग की समीक्षणके प्रसंग में महर्षि की सबसे बड़ी देन आलोचना-जगत् को है- शोक तथा श्लोक का समीकरण (शोक: श्लोकत्वमागत) । इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर संस्कृत के मूर्धन्य आलोचक आनन्दवर्धन ने तथा महाकवि कालिदास ने समभावेन इंगित किया है। कालिदासकी स्पष्ट उक्ति है (रघुवंश) :-

 

विषादविट्टाण्डजदर्शनोत्यः श्लोकत्वमापद्यत् यस्य शोकः 

आनन्दवर्धन की रूचिर आलोचना है (ध्वन्यालोक 1/5 ) : 

काव्यस्यात्मा स एवार्थस्तथा चादिकवेः पुरा । 

क्रौञ्चद्वन्द्ववियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः ॥

 

  • इस समीकरण का तात्पर्य बड़ा गम्भीर है। रसाविष्ट हृदय होने पर ही कविता का उद्गम होता है। जब तक कवि के हृदय को तीव्र भावना आक्रान्त नहीं करतीतब तक वह विशुद्ध कविता का निर्माण नहीं कर सकता। काव्य अन्तश्चेतना की बाह्य अभिव्यक्ति है। जो हृदय स्वत: किसी भाव का अनुभव नहीं करतावह किसी भी दशा में दूसरों के ऊपर उस भाव को प्रकटीकरण नहीं कर सकता। अतएव रसात्मक कविता उन्मेष के लिए हृदय को रस दशा में पहुँचाना ही पड़ता है। तीव्र भाव के अन्तः जागरण के साथ ही साथ उसकी शाब्दी अभिव्यक्ति बाहर अवश्यमेव होती है। आलोचना के इस मर्म को वाल्मीकि का महत्वपूर्ण तथ्यसंकेत है। यह तक हुई काव्य की अन्तः स्फूर्ति की चर्चा ।


  • काव्य के बहिरंग रूप के विषय में वाल्मीकि में बहुत-सी उपादेय सामग्री अपने विश्लेषण की अपेक्षा रखती है। लव-कुश के द्वारा मधुर स्वरों में रामायण का गायन वाल्मीकि की इस मार्मिक आलोचना का भाजन है (बालकाण्ड 4 / 17 )

 

अहो गीतस्य माधुर्य श्लोकानां च विशेषतः । 

चिरनिवृत्तमप्येतत् प्रत्यक्षमिव दर्शितम् ।।

 

  • प्राचीन काल में बहुत पूर्व निवृत्त होने वाली घटना को प्रत्यक्ष के समान दिखलाने वाला काव्य ही हमारी श्लाघा का पात्र होता है। यह पद्य केवल माधुर्य गुण तथा भाविक अलंकार के काव्य में आवश्यक प्रसाधन होने की ओर ही संकेत नहीं करताप्रत्युत यह पद्य अभिनवगुप्त के साहित्य शास्त्रीय गुरू भट्टतौत के उस महत्वपूर्ण सिद्धान्त का भी आधार है जिसके द्वारा रस की अनुभूति के लिए उसका प्रत्यक्षायमाणहोना एक आवश्यक साधन होता है। इसी प्रकार किष्किन्धा काण्ड में हनुमान जी के भाषण की प्रशंसा में रामचन्द्र ने जो उपादेय बातें कहीं हैं वे साहित्य की दृष्टि से मार्मिक है। (किष्किन्धा काण्ड 3 सर्ग 30-32 श्लोक) । इस प्रकार समीक्षा करने पर वाल्मीकि का आलोचक रूप भी हमारे सामने भली भाँति प्रकट होता है।

 

  • तथ्य तो यह है कि वाल्मीकि की प्रतिभा ने रामायण में जिस अमृत रस का सन्निवेश किया है वह सदा कविजनों को आप्यायित करता रहेगा। हजारों वर्षो से भारतीय पाठकों का हृदय रामायण के पाठ से स्पन्दित होता आया है और आगे भी स्पन्दित होता रहेगा। मानव-मूल्यों के अंकन मेंकाव्य के सुचारू आदर्श के चित्रण मेंजीवन को उदात्त बनाने की कला मेंसत्यं तथा शिवं के साथ सुन्दरं के मधुमय सामान्जस्य में वाल्मीकि की वाणी विश्व के सामने एक भव्य आदर्श उपस्थित करके जनता के हृदय को सदा आप्यायित करती रहेगी-इस चिरन्तन सत्य का कथमपि अपलाप नहीं हो सकता। 

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