महाकवि भारवि का परिचय | भारवि का समय | Maha Kavi Bharavi Ka Parichayi

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महाकवि भारवि का परिचय | भारवि का समय | Maha Kavi Bharavi Ka Parichayi

महाकवि भारवि का परिचय Bharavi Ka Parichayi

  • कालिदास और अश्वघोष के बाद तृतीय उल्लेखनीय महाकवि भारवि हैं, पर इनका काव्य मार्ग जिसे काव्य क्षेत्र में विचित्र मार्ग भी कहा जाता है, कालिदास से भिन्न है और यही इस मार्ग के प्रवर्तक महाकवि हैं। अतः स्पष्ट है कि कालिदास पश्चात्वर्ती काव्यकारों में महाकवि भारवि सर्वश्रेष्ठ प्रथम कवि हैं, इनके उत्तरकालीन माघ भवभूति, श्री हर्ष आदि कवियों ने इनके ही विचित्र मार्ग का अनुसरण किया है । इस युग के काव्यों में कलापक्ष का परम साध्य बन गया है।

  • संस्कृत महाकाव्यों में रचना कौशल और भावाभिव्यंजना की दृष्टि से वृहत्रयी और लघुत्रयी प्रसिद्ध है । 
  • प्रथम में किरातार्जुनीयम्, शिशुपाल वध तथा नैषधीयचरितम् नामक महाकाव्य है और कालिदास के तीनकाव्य रघुवंश, कुमारसंभव और मेघदूत लघुत्रयी में माने जाते हैं। इस प्रकार वृहत्त्रयी में भारवि सर्वश्रेष्ठ प्रथम कवि है । 
  • भारवि ने प्रचलित भाव पक्ष प्रधान काव्य धारा को एक नया मोड़ देकर उसमें कलापक्ष को अधिक महत्त्व प्रदान किया, अतः इसके काव्यों में जहाँ एक ओर पदों के अर्थो का गाम्भीर्य है, वहाँ दूसरी ओर विविध मनोरम अलंकारों की शोभा का चमत्कार है।
  • अर्थगरिमा, सुन्दर पदविन्यास और अलंकारों की सजावट ही भारवि का सबसे बड़ा काव्य-कौशल है। भारवि अपने समय के राजनीति के प्रकाण्ड पंडित थे और विविध शास्त्रों के अध्येता कवि थे।

 

भारवि का समय

 

  • संस्कृत साहित्य के महत्त्वपूर्ण काव्यकारों में भारवि का विशिष्ट स्थान है। इनके जीवनचरित के विषय में इनका एकमात्र ग्रन्थ ' किरातार्जुनीयम् ' एकदम मौन है। इनके समय आदि का ज्ञान हमें बहिरंग से प्राप्त होता है। 
  • भारवि के काव्य में कालिदास की रचनाओं का बहुत अनुकरण है - - ऐसा विद्वानों का अभिप्राय है अतः भारवि का कालिदास के बाद होना निश्चित है। 
  • माघ (600 ई. ) पर भारवि की स्पष्ट छाप है। गद्य सम्राट महाकवि बाण ( सप्तम शती का पूर्वार्द्व ) अपने हर्षचरित में भारवि के नाम का उल्लेख नहीं करते। अतः अनुमान होता है कि उनके काल तक भारवि का यश विशेष विस्तृत नहीं हुआ था । 

ऐहोल अभिलेख और भारवि 

  • सर्वप्रथम भारवि नाम ऐहोल ( 634 ई. ) के शिलालेख मे मिलता है। यह शिलालेख दक्षिण में बीजापुर जिले के ऐहोल नामक ग्राम के एक जैन मन्दिर में मिला है। 
  • शिलालेख की प्रशस्ति दक्षिण के चालुक्यवंशी राजा पुलकेशी द्वितीय के आश्रित रविकीर्ति नामक किसी जैन कवि के द्वारा अपने आश्रयदाता के विषय में लिखी गई है प्रशस्ति की समाप्ति पर रविकीर्ति अपने आपको कविता निर्माण की कला में कालिदास तथा भारवि के समान यशस्वी बतलाता है।

 

काशिका वृति और भारवि 

  • काशिका वृति में जिसकी रचना वामन और जयादित्य द्वारा 650 ई. के लगभग की गई थी, भारवि की ' किरातार्जुनीयम् ' से एक उदाहरण दिया गया है, इससे प्रतीत होता है कि भारवि अब तक एक के रुप में प्रसिद्ध हो चुके थे, अतः भारवि की स्थिति सातवीं शताब्दी के पूर्व मानी जा सकती है । 


गंगनरेश दुर्विनीत के शिलालेख  और भारवि 

  • गंगनरेश दुर्विनीत के शिलालेख से यह सिद्ध होता है कि दुर्विनीत ने किरातार्जुनीयम्' के पन्द्रहवें सर्ग पर टीका लिखी थी पन्द्रहवाँ सर्ग चित्रकाव्य है। अतः क्लिष्ट है। इसलिए उस पर टीका लिखना वैदुष्य का काम है। 


  • राजा दुर्विनीत का काल वि. सं. 538 ( ई. 481 ) है। दुर्विनीत के इस उल्लेख से भारवि का समय पंचम शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। दुर्विनीत के इन शिलालेखों से यह सिद्ध होता है कि पंचम शताब्दी के अन्तिम चरण तक भारवि की कीर्ति प्रभा दक्षिण भारत में पूर्णतः प्रकाशित हो चुकी थी । 

अवन्तिसुन्दरी कथा और भारवि 

अवन्तिसुन्दरी कथा के आधार पर यह सिद्ध होता है कि भारवि दक्षिण भारत के रहने वाले और पुलकेशीद्वितीय के अनुज विष्णुवर्धन के सभा-पण्डित थे । 

विष्णुवर्धन का शासन काल 615 ई. के आसपास होना चाहिए किन्तु ' अवन्ति सुन्दरी के कथन एवं साक्ष्य की अपेक्षा शिलालेखों का प्रामाण्य अधिक आदरास्पद एवं विश्वसनीय है । ,

 

1. येनायोजि नवेश्म स्थिरमर्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म | 

सविजयतां रविकीर्तिः कवतिश्रितकालिदास भारविकीर्तिः ॥ 


2. सदावतारकारेण देवभारतीनिबद्ववडकथेन 

किरातार्जुनीयपंचदशसर्गटीकाकारेण दुर्विनीतनामधेयेन ।

 

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