व्यवहार का वैज्ञानिक रूप में अध्ययन | Scientific Study of Behavior

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 व्यवहार का वैज्ञानिक रूप में अध्ययन
Scientific Study of Behavior

व्यवहार का वैज्ञानिक रूप में अध्ययन Scientific Study of Behavior

  •  यदि अध्ययन करने के लिए इस्तेमाल किया दृष्टिकोण वैज्ञानिक है तो व्यवहार का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया जा सकता है। हम वैज्ञानिक विधि का प्रयोग कुछ प्रमुख मुद्दों जैसे माता-पिता अपने बच्चों का पालन पोषण किस प्रकार करते हैं, बच्चा अपने साथियों से किस प्रकार बातचीत करता है, बच्चे की सोच, सीखने की प्रवृत्ति आदि में टी. वी. देखने से आए तथा बच्चे के खेलों में आए विकास परिवर्तनों का अध्ययन करने में कर सकते हैं । ठीक उसी प्रकार जैसे वैज्ञानिक विधि का प्रयोग यह जानने में करते हैं कि गुरुत्वाकर्षण किस प्रकार कार्य करता है या फिर किसी यौगिक की आण्विक संरचना।

 

 वैज्ञानिक विधि

  • विकास मनोवैज्ञानिक अनुसंधान विधियों का प्रयोग बच्चों का अध्ययन करने किया जाता है । ये विधियां अनिवार्य रूप से वही विधियां होती हैं जो वैज्ञानिकों या शोधकर्ताओं द्वारा प्रकृति विज्ञान में प्रयोग की जाती हैं। किसी भी जानकारी को स्वीकार करने से पूर्व शोधकर्ता इस बात की जांच कर लेते हैं कि वह जानकारी एक अच्छे शोध से प्राप्त हुई है या नहीं। वैज्ञानिक शोध वस्तुनिष्ठ, व्यवस्थित तथा परीक्षण योग्य होते हैं। यह वैज्ञानिक विधियों पर आधारित होते हैं। सटीक जानकारी प्राप्त करने के लिए या किसी भी समस्या या मुद्दे का अध्ययन करने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा इस्तेमाल किया गया दृष्टिकोण वैज्ञानिक विधि कहलाता है।

 वैज्ञानिक विधि द्वारा अध्ययन के प्रमुख चरण
 

1. समस्या की अवधारणा

 

  • अध्ययन का प्रथम चरण है समस्या को समझना जिसमे समस्या के सामान्य विवरण के स्थान पर उसे विशिष्ट रूप से परिभाषित करके समस्या की पहचान की जाती है। ऐसा करने के लिए शोधकर्ता सिद्धांतों को ठीक प्रकार से समझते हैं तथा परिकल्पना तैयार करते हैं। सिद्धांत, कथनों का एक समूह होता है जो व्यवहार और उसे प्रभावित करने वाले कारकों के मध्य सम्बन्ध का वर्णन करता है। वह कथन जो इस सम्बन्ध को सिद्ध करता है, परिकल्पना कहलाता है। एक शोध अध्ययन आमतौर पर शोधकर्ता की परिकल्पना की जांच हेतु किया जाता है कि संसार में उपस्थित कोई विशिष्ट कारक किसी व्यवहार को कितना प्रभावित करता है। अच्छा शोध एक अंतर्निहित सिद्धांत द्वारा निर्देशित होता है।

 

2. आंकड़े एकत्रित करना

 

  • आंकड़े एकत्रित करने हेतु शोध समस्या के अनुरूप विशिष्ट एवं विभिन्न तकनीकों का प्रयोग किया जाता है जैसे अवलोकन, साक्षात्कार, प्रश्नावली आदि। इन सभी तकनीकों के बारे में हम आने वाले अध्यायों में पढ़ेंगे।

 

3. निष्कर्ष

 

  • तीसरा चरण एकत्रित किए गए आंकड़ों का अर्थ समझना, उनका विश्लेषण करना तथा उसमें से निष्कर्ष निकालना है। यह सब एकत्रित किए गए आंकड़ों पर सांख्यिकी के प्रयोग द्वारा किया जाता है। इसके बाद शोधकर्ता अपनी खोज की तुलना उसी विषय पर दूसरों द्वारा की गयी खोजों से करता है।

 

4. शोध के सिद्धांत एवं निष्कर्ष में संशोधन

 

  • यह वैज्ञानिक विधि का अंतिम चरण है। इस चरण में प्राप्त निष्कर्ष की ठीक प्रकार से जांच की जाती है और यदि कोई संशोधन आवश्यक लगता है तो वह उसमें किया जाता है।

 

  • मनोवैज्ञानिक शोध में इन चरणों के बाद एक महत्वपूर्ण विशेषता वस्तुनिष्ठता आती है जिसकी आवश्यकता होती है कि खोज का विषय एवं तरीका सिद्धांत के अनुसार होना चाहिए जिसमें सबकी सहमति हो। आसान शब्दों में कहा जाए तो अध्ययन इस प्रकार का होना चाहिए कि यदि आवश्यकता हो तो किसी अन्य शोधकर्ता द्वारा वही शोध उसी तरीके से करके उसकी प्रतिकृति बनायी जा सकती हो।

 

  • शोध की वस्तुनिष्ठता विभिन्न तरीकों से प्राप्त की जा सकती है । इसमें पहला तरीका है निरीक्षण किए जा रहे व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करना। दूसरा तरीका है यह देखना कि अध्ययन के अंतर्गत निरीक्षण किया जा रहा व्यवहार मापने योग्य है या नहीं। इसके अतिरिक्त शोध की वस्तुनिष्ठता बनाए रखने का एक तरीका यह भी है कि शोध में सब कुछ मात्रात्मक हो या मापने योग्य हो। अब हम प्रयोगात्मक तथा गैर प्रयोगात्मक विधियों के सम्बन्ध में पढ़ेंगे।

 

व्यवहार अध्ययन की गैर प्रयोगात्मक विधि

 

गैर प्रयोगात्मक विधि दो प्रकार की हो सकती हैं:

 

वर्णनात्मक शोध विधि:

  •  इस प्रकार की विधि में केवल व्यवहार का अवलोकन कर उसे रिकॉर्ड किया जाता है। शोधकर्ता अवलोकन किए गए व्यवहार तथा अन्य कारकों के मध्य सम्बन्ध की पहचान करने की कोशिश नहीं करता है। वर्णनात्मक शोध विधि हेतु आंकड़े एकत्रित करने के लिए विभिन्न विधियों जैसे अवलोकन, सर्वेक्षण, साक्षात्कार, मानकीकृत परीक्षण तथा व्यक्ति अध्ययन आदि का प्रयोग किया जाता है। वर्णनात्मक शोध विधि द्वारा व्यक्ति के बारे में जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। यद्यपि इस विधि के द्वारा हमें उन विभिन्न कारकों के सम्बन्ध में बहुत सारी पता लगता है जिससे कोई व्यवहार या घटना होती है किन्तु ये विधि उसे निश्चितता से प्रमाणित नहीं करती है।

 

सह सम्बंधित शोध विधि:

  •  यह विधि केवल व्यवहार या घटना के वर्णन पर खत्म नहीं होती है। यह विधि हमें यह अनुमान लगाने में भी मदद करती है कि व्यक्ति कैसा व्यवहार या प्रतिक्रिया करेगा । यह विधि यह भी जांच करने में उपयोगी है कि क्या कोई दो या अधिक घटनाएं या विशेषताएं आपस में सम्बंधित हैं और यदि हैं तो यह सम्बन्ध कितना मजबूत है। यह सह सम्बन्ध जितना मजबूत होगा एक घटना से दूसरी घटना का अनुमान लगाना उतना ही प्रभावी होगा। सहसंबंध एक कथन है जो यह बताता है कि किस तरह दो कारक आपस में सम्बंधित हैं।

 सह सम्बंधित शोध से तीन प्रकार के संबंधों का पता लगता है जो निम्न प्रकार हैं:

 

धनात्मक सहसंबंध

  • इस प्रकार के सम्बन्ध में दोनों कारक एक ही दिशा में बदलते हैं। अर्थात जब एक कारक घटता या बढ़ता है तो दूसरा कारक भी उसी क्रम में परिवर्तित होता है। उदाहरणार्थ आयु तथा लम्बाई दो ऐसे ही कारक हो सकते हैं जो आपस में धनात्मक सह सम्बन्ध रखते हैं। जब बच्चे की आयु बढ़ती है तो सामान्यतया उसकी लम्बाई भी बढ़ती है।

 

 ऋणात्मक सहसंबंध

  •  इस प्रकार के सम्बन्ध में कारक एक दूसरे से उल्टी दिशा में परिवर्तित होते हैं। अत: यदि एक कारक बढ़ेगा दो दूसरा घटेगा। उदाहरण के लिए बच्चे की आयु तथा उसके द्वारा घर पर बिताया जाने वाला समय ऐसे कारक हो सकते हैं। बच्चे की आयु बढ़ने के साथ सामान्यतया उसका घर पर बिताया जाने वाला समय कम होता जाता है।

 

तीसरे प्रकार के सहसंबंध

  • तीसरे प्रकार के सहसंबंध में दो कारक आपस में सम्बंधित नहीं होते हैं तथा उनका आपस में कोई सहसंबंध नहीं होता है। उदाहरणार्थ बच्चे की लम्बाई का उसकी कक्षा में उपस्थित कुल बच्चों से कोई सम्बन्ध नहीं होता है अत: ये इसी प्रकार के सहसंबंध को प्रदर्शित करते हैं। गैर-प्रयोगात्मक विधियों को पढ़ने के पश्चात अब हम प्रयोगात्मक विधियों के सम्बन्ध में पढ़ेंगे।

 

व्यवहार अध्ययन प्रायोगिक विधि

 

  • प्रयोग एक सावधानीपूर्वक निर्मित और नियंत्रित प्रक्रिया है जिसमें उस कारक में परिवर्तन किए जाते हैं जिससे व्यवहार को प्रभावित करने की अपेक्षा की जाती है तथा अन्य सभी कारकों को स्थिर रखा जाता है।
  • प्रायोगिक विधि कारण तथा प्रभाव समझाने में मदद करती है। जब एक कारक में परिवर्तन किए जाते हैं तथा अवलोकित व्यवहार बदल जाता है तो यह कहा जाता है कि परिवर्तित कारक कारण है तथा बदला हुआ व्यवहार प्रभाव है।
  • प्रायोगिक शोध में शोधकर्ता कारण तथा प्रभाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाल सकता है। यह एक शक्तिशाली वैज्ञानिक साधन है जो ना केवल कारण तथा प्रभाव के सम्बन्ध को प्रकट करता है बल्कि इसे कई प्रकार की समस्याओं तथा समायोजनों के लिए लागू किया जा सकता है। 
  • प्रायोगिक शोध सामान्यतया प्रयोगशालाओं में किए जाते हैं जहां परिस्थितियों को सावधानीपूर्वक नियंत्रित किया जाता है तथा उनकी जांच की जाती है।
  • प्रायोगिक शोध प्राकृतिक परिस्थितियों में भी किए जाते हैं जहां पर बच्चे का व्यवहार अधिक स्वाभाविक होता है जैसे खेल का मैदान, कक्षा, घर आदि। आगे हम शोध अध्ययनों में प्रयोग होने वाले चरों के सम्बन्ध में पढ़ेंगे। 


चर वह गुण है जिसके एक ही पैमाने पर विभिन्न मूल्य हो सकते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं:

 स्वतन्त्र एवं आश्रित चर

 स्वतन्त्र चर

  •  स्वतन्त्र चर वह कारक हैं जिसे शोधकर्ता उसके प्रभाव को जानने तथा किसी निरीक्षित घटना से सम्बंधित करने के लिए घटाता या बढ़ाता है।

 आश्रित चर

  •  यह वह कारक है जो प्रयोग द्वारा स्वतंत्र चर के प्रदर्शन पर प्रदर्शित हो अर्थात स्वतंत्र चर को हटाने पर हट जाए या उसमें परिवर्तन करने पर खुद भी परिवर्तित हो जाए। अत: शोधकर्ता किसी प्रभाव या प्रतिक्रिया को देखने के लिए स्वतन्त्र चर में परिवर्तन कर आश्रित चर का अवलोकन करते हैं।
  •  प्रायोगिक विधि में शोधकर्ता उपकल्पना के परीक्षण हेतु स्वतन्त्र चर में परिवर्तन करते हैं तथा उसके प्रभाव को आश्रित चर में देखते हैं। उपकल्पना दो या दो से अधिक कारकों के मध्य अनुमानित सम्बन्ध है जिनका परीक्षण प्रायोगिक अन्वेषण के दौरान किया जाता है।

 

  • कभी-कभी प्रायोगिक शोध विधि में दो अध्ययन समूह होते हैं, प्रायोगिक समूह तथा नियंत्रित समूह। प्रायोगिक समूह वह समूह होता है जिसमें स्वतन्त्र चरों में परिवर्तन करके तथा उसके प्रभाव को आश्रित चरों में देखकर उनके अनुभवों को घटाया या बढ़ाया जा सकता है। एक नियंत्रित समूह वह होता है जो हर प्रकार से प्रायोगिक समूह के समान होता है लेकिन केवल एक भिन्नता होती है कि नियंत्रित समूह में प्रायोगिक समूह की भांति स्वतंत्र चर को परिवर्तित नहीं कर सकते। इन दोनों समूहों की सहायता से दो कारकों के मध्य तुलना, प्रतिपादन तथा कारण एवं प्रभाव सम्बन्ध को प्रमाण के साथ साबित किया जा सकता है।

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