योग का महत्व | Importance of Yoga

Admin
0

योग का महत्व Importance of Yoga

योग का महत्व Importance of Yoga


 

योग विद्या प्राचीन काल से अब तक योगियों के हृदय में पवित्र मंदाकिनी के अविरल प्रवाह की तरह प्रवाहित होती आ रही है यह विद्या हमारे ऋषि - मुनियों द्वारा प्रदत्त ऐसा साधन विज्ञान है, जो मानव जाति के उद्धार करने में समर्थ है। योग विद्या द्वारा आत्मा का परमात्मा से मिलन सम्भव है। मस्तिष्क का शरीर का नियन्त्रण हो पाता है । व्यक्तित्व को सुसंस्कृत व सुमन्नत यदि बनाया जा सकता है, तो वह योग विद्या के द्वारा ही सम्भव है, अन्य द्वारा नहीं। यदि योग विद्या को मानव धर्म से अलग कर दिया जाए, तो मानव जाति का उद्वार सम्भव नहीं। योग मानव जाति के लिए वह दिव्य चक्षु है, जिससे प्राप्त योग, दिव्य दृष्टि द्वारा सृष्टि के गूढ़तम रहस्यों को जाना जा सकता है। इसी योग साधना के द्वारा ही आत्म साक्षत्कार, आत्मदर्शन, तत्वदर्शन, दिव्यदर्शन होता है ।

इसलिए याज्ञवल्क्य स्मृति में भी कहा गया है

 

'अयं तु परमो धर्मो यत्योगेनात्मदर्शनम् ।'

 

अर्थात् 

जिस साधना द्वारा आत्म दर्शन और ब्रहम साक्षात्कार होता है, वह योग शास्त्र है। वह मानव मात्र का परम धर्म होता है। अतः योग का अनुष्ठान करना चाहिए। आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार, से ही मुक्ति मिलती है। आत्मज्ञान के बिना यह सम्भव नहीं है, और आत्मज्ञान भी योग के अनुष्ठान किये दृढ़ अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकता है।


यह अनुष्ठान दीर्घ काल तक तो और कैसे हो उसका वर्णन महर्षि पतंजलि ने 1 / 14 में इस प्रकार किया है-

 

सतु दीर्घ काल नैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढ़ भूमि ।'

 

अर्थात् 

यह अभ्यास दीर्घकाल तक निरन्तर सत्कार पूर्वक सेवा कर श्रृद्धा के साथ करने से ही सिद्ध होता है। अतः योग साधना की सिद्धि के लिए उत्साह और अटूट साधना और योग्य गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। तभी योग साधना में प्रगति होती है इस योग साधना में प्रवृत्त ऋषि मुनियों ने वेद ज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार दीर्घ सुखी व स्वस्थ जीवन जीने की कला, इस योग विद्या को अपनाया। धीरे - धीरे यह योग विद्या लुप्त हो गयी थी। परन्तु आधुनिक युग के समसामायिक संकटो से उपजे रोग, भय तनाव, चिन्ता आदि से ग्रस्त मनुष्य ने इस योग का मार्ग अपनाया। और यह योग विद्या अपने प्रभाव से अत्यन्त लोक प्रिय हो गयी। इस योग विद्या पर सम्पूर्ण विश्व में शोध कार्य हो रहे है। यह योग विद्या साधारण मनुष्य के लिए जितना उपयोगी है, उतना ही उपयोगी योग के मुमुक्षु साधको के लिए भी हैं योग विद्या के द्वारा सम्पूर्ण स्वास्थ्य के साथ - साथ मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। इस योग साधना के द्वारा मनुष्य अटूट स्वास्थ्य, दीर्घायु, दिव्य जीवन, अलौकिक विभूतियाँ, मुक्ति, मोक्ष आदि सभी कुछ प्राप्त कर सकता है। परन्तु आज के आधुनिक युग में भाग दौड़ भरी जिन्दगी में मनुष्य रोगों से ज्यादा ग्रस्त है, और योग ऐसे में मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य के साथ - साथ सामाजिक स्वास्थ्य भी प्रदान करता है। विकास के इस युग योग का क्षेत्र अत्सन्त व्यापक है व योग का अनेक क्षेत्रो में महत्व है। 

मानवीय जीवन में योग का महत्व 

मानवीय जीवन के अनेक क्षेत्रों में योग का महत्व है, जिसका वर्णन इस प्रकार है -

 

योग का शारीरिक महत्व 

  • योग साधना का शारीरिक स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण भूमिका है योग के आठ अंगों में तीसरा, चौथा अंग आसन व प्राणायाम से शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है। योगासनो से शारीरिक शक्तियों को विकसित किया जाता है। जिससे शरीर हष्ट पुष्ट बनता है। उससे अंग प्रत्यंग की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है, तथा शरीर स्वस्थ व निरोग बनता है। आसन व प्राणायाम के द्वारा सभी अंग सुचारू रूप से कार्य करने लगते है, तथा अंतस्रावी तन्त्र प्रभावित होता हैं, तथा ग्रन्थियो के स्राव सन्तुलित होते है । जिससे शरीर स्वस्थ होता है। योग एक स्वस्थ जीवन जीने की कला है । जिसे अपनाने से सुव्यवस्थित जीवन हो जाता है व शरीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है ।

 

  • वही हठयोग के अभ्यास षट्कर्मों के द्वारा शरीर में व्याप्त मल बाहर निकलते है । शरीर शुद्ध होता है । कुपित हुआ वात, पित्त कफ सन्तुलित होता है । वमन से कफ की निवृत्ति होती है। व पित्त की निवृत्ति होती है । वस्ति क्रिया से वात की निवृत्ति होती है । इस प्रकार तीनों दोषों की समअवस्था प्राप्त होती हैं। यही साम्यावस्था ही पूर्ण स्वास्थ्य है। जिसे आयुर्वेद में भी मान्यता दी गयी है

 

  • प्राणायाम के अभ्यास से वायु का शुद्ध सात्विक अंश ज्यादा से ज्यादा प्रवेश करता है। जिससे जीवनी शक्ति में वृद्धि होती है, तथा प्रश्वास के द्वारा अधिक से अधिक मात्रा में विजातीय द्रव्य बाहर निकलते है । रक्त शुद्ध होता हैं, तथा मन एकाग्र तथा शरीर को स्थिरता प्राप्त होती है। इस प्रकार योग साधना से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है । शरीर में स्फूर्ति, मन में उल्लास, बहुमुखी प्रतिभा का उदय व विकास होने लगता है।

 

  • योग के अनुष्ठान करने से वर्तमान में फैल रहे मनोदैहिक रोगो पर विजय प्राप्त की जा सकती है। योग एक ऐसी सुव्यवस्थित व वैज्ञानिक जीवन शैली है । जिसे अपनाकर अनेको प्राणघातक रोगो से बचा जा सकता है। आज विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस बात को मान्यता देता है कि वर्तमान में व्याप्त शारीरिक व मानसिक रोगो के उपचारार्थ योग एक अचूक चिकित्सा विधि है। जिसके द्वारा शारीरिक क्षमता में वृद्धि कर शारीरिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है ।

 श्वेताश्वतर उपनिषद में योग का शारीरिक महत्व इस प्रकार वर्णन किया गया है -

 

"न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः 

प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्।।" 2 / 12

 

अर्थात् जिसने योग रुपी अग्नि में अपने शरीर को तपा लिया उस मनुष्य के शरीर में न तो कोई रोग होता है, और न ही उसमे बुढ़ापे के लक्षण प्रकट होते है, और न ही असमय उसकी मृत्यु होती है। ब्रहम विद्योपनिषद में कहा गया है। .

 

योग के अभ्यासो के द्वारा जो भी श्रम या तप किया जाता है, वह कभी भी निरर्थक नहीं जाता है। सत्कारपूर्वक यत्नपूर्वक की हुयी साधना मनुष्य को तीनों तापो (दुःखों) से मुक्त करती है।

 

योग का  मानसिक महत्व 

  • योग के द्वारा शारीरिक के साथ - साथ मानसिक स्वास्थ्य को भी प्राप्त किया जा सकता है । आज के आधुनिक समाज में मानसिक रोगो की वृद्धि होती जा रही है। मानसिक रोग एक भयावहता का रूप लेते जा रहे है । जिनका निराकरण करने में आधुनिक विज्ञान असमर्थ है। इस तनाव जन्य परिस्थितियो और रोगों से निपटने के लिए योगाभ्यास एक सफल व कारगर चिकित्सा पद्धति है। जिसके द्वारा सम्पूर्ण मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त किया जाता है। योग द्वारा चित्त की वृत्तियों पर अंकुश लगाया जाता है। । मन की चंचलता को कम कर मानसिक एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है । बच्चों के मानसिक विकास की वृद्धि हेतु प्राणायाम के अभ्यास आवश्यक है। स्मरण शक्ति के वृद्धि कर प्रज्ञा का प्रकाश योगाभ्यास द्वारा सम्भव है।
  • मानसिक रोग मन से उपजते है यदि मन स्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ रहता है । हमारे मन शरीर में धनिष्ठ सम्बन्ध है, मन शरीर को प्रभावित करता है। मन में विषाद होने की स्थिति में शरीर दुर्बल हो जाता है । वही यदि शरीर में रोग होने की स्थिति में मानसिक रोग उत्पन्न होते है। शरीर को यदि रोग धेरते है तो कहि ना कहि उनका कारण दुर्विचार भी होता है। क्योकि जो हमारे मन में होता है वही शरीर में प्रकट होता है तीब्र भावावेश कटुता, घृणा, द्वेष, चिन्ता, ईर्ष्या और कोध के आवेश से मनुष्य शरीर की ग्रन्थियो से होने वाले स्राव का सन्तुलन बिगड़ जाता है । जिससे कि कई रोग उत्पन्न होते हैं। कोध के तीव्र आवेश शरीर के लिए विशेष हानिकारक होते है, जिससे रक्त में विषैले रासायनिक पदार्थ उत्पन्न होते है । जिससे मनुष्य की शक्ति और ओजस्विता का हास होता है, और अनेको रोगो के साथ साथ असामायिक ही वृद्धावस्था आने लगती है जीवनी शक्ति का हास होने लगता है। मन को प्रभावित करने वाली वासनाओ तथा कुविचारो को ही यदि योग साधना के द्वारा नष्ट कर दिया जाए, तो शरीर के सभी मानसिक रोग ठीक हो जाते है। मन के निर्मल होने से शरीर स्वस्थ होता है। महर्षि पतंजलि ने योग साधना के अन्तर्गत ऐसी चित्त प्रसादन की साधना बतायी है, जिससे हमारा मन निर्मल होता है । योगाभ्यास से कुविचार समाप्त होकर सुविचारो का उदय होता है । मनुष्य उर्ध्वरेता यानि ऊँची सोच वाला हो जाता है। मानसिक एकाग्रता की प्राप्ति होती है, तथा जीवन तनाव रहित हो कर, असीम मानसिक शक्ति की प्राप्ति होती है ।

 

योग का आध्यात्मिक महत्व

  • जीवन का मुख्य उद्धेष्य है, मोक्ष की प्राप्ति। इस महान लक्ष्य की प्राप्ति का माध्यम हमारा मन है। यह मन ही है, जो कि बन्धन और मोक्ष का कारण है। जैसा की शास्त्रों में वर्णित है 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः ।' अर्थात् मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण है। इसलिए योग साधना में मन को ईश्वरोन्मुख बना कर तत्वज्ञान की प्राप्ति की जा सकती है । योग के द्वारा अनेको जन्मों के संस्कारो द्वारा मलिन हुए चित्त का निर्मल का आत्मा के यर्थाथ स्वरूप का ज्ञान कराया जाता है। योग युक्त होते ही हमारी इन्द्रियाँ जो कि स्वभाव से ही चंचल है, वह अनर्न्तमुखी होने लगती है। योग साधना के अभ्यास से दिव्यदृष्टि की प्राप्ति होती है, और इस योग दृष्टि के द्वारा ही सृष्टि के गूढ़तम रहस्यों को उजागर किया जा सकता है । इस योग साधना द्वारा तत्वदर्शन, आत्मदर्शन, अतीन्द्रिय दर्शन, दिव्यदर्शन व ब्रहमसाक्षत्कार किया जाता है। अनेको ग्रन्थों में जिनका वर्णन मिलता है 

घेरण्ड संहिता में योग के महत्व को निम्न प्रकार से वर्णन किया गया है- 

"अभ्यासात्कादिषर्णामां यथाशास्त्राणि बोधयेत् 

तथा योगं समासाद्य तत्वज्ञानं च लभ्यते ।।" 1 / 5

 

जिस प्रकार '' '' अक्षारारम्भ का अभ्यास करते करते शास्त्र का विद्वान बना जाता है। उसी प्रकार योग का अभ्यास करते -करते तत्व ज्ञान प्राप्त हो जाता है । योग वस्तुतः पुरूषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति का साधन है। मोक्ष पद को प्राप्त करने का श्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम साधन है। ऐसा शास्त्रों द्वारा सिद्ध हो चुका है।

 

योग का  पारिवारिक महत्व

  • परिवार समाज की एक ईकाइ होती है । व्यक्ति के विकास की नींव एक परिवार ही होती है । परिवार निर्माण एक ऐसी विशिष्ट साधना है, जिसमे विश्वास, श्रृद्धा, त्याग, संयम, तपस्या आदि प्रतिभा का परिचय देना पड़ता है। लोभ, मोह, अहंकार का त्याग कर सन्तोषी विन्रम व विवेकशील होकर अपने कर्तव्य कर्मों को निभाते हुए योग पथ पर चलता है, आदर्श सदगृहस्थ वही है। भारतीय शास्त्रो में गृहस्थ जीवन को गृहस्थयोग की संज्ञा देकर जीवन में इसका विशेष महत्व बताया गया है। परन्तु वर्तमान समाज में एकल परिवारो का बड़ता चलन तथा पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति के अन्धानुकरण ने अनेको समस्याओ को जन्म दिया है। जिसमे नैतिक मूल्यो का हास सा हो गया है। सुसंस्कृत परिवार की जगह उत्श्रृखल व असंगठित परिवार तथा अनैतिक आचरण देखने को मिल रहा है। इन सभी समस्याओ का समाधान योग में निहित है। योग के अन्तर्गत अष्टोग योग यम व नियम हमारे व्यवहारिक पक्ष की शुद्धि करते है, हमारा व्यवहार निर्मल बनाते है। योग युक्त जीवन जीने वाले मनुष्य एक अच्छे परिवार की रचना कर सकता है। क्योकि योग के अन्तर्गत जितनी साधना पद्धतियाँ है, उनके द्वारा सुझाये गये प्रेम, शान्ति, सहयोग, धैर्य, संयम, सहिष्णुता साधना तथा सत्कर्म के मार्ग से ही जीवन सुखमय, उच्च व दिव्य बनाया जा सकता है। स्वार्थपरता और भौतिक सुखों को प्राप्त करने की चाह को सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह के द्वारा नियमित किया जा सकता है । यम, नियम व अनुशासित जीवन पद्धति को अपनाकर पारिवारिक उन्नति की जा सकती है । इस प्रकार परिवार को कुसंस्कारों से मुक्ति तथा सुसंस्कारित तथा श्रेष्ठ जीवन योग द्वारा ही बनाया जा सकता है।

 

योग का  सामाजिक महत्व 

  • किसी भी समाज के उत्थान स्वस्थ व सुसंस्कारिक परिवार की अहम भूमिका होती है। स्वस्थ एवं सुसंस्कारित परिवार से ही एक आदर्श समाज की स्थापना होती है। इस आदर्श समाज की स्थापना में योग की भूमिका महत्वपूर्ण है योग मनुष्य को शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ बनाता है, और एक स्वस्थ व्यक्ति ही स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है। आधुनिक समाज में मनुष्य धन कमाने तथा भौतिक संसाधनो को वटोरने तथा विलासिता पूर्ण जीवन विता रहा है प्रतिस्पर्धा व उच्चतम चाह के लिए वह अनैतिक कार्यों को करता जा रहा है । नकारात्मक चिन्तन को प्रश्रय मिल रहा है। जिससे सामाजिक कुरीतियों या बुराईयों को बड़ावा मिल रहा है । नकारात्मक चिन्तन से अनेको शारीरिक व मानसिक रोग उत्पन्न होते है। योग के अन्तर्गत प्राणायाम का व आसनो का अभ्यास शारीरिक व मानसिक रोगों का निवारण कर उर्ध्रेता यानि की ऊँची सोच वाला हो जाता है। विचार उच्च हो जाते है। जिसका सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है। ज्ञानयोग, कर्मयोग व भक्ति जैसे साधन हमारे समाज पर सीधा प्रभाव डालते है। कर्म, भक्ति, ज्ञान का समन्वय जीवन को उच्च बनाता है। समाज को रचनात्मकता तथा भक्तिमय दिशा प्रदान करता है, जिससे मनुष्य के कर्मों में कुशलता विचारो में उच्चता व विवेकज्ञान की प्राप्ति होती है। कर्मों में कुशलता तभी आती है, जब भक्ति के द्वारा विवेकज्ञान की प्राप्ति होती है। तथा कर्म निष्काम भाव से होने लगते है और इस प्रकार निष्काम भाव से कर्म की प्रेरणा नैतिक मूल्यो की प्रेरणा सत्य अहिंसा की प्रेरणा योग द्वारा मिलती है। जिससे आदर्श समाज की स्थापना की जा सकती है ।

 

योग का आर्थिक महत्व

  • मानव जीवन में आर्थिक स्तर और योग विद्या का सीधा सम्बन्ध कहा जा सकता है। मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन पुरुषार्थ के मूल में आरोग्य की प्राप्ति कर धर्म के साथ साथ अर्थ का उपार्जन किया जा सकता है । अपने आर्थिक स्तर को वही मनुष्य उच्च स्तर का बना सकता है जो निरोगी होगा एक निरोगी मनुष्य, स्वस्थ मनुष्य ही अपने आय के साधनो का विकास कर सकता है और परिश्रम कर अपनी आय को बड़ा सकता है।

 

  • यौगिक अभ्यास के अन्तर्गत कर्मयोग निरन्तर कर्म करने की प्रेरणा देता है । जिससे कर्मयोगी बन मनुष्य अपने व्यवसाय को विस्तृत कर आय अधिक उपार्जित कर सकता है। यौगिक अभ्यास से कार्यक्षमता विकसित कर बड़े -बड़े उद्योगो के अन्तर्गत कार्यकरने वाले श्रमिको कर्मचारियो कार्यकुशलता व कार्यक्षमता को बड़ाया जा सकता है। जिससे आर्थिक क्षेत्र में लाभ व उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है । शरीर में रोग होने की स्थिति में मनुष्य का आर्थिक स्तर प्रभावित होता है। रोगोपचार में होने वाला व्यय व इसके दुष्प्रभाव शारीरिक व मानसिक रुप से भी प्रभावित करते है। और कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है। योगाभ्यास के सतत् अभ्यास से मानसिक एकाग्रता तथा प्रतिरोधी क्षमता में वृद्धि होती है। जीवनी शक्ति प्रबल होती है । जिसमें आर्थिक सुसम्पनता लायी जा सकती है । बड़े बड़े उद्योगपति व फिल्म उद्योग के प्रसिद्ध व्यक्ति योगाभ्यास के द्वारा अपनी कार्यक्षमता बड़ाते हुये देखे जा सकते है । वे आसन प्राणायाम व ध्यान के अभ्यास के द्वारा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त करते है, और कार्य कुशलता से सम्पन्न करते है । वही स्कूल व कालेजो में योग प्रशिक्षक नियुक्त किये जा रहे है जो कि योग विद्या से धन लाभ ले रहे है। आज पूरे भारत वर्ष में तथा अन्य देशों में योग केन्द्र संचालित किये जा रहे है । जिसमें 1. शुल्क लेकर योग प्रशिक्षण दिया जाता है, तथा दूर दूर से सैकडों सैलानी इस भारतीय विद्या को सीखने आते है। इससे भी आर्थिक लाभ प्राप्त होता है। 


योग का  नैतिक महत्व 

 

  • योग व्यक्ति को नैतिक मूल्य सद्गुणों को विकसित करन में सहायक है। योग साधना द्वारा इन्द्रिय संयम कर नैतिक व सद्विचारो का और आदतों को विकसित किया जा सकता है। योग के अन्तर्गत यदि हम अष्टॉग योग की बात करे तो देखेगे कि इसके व्यवहारिक व चिकित्सकीय पक्ष है। अष्टॉग योग के अन्तर्गत यम (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रहमचर्य) और नियम (शौच,. सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान) हमारे व्यवहार की शुद्धि करते है, व नैतिक मूल्यो को विकसित करते है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रचलित नैतिक शिक्षा बालको में नैतिक गुणों को विकसित नहीं कर पाती हैं। जबकि योगानुष्ठान के द्वारा बालक व सभी आयु वर्ग के व्यक्ति में नैतिक गुण विकसित किये जा सकते है । योगानुष्ठान के द्वारा मन की शुद्धि होती है । शरीर की शुद्धि होती है। योगानुष्ठान करने वाले साधक की वुद्धि विकारो से रहित हो जाती है तथा विवेक ज्ञान की प्राप्ति होती हैं सही गलत का ज्ञान होने लगता है, और इस प्रकार मनुष्य में नैतिक गुणो को विकसित करने में योग की अपनी अहम भूमिका है। योग सूत्र में वर्णित कियायोग तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान यह साधना का किया पक्ष है। क्रियायोग के तीन पक्ष है। तीनों पक्ष ऐसे है जिससे व्यक्ति उत्कृष्ट चिन्तन, कुशल कर्म तथा सालीन व्यवहार वाला हो जाता हैं। योगागो के अभ्यास से इन्द्रिय संयम, समय संयम, विचारो में संयम तथा सुव्यवस्थित, अनुशासित जीवन हो जाता है । नैतिकता के गुण, पुण्य, भलाई, नेकी, सदाचार के मार्ग पर मनुष्य तीव्र गति से अग्रसर होने लगता है।

 

योग का  चारित्रिक महत्व

  • योग विद्या एक आदर्श व उच्च चरित्र के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। योगागो के सतत् अभ्यास से व्यक्तित्व का रुपान्तरण होता है। मात्र भक्ति योग के अभ्यास से ही व्यक्तित्व का रुपान्तरण किया जा सकता है। जिसका समावेश कियायोग के अन्तर्गत ईश्वर प्राणिधान में है । ईश्वर प्राणिधान ईश्वर के प्रति पूर्ण रुपेण सम्पर्ण ईश्वर की उपासना से है। ईश्वर की उपासना से ईश्वरीय गुणो का समावेश होने लगता है। तत्पश्चात् इन्द्रियाँ तेजस्वी तपस्वी होने लगती है। मन एकाग्र व जीवन मर्यादित होने लगता है। तथा चरित्र उत्तम होने लगता है। यम नियम का अनुसरण करने पर सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रहमचर्य तथा तप स्वाध्याय, सन्तोष जैसे गुणो का जीवन में समावेश होने लगता है, तथा मनुष्य को वासना, कुविचारो, लोभ, मोह, प्रमाद आदि से छुटकारा मिलता है । तथा इन्द्रियो में संयम, विचारो में उच्चता, जीवन में उत्साह, सौन्दर्य का प्रवेश होता है, तथा उत्तम चरित्र प्राप्त कर जीवन दिव्य बनता है।

 

  • प्रिय विद्यार्थियो आप समझ ही गये होगे कि योग वास्तव में जीवन जीने की ऐसी कला है, जो कि वैज्ञानिक है। जिसका हमारे जीवन के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, पारिवारिक, नैतिक व चारित्रिक प्रत्येक पक्ष पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । हमारे ऋषि मुनियो द्वारा प्रदत्त यह योग विद्या आज केवल योगियो सिद्धो तक ही सीमित नहीं है। बल्कि जन जन के बीच लोक प्रिय व आदर्श पद्धति बन चुकी है। आज योग के द्वारा सुव्यवस्थित, सुसंस्कारित व वैज्ञानिक जीवन शैली को अपनाकर मनुष्य स्वास्थ्य लाभ ले रहा है। प्रत्येक मनुष्य अपने स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए शारीरिक व मानसिक रोगो के उपचार हेतु तथा कार्य क्षमता में वृद्धि हेतु, तनाव से मुक्ति हेतु व जीवन को दीर्घ आयुष्य व दिव्य जीवन की प्राप्ति के लिए योग का अनुसरण करते हुए देखा जा सकता है। योग की बड़ती मॉग इस बात को प्रमाणित करती है। योग की महत्ता स्वयं सिद्ध हैं, तथा प्राचीन काल में भी योग महत्ता व लोक प्रियता का वर्णन श्रीमद्भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने इस प्रकार किया है ।

 योग के उत्कर्ष का वर्णन इसमे श्रीकृष्ण ने किया है -

 

"तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपिमतोऽधिकः। 

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जनः।।" गीता 6/46 

अर्थात् योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, और केवल शास्त्रो के जानने वाले अनुभव रहित ज्ञानियो से भी श्रेष्ठ माना जाता है। कर्म काण्डियो से भी योगी श्रेष्ठ है। ऐसा ज्ञान इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी बन। शास्त्रों के ज्ञाता से तप से योगी को श्रेष्ठ बताया गया है। अत इस योग विद्या का अनुसरण कर मनुष्य जीवन का मुख्य उद्धेश्य मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।


योग का महत्व | Importance of Yoga

 योग का उद्देश्य | योग अध्ययन का उद्धेश्य

योग का अर्थ | योग की परिभाषाएँ

Tags

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top