योग का अर्थ | योग की परिभाषाएँ

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 योग का अर्थ | योग की परिभाषाएँ

योग की परिभाषाएँ


योग का अर्थ

विद्यार्थियो योग शब्द पर विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है, कि योग शब्द संस्कृत

के 'युज' धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है, जोड़ना अर्थात् किसी भी वस्तु से अपने को

जोड़ना या किसी कार्य में स्वयं को लगाना । पाणिनिगण पाठ का विस्तृत अध्ययन करें तो

उसमें तीन 'युज' धातु हैं।

(क) युज समाधौ-दिवादिगणीय,

(ख) युजिर योगे-रुधादिगणीय,

(ग) युजसंयमने-चुरादिगणीय,

युज समाधौ दिवादिगणीय

  • दिवादीगणीय युज धातु का अर्थ हैसमाधि ।
  • समाधि का प्रकृति प्रत्यय अर्थ है, सम्यक स्थापन। अर्थात् जब प्रगाढ़ संयोग सुषुम्ना में स्थिर ब्रह्मनाड़ी से होता है। 
  • वह स्थिती समाधि की होती है। दूसरे अर्थ में युज समाधौ का अर्थ है। समाघि की सिद्धि के लिए जुड़ना। या समाधि की प्राप्ति के लिए जो भी साधनायें शास्त्रों में बताई गयी हैं, उन साधनाओ को अपने जीवन में अपनाना, ही योग का पहला अर्थ है।

युजिर योगे-रुधादिगणीय

  • रुधादिगणीय युज धातु का अर्थ हैजुड़ना,जोडनामिलना, मेल करना। युजिर योगे का अर्थ है संयोग करना। अर्थात् इस दुःख रुप संसार से वियोग तथा ईश्वर से संयोग का नाम ही योग है। जिसका वर्णन श्रीमदभगवद्गीता में इस प्रकार किया गया है।


तं विद्याद् दुःख संयोग वियोग योग संज्ञितम् । गीता 6/23


अर्थात् इस दुख रुप संसार के संयोग से रहित होने का नाम ही योग है । वह साधन जिसके द्वारा परमात्मा के साथ ज्ञानपूर्वक संयोग है, जीवात्मा का। इस प्रकार योग का अर्थ जीवात्मा का परमात्मा के साथ संयोग हैं।


युजसंयमने-चुरादिगणीय- 

  • चुरादिगणीय युज् धातु का अर्थ है संयमन् अर्थात मन का संयम या मन का नियमन। इस प्रकार युज् संयमने का अर्थ है, मन का नियमन करना ही योग है। मन को संयमित करना ही योग है, तथा यह मन को नियन्त्रित करने की विद्या योग ही है। इस प्रकार योग का अर्थ योग साधनाओं को अपनाते हुए मन को नियन्त्रित कर, संयमित कर, आत्मा का परमात्मा से मिलन ही योग है ।

योग की परिभाषाएँ

भारतीय दर्शन में योग विद्या का महत्वपूर्ण स्थान है । यह विद्या सभी विद्याओं से सर्वोपरि व विशेष स्थान रखती है। योग विद्या से सम्वन्धित ज्ञान सभी भारतीय ग्रन्थो में अनेक स्थानो पर देखने को मिलता है। वेद, पुराण, उपनिषद, श्रीमद्भगवद् गीता आदि प्राचीन ग्रन्थों  में योग विद्या विद्यमान है। 

प्रिय विद्यार्थियों प्राचीन ग्रन्थों  योग विद्या को किस प्रकार परिभाषित किया गया है । आइये इसका हम अध्ययन करें -

योग सूत्र के प्रेणता महर्षि पतंजलि ने योग की निम्न परिभाषा दी है -

 

'योगश्चितवृत्तिनिरोधः: । पा० यो0 सूत्र १/2 

अर्थात्‌ चित्त की यृत्तियो का सर्वथा अभाव ही योग है। चित्त का तात्पर्य यहाँ अन्तःकरण से है। ज्ञानेन्द्रियो द्वारा जब विषयों को ग्रहण किया जाता है। ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान को मन आत्मा तक पहुँचाता हैं। आत्मा उसे साक्षी भाव से देखता है, वुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है। इस सम्पूर्ण किया में चित्त में जो प्रतिबिम्व बनता है, वही वृत्ति कहलाती है। चित्त हमारा दर्पण की भॉति होता है। अतः विषय उसमें आकर प्रतिविबिम्व होता है। अर्थात्‌ चित्त विषयाकार हो जाता है। इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है।

 
महर्षि व्यास के अनुसार योग -

'योग समाघिः' | 

महर्षि व्यास ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है, योग नाम समाधि का है।जिसका भाव यह है कि समाधि द्वारा जीवात्मा उस सत्‌-चित्‌-आनन्द स्वरुप ब्रहम का साक्षात्कार करे और यही योग है।

 

पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य जी के अनुसार - जीवन जीने की कला ही योग है।'


मनुस्मृति के अनुसार -

ध्यान योगेन सम्यश्यदगतिस्यान्तरामन: ।' - मनुस्मृति 6,/73

 ध्यान योग से भी योग आत्मा को जाना जा सकता है। अतः योगपरायण ध्यान होना चाहिए।


कठोपनिषद के अनुसार - 

जब चेतना निश्चेष्ठ मन शान्त, बुद्धि स्थिर हो जाती है, ज्ञानी इस स्थिति को सर्वाच्च स्थिति मानते है। चेतना और मन के दृढ निश्चय को ही योग कहते है।

 

यदा पंचावतिष्ठनते ज्ञानानि मनसा सह। 

बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहु: परमा गति |

 तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम्‌ |

 अप्रमत्तस्दा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ |”      कठोपनिषद-2,//3,/0-7


अर्थात्‌ जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियों मन के साथ स्थिर हो जाती है, और मन निश्चल बुद्धि   के साथ आ मिलता है, इस अवस्था को परमगति कहते है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा ही योग है। जिसकी इन्द्रियों स्थिर हो जाती है, उसमें शुभ संस्कारों की उत्पत्ति और अशुभ संस्कारों का नाश होने लगता है। यही अवस्था योग की है।

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