परिवार तथा बालक के मध्य सम्बन्ध (Family and Child Relationships)

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परिवार तथा बालक के मध्य सम्बन्ध (Family and Child Relationships)

परिवार तथा बालक के मध्य सम्बन्ध (Family and Child Relationships)


 

 

परिवार 

  • परिवार शब्द का अर्थ समाज के उस रूप से लिया जाता है, जिसमें माँ-बाप तथा बच्चे रहते हैं। इसके अंग्रेजी शब्द Family शब्द की उत्पत्ति Femulus शब्द से हुई बताते हैं, जिसका अर्थ servant है। अर्थात् समाज की यह इकाई बच्चों और समाज के प्रति सेवाभाव रखती है। भारत में काफी समय तक संयुक्त परिवार प्रथा थी। परन्तु आधुनिक समय परिवार का स्वरूप छिन्न-भिन्न होकर अलग-अलग होता जा रहा है।

 

  • परिवार की परिभाषाएँ-विभिन्न विद्वानों ने परिवार के विषय में अपने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं।

 

पेस्टालॉजी के अनुसार - 

"घर शिक्षा का सर्वोत्तम और बालक का प्रथम विद्यालय है।" फ्रॉबेल के अनुसार-"माताएँ आदर्श अध्यापिकाएँ और घर द्वारा दी जाने वाली अनौपचारिक शिक्षा सबसे अधिक प्रभावशाली और स्वाभाविक है।"

 

शैशवावस्था में परिवार का महत्व 

फ्रायड के अनुसार शैववास्था के अनुभवों का उपचारात्मक (Clinical) महत्त्व है। शिशु को माँग की प्रेरणा तथा स्नेह की आवश्यकता होती है। इसी पर उसके व्यक्तित्व का विकास निर्भर है। परन्तु एण्डरसन के अनुसार परिवार का प्रभाव विकासात्मक है। उनके अनुसार तिशु को प्रेरणा देने की आवश्यकता है, जिससे वह तनावों को सहन कर सके। आजकल विकासात्मक दृष्टिकोण के पक्ष का समर्थन किया जाता है। शैशवावस्था या बाल्यकाल के कुछ विशिष्ट अनुभवों का ही प्रभाव आगामी व्यवहार पर पड़ता है। माता-पिता के व्यक्तित्व तथा अभिवृत्तियों का प्रभाव बालक पर पड़ता है।

 

परिवार के शैक्षिक प्रभाव 

परिवार का शिक्षा के क्षेत्र में निम्नलिखित प्रकार से महत्त्वपूर्ण स्थान है-

 

1. वातावरण से अनुकूलन-

बालक जिस प्रकार के वातावरण में रहता है, स्वय को उसके अनुरूप ढाल लेता है। अतः परिवार का वातावरण जैसा होता है बच्चा उसी प्रकार की परिस्थितियों से प्रभावित होता है। किसान का बालक पूरे दिन धूप तथा सदीं सहन कर सकता है, परन्तु धनी परिवार के बच्चे के लिए अनेक सुविधाओं की आरश्यकता होती है।

 

2. सामाजिक अनुकूलन-

बालक जिस प्रकार के समाज में रहता है उसका लघु स्वरूप परिवार होता है। इसलिए परिवार की मान्यताओं को मानते हुए समाज के साथ समायोजन सरल हो जाता है तथा वह अपनी परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेता है। 

अतः परिवार ही बालक के सामाजिक अनुकूलन में सहायता प्रदान करता है

 

3. नैतिक एवं चारित्रिक विकास-

स्कूल जाने से पूर्व वालक परिवार के सदस्यों के सम्पर्क में रहता है। वह उनको देखकर, सुनकर तथा नकल करके बहुत से व्यरहार तो स्कूल जाने से पहले ही करने लगता है तथा सामाजिक नियमों के विषय में अनेक नियमों का ज्ञान प्राप्त करता है। उसको बड़ों की आज्ञा मानना, सभी को प्रेम करना, वड़ों का दर करना, प्रातः जागना, प्रार्थना करना आदि क्रियाओं का विकास तो परिवार में ही हो चुका होता है।

 

4. बालक का मानसिक विकास-

परिवार में रहकर बालक की मानसिक ग्रन्थियों पुष्ट होती हैं। बालक अनेक प्रकार के प्रश्न पूछता है। अतः परिवार के सदस्यों को चाहिये कि वे उसको डाँटने और धमकाने के स्थान पर उचित उत्तर देकर उसकी जिज्ञासा, कल्पना तथा स्वस्थ चिन्तन का विकास करें।

 

5. प्रारम्भिक अधिगम स्थल-

बालक जन्म के समय सबसे अधिक असहाय होता है। बालक जन्म के बाद ही नहीं बल्कि माँ के गर्भ में भी अनेक वातें सीखता है। जैसा कि अभिमन्यु के विषय में कहा जाता है कि उसने अपना माँ के गर्भ में ही चक्रव्यूह को तोड़ना सीख लिया था।

 

6. आदतों का निर्माण-

यह अक्सर कहा जाता है कि 'दाने घर से ही प्रारम्भ होता हैं' तथा बुरी आदतों (लड़ाई, झगड़े, चोरी, झूठ बोलना आदि) का निर्माण परिवार के आधार पर ही होता है, यदि माता-पिता उसे बुरी आदतों के लिए रोकते नहीं हैं तो वह बच्चा बिगड़ जाता है, यदि परिवार में आये दिन लड़ाई-झगड़े तथा बुरे व्यवहार होते रहते हैं, तो बच्चा भी उसका आदी बन जाता है।

 

7. निःस्वार्थता-

बालक परिवार में रहकर यह अनुभव करता है कि उसके माता-पिता बिना किसी प्रतिफल की आशा के उसको अनेक सुविधाएँ दे रहे हैं तथा स्वयं परेशानी उठा रहे हैं। वह भी अपनी आदतों में निःस्वार्थता को स्थान देता है और परिवार के प्रति अथवा अन्य व्यक्तियों के प्रति निःस्वार्थ की भावना को विकसित करता है।

 

8. मानवीय गुणों का विकास-

वालक को परिवार में ही मानवता की शिक्षा मिलती है। यदि परिवार के सदस्य अच्छी प्रकृति के हैं तो बालक भी उन्हीं के अनुरूप होगा। उसमें भाई-चारे, सहयोग, प्रेम, त्याग बलिदान, सहानभूति आदि मानवीय गुणों का विकास होता है।

 

9. बालक का वैयक्तिक विकास-

बालक के व्यक्तित्व के विकास के लिए परिवार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिस परिवार में सदस्यों की अथवा बच्चों की संख्या अधिक है तो उनमें बच्चों के प्रति उचित ध्यान नहीं दिया जाता है जिससे उसमें अनेक अवगुण आ जाते हैं। अतः वैयक्तिक विकास पर ध्यान दिया जाय।

 

10. कर्त्तव्य-पालन-

परिवार में रहकर बालक जब अन्य सभी सदस्यों को अपने कर्त्तव्य-पालन में व्यस्त देखता है तो वह भी अपने मन में यह धारणा बना लेता है तथा बड़े लोगों का अनुकरण करता है।

 

11. संवेगात्मक विकास-

परिवार में बालक को स्थायी तथा महत्त्वपूर्ण शिक्षा प्राप्त होती है। यदि बालक का परिवार साहित्य प्रेमी है तो बालक भी साहित्य में रुचि रखेगा। यदि बालक के घर में सभी संगीत या कला प्रेमी हैं तो बालक की भी कला तथा संगीत में रुचि पढ़ेगी।

 

12. आदर्शों का निर्धारण 

बालक के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक है कि बालक के सामने विकास का आदर्श रखा जाय। परिवार के व्यक्ति सुविकसित हैं अथवा सभी इसी प्रकार के हैं, तो बालक के आदर्श भी उन्हीं के अनुरूप होंगे। बालक अपने पिता से न्याय तथा कर्त्तव्य की भावना तथा माँ से प्रेम तथा समानता एवं भाई-बहिनों से प्यार, एकता, भाई-चारा एवं सहयोग की भावना सीखता है। इस प्रकार यदि परिवार सजग है तो वालक में सहायता, परोपकार, सहानुभूति, क्षमा, सच्चाई, उदारता, परिश्रम तथा समानता की आदर्श स्थितियों का विकास होगा।

 

13. अनुशासित वातावरण-

परिवार में ही अनुशासन का प्रथम पाठ पढ़ाया जाता है। बालक को अच्छी आदतों के लिए प्रशंसित करना तथा समाज विरोधी कार्यों के लिए दण्डित करना, बड़ों की आज्ञा का पालन करना, खेलने के समय खेलना, समय पर कार्य करना, किसी से झगड़ा न करना, सभी के साथ मिल-जुलकर रहना, चोरी न करना, झूठ न बोलना आदि बातों को सभी परिवारों में पहले ही सिखाये जाते हैं, जिससे बालक का जीवन अनुशासित हो जाता है और विद्यालय में भी वह अनुशासन रखने में सहायता देता है।

 

14. व्यावसायिक शिक्षा-

सभी परिवारों के अपने अलग-अलग व्यवसाय होते हैं। जब बालक अपने पारिवारिक सदस्यों को उसमें लगा देखता है तो वह भी उनका अनुकरण करता है। जैसे-किसान का बालक बिना प्रशिक्षण के किसान बन जाता है। दुकानदार का बालक दुकानदार तथा बढ़ई, सुनार, हरिजन आदि के व्यवसायों का प्रभाव उनके बच्चों पर पड़ता है। इन व्यवसायों की शिक्षा, स्वयं बालक अनुकरण के द्वारा उसका हाथ बँटाकर प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार बालकों के व्यवसाय के चयन में भी सहायता मिलती है।

 

15. सहनशीलता-

परिवार बालक को सहनशीलता की शिक्षा प्रदान करता है। वह देखता है कि माता-पिता अनेक दुःखों को सहन करके तथा स्वयं कष्ट उठाकर अपने परिवार के सदस्यों को प्रसन्न रखना चाहते हैं तो वह भी सहनशील तथा गम्भीर होने का प्रयत्न करता है।

 

16. व्यावहारिक शिक्षा-

परिवार में बालक सभी व्यक्तियों को कार्य करते हुए देखता है और उसके विषय में अपनी जिज्ञासा उत्पन्न करता है तो उसका समुचित ज्ञान परिवार के सदस्य बालक को देते हैं तो अच्छे कार्यों के प्रति उसके मन में भी अनुकूल भावना विकसित होती है और वह भी अनुकरण करता है; जैसे-यदि परिवार के व्यक्ति व्यायाम करते हैं तो बालक भी व्यायाम करने का इच्छुक होता है; विपरीत रूप में परिवार के व्यक्ति धूम्रपान करते हैं तो बालक उसके स्वाद के अनुभव के लिए छिपकर अवश्य ही धूम्रपान करके देखता है।

 


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