काव्य विषयक रीतिकालीन एवं पाश्चात्य आचार्यों की दृष्टि |The vision of traditional and western masters on poetry

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काव्य विषयक रीतिकालीन एवं पाश्चात्य आचार्यों की दृष्टि

काव्य विषयक रीतिकालीन एवं पाश्चात्य आचार्यों की दृष्टि |The vision of traditional and western masters on poetry


 

काव्य विषयक रीतिकालीन आचार्यों की दृष्टि

हिन्दी साहित्य में काव्यशास्त्रीय चिन्तन का आरम्भ रीतिकाल से होता है। रीतिकाल में काव्य के स्वरूप पर बहुत प्रकाश डाला गया है लेकिन मौलिकता का वहाँ सर्वथा अभाव है। रीतिकालीन आचार्यों ने प्राय: संस्कृत के आचार्यों विशेषतः मम्मटविश्वनाथ और पण्डितराज जगन्नाथ के काव्यलक्षणों का भाषानुवाद किया है। रीतिकाल के प्रारम्भिक आचार्य चिन्तामणि लिखते हैं-

 

सगुन अलंकारन सहितदोष रहित जो हो । 

शब्द अर्थ वारौं कवितविवुध कहत सब कोइ ।। (कविकुलकल्पतरु1/6)

 

दोषरहितगुण और अलंकारों से पूर्ण शब्दार्थ को काव्य कहते हैं। कुलपतिमिश्र लोकोत्तर चमत्कार को काव्य कहते हैं-

 

'जगते अद्भुत सुखसदन शब्दरु अर्थ कवित्त। 

यह लक्षण मैंने कियो समुझि गन्थ बहु चित्त ।। (रसरहस्य,1/20)। 



श्रीपति रस और अलंकार दोनों को काव्य का अपरिहार्य तत्व मानते हैं-

 

शब्द अर्थ बिन दोष न अलंकार रसवान। 

ताको काव्य बखानिये श्रीपति परम सुजान। (काव्यसरोज1 )

 

भिखारीदास ने स्पष्टरूप से काव्य की परिभाषा नहीं दी है लेकिन काव्य-पुरुष की कल्पना करते हुए काव्यविषयक अपना अभिमत भी पस्तुत कर दिया है। उनका मानना है कि रस कविता का अंग हैअलंकार आभूषणगुण काव्यसौन्दर्य के अभिव्यंजक हैं और काव्य को कुरूप बनाने वाले दोष हैं-

 

रस कविता को अंगभूषन हैं भूषन सदा । 

गुन सरूप और रंगदूषन करें कुरूपता ॥ काव्यनिर्णय1 / 13

 

इन काव्यलक्षणों का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि ये संस्कृत के आचार्यों के मतों का ही पिष्टपेषण मात्र हैं और इनमें मौलिकता नहीं है। अतः इनका विस्तार से विवेचन अपेक्षित नहीं है।

 

काव्य विषयक पाश्चात्य आचार्यों की दृष्टि 

भारतीय काव्यशास्त्र की ही तरह पश्चिम में भी काव्य विषयक चिन्तन की सुदीर्घ परम्परा है। प्लेटो से लेकर आज तक पचिम के विचारकों ने भी काव्यलक्षण स्थापित करने के निरन्तर प्रयास किये हैं। अरस्तू की स्थापना है- 'Poetry is an art. Art is imitation of nature. Epic poetry, tragedy and comedy in most of their forms are, all, in theie conception, modes of imitation..... There is another art which imitates by means of language alone, and that either in prose and worse'- (हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली) अर्थात् काव्य एक कला है। कला प्रकृति का अनुकरण है। महाकाव्यत्रासदी और कामदी- सभी अपने आप में अनुकरण के विचारात्मक तरीके हैं।.. . केवल भाषा के माध्यम से अनुकृत की जाने वाली एक और कला हैजो गद्य और पद्य के रूप में पाई जाती है। अरस्तू के इस कथन की व्याख्या करने पर हम पाते हैं कि उन्होंने काव्य को प्रकृति का अनुकरण करनेवाली कला माना है। इसी तरह फिलिप सिडनी भी काव्यरचना को अनुकरण की कला मानते हैं। आप पाश्चात्य साहित्यशास्त्र अध्ययन करते हुए पाएंगे कि पाश्चात्य परम्परा काव्य को अनुकरणमूलक मानती है। अरस्तू के गुरुपाश्चात्यकाव्यशास्त्र के आद्याचार्य प्लेटो भी काव्य को अनुरण का अनुकरण मानते हैं। पर अगर आप ध्यान से देखें तो आपको यह बात स्पष्टत: समझ में आ जाएगी कि काव्य प्रकृति की हू-ब-हू नकल नहीं है अपितु एक रचना है। अरस्तू भी काव्य को पुनर्रचना मानते हैं। भारतीय काव्यशास्त्रीय दृष्टि भी यह बात स्वीकार करती है कि काव्य में लोक का अनुकरण किया जाता है। भरतमुनि नाट्यशास्त्र में यह मानते हैं कि नाट्य में लोकवृत्तानुकरण किया जाता है। अनुकरण की चर्चा नाट्यचर्चा के साथ अर्थात् दृश्यकाव्य केलिए तो की गई हैलेकिन श्रव्यादि काव्यों के कवि की सर्जना करता है। कहने का अभिप्राय यह है भारतीय साहित्यशास्त्र में काव्य को निर्मिति- यानी प्रयत्नपूर्वक की गई रचना भी कहा जाता है और यह भी माना जाता है कि काव्य कवि की ठीक वैसे ही सृष्टि हैजैसे विधाता की सृष्टि। इसी तरह अरस्तूपश्चिम के नव्यशास्त्रवादी समीक्षक आदि काव्य को एक निश्चित उद्देश्य से युक्त निर्मिति मानते हैंदूसरी ओर पश्चिम के रोमांटिक कवियुंग आदि मनोविश्लेषक यह मानते हैं कि कृति रचनाकार के अचेतन से स्वतः प्रस्फुटित होती हैजैसे प्रकृति के गर्भ से पौधा खुद-ब-खुद उगता है। कवि कीट्स आदर्श काव्य उसी को मानते हैं जो कवि के मन में उसी प्रकार उगेजैसे व़क्ष में कोंपलें उगती हैं। वर्ड्सवर्थ के विचार में 'काव्य प्रबल अनुभूतियों का स्वाभाविक उच्छलन हैजो शान्ति के क्षणों में स्मृति का विषय बने हुए मनः संवेगों से फूट निकलता 'Poetry is spontaneous overflow of powerful feelings; it takes its origin from emotions recollected in trangulity' (भारतीय काव्यशास्त्र मीमांसा) -

 

डॉ जॉनसन कविता को ऐसी कला मानते हैं जो कल्पना की सहायता से युक्ति के द्वारा सत्य को आनन्द से समन्वित करती है- 'poetry is an art of uniting pleasure with truth by calling imagination to the help of reasons' (हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली,) जॉनसन का यह अभिमत भारतीय चिन्तन के करीब है। वस्तुतः सम्यक् कल्पना काव्य को सत्य और आनन्द से सम्पन्न बना देती है। पर इस परिभाषा में भाषा पर विचार नहीं किया गया है। इसी तरह कॉलरिज सर्वोत्तम शब्दों के सर्वोत्तम क्रमविधान 'Best words in the best order (हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली) को कविता कहते हैं और उन्होंने काव्यात्मा पर विचार नहीं किया है। इसी तरह मैथ्यू आर्नल्ड कविता को जीवन की आलोचना कहते हैंशैली कविता को कल्पना की अभिव्यक्ति कहकर यह मानते हैं कि वह अत्यन्त प्रसन्न और सर्वोत्तम मस्तिष्क के सर्वोत्तम और सर्वाधिक सुखपूर्ण क्षणों का लेखाजोखा चैम्बर्स शब्दकोश में कल्पना और अनुभूति से उत्पन्न विचारों को मधुर शब्दों में अभिव्यक्त करने की कला को कविता कहा गया है- Poetry is an art of expressing in melodious words] thoughts which are the creation of imagination and feelings (हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली ) ।

 

पश्चिम की इन परिभाषाओं द्वारा काव्य को समझने-समझाने के अनेक प्रयास हुए किन्तु काव्य को इन लक्षणों के द्वारा पूरी तरह से रूपांकित नहीं किया जा सकता है। फिर भी इन परिभाषाओं को समग्रतः देखने पर आप काव्य का एक सर्वमान्य खाका तो खींच ही सकते हैं। सर्वप्रथम यह बात तो सामानयतः सबको स्वीकार्य है कि काव्य में शब्द और अर्थ आवश्यक तत्व हैं। कल्पना कवि को अपने काव्यसंसार में ऊँची उड़ान भरने का अवसर देती हैसंवेदना रस की दृष्टि करती है और वैचारिकता संवेदनाकल्पना को समुचित रूप से संगठित करके भाषा रूपी उपकरणों से अभिव्यक्त कर देती है। इस तरह शब्दअर्थकल्पनाभाव और विचार -ये काव्य के आवश्यक तत्व माने जा सकते हैं।

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