काव्य स्वरूप की ऐतिहासिक परम्परा |मम्मट काव्यलक्षण | Historical tradition of poetic form

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काव्य स्वरूप की ऐतिहासिक परम्परा

काव्य स्वरूप की ऐतिहासिक परम्परा |मम्मट काव्यलक्षण  | Historical tradition of poetic form

काव्य स्वरूप की ऐतिहासिक परम्परा 

जैसा कि हम पहले जान चुके हैं कि काव्य का जब से आरम्भ हुआ है, काव्य के स्वरूप के विषय में विद्वानों ने चिन्तन करना आरम्भ कर दिया है। भारतीय काव्यशास्त्र की दो सहस्राधिक वर्षों की अवधि में काव्य स्वरूप विषयक अनेक अवधारणाएं स्थापित की गई। इसी तरह पश्चिम में भी प्लेटो के पहले से ही काव्य विषयक मान्यताएं स्थापित हाने लगी थीं। तब से लेकर आजतक काव्य को परिभाषा में बाँधने के जो प्रयत्न हुए, उन्हें हम कई दृष्टियों से परख सकते हैं। ऐतिहासिक कालक्रम के आधार पर, बहिरंग और अंतरंग को आधार बनाकर या काव्य के विविध अवयवों- शब्द, अर्थ, शब्दार्थ, शब्दव्यापार आदि की दृष्टि से काव्य के स्वरूप पर हम विचार कर सकते हैं, किन्तु अध्ययन की सुविधा के लिए ऐतिहासिक कालक्रम के आधार पर काव्यलक्षणों पर विचार करना समुपयुक्त होगा। इसके लिए हम सबसे पहले संस्कृत के आचार्यों की परम्परा को उल्लिखित करेंगे, फिर रीतिकालीन आचार्यों का, इसके बाद पश्चिम के विचारकों का और फिर हिन्दी के समीक्षकों का।

 

काव्य विषयक संस्कृत आचार्यों की दृष्टि

 

भारतीय काव्यचिन्तकों में सबसे पहले आचार्य भरतमुनि का नाम आता है। भरतमुनि ने अपनी नाट्यशास्त्र नामक कृति में काव्यविषयक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। उन्होंने काव्य की परिभाषा तो नहीं दी है, लेकिन नाटक के सन्दर्भ में काव्य के सात तत्त्वों का उल्लेख किया है-

 

1. सर्वसुगमता 

2. नृत्योपयोगयोग्यता 

3. संधियुक्तता 

4. मृदुललित 

5. गूढशब्दार्थहीनता 

6. युक्तिमता 

7. बहुकृतरसमार्गता

 

भरतमुनि लिखते हैं-

 

मृदुललित पदाढ्यं गूढशब्दार्थहीनं, जनपदसुखबोध्यं युक्तिमन्नृत्ययोज्यम्। 

बहुकृतरसमार्गं सन्धिसन्धानयुक्तं, स भवति शुभकाव्यं नाटक प्रेक्षकाणाम्।। -नाट्यशास्त्र, 16 /118

 

नाटक देखनेवालों के लिए वह शुभकाव्य होता है जिसमें कोमल और ललित पद (शब्द) हों, गूढ | शब्द और अर्थ जिसमें नहीं हों, जो सबको आसानी से समझ में आ जाए, जिसमें नृत्य आदि आयोजन किया गया हो, विविध रसों का जिसमें समावेश हो और सन्धियुक्तता हो ।

 

भरत ने यहाँ जिन काव्यतत्त्वों की चर्चा की है, वे मूलत: रूपक पर घटित होते हैं, काव्य पर नहीं । यदि हम यहाँ वर्णित नृत्यबद्धता और कथावस्तु की सन्धियों को दृश्यकाव्यपरक मान कर छोड़ दें तो यह पाते हैं कि भरत ने काव्य में कोमलता, सुबोधता और रसनीयता का उल्लेख किया है। ध्यातव्य है कि कोमलता, सुबोधता या रसनीयता काव्य के अवयव नहीं हैं अपितु काव्य की विशेषताएं हैं अतः भरतमुनि का काव्यलक्षण सम्यक् नहीं है।

 

भरतमुनि के बाद आचार्य भामह ने अपनी कृति 'काव्यालंकार' में काव्य का लक्षण प्रस्तुत किया है- 'शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्' अर्थात् शब्द और अर्थ का सहभाव काव्य है। भामह का यह लक्षण अत्यन्त व्यापक है और केवल काव्य पर ही नहीं, व्याकरण, दर्शन, शास्त्र, लोकव्यवहार सभी पर लागू होती है। समाज में जहाँ भी भाषिक व्यवहार होता है, शब्द और अर्थ का सहभाव वहाँ होता ही है। सम्पूर्ण वाड्.मय शब्द और अर्थ का ही तो व्यापार है, अत: वाणी के प्रत्येक रूप काव्य मानना होगा, जबकि यह बात बहुत स्पष्ट है कि काव्य में प्रयुक्त शब्द और अर्थ सामान्य अर्थ से विलक्षण होते हैं। इस दृष्टि से भामह की काव्यविषयक यह परिभाषा अतिव्याप्ति दोष से युक्त है। इसके अतिरिक्त भामह ने 'सहितौ शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट नहीं किया है। लेकिन भामह की कृति काव्यालंकार को पढने पर यह स्पष्ट होता है कि भामह के पूर्ववर्ती आचार्यों की दो विचार सरणियाँ थीं, जिनमें से एक की दृष्टि के अनुसार काव्य सौन्दर्य का मूल रूप अर्थालंकार था तथा दूसरे के अनुसार शब्दालंकार । आचार्य कुन्तक ने अपनी कृति वक्रोक्तिजीवितं में भी इस तथ्य की पुष्टि की है-

 

'केषांचिन्मतं कविकौशलकल्पितकमनीयतातिशयः शब्द एव केवलं काव्यम् इति

केषांचिद् वाच्यमेव रचनावैचित्र्यचमत्कारकाकर काव्यम् इति' । 


अर्थालंकारवादियों के अनुसार रूपक, उपमा आदि अर्थालंकारों के द्वारा ही काव्य का सौन्दर्य निष्पन्न होता है क्योंकि काव्यगत सौन्दर्य का ज्ञान अर्थ की प्रतीति के बाद ही सम्भव है। दूसरी ओर शब्दालंकारवादियों का मानना है कि काव्य की चारुता शब्द में ही है क्योंकि शब्द के द्वारा ही अर्थ की प्रतीति होती है। भामह इन दोनों अतिवादी दृष्टियों में समन्वय करते हुए मानते हैं कि काव्य की चारुता शब्द और अर्थ दोनों के समन्वय में ही है। वे कहते हैं-

 

'शब्दाभिधेयालंकारभेदादिष्टं द्वयं तु नः काव्यालंकार, 1/16

 

एक बात और ध्यातव्य है। भामह का कहना है कि 'सूर्य अस्त हो रहा है, चन्द्रमा उदित हो रहा है, पक्षी अपने घोसलों को जा रहे हैं, ऐसे वाक्यों को मैं वार्ता कहता हूँ, काव्य नहीं। काव्य उन वाक्यों में होता है, जो लोकातिक्रान्त हों । स्पष्ट है कि भामह की दृष्टि में उस शब्दार्थ के साहित्य को काव्य कहा जा सकता है, जिसमें भाषा का सर्वोत्तम प्रयोग हो। भामह के अनुयायी कुन्तक अपने काव्यलक्षण द्वारा इस बात को स्पष्ट भी किया है, जिसके विषय में हम आगे चर्चा करेंगे। यहाँ इतना कहना जरूरी है कि भामह द्वारा दिया गया यह काव्य लक्षण वस्तुतः काव्यलक्षण नहीं है और अगर हम इसे लक्षण मानते हैं तो भी इसमें अतिव्याप्ति दोष होने के कारण इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

 

भामह के बाद आचार्य दण्डी ने काव्य के विषय में बताया है - 

शरीरं तावदिष्टार्थं व्यवच्छिन्ना पदावली' (काव्यादर्श, 1-10) इष्ट ( अभीप्सित) या चमत्कृत अर्थ से परिपूर्ण शब्दावली को काव्यशरीर कहते हैं। दण्डी की दृष्टि में वे शब्द, जो मनोरम या हृदयाह्लादक अर्थ से युक्त हों, काव्य का शरीर हैं। दरअसल दण्डी के समय तक काव्य में 'आत्मा' की खोज होने लगी थी और आचार्य यह मानने लगे थे कि शब्दार्थ काव्य का शरीर हैं और उसकी आत्मा या वास्तविक तत्त्व कुछ और ही हैं। ये तत्व धीरे - धीरे काव्यात्मा विषयक सम्प्रदायों के रूप में विकसित हुए। ये तत्व थे 'अलंकार, रस, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति और औचित्य । इन सम्प्रदायों के विषय में हम आगे की इकाईयों में चर्चा करेंगे।

 

हमने यह पाया कि दण्डी की दृष्टि में विवक्षित अर्थ से परिपूर्ण पदावली काव्य का शरीर है। प्रश्न उठता है कि फिर काव्य का आत्मतत्व क्या है। दण्डी अर्थालंकार और रस को काव्य का अनिवार्य तत्व स्वीकार करते हैं - 'कामं सर्वोप्यलंकारो रसमर्थे निषिंचति (काव्यादर्श, 1/62 ) । दण्डी अलंकारजन्य आह्लाद को रस मानकर यह स्वीकार किया है कि सभी अलंकार रस में संचार करते हैं। दण्डी की ही भाँति आनन्दवर्धन ने भी अपनी कृति ध्वन्यालोक में 'शब्दार्थं शरीरं तावत्काव्यम्' कहकर शब्दार्थ को काव्य का शरीर माना है। काव्य के ये लक्षण काव्य को पूरी तरह पारिभाषित करने में समर्थ नहीं हैं।

 

दण्डी के बाद आचार्य वामन ने अपनी कृति 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ति' में यद्यपि काव्य का स्वतन्त्र लक्षण नहीं दिया है किन्तु रीति-विवेचना के क्रम में यह कहा है कि अलंकार से गुण और युक्त शब्दार्थ ही काव्य है-'काव्यशब्दो यं गुणालंकारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तते (काव्यालंकारसूत्रवृOT,1.1.1 ) । भामह ने अपने काव्यलक्षण में केवल शब्दार्थ के साहित्य को काव्य कहा था, वामन ने शब्दार्थ की विशेषता बताई - जो शब्दार्थ दोष से रहित और गुणों से युक्त हो, वह काव्य है। वामन पहले आचार्य हैं, जिन्होंने काव्य के सौन्दर्य की चर्चा की है। वामन की यह धारणा परवर्ती आचार्यों द्वारा स्वागत किया गया और प्रायः आचार्यों ने काव्य में गुणयुक्तता और दोषराहित्य का उल्लेख किया। अग्निपुराणकार ने स्पष्ट: काव्य को दोषों से बचाने की बात कही। 'काव्यं स्फुरदलंकारं गुणवद् दोषवर्जितम्' (अग्निपुराण, अध्याय 337, श्लोक सं. 7)।

 

आचार्य कुन्तक ने भामह द्वारा वर्णित शब्द और अर्थ के सहभाव को काव्य माना है, किन्तु शब्दार्थ की विशेषता बताई है कि वह शब्दार्थ काव्य है, जिसमें वक्र कविव्यापार हो, जिसमें बन्ध व्यवस्था हो और जो सुनने वाले के दिल को खुशी दे-

 

'शब्दार्थौ सहितौवक्रकविव्यापारशालिनि, बन्धेव्यवस्थितौकाव्यंतद्विदाह्लादकारिणि (वक्रोक्ति जीवितम्, उन्मेष 1, कारिका -7) कुन्तक के अनुसार काव्य का आधार विशिष्ट अर्थात् रसात्मकता से युक्त, सहृदय को आह्लादित करनेवाला, कविकौशल से सम्पन्न शब्दार्थ है, जो काव्य-मर्मज्ञों को आह्लादित करता है।

 

कुन्तक के परवर्ती आचार्यों में आचार्य मम्मट का काव्यलक्षण सर्वाधिक लोकप्रिय रहा। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के काव्यलक्षणों में सामंजस्य स्थापित करते हुए अपनी काव्यपरिभाषा दी-

 

तददोषी शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि (काव्यप्रकाश, 1/4)

 

दोष से रहित, गुणों से युक्त और कहीं कहीं अलंकार सहित शब्दार्थ को काव्य कहते हैं। मम्मट की दृष्टि में काव्य शब्द और अर्थ की समष्टि है, दोषराहित्य और गुणयुक्तता वहाँ आवश्यक है, अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य नहीं है, अलंकाराभाव से भी काव्यत्व की हानि नहीं होती ।

 

मम्मट काव्यलक्षण 

मम्मट के काव्यलक्षण को विस्तार से समझना जरूरी है। मम्मट ने काव्यलक्षण देते हुए शब्दार्थ तीन विशेषताओं के विषय में बताया है- अदोषी, सगुणौ तथा अनलंकृती पुनः क्वापि ।

 

1. अदौषौ 

मम्मट का कहना है कि दोषरहित शब्दार्थ काव्य हैं। मम्मट के इस कथन का परवर्ती आचार्यों- विश्वनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने विरोध किया है। विश्वनाथ ने अदोषौ पद की आलोचना की है। उनका कहना है कि संसार में कोई भी कार्य सर्वथा दोषरहित नहीं होता, काव्य भी कविकर्म है, उसमें भी कोई न कोई दोष अवश्य होता है, अतः दोष रहित शब्दार्थ को काव्य माना जाय तो ऐसी रचना असम्भव है, जिसमें दोष नहीं हो। यदि यह मान लिया जाय कि काव्य में जहाँ दोष है, उतने अंश को काव्य न मानकर शेष अंश को काव्य माना जाय, तो काव्यत्व और अकाव्यत्व की रस्साकशी में वह रचना ही महत्वहीन हे जाएगी। इसी तरह जैसे किसी रत्न में कीडा लग जाने पर भी रत्न तो रत्न ही रहता है, काव्य में दोष होने पर भी काव्य तो काव्य ही रहेगा, अत: काव्य के लक्षण में दोष का उल्लेख करना उचित नहीं है। इसके अलावा दोष काव्य के रस के अपकर्षक होते हैं, यदि वे रस के अपकर्षक नहीं हैं, तो उन्हें दोष भी नहीं कहा जा सकता। आचार्य बलदेव उपाध्याय का कहना है कि मम्मट का अदोषो से आशय है कि काव्य मे वे दोष नहीं होने चाहिए जो काव्यत्व की हानि करें। वे दोष जैसे श्रुतिकटुत्व, पुनरुक्ति, ग्राम्य आदि दोष दोष न रहकर गुण बन जाते हैं, दोष नहीं हैं। उदाहरणस्वरूप काव्य में किसी शब्द वाक्यादि का बार बार प्रयोग अनुचित है लेकिन किसी भाव विशेष की व्यंजना के लिए अगर बार बार शब्द- वाक्यादि प्रयुक्त होते हैं तो वे दोष न होकर पुनरुक्तिप्रकाश गुण बन जाते हैं। रत्नाकर की गोपियाँ कृष्ण का संदेश जानने के लिए बार बार कहती हैं-हमको लिख्यो है कहा, हमको लिख्यो है कहा, हमको लिख्यो है कहा,| कहन सबै लगीं। यह पुनरुक्ति उनकी हृदयगत अवस्था की द्योतक होने के कारण दोष नहीं है, भावाभिव्यंजक है, शब्दार्थ का गुण है।

 

2. सगुणौ- 

मम्मट का कहना है माधुर्यादि गुणों से युक्त शब्दार्थ काव्य है। गुणों को मम्मट रस के | अंगी धर्म मानते हैं विश्वनाथ का कहना है कि गुण तो रस के धर्म होते हैं, शब्द और अर्थ के नहीं, अत: जहाँ रस होगा, वहाँ वे भी रहेंगे और जहाँ रस नहीं रहेगा, वहाँ गुणों की स्थिति सम्भव नहीं है, अतः सगुणौ के स्थान पर 'सरसौ' पद उपयुक्त होता । किन्तु मम्मट का यहाँ यह अभिप्राय है काव्य की भाषा विषयानुरूप होनी चाहिए। यदि जहाँ वीरता आदि के विषय में बताना हो, भाष ओजगुणयुक्त होनी चाहिए, जहाँ उदगार आदि का चित्रण हो, वहाँ माधुर्य, जहाँ शान्त भाव हो, वहाँ प्रसाद गुण होना चाहिए। स्पष्ट है कि मम्मट गुणों को रस का धर्म मानते हैं (उन्होंने गुणों के लिए स्पष्टत: कहा है-ये रसस्यंगिनोधर्माः शौर्यादयः इवात्मन:,) और यह भी माना है कि 'गौणवृत्ति से गुणका सम्बन्ध शब्द और अर्थ के साथ भी स्थापित हो जाता है' (भारतीय आलोचनाशास्त्र, पृ. 23) अतः विश्वनाथ आदि की आपत्ति निरर्थक है।

 

3. अनलंकृती पुनः क्वापि 

मम्मट का मानना है कि काव्य में अलंकारों की अनिवार्यता नहीं - होती । विश्वनाथ से पहले जयदेव ने अलंकारों की अनिवार्यता की बात करते हुए कहा था कि जो | व्यक्ति काव्य को अलंकारों से रहित मानता है, उसे यह भी मानना पडेगा कि अग्नि भी उष्णता से | रहित होती है (चन्द्रालोक, 1 / 12 ) । विश्वनाथ भी काव्यलक्षण में अनलंकृती पुनः क्वापि का समर्थन नहीं करते। दरअसल मम्मट के समय तक अलंकार 'काव्य की शोभा को बढाने वाले उपादान के में हो गए थे, जगकि भामह आदि अलंकारवादियों के समय में अलंकार काव्य के सौन्दर्य रूप रूढ को निर्मित करने वाले उपादानो के रूप में अत्यन्त व्यापक अर्थ के द्योतक थे। अब अलंकार काव्यशरीर के भी अंग न होकर ऊपर से आरोपित किये जाने वाले उपादान कहे जाने लगे, अतः मम्मट ने अलंकारों की अनिवार्यता स्वीकार नही की।

 

मम्मट के शब्दार्थों शब्द पर पण्डितराज जगन्नाथ आपत्ति करते हुए यह मानते हैं कि काव्य शब्द को ही मानना चाहिए, शब्द और अर्थ दोनों को नहीं। पर यह आक्षेप आक्षेप मात्र है। यह तो स्वयं सिद्ध बात है कि काव्य शब्द और अर्थ दोनों में होता है। शब्द से अर्थ की प्रतीति होती है और अर्थ तो शब्द के विना अस्तित्वरहित है।

 

कुल मिलाकर मम्मट का मत अनेक दृष्टियों से उपयुक्त है क्योंकि इसमें एक ओर उन्होंने अपने पूर्ववर्ती भामह आदि आचार्यों के मतों का समन्वय किया है और दूसरी ओर निर्दोषता, गुणयुक्तता, रसपूर्णता और अलंकारों की स्थिति का वर्णन करके काव्य की व्यवस्थित परिभाषा दी है। इसीलिए उनके अनेक परवर्तियों ने उनके ही मत का समर्थन किया है। यथा-

 

1. अदोषौ सगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थौ काव्यम् - काव्यानुशासन, , हेमचन्द्र, 

2. शब्दार्थी निर्दोषौ सगुणौ प्रायः सालंकारौ काव्यम्- काव्यानुशासन, वाग्भट 

3. शब्दार्थौ वपुरस्य तत्र विबुधरात्माभ्यधायिध्वनि :- एकावली, विद्याधर 

4. गुणालंकारसहितौ शब्दार्थों दोषवर्जितौ- प्रतापरुद्रीय, विद्यानाथ

 

मम्मट के उपरान्त आचार्य विश्वनाथ ने काव्यलक्षण प्रस्तुत किया- 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्'- अर्थात् रसयुक्त वाक्य काव्य है। विश्वनाथ के अनुसार रस के अभाव में कोई रचना काव्य नहीं है। पण्डितराज जगन्नाथ का मानना है कि यदि विश्वनाथ का यह काव्यलक्षण स्वीकार किया जाता है तो काव्य के ऐसे स्थल जो सरस नहीं होते हैं या रस से सीधे सम्बद्ध नहीं होते हैं, जैसे प्रकृति वर्णन, उन्हें अकाव्य कहना पडेगा और काव्य का दायरा सीमित हो जाएगा। इस दृष्टि से विश्वनाथ का काव्यलक्षण अव्याप्ति दोष से युक्त हो जाता है, यद्यपि वे जिस रसात्मकता की बात करते हैं, वह तो काव्य का अनिवार्य तत्व है लेकिन यह भी ध्यान देना होगा कि रस में काव्य के सभी तत्व गतार्थ नहीं होते अत: यह परिभाषा भी निर्दुष्ट नहीं है।

 

पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्यलक्षण दिया- 'रमणीयार्थः प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्'- रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द काव्य है। यहाँ रमणीय शब्द सौन्दर्य, इष्टार्थ, लोकोत्तरता, रसनीयता सभी आ जाता है और इस दृष्टि से पण्डितराज का काव्यलक्षण काफी व्यापक है किन्तु जगन्नाथ केवल शब्द में ही काव्यत्व मानते हैं, अर्थ में नहीं, जबकि यह बात तो स्वत: और सर्वस्वीकृत है कि शब्द और अर्थ में अभिन्न सम्बन्ध है, शब्द के विना अर्थ अस्तित्वहीन है और अथ के बिना शब्द शव के समान है।

 

संस्कृत के आचार्यों द्वारा दिये गए काव्यलक्षणों पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि काव्यलक्षण विषयक तीन वर्ग आचार्यों के हैं। एक वर्ग काव्यलक्षण देते हुए शब्दार्थ पर बल देता है। भामह, वामन, रुद्रट, भोजराज, मम्मट, हेमचन्द्र, वाग्भटट, विद्यानाथ आदि आचार्य इसी वर्ग में आते हैं। दूसरा वर्ग शब्दार्थ को नहीं, केवल शब्द को काव्य मानता है। दण्डी, जयदेव, विश्वनाथ, पण्डितराज जगन्नाथ आदि इस वर्ग के आचार्य हैं। एक तीसरा वर्ग उन आचार्यों का है जो काव्य को व्यापार प्रधान मानता है। आचार्य कुन्तक, भट्ट नायक, आनन्दवर्धन आदि इस वर्ग के आचार्य हैं। भट्टनायक रस का विवेचन करते हुए भावनव्यापार की तथा आनन्दवर्धन ध्वनि का वर्णन करते हुए ध्वनन व्यापार की चर्चा करते हैं। इन काव्यलक्षणों में काव्य का कोई न कोई पक्ष छूटा है, इसीलिए परवर्ती काल में पुन: पुन: काव्य का स्वरूप निर्धारित करने की चेष्टा की जाती रही है। आप इस अंश को पढकर हमारे संस्कृत काव्यशास्त्र की सुदीर्घ परम्परा से परिचित हुए होंगे और काव्य के विषय में विविध विचारों से भी आप अच्छी तरह परिचित हुए होंगे।

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