पाश्चात्य साहित्यशास्त्र की परंपरा |पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का प्रथम चरण|Tradition of western literature

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पाश्चात्य साहित्यशास्त्र की परंपरा

पाश्चात्य साहित्यशास्त्र की परंपरा |पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का प्रथम चरण|Tradition of western literature



पाश्चात्य साहित्यशास्त्र की परंपरा प्रस्तावना

 

जैसा कि आप जानते हैं; काव्यशास्त्र के अंतर्गत काव्य अथवा साहित्य के विभिन्न तत्त्वों से लेकर उसके उद्देश्य एवं प्रभाव तक सभी पक्षों पर विचार किया जाता है। विचार-विश्लेषण और समीक्षा के दृष्टिकोणों में प्रत्येक देश, भाषा और काल के अनुसार अंतर भी आता रहता है। भिन्न- भिन्न दृष्टिकोणों से की जाती आलोचनाओं से ही साहित्य का स्वरूप निर्धारित एवं विकसित हुआ । 

 

सौंदर्य का दार्शनिक विवेचन ही पाश्चात्य काव्यशास्त्र का आधार बना। सौंदर्य क्या है? उसके मूल तत्व कौन-कौन से हैं? उसका प्रभाव क्या है? सौंदर्य वस्तुपरक है या व्यक्तिपरक? आदि प्रश्नों पर पाश्चात्य सौंदर्य-दर्शन या ऐस्थिटिक्स में गहराई से विचार किया गया। दर्शन से जुड़े होने के कारण परम सत्य, गोचर सत्य और अनुकृत सत्य पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय इतिहास के विचार सूत्र बने रहे - चाहे वह यूनानी इतिहास हो, चाहे रोमन, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनी या रूसी काव्य चिंतन हो; सभी में विभिन्न चिंतकों द्वारा काव्य या कला को प्रकृति की अनुकृति माना गया।

 

कुछ ने कला को यथावत् अनुकृति माना, कुछ ने कला और काव्य को प्रकृति की पुनः सर्जना के रूप में स्वीकार किया। किसी ने कला के समाजोपयोगी नैतिक पक्ष को महत्वपूर्ण माना, तो किसी ने उसके आनंददायी कलात्मक पक्ष को । इन्हीं सब विचार-मंथनों से पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का विकास हुआ।

 

पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का प्रथम चरण :

 

प्राचीन युग (ई(पू) पाँचवी शताब्दी से पाँचवी सदी ईसवी तक )

 

पाश्चात्य काव्यशास्त्र के इतिहास को निम्नलिखित चार कालखंडों में विभाजित किया गया है:


प्रथम- प्राचीन युग; 0पू0 पाँचवी शताब्दी से ईसा की पाँचवी शताब्दी तक। 

द्वितीय- अंधकार युग; पाँचवी सदी से पन्द्रहवीं सदी ईसवी तक 

तृतीय- मध्ययुग; 15वीं से 19वीं सदी ई० तक, इसके दो खंड हैं: 

  • (अ) नवजागरण काल (15वी शताब्दी) तथा 
  • (आ) नव्य शास्त्रीय युग (16वीं से 18वीं शताब्दी)

 

चतुर्थ - आधुनिक युग (18वीं से 20वीं सदी तक) 

  • (अ) स्वच्छंदतावादी युग (19वीं शताब्दी) 
  • (आ) बीसवीं शताब्दी की विभिन्न समीक्षा धाराएं

 

1 प्रारंभिक रूप यूनानी समीक्षक 

(0पू0 पाँचवी शताब्दी से ईसा की पाँचवी शताब्दी तक)

 

पाश्चात्य काव्यशास्त्र का प्रारंभ ईसा से लगभग चौथी - पाँचवी शताब्दी पूर्व यूनान (ग्रीस) में हुआ माना जाता है। काव्य-विषयक प्रथम विश्लेषण यूनानी चिंतक प्लेटो ( ई0पू0 428-347) के संवादों में ही मिलता है।

 

यूरोपीय साहित्य का प्राचीनतम रूप यूनान के विश्व प्रसिद्ध कवि होमर के काव्य में मिलता है। होमर ने ग्रीक भाषा में साहित्य रचना की थी। उनका समय ईसा पूर्व सातवीं-आठवीं शताब्दी माना जाता है। होमर के उपरांत वहाँ का दूसरा प्रसिद्ध कवि हेसिऑड था। इन दोनों के काव्य में हमें तत्कालीन साहित्यिक मान्यताओं का आरंभिक रूप मिल जाता है। होमर काव्य का लक्ष्य आनंद प्रदान करना मानता था। उसका कहना था कि काव्य का मूल प्रयोजन 'चमत्कार द्वारा आनंद प्रदान करना है।' वह कलात्मक भ्रम से ही चमत्कार और आनंद का प्रादुर्भाव मानता था। इसके विपरीत हेसिऑड काव्य का प्रयोजन शिक्षा देना या दैवी संदेश का वहन करना घोषित करता है। इस प्रकार यूरोप के ये दोनों प्राचीनतम कवि उस ऐतिहासिक विवाद को जन्म दे गए जो आज भी काव्यशास्त्रीय-चर्चा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है।

 

यूरोप का आरंभिक काव्य, जीवन और समाज से घनिष्ठ रूप से संबद्ध था। होमर और हेसिऑड दोनों ही कला की अधिष्ठात्री देवी म्यूज़ से यह प्रार्थना करते हैं कि वह उनहें वस्तुगत सत्य को प्रकट करने की प्रेरणा और शक्ति प्रदान करे। इस युग में काव्य रचना का उद्देश्य मनुष्य जीवन को सभ्य और उदात्त बनाना माना जाता था। इसी कारण काव्य का मूल्यांकन सामाजिक उपयोगिता के आधार पर ही होता था। होमर ने अपने काव्यग्रंथों 'इलियड' और 'ओडेसी' में प्राचीन कथाओं के आधार पर देवताओं की अनैतिक और ईर्ष्यालु प्रवृत्ति का खुलकर चित्रण किया था।

 

2 होमर के परवर्ती समीक्षक 

सामान्यतः प्लेटो (पाँचवीं सदी ईसा पूर्व) को पाश्चात्य काव्यशास्त्र का जनक माना जाता है। परंतु होमर और प्लेटो के मध्यवर्ती युग में भी यूनान (ग्रीस) में कुछ विद्वान हुए जिन्होंने काव्य की व्याख्या की थी। इन विद्वानों में पिंजर, गॉर्जियस तथा अरिस्टोफेनिस के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पिंडर काव्य-सृजन में प्रेरणा की अपेक्षा प्रतिभा को अधिक महत्वपूर्ण मानता था; जबकि गार्जियस एक प्रकार से होमर के कलात्मक भ्रम वाले सिद्धांत का समर्थक था। आगे चलकर अरस्तू द्वारा किए गए त्रासदी संबंधी विवेचन पर गार्जियस का गहरा प्रभाव माना जाता है। गार्जियस की मान्यता थी कि त्रासदी श्रोताओं पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती है। यूनान के नगरों में जनतंत्र की स्थापना के बाद वहाँ वक्तृक्त कला का महत्व बढ़ने लगा था। इसी कारण 'क्या बात कही जा रही है?" की अपेक्षा 'बात कैसे कही जा रही है'- का महत्व बढ़ गया था। बात को प्रभावशाली ढंग से कहकर जनता को प्रभावित करना भाषण कला का प्रधान लक्ष्य था। साहित्य में भी इस प्रवृत्ति का प्रभाव परिलक्षित होने लगा था। काव्य का लक्ष्य आनंद और शिक्षा देना माना जाता था। प्लेटो पूर्व यूरोपीय काव्य समीक्षा के मतों को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है -

 

1. काव्य का मूल तत्त्व प्रेरणा है और कवि एक विशिष्ट प्राणी । 

2. काव्य का प्रयोजन आनंद प्रदान करना और शिक्षा देना- दोनों स्वीकार्य थे।

3.काव्य का विषय प्राचीन वीरों की कथा कहने तक ही निर्धारित था । 

4. कवि हृदय का निर्मल और संवेदनशील होना अनिवार्य माना जाता था। 


3 यूरोपीय समीक्षा का आदि प्रवर्तक प्लेटो (4290पू0 347) 

प्लेटो के गुरु सुकरात (4690पू0 से 3890पू0) एक संत महात्मा, दार्शनिक, चिंतक और तार्किक व्यक्ति थे। काव्यशास्त्र के विषय में उनके विचार प्राप्त नहीं होते, परंतु उनका चिंतन उनके पटु शिष्य प्लेटो के माध्यम से सामने आया; जो एक आदर्शवादी विचारक, राजनीतिक तथा दार्शनिक था। प्लेटो के आदर्श राज्य की कल्पना सुप्रसिद्ध है।

 

प्लेटो 

उनका ग्रन्थ रिपब्लिकराजनीतिक चिंतन और आदर्श राज्य का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उनके अधिकांश ग्रंथ संवादों के रूप में हैं। इन संवादों में राजनीति आदि अन्य विषयों की चर्चा के मध्य प्लेटो के कला तथा काव्य संबंधी मत प्रकट हुए हैं।

 

प्लेटो के काव्यशास्त्रीय विचारों को संक्षेप में हम इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं-

 

1. कवि दैवी प्रेरणा से अथवा आवेश में आकर काव्य की रचना करता है। उसकी वाणी ईश्वर की वाणी है। परंतु उसके वर्णन सच्चे और तर्क पर आधृत नहीं होते। अधिकांशतः वह मानव-वासनाओं को उभार कर लोगों को अनैतिक बनाता है।

 

2. कवि का वर्णन काल्पनिक और अज्ञानजन्य होता है; जो समाज को गलत दिशा देता है। अतः वह त्याज्य है। उसने कवियों को आदर्श राज्य से बहिष्कृत करने का सुझाव दिया।

 

3. प्लेटो के विचार से वस्तु के तीन रूप होते हैं- 1. आदर्श, 2. वास्तविक और 3. अनुकृत। प्रकृति और सृष्टि भी ईश्वर के किसी आदर्श के आधार पर रची गई अपूर्व सृष्टि है। कला और काव्य उसकी भी अनुकृति होने से सत्य से तिगुने दूर हैं।

 

4. कविता और कला में वस्तु के साथ-साथ रूप भी महत्वपूर्ण होता है। काव्य में लय और छंद का भी विशेष महत्व है। प्लेटो की काव्यशास्त्रीय दृष्टि समाज परक एवं नैतिक है।

 

अरस्तू (384-3220पू0) 

प्लेटो के बाद उनके शिष्य अरस्तू ने अपने विरेचन सिद्धांत की स्थापना कर प्लेटो के आक्षेपों का उत्तर देते हुए कहा-

 

1. साहित्य प्रकृति का अनुकरण मात्र न होकर एक नवीन सृष्टि होता है। 

2. साहित्य सत्य से दूर न होकर एक अधिक व्यापक और संभाव्य सत्य का अंकन करता है। 

3. साहित्य वासनाओं को उभारकर उनका संवर्धन और संप्रोषण नहीं करता; बल्कि उनका विरेचन या शुद्धिकरण करता है। इसलिए साहित्य समाज के लिए कल्याणप्रद होता है। अतः वह त्याज्य न होकर स्पृहणीय है।

 

अरस्तू ने अपने दो प्रसिद्ध सिद्धांतों- 1. अनुकृति सिद्धांत तथा 2. विरेचन सिद्धांत की स्थापना करके विस्तृत काव्यशास्त्रीय विवेचन किया। काव्यशास्त्र पर उनके दो ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं, परंतु वे भी खंडित रूप में।

 

1. काव्यशास्त्र, 2. अलंकारशास्त्र । अरस्तू ने काव्य के पाँच मुख्य रूप माने थे- महाकाव्य, त्रासदी, कामदी, रौद्र स्रोत्र और गीतिकाव्य। इनमें से वे महाकाव्य को श्रेष्ठ मानते थे। वे सुखांत नाटकों की अपेक्षा दुखांत नाटकों को श्रेष्ठ मानते थे। वस्तुतः अरस्तू ने काव्य संबंधी इतना विस्तृत, गंभीर और मौलिक विवेचन किया है कि उसे प्राचीन काव्यशास्त्र का मेरुदंड एवं सर्वाधिक प्रभावशाली समीक्षक माना जाता है। होमर और हेसिऑड आदि की काव्य रचनाएं संकेत देती हैं कि प्लेटो से काफी पहले से ग्रीस में काव्य-रचनाएं हो रही थीं, उनमें से अनेक रचनाएं लोकप्रिय थीं तथा उन पर तत्कालीन काव्यप्रेमियों एवं बुद्धिजीवियों में चर्चाएं भी होती थीं, विशेषकर होमर की 'इलियड एड ओडीसी' पर। तत्कालीन ग्रीक दार्शनिकों, चिंतकों और कवियों ने अपने दर्शनशास्त्र, भाषणशास्त्र, नाटक, काव्य तथा इतिहास विषयक ग्रंथों में साहित्य के आदर्शों और आलोचना सिद्धांतों के साथ काव्य की उत्पत्ति, रचना-पद्धति और उद्देश्य इत्यादि के विषय में भी अपने निर्णय दिए हैं, लेकिन काव्य तथा अन्य कलाओं पर व्यवस्थित चिंतन और टिप्पणियाँ प्लेटो से ही आरंभ होती हैं। अनेक विद्वान यह भी मानते हैं कि यूरोपीय शास्त्रीय समीक्षा का विधिवत् प्रारंभ अरस्तू से ही होता है, क्योंकि उसके बाद के अन्य यूनानी चिंतकों ने एक प्रकार से उसी के मत को आगे बढ़ाया। परवर्ती समीक्षक शताब्दियों तक उनके अनुकृति एवं विरेचन के सिद्धांतों की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ करते रहे।

 

लोन्जायनस 

यूनानी समीक्षा के तीसरे और अंतिम विचारक लोन्जायनस का आविर्भाव प्रथम या द्वितीय शताब्दी ई() में हुआ। उसने काव्य का चरम लक्ष्य पाठक या श्रोता को 'अपूर्व समाधि' में निमग्न कर देना माना। उसे यूरोप का पहला स्वछंदतावादी (सौंदर्यवादी) समीक्षक माना जाता है। वह उदात् को काव्य और कला का सबसे महान् और प्रधान गुण मानता था। उसके अनुसार औदात्य या भव्यता एक भव्य आत्मा का गुण है । चित्तवृत्ति की भव्यता महान काव्य को जन्म देती है । यह प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा होती है और कला से अनुपूरित होकर महान काव्य का सृजन करती है। काव्य अपनी इसी उदात्तता के कारण पाठक या श्रोता के हृदय का स्पर्श करता है। उसने काव्य की उत्कृष्टता के लिए पाँच गुण आवश्यक माने थे - 1. वस्तुबोध या विचार की भव्यता, 2. भाव की उत्कृष्ठता, 3. अलंकारों का अधिक प्रयोग, 4. शब्द शिल्प की उदारता और 5. शब्द व्यवस्था की उत्कृष्टता। इस प्रकार वह काव्य के भाव पक्ष और कला पक्ष के परस्पर संबद्ध, संतुलित और व्यवस्थित होने पर बल देता है। आगे चलकर अठारहवीं शताब्दी का यूरोपीय स्वछंदतावादी काव्य लोंजायनस के इन सिद्धांतों से अत्यधिक प्रभावित रहा था। उसे स्वछंदतावाद और अभिव्यंजनावाद का मूल प्रवर्तक माना जाता है। यूनानी (ग्रीक) समीक्षाशास्त्र के आधार स्तंभ उपर्युक्त तीन आचार्य प्लेटो, अरस्तू और लोन्जायनस ही माने जाते हैं। इनके काव्यशास्त्रीय सिद्धांत लगभग दो हजार वर्षों तक यूरोपीय साहित्य और समीक्षा को प्रभावित करते रहे हैं। आज के अनेक साहित्यिक वादों और समीक्षा सिद्धांतों का मूल उत्स इन्हीं के सिद्धांतों में समाहित है।

 

लैटिन समीक्षक 

प्राचीन काल में यूरोप में दो ही भाषाएं प्रचलित थीं- ग्रीक और लैटिन । ग्रीक यूनान की तथा लैटिन रोम साम्राज्य की भाषा थी। यूरोपीय राजनीति से जब यूनान का प्रभुत्व समाप्त हो गया और रोम नई राजनीति का केंद्र बन गया तो साहित्य में इटली की भाषा लैटिन का प्रभुत्व बढ़ना प्रारंभ गया। तथा यूरोपीय साहित्य और कला का चिंतन केंद्र यूनान से हटकर रोम बन गया। परिणाम स्वरूप लैटिन भाषा की भी अभिवृद्धि हुई । लैटिन काव्यशास्त्र यूनानी काव्यशास्त्र से प्रभावित रहा।

 

लैटिन समीक्षकों में तीन प्रमुख विचारक 

(1) सिसिरो, (2) होरेस तथा (3) क्विन्टीलियन माने जाते हैं।

 

सिसिरो- 

सिसिरों ने अपनी रचनाओं में साहित्य के सैद्धांतिक पक्ष पर अधिक बल देते हुए साहित्य- तत्वों का सूक्ष्म विवेचन किया। वे यूनानी समीक्षकों से प्रभावित थे।

 

होरेस- 

होरेस का समय ईसा पूर्व पहली शताब्दी माना जाता है। संपूर्ण यूरोप की समीक्षा के इतिहा में होरेस का ऐतिहासिक महत्व माना गया है। उन्होंने अरस्तू के काव्य सिद्धांतों का समर्थन किया। आटर्स-पोइटिकाउनकी समीक्षा संबंधी प्रसिद्ध कृति है। साथ ही उन्होंने काव्य प्रयोजन, काव्य हेतु, कला साहित्य, साहित्यिक औचित्य, काव्य शिल्प, बुद्धि तत्व समीक्षा आदि का भी विद विवेचन किया। अंग्रेजी तथा लैटिन के परवर्ती समीक्षाशास्त्र पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा।

 

क्विन्टीलियन - 

लैटिन भाषा और साहित्य का तीसरा प्रसिद्ध समीक्षक क्विन्टीलियन अपने समय का प्रसिद्ध अलंकारवादी आचार्य और शैली विशेषज्ञ था। उसने रूढ़िवादी विचारधारा और शास्त्रीयता का विरोध करते हुए इस बात पर बल दिया था कि साहित्य समकालीन सामाजिक समस्याओं की उपेक्षा कर जीवित नहीं रह सकता। उसने कला और शैली, शब्द चयन, शब्द संघटना, अलंकरण, मूर्ति विधान, उपमा, वस्तु और शैली, शैली की विशिष्टता, शैली का औचित्य, भाषा शक्ति, शैली-भेद और लोकरुचि आदि तत्त्वों का विशद् विवेचन किया।

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