पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का मध्ययुग|Middle ages of western literature

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पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का मध्ययुग

पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का मध्ययुग|Middle ages of western literature


 

पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का मध्ययुग

यूरोपीय काव्यशास्त्र की प्रारंभिक स्थिति पर विचार करने के पश्चात् हम देखेंगे कि मध्यकाल में उसकी क्या स्थिति रही ।

 

1 अंधकार युग 

ग्रीक - रोमन साम्राज्य के पतन के बाद पाँचवी सदी ई0 से लेकर लगभग 15वीं सदी ई0 तक यूरोप में अराजकता की स्थिति छाई रहीसाथ ही साहित्य के क्षेत्र में भी पूर्ण विराम लग गया। ऐसा प्रतीत होता है कि इस बीच यूरोप में काव्य-सृजन की गति मंद पड़ गई थी और काव्यशास्त्र के चिंतन के प्रति उदासीनता छा गई थी। इस बीच काव्यशास्त्रीय दृष्टि से कुछ भी घटित न होने के कारण इसे अंधकार युग कहा जाता है।

 

2 मध्ययुग / पुनर्जागरण का आरंभ 

पाश्चात्य साहित्य के 15वीं और 16वीं शताब्दी के काल को पुनर्जागरण काल भी कहा जाता है । पन्द्रहवीं शताब्दी में रोमन साम्राज्य के प्राचीन केंद्र इटली में वैचारिक जागरण का नवोदय मानववाद के रूप में हुआ। इसके साथ ही यूरोप ने महसूस किया कि उसने प्राचीन यूनानी और लैटिन वैचारिक संपदासाहित्य और संस्कृति की उपेक्षा कर अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने का काम किया है। इस अनुभूति के उदय होते ही इटली आदि देशों में ग्रीक और लैटिन के प्राचीन ग्रंथों की खोज और उनके अनुवाद का कार्य प्रारंभ हो गया और यूरोप में पुनर्जागरण का उदय हुआ। इस नवीन वैचारिक जागृति का मूलाधार वही प्राचीन चिंतन रहा और यूरोप में उस वैचारिक क्रांति क हुआजिसने चार-पाँच शताब्दियों में ही यूरोपीय चिंतन और साहित्य को उत्कर्ष के चरम बिंदु तक पहुँचा दिया। 15वीं-16वीं शताब्दी में काव्य की शैली और भावपक्ष दोनों का पर्याप्त विवेचन हुआ। अरस्तू के अनुकरण सिद्धांत तथा विरेचन सिद्धांत का महत्व स्वीकार किया गया। अनुकरणकल्पनाशिक्षा एवं आनंद के आधार पर काव्य- परिभाषाएं बनाई गई। काव्य का विभाजन श्रव्य और दृश्य दो रूपों में किया गया। शैली विषयक नियमों तथा उदात्त भाषा के प्रयोग पर बल दिया गया। सोलहवीं शताब्दी को मध्यशास्त्रीय युग भी कहा जाता है।

 

अंग्रेजी समीक्षा का आरंभ सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ से माना जाता है। आरंभ में जान कॉलेटइरास्मस और जुआन लुई विवेस नामक तीन विद्वानों ने इटली के 'मानवतावादको अपनाते अपने हुए प्राचीन रूढ़ परंपराओं और पूर्वजों के अंधानुकरण का विरोध कर यह कहा कि हमें युग की नई परिस्थितियों के अनुरूप नई मान्यताओं को प्रश्रय देना चाहिए। परिणामस्वरूप नए काव्य सिद्धांतों की रचना का प्रारंभ हुआ। उनके इस प्रयास के साथ ही अलंकार - शास्त्र की नई परंपरा विकसित होने लगी। 19 वीं शताब्दी के रोमांटिक आंदोलन की भूमिका तैयार करने वाले एडीसन तथा लेसिंग भी इसी युग में हुए। ड्राइडन 17वीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण आलोचक माना जाता है। उसका झुकाव स्वछंदतावाद की ओर होते हुए भी वह प्राचीन सिद्धांतों के महत्व को स्वीकार करता है। एडीसन ने कल्पना की मनोवैज्ञानिक व्याख्या की तथा नाटकों में परिष्कृत हास्य और व्यंग्य को आवश्यक बताया। इसी काल में एलेक्जेंडर पोप ने अपनी बौद्धिकता एवं व्यंग्यप्रियता का परिचय दिया। 18वीं सदी के उल्लेखनीय आलोचक डॉक्टर जोनसन ने संकलन त्रय को उपेक्षित करते हुए अपने ढंग से नाटक का विवेचन किया। जर्मनी के काव्यशास्त्री लेसिंग की समीक्षा ग्रीक आदर्शों को स्वछंदतावादी आदर्शों तक जोड़ने में प्रवृत्त हुई।

 

गंभीर और मनोवैज्ञानिक समीक्षा- 

सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हम अंग्रेजी समीक्षकों को गंभीर और मनोवैज्ञानिक चिंतन करते देखते हैं। इस समय धार्मिक सुधारवादी दृष्टिकोण वाले लोग साहित्य और कला पर अनैतिकता का आरोप लगाने लगे थे। अंग्रेजी के नए समीक्षकों ने साहित्य और कला का गंभीर विवेचन करते हुए उन आरोपों का दृढ़ता के साथ खंडन किया और कहा कि साहित्य सर्वोत्कृष्ट आनंदप्रद और उपयोगी होता है। उनका कहना था कि काव्य ऐतिहासिकदार्शनिकसामाजिक या नैतिक सत्य को प्रकट करने का सर्वोत्तम साधन है। परंतु अंग्रेजी के प्रसिद्ध निबंधकार फ्रांसिस बेकन ने साहित्य को समाज से पूर्णतः असम्पृक्त और काल्पनिक घोषित करते हुए काव्य को जीवन से पलायन माना। इस समय बेन जॉनसन ने शेक्सपियर के नाटकों की विस्तृत समीक्षा करते हुए अंग्रेजी में गंभीर समीक्षा की नींव डाली।

 

अन्य यूरोपीय समीक्षक- 

इटली के मानवतावाद ने फ्रांस और स्पेन को भी प्रभावित किया। इटली में दांते तथा पैटार्क जैसे श्रेष्ठ साहित्यकारों ने समीक्षा के नए मानदंड बनाए। वहाँ लैटिन और ग्रीक साहित्य पर भी खूब विवेचन किया गया। स्पेन में समीक्षा का प्रवर्तन छठी शताब्दी के आस-पास हो चुका था। संत इसिडोर स्पेन के पहले प्रभावशाली समीक्षक माने जाते हैंजिन्होंने काव्य और धर्म में परस्पर अटूट संबंध माना था। इसके उपरांत समीक्षा क्षेत्र में धर्म के साथ दर्शन का प्रवेश भी मान्य हो गया। बारहवीं शताब्दी में स्पेनी विद्वानों ने काव्य को धर्म और दर्शन के चंगुल से मुक्त करके विशुद्ध काव्यशास्त्रीय समीक्षा का आरंभ किया और काव्य को सर्वश्रेष्ठ कला माना। सोलहवीं शताब्दी में लुई विवे ने यूरोप के नवजागरण से प्रेरित होकर स्पेनी साहित्य में नए युग की स्थापना की। स्पेन के नए साहित्य समीक्षकों ने अंधानुकरण की प्रवृत्ति का विरोध करते हुए नव युग का आह्वान किया।

 

सत्रहवीं शताब्दी की यूरोपीय समीक्षा: नव्य शास्त्रीय युग

 

सोलहवीं शताब्दी के अंत तक नवीन यूरोपीय समीक्षा का एक सुदृढ़ आधार बन चुका था। सत्रहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी समीक्षा का उल्लेखनीय विकास हुआ। इस शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ युग प्रवर्तक फ्रांसीसी समीक्षक वोयलो माना जाता है। उसने काव्य में विवेक का स्थान सर्वोपरि माना तथा प्राचीन यूनानी और लैटिन काव्यशास्त्र की दार्शनिक व्याख्या भी प्रस्तुत की। उसने ऐतिहासिक दृष्टिकोण से साहित्यिक प्रवृत्तियों का अध्ययन करने की परंपरा डाली । अन्य फ्रांसीसी समक्षकों ने भी काव्य के तत्त्वों और समस्याओं पर गंभीर विचार करते हुए फ्रांसीसी समीक्षा को आगे बढ़ाया और यूरोप में नव-क्लासिकवाद (नवीन सौंदर्यवाद) को जन्म दिया। तत्कालीन स्पेनी समीक्षा का रूप भी लगभग ऐसा ही रहा। सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हम अंग्रेजी काव्य में रहस्यवादी प्रवृत्ति का उ होते देखते हैं। डॉ0 जॉन्सन ने गूढ़ और अस्पष्ट काव्य रचकर काव्य क्षेत्र में रहस्यवाद का प्रवेश कराया। समीक्षकों ने इस काव्य को श्रेष्ठ तो मानापरंतु इसकी अस्पष्टता की निंदा भी की।

 

नव क्लासिकवाद - 

सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में फ्रांस में नव क्लासिकवाद की एक नई लहर फैली। फ्रांसीसी विचारकों ने साहित्य के क्षेत्र में व्याप्त स्वछंदता का विरोध करते हुए साहित्य को नियमों द्वारा अनुशासित करने का प्रयत्न आरंभ किया। प्रसिद्ध फ्रांसीसी समीक्षक वोयली ने साहित्यकारों के लिए एक आचार संहिता का निर्माण कियाजिसका आदर्श प्राचीन यूरोपीय साहित्य को माना। उसने कहा कि कवियों को प्राचीन कवियों के नियमों का अनुसरण करना चाहिए। इसका अंग्रेजी साहित्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ाजिससे फ्रांस और इंग्लैण्ड में काव्यशास्त्र के प्राचीन नियमों के अनुसार ही काव्य रचना होने लगी। किंतु नव क्लासिकवाद का यह जादू अधिक म तक अपना प्रभाव बनाए रखने में समर्थ न रह सका। फ्रांस और इंग्लैण्ड दोनों ही देशों के अनेक समीक्षकों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इंग्लैण्ड के डॉ0 जान्सन और मैथ्यू आर्नल्ड जैसे प्रभावशाली साहित्यकारों और विचारकों ने कहा कि- "काव्य का लक्ष्य जीवन का आनंद लेने और उसे सहने में हमारी सहायता करना है। "

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