काव्य का लक्षण अर्थ एवं स्वरूप |Nature meaning and characteristic poetry

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 काव्य का लक्षण अर्थ एवं स्वरूप 

काव्य का लक्षण अर्थ एवं स्वरूप |Nature meaning and characteristic poetry

काव्य का लक्षण अर्थ एवं स्वरूप -प्रस्तावना 

भारतीय एवं पाश्चात्य साहित्यशास्त्र की यह पहली इकाई है। इस इकाई के माध्यम से आप यह समझ सकते हैं कि साहित्य का क्या अर्थ है । साहित्य के लिए हम काव्य शब्द का प्रयोग क्यों कर रहे हैं।

 

यह सवाल हर संवेदनशील व्यक्ति के मन में सदेव उठता है कि साहित्य क्या है? साहित्य क्यों पढ़ा-लिखा-सुना जाता है? साहित्य कैसे लिखा जाता है? साहित्य की जरूरत हमें क्यों होती है? हमारी सामान्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति साहित्य या किसी भी ललित कला द्वारा नहीं हो सकती है फिर भी साहित्य के बिना हमारा जीवन अधूरा है. क्योंकि हमारी मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति साहित्य, संगीत, कला द्वारा ही होती है इसीलिए यह कहा जाता है कि साहित्य, संगीत और कला से विहीन व्यक्ति पूँछ और सींग से रहित पशु के समान होता है, अत: साहित्य हमारे लिए अपरिहार्य है. साहित्य के विषय में हमारे मनीषियों ने बड़े विस्तार से चर्चा की है। प्रस्तुत इकाई द्वारा काव्य के विविध सन्दर्भों के साथ काव्य के स्वरूप से परिचित कराया जाएगा।


काव्य का अर्थ

 

1 कवि, काव्य और साहित्य- 

काव्य का शाब्दिक अर्थ है कवि की रचना अर्थात् कवि द्वारा जो कार्य किया जाए, उसे काव्य कहते हैं- 'कवयतीति कविः तस्य कर्म: काव्यम् (एकावली), कवेरिदं कार्यभावो वा '' (मेदिनीकोश)। शब्दकल्पद्रुम में कवि की परिभाषा दी गई है- 'कवते सर्वजानाति सर्ववर्णयतीति कवि:' जो सब जानता है, सम्पूर्ण विषयों का वर्णन करता है, वह कवि है। हम यह लोकोक्ति अक्सर उद्धृत करते हैं - 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। अर्थात् कवि के पास ऐसी क्षमता होती है, जिससे वह उन उन विषयों, विचारों, स्थितियों के विषय में सोच और अभिव्यक्त कर सकता है, जिनके विषय में सामान्य व्यक्ति नहीं सोच पाता । श्रुति कहती है-'कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू । कवि मनीषी हैं, परिभू' यानी अपनी अनुभुति के क्षेत्र में सब कुछ समेटने में सक्षम है और स्वयंभू यानी जो अपनी अनुभूति के लिए किसी का ऋणी नहीं है तात्पर्य यह है कि काव्य उस मनीषी की सृष्टि है जो सर्वज्ञ है, सम्पूर्ण है। कवि को नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से सम्पन्न होना चाहिए और उसमें वर्णन निपुणता होनी चाहिए। यह वर्णन निपुणता असाधारण होनी चाहिए। आचार्य मम्मट अपनी कृति काव्यप्रकाश में 'काव्यं लोकोत्तरवर्णननिपुणं कवि कर्म .....' यानी काव्य को लोकोत्तर वर्णन में निपुण कवि की कृति कहते हैं। आनन्दवर्धन का कहना है कि अपार काव्यसंसार में कवि ब्रह्मा है और उसे संसार में जो जैसा अच्छा लगता है, वैसा ही वह उसका निर्माण करता है - 


अपारे काव्यसंसारे कविरेक: प्रजापति । 

यथास्मै रोचते विश्वं तथैव प्रतिजानीते। (ध्वन्यालोक, तृतीय उद्योत,)

 

इस आधार पर कवि से आशय है रचनाकार से और काव्य से आशय है साहित्य से। हमारे भारतीय चिन्तन में इसीलिए रचनाकार को कवि और उसकी रचना को काव्य कहा जाता रहा है। साहित्य की कोई भी विधा चाहे वह नाटक हो, कविता हो काव्य ही कहलाता था। 'काव्येषु नाटकं रम्यम्', 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' जैसी उक्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं। कालान्तर में हिन्दी साहित्य जगत् में काव्य शब्द पद्यबद्ध रचना के लिए रूढ हो गया और साहित्य शब्द व्यापक अर्थ में लिया गया। दरअसल आचार्य राजशेखर द्वारा रचित 'काव्य-मीमांसा' नामक कृति में सबसे पहले काव्य के अर्थ में साहित्य और काव्यशास्त्र के लिए साहित्यविद्या शब्द का प्रयोग मिलता है, इसके पूर्व साहित्य के लिए काव्य शब्द ही प्रयुक्त होता रहा है। पश्चिम में साहित्य शब्द के लिए 'लिटरेचर' शब्द का व्यवहार किया जाता है।

 

साहित्य शब्द की व्युत्पत्ति ' सहित' से हुई है, जिसका अर्थ है- सहभाव, समन्विति । साहित्य शब्द की व्याख्या दो रूपों में की जाती है। एक- साहित्य का निर्माण शब्द और अर्थ के समन्वय से होता है। दो- जिसमें हित की भावना सन्निहित हो, वह साहित्य है। साहित्य में सत्यं शिवं और सुन्दरम् का समन्वय होता है। वस्तुत: काव्य में शब्द और अर्थ अपने पूरे सामर्थ्य के साथ, सौन्दर्य के साथ प्रयुक्त होते हैं। तुलसीदास का कहना है 'गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न । शब्द और अर्थ पानी और उसमें उठने वाली लहर के समान हैं, जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। साहित्य का समस्त कार्य भाषिक अभिव्यंजना का ही व्यापार है। शब्द और अर्थ दोनों के योग से काव्य का स्वरूप संगठित होता है, यह बात तो निर्विवाद है ही, साहित्य का लक्ष्य आनन्द प्रदान करना - यानी सुन्दरम्, यथार्थ का चित्रण करना' यानी सत्यं, और व्यवहारज्ञान कराना, अकल्याणकारी तत्वों का विनाश करना, यानी शिवं की प्राप्ति कराना भी है। हम यह कह सकते हैं कि सामान्य शब्दार्थ काव्यनिर्माण के साधन हैं, कवि की लोकोत्तरवर्णन निपुणता इन्हीं सामान्य शब्दों और अर्थों को ऐसी शक्ति से सम्पन्न बना देती है, जिससे ये रससृष्टि करने में सफल हो जाते हैं। मम्मट आदर्श काव्य ऐसे शब्दार्थ के साहित्य को मानते हैं जो रसनिर्भर है, रस का अभिव्यंजक है। उनका कहना है-

 

नियतिकृतनियमरहितां ह्लादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम्। 

नवरसरुचिरा निर्मितमादधती भारती कवेर्जयती ॥ 

(काव्यप्रकाश, आनन्दमंगल, प्रथमउल्लास,)

 

विधाता के द्वारा निर्मित नियमों से रहित, आह्लादमयी, अपने अतिरिक्त अन्य समस्त कार्यकलाप की अधीनता से परे, अलौकिक रस से भरी और नितान्त मनोहर कवि भारती की जय हो।

 

काव्य क्या है ?

काव्य वाणी का सर्वोत्तम व्यापार है और कवि की सर्वोत्कृष्ट कृति है। व्यापक अर्थ में कवि शब्द का प्रयोग साहित्यकार के लिए और काव्य का प्रयोग साहित्य के लिए होता है। वर्तमान समय में काव्य अंग्रेजी के पोयट्री के और साहित्य लिटरेर के पर्याय के रूप में व्यवहत होता है। अत: जब हम भारतीय काव्यसिद्धान्तों की चर्चा करते हैं तो काव्यशास्त्र शब्द का व्यवहार करते हैं और जब पाश्चात्त्य या आधुनिक हिन्दी साहित्य के सिद्धान्तों की बात करते हैं तो साहित्य शास्त्र या समालोचना शब्द का व्यवहार करते हैं।

 

.2 काव्य का लक्षण

 

संस्कृत में लक्षण की परिभाषा दी गई है - तदैव हि लक्षणं यदव्याप्ति अतिव्याप्ति असम्भवरूप दोषत्रयशून्यम्' अर्थात् लक्षण वह है जो अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव -इन दोषों से रहित हो। जिस विषय या वस्तु को पारिभाषित करना हो, उसके स्वरूप का ठीक ठीक, सन्तुलित निरूपण लक्षण कहलाता है। इस दृष्टि से काव्य को पारिभाषित करना अत्यन्त दुष्कर है, क्योंकि हम देखते हैं कि काव्य को लक्षण के दायरे में बाँधने के प्रयत्न बहुत समय से अनेक विद्वानों ने किये, काव्य की परिभाषाएं दीं, किन्तु एक सम्पूर्ण, सर्वग्राह्य परिभाषा दे पाने में आज तक कोई भी समर्थ नहीं हुआ। काव्य का स्वरूप बहुत व्यापक और सूक्ष्म है। आदिकाल से लेकर आज तक काव्य का स्वरूप स्पष्ट करने के अनेक प्रयास होते रहे हैं परन्तु काव्य की ठीक-ठीक परिभाषा अभी तक नहीं बनी। नवनवोन्मेषशाली प्रतिभा से सम्पन्न कवि की रचना है काव्य । उसमें नित नूतन कल्पनाएं, नित नये विचार, नित नये भाषिक प्रयोग, समय और समाज के नित परिवर्तित होते रूप परिलक्षित होते रहते हैं इसीलिए काव्यशास्त्र की सुदीर्घ परम्परा में हमें काव्य-लक्षण विषयक अनेक परिभाषाएं मिलती हैं। इस सन्दर्भ में महादेवी वर्मा का यह कथन उद्धृत किया जा सकता है-

 

'कविता मनुष्य के हृदय के समान ही पुरातन है; परन्तु अबतक उसकी कोई ऐसी परिभाषा न बन सकी जिसमें तर्क-वितर्क की सम्भावना न रही हो। धुँधले अतीत भूत से लेकर वर्तमान तक, और 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं' से लेकर आज के शुद्ध बुद्धिवाद तक जो कुछ काव्य के रूप और उपयोगिता के सम्बन्ध में कहा जा चुका है, वह परिणाम में कम नहीं; परन्तु अब तक न मनुष्य के हृदय का पूर्ण परितोष हो सका है ओर न उसकी बुद्धि का समाधान। यह स्वाभाविक भी है; क्योंकि प्रत्येक युग अपनी समस्याएं लेकर आता है, जिनके समाधान के लिए नई दिशाएं खोजती हुई मनोवृत्तियाँ उस युग के 'काव्य' और 'कलाओं को एक विशिष्ट रूपरेखा देती रहती हैं। मूल तत्व न जीवन के कभी बदले हैं; और न काव्य के; कारण वे उस चेतना से सम्बद्ध हैं, जिसके तत्त्वत: एक रहने पर ही जीवन की अनेकरूपता निर्भर है । ( महादेवी वर्मा का विवेचनात्मक गद्य)

 

यह तो निर्विवाद है कि साहित्य और समाज में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। और समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। इस परिवर्तन का प्रभाव साहित्य पर भी पडता है, जिसके कारण उसका रूप परिवर्तित होता रहता है। सामान्य रूप से भी मूर्त वस्तुओं की तो परिभाषा दी जा सकती है, अमूर्त को ठीक-ठीक रूप से पारिभाषित करना कठिन है। फिर भी साहित्य के स्वरूप को समझने के लिए संस्कृत के पुरातन चिन्तक आचार्य भरतमुनि से लेकर आज तक काव्य विषयक मान्यताओं को परखना आवश्यक है। इससे हम यह समझ सकेंगे कि काव्य के शाश्वत तत्त्व कौन से हैं और कौन से तत्त्व युगानुरूप शामिल होते जाते हैं।

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