हिंदी में अनुवाद का प्रारंभ | विविध प्रकार के अनुवाद | Hindi Translation History

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हिंदी में अनुवाद का प्रारंभ ,विविध प्रकार के अनुवाद 

हिंदी में अनुवाद का प्रारंभ | विविध प्रकार के अनुवाद | Hindi Translation History


विविध प्रकार के अनुवाद परिचय  

आज इक्कीसवीं सदी को वैश्वीकरण का युग कहा जा रहा है। इसमें अपरिचय की सारी दीवारें, सारे बंधन तोड़ कर निकट लाने का प्रयास हो रहा है इतना ही नहीं भाषा का 'ओपेक' रूप घिस मांज कर पादर्शी बना रहे हैं । फलतः अनुवाद का प्रवेश जीवन के हर क्षेत्र में संभव हो पा रहा है मानवीय परिश्रम से लेकर मशीनी गतिशीलता तक विविध रफ्तार में यह कार्य हो कर इलेक्ट्रानिक साधनों से विश्व भर में फैल रहा है फेसबुक से संपर्कों में गति भी आ रही है । ऐसे में अनुवाद के विविध रंग, रूप, विविध क्षेत्र, विविध प्रकार से सामने आ रहे हैं यह अध्ययन अपने आपमें एक भरा-पूरा शास्त्र का रूप ले चुका है इसकी शाखा-उपशाखायें खुल चुकी हैं । यहाँ पर हम बहुत सीमित रूप में कुछ दो शाखाओं पर विचार विमर्ष करेंगे प्रमुख है ललित साहित्य का अनुवाद और फिर आगे चल कर ज्ञान-विज्ञान और सूचनात्मक साहित्य का अनुवाद । इन दोनों का उद्देश्य भिन्न है । इनकी प्रविधि भिन्न है । दोनों में भिन्न मानसिकता की जरूरत पड़ती है । दोनों का उपयोग क्षेत्र भी भिन्न-भिन्न है । इस संबंध में विद्वानों ने अपने विचार कुछ मूल - मान्यताओं के आधार पर रखे हैं । वे भूल जाते हैं कि भारतीय साहित्य लंबे अर्से तक मौखिक (Oarl litereture) रहा है तब यहाँ साहित्य क्षेत्र में ही ज्ञान-विज्ञान और कला संबंधी नियमादि आ जाते थे उनके अनुवाद की पद्धति और आभिमुख्य बदलते रहे विश्व का प्राचीनतम ज्ञान-विज्ञान और जीवनानुभव भंडार वेद हैं । यह अत्यंत संश्लिष्ट और सांकेतिक भाषा में रचा साहित्य है । इनके रचयिताओं के जीवन मूल्य इतने उच्च थे कि आज के किसी साहित्य से उनकी तुलना संभव नहीं है। तब उनके लिए हमारे पास कोई लिपि नहीं थी । केवल गुरु सुना कर अंतरण करता था इनको इसी दृष्टि से श्रुति कहा गया । यह परंपरा और प्रक्रिया इतनी 'परफेक्ट' - - सटीक थी कि सदियों तक यह साहित्य बिना क्षति के अंतरित होता रहा । परंतु जनसंख्या बढ़ने और उनके दूर-दूर तक बसने के कारण लिपि और भोजपत्र, ताड़पत्र आदि आधारों का आविष्कार सुरक्षा और अंतरण के लिए किया गया । उच्चरित ध्वनि को लिपि संकेतों में सुरक्षित कर लिया जाने लगा इस कारण कालान्तर में उसके स्पष्टीकरण की जरूरत पढ़ने लगी । यह मुख्य चिंता का विषय बना । इसी में अनुवाद की जरूरत पहली बार सामने आयी । ऋषि एवं आचार्य इसके प्रति सचेत थे । अतः उन्होंने प्राचीन रूप के वेदों का बाद की संस्कृत भाषा में लिखा गया कहीं-कहीं उसका गद्यान्तर भी लिखाया गया । पुरानी भाषा व्यवस्था उन कृतियों तक सीमित रही, लोक प्रचलन में हट गई। यहीं लोक प्रचलित भाषा को लौकिक संस्कृत कहा गया इसमें आचार्यों ने टीकायें लिखी वेदों की ऋचायें भाषा या टीकाकार निम्न विधि से प्रचलित हुई :

 

नैरुक्त, वैयाकरण, ऐतिहासिक, याज्ञिक, पूर्व साहित्य, परिव्राजक, नैदान, आत्मप्रवाह और अध्यात्मकी पद्धति रूप में प्रचलित हुई थी । इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध यास्क माने जाते हैं यास्क के बाद सदियों तक जो कार्य हुआ वह आज उपलब्ध नहीं है । स्कंदस्वामी, नारायण, उद्ग्रीव आदि के भाष्य काल के गर्भ में समा गए। आगे चल कर माधव भट्ट, वेंकट राघव, आनन्द तीर्थ, आत्मानन्द आदि ने ऋग्वेद का भाष्य किया. 

 

इस लंबी परंपरा में सायण का नाम और काल हमारे पास प्रामाणिक रूप में उलब्ध है लगभग चौदहवीं सदी का यह कार्य बहुत महत्वपूर्ण है । वेदों का यह भाष्य पश्चिम, विशेष कर जर्मन अध्येताओं के लिए भी आदर्श रहा । आगे चल कर दयानन्द सरस्वती ने वेदों की आधुनिक व्याख्या की

 

भाषा परिवर्तन के साथ-साथ यहाँ संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश का प्रचलन तो हुआ, पर देश में इनमें अनुवाद की कोई परंपरा नहीं बन सकी वरन व्यापक जन समुदाय से जुड़ी रही । प्राकृत के कई ग्रंथों का संस्कृत में छायानुवाद मिलता है । इनमें पैशाची प्राकृत में 'वड्डकहा' का क्षेमेंद्र ने 'वृहत्कथा मंजरी' और फिर सोमदेव ने 'कथा सरितसागर' के रूप में किया ।

 

तब बौद्ध धर्म का प्रचार तिब्बत, चीन, जापान, लंका, जावा, बाली देशों में हुआ । 'त्रिपिटक' का अनुवाद उधर हुआ। बौद्ध दर्म के मूल ग्रंथ अनूदित होकर तिब्बत होते हुए चीन पहुँचे, जहाँ आज भी वे सुरक्षित हैं। प्रो. प्रहलाद प्रधान जब बेचिंग में (१९४३) हिंदी के प्रोफेसर थे तो उनका संस्कृत का पुनरुद्धार किया और प्रामाणिकता विश्व के सामने प्रमाणित हुए । शांतिनिकेतन विश्यभारती ने प्रकाशित किया अभिधर्मसिमुचय' यह अपने ढंग का अनूठा अनुवाद कार्य हुआ जिसमें अनुवाद ' से लुप्त ग्रंथ का पुनरुद्धार संभव हो पाया । इसे कुछ उपलब्ध अंशों से मिला कर देखा तो बहुत कुछ समान पाया । उसी प्रकार अभिधम्म कोष भाष्य' का संस्कृत में (चीनी से) अनुवाद कर विश्व में अनुवाद एक और महत्व को प्रतिपादित कर लुप्त धारा का पुनराविष्कार किया भारत में अनुवाद का यह दुर्लभ कार्य प्रधानजी ने किया ।

 

वैसे संस्कृत ग्रंथों में 'पंचतंत्र' अनुवाद के रूप में काफी प्रचलित रहा । मुगल काल में रामायण, महाभारत, उपनिषद, गीता आदि फारसी में आये । इसके बाद संस्कृत का समग्र साहित्य भारतीय भाषा (विशेष कर हिंदी) में रूपांतरण में उपलब्ध होने लगा । मुद्रण की सुविधा से यह कार्य द्रुत हुआ । संस्कृत से तमिल, तेलुगू, मराठी, बांग्ला, गुजराती, ओड़िआ में अनुवाद की विशेष परंपरा बनी ।

 

हिंदी में अनुवाद का प्रारंभ 

संस्कृत के प्राचीन साहित्य से होता है । इसके बाद बौद्ध, जैन और फिर इस्लामी ग्रंथों का हिंदी रूपांतर बहुत आया, लेकिन श्रीमद्भागवत का मुंशी सदासुख लाल कृत 'सुखसागर' खूब लोकप्रिय अनुवाद माना जाता है । उसी प्रकार ल्लूजी लाल का 'प्रेमसागर' खड़ीबोली में प्रचलित अनुवाद है । अंग्रेजी शासन में पंश्चिमी साहित्य का हिंदी रूपांतरण भी काफी लोकलोचन में आये । परंतु अनेक संस्कृत काव्य नाटक हिंदी में अनूदित हुए । मंच को समृद्ध किया हिंदी कविता को प्रेरणा प्रदान की ।

 

आजादी के बाद हर क्षेत्र ने अपनी पहचान बनाने, अपना स्थान सुरक्षित करने और राष्ट्र विस्तार के लिए हिंदी अनुवादों का सहारा लिया ! ये पहले हिंदी को आधार भाषा बनानने लगे । उससे लेकर भारत की अन्य सभी भाषाओं में अनुवाद होने लगा । पहले अंग्रेजी का सहारा लिया जाता है । पर फिर देखा भारतीय भाषाओं के लिए हिंदी ही सहज भाषा है । अतः कोई (भारतीय हो या विदेशी) कृति हिंदी में लाते । फिर अन्य भारतीय भाषाओं में रूपांतरण होने लगा । आज यह सर्वाधिक स्वीकार्य रुट बन चुका है । हिंदी अनुवाद की गौरवशाली स्थिति बन गई ।

 

अर्थात् अनुवाद ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया और इससे भारतीय साहित्य की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हुआ है हिंदी में इस अर्धशती में साहित्यिक और तकनीकी - वैज्ञानिक दोनों अनुवाद हुए । पहले साहित्यिक अनुवाद का महत्व लें ।

 

विविध प्रकार के अनुवाद :

 

साहित्यिक अनुवाद की विशेषता :

 

1) भाषा के मामले में सामान्य भाषा और साहित्यिक भाषा में जैसे अंतर होता है, अनुवादक भी सामान्य भाषा को अनुवाद के जरिये साहित्य भाषा बनाता है । अर्थात् लक्ष्य भाषा को सृजनशील भाषा के रूप में पुनर्गठित करता है । अगर यहाँ वह सामान्य भाषा के स्तर पर ही रुक गया तो अनूदित कृति सामान्य कृति ही रहेगी । वह सृजनात्मक कृति के रूप में अनूदित नहीं हो सकेगी । चाहे कविता हो या कहानी, नाटक हो या एकांकी । मूल लेखक सब कुछ (सृजनकार्य) भाषा के माध्यम से ही करता है । अनुवादक भाषा के प्राणों में प्रवेश करता है । फिर वहाँ से वह अनुवाद में मग्न होता है । अब तक अनुभव कर रहा था मूल को । अब अनुवाद में वह उसी अनुभव को नई भाषा में सृजन रूप दे रहा होता है । अत: अनुभव में प्राप्त सामग्री का वह सृजक ( दूसरे शब्दों में अनुसृजक) की भूमिका में होता है । अतः साहित्यिक अनुवाद का कार्य स्पष्ट और सतही नहीं होता । अनुवादक का संवेदनशील व्यक्तित्व उस सारी भाषा में पुनर्गठित कर व्यक्त करता है । पर उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है । अन्य किसी अनुवाद में इतना दायित्व नहीं होता । कुछ लोग तो कहते हैं साहित्यिक अनुवादक मूल संवेदना और सृजन को धारण करने की क्षमता के साथ लक्ष्य में उसे जीवंत सृजनरूप देने का प्रमाण देती है इस अर्थ में वह कहीं अधिक आगे बढ़ जाता है । साहित्यिक अनुवाद में मूल और लक्ष्य दोनों का साक्षी अनुवादक होता है । अतः वही इसकी क्षमता, इसकी गहराई से परिचित होता है । इस दृष्टि से रचनाकार और अनुवादक में कितना अंतर होता है हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं परंतु वह गौण नहीं हो सकता । महत्व को नकारना मूल की उपेक्षा होता है वह अगर अनुवाद की प्रक्रिया में कुछ नहीं जोड़ता है तो मूल लेखक से अधिक नहीं तो कम भी नहीं कहेंगे लेकिन ऐसी तुलना का विशेष महत्व नहीं है । लेखक लेखक है, अनुवादक अनुवादक है । दोनों अपनी सीमा और भूमि से परिचित हैं एक - दूसरे का अतिक्रमण करना उचित नहीं । न अनुवादक लेखक पर टीका-टिप्पणी करें। दोनों के क्षेत्र भिन्न हैं, लक्ष्य भिन्न हैं पाठक भी भिन्न हैं । अतः अपनी-अपनी दृष्टि से वे जो भी उन्हें सार्वभौमता, अपने दायरे में दी जानी चाहिए. 

 

पश्चिम अनुवाद चिंतकों ने इसे स्वीकार किया है परंतु अपने ढंग से, अपने शब्दों में । नाइडा और फोर्ड कहते हैं - यह सर्जनात्मक रूपांतरण है। यह एक ऐसी स्वायत्त सर्जनात्मक विधा है जिसकी अपनी सत्ता है । यह एक ऐसी अंतर्निष्ठ रचना है जिसमें दो संरचनाएँ समाहित होकर अंतर्व्याप्त हो जाती है । स्रोत भाषा के मूल पाठ की संरचना का निकटतम पाठ तो होता है, लेकिन वह पाठ लक्ष्य भाषा की बुनावट में भी ढलता है । अर्थात् अनुवादक उसे लक्ष्य भाषा में फिर से बुन कर एक जीवंत कृति के रूप में ढालता है, आकार देता है । यह Mechanical restructuring नहीं होता Creative Revolution होता है ।

 

इस संबंध में लोटमैन ऐसे अनुवाद को चार वर्गों में बांट रहे हैं -

 

भाषा परक दृष्टि :

 

पाठ का अर्थ ग्रहण उपलब्ध भाषा के आधार पर किया जाता है । इसमें मुख्यतः - ध्वनि, शब्द, वाक्य ये तीन स्तर होते हैं । कृति में छंद हो तो वहाँ ध्वनि उच्चारण से अपना सौन्दर्य (नाद सौंदर्य) और संगीतात्मक लय - तान - स्वर तीनों के समन्वय से जो प्रभाव होता है, वह ध्यान देने योग्य होती है । यह रसानुभूति कोई अनुवाद में समस्वर लक्ष्य भाषा ला नहीं सकता । यहाँ पर भावसौन्दर्य शब्द संयोजन पर निर्भर है वह भाषांतरण करने पर अक्षुण्ण नहीं रह सकता ।

 

उदाहरण के लिए 'वैदेहीश विलास' (उपेन्द्र भंज) महाकाव्य आदि से अंत तक '' अक्षर से हर पंक्ति मंडित है । उनकी प्रसिद्ध पंक्ति है

 

"कालिका वकालिका...'

 

इसमें '' की अनुप्रास छटा प्रसिद्ध है इसे केवल लिप्यंतरण में ही सुरक्षित रखा जा सकता है । संसार की अन्य किसी भाषा में ऐसा शब्द संभार पाना और संजो कर यह ध्वनि सौन्दर्य ( नाद माधुर्य) उत्पन्न करना असंभव है वैसे भी ओड़िया कविता अपनी नादात्मक सौन्दर्यशीलता के लिए विश्व भाषा समुदाय में अनुपम स्थान रखती है । अतः नादाश्रित ऐसे संस्कृत निष्ठ शब्दों का प्रयोग कर भी अनुवाद में उसके माधुर्य, गत्यात्मकता या गतिशीलता कोमलकांत पदावली की अंतस्पर्शी भावना उत्पन्न कर पाना किसी भी अनुवादक के लिए चुनौती है ! 


तुलसीदास की पंक्ति -

 

कंकन किंकनि नूपुर धुनि सुनि । 

कहत लखन सन राम हृदय गुनि ॥ 

मानहु मदन दुदंभी दीन्हीं 

मनसा विश्व विजय केंह कीन्ही ॥

 

इन पंक्तियों में '' और '' की लयात्मक आवृत्ति पाठक को मुग्ध करती है भंज काव्य में ऐसे प्रयास 'वैदेहीश विलास' ही नहीं अन्य कई कृतियों में पग-पग पर संजोये गए हैं । अत: उन्हें 'कवि सम्राट' कहा जाता है । ऐसे सम्राटों की तरह काव्य वैभव से परिपूर्ण केशव रचित हिंदी 'रामचंद्रिका' उसी प्रकार का शब्दवैभव से बोझिल महाकाव्य कहा जाता है ।

 

संरचना परक दृष्टि : 

साहित्य में संरचना उसका अभिन्न अंग होता है । कविता में 'लय' इसे व्यक्त करती है इस लय से संवेदनशीलता का बोधन होता है । तुक साम्य हो तो वह और विशिष्ट हो जाती है । 'राम की शक्ति पूजा' (निराला) सर्वाधिक सशक्त उदाहरण है । इसका छंद इसमें प्रयुक्त तुक और इसकी लय तीनों ने इसे उत्कृष्ट रूप प्रदान किया । यह लंबी कविता अपनी संरचना के लिए जानी जाती है । इसका रूपांतरण हो सकता है पर ऐसी संरचना (जैसा समासयुक्त पदावली ) कोई अनुवादक किस भाषा में - करेगा ? हालांकि रीतिकालीन कवि किसी कोश से ढूंढ कर पाये जा सकते हैं, काव्य की लय पकड़ सकते हैं । परंतु इस बहुस्तरीय संरचना को पहचान अनुवाद में ढाल पाना संभव नहीं यहाँ संरचनात्मक अनूठेपन का अंग्रेजी उदाहरण है :

 

Thou child of joy 

shout round me 

Let me hear thy shouts.

 

वर्डसवर्थ की यह कविता अनुवाद में कैसी लगती है -

 

चारों ओर उठा किलकारी, 

, प्रफुल्लता के बालक रे ! 

मैं भी तो सुन लूं अब तेरे 

हर्ष उन्माद घनेरे ॥

 

यह अनुवाद यतीन्द्र कुमार ने हिंदी में संरचनात्मकता में उलटफेर के साथ हिंदी में बोधगम्य बनाया है । यहाँ वाक्य का संरचनात्मक पुनर्गठन किया गया है संबोधन चिन्ह के साथ पंक्ति परिवर्तन हुआ । 'Me' को छोड़ कर 'shout' शब्द की जगह 'किलकारी' का काव्यात्मक प्रयोग किया । दूसरी बार प्रयुक्त 'shouts' के लिए अनुवादक ने हर्ष-उन्माद के जरिये संरचना का परिवर्तन किया। इस प्रकार कवि के आशय तक पहुँकर नयी संरचना, जो मूल को समाता है, अर्थ और लय का समावेश कर एक नई काव्य उक्ति रखी है यहाँ पर आत्मिक संबंध का परिचय दिया है । सतही तौर पर तुक भिन्न रूप मिलाने का प्रयास हुआ है प्रत्येक वाक्य के अंत में रे' की पुनरावृत्ति भिन्न-भिन्न अर्थ में हुई है अतः यह कर्णकटु या अतिशयोक्ति नहीं । वरन स्वाभाविक रूप में काव्याशय व्यक्त करने में समर्थ है । एक सार्थक अनुवाद अज्ञेय ने स्वयं किया है।

 

"मैंने देखा 

एक बूंद सहसा 

उछली सागर के झाग से 

रंग गई क्षण भर 

ढलते सूरज की आग से ।"

 

कवि ने स्वयं अंग्रेजी अनुवाद में इसका रूपांतरण करते हुए संरचना को अक्षुण्ण रखा है कवि अंग्रेजी पर गहरी पकड़ है। हिंदी का मुहावरा और वैसा ही अंग्रेजी प्रयोग देकर संरचनात्मक बदलाव किया है :

 

I saw 

drop suddenly 

fly from the scund of sea 

flare for a second 

fire from the mallowing sun.

 

कवि बहुत कुछ संरचनागत छेड़ छाड़ करता है । अंग्रेजी में वह आशय लाने के लिए काफी छूट ले रहा है । flare शब्द विशेष अर्थ में है, उसी प्रकार fire का आगमन हुआ है जो mellowing के साथ तालमेल बिठा रहा है । अंग्रेजी अनुवाद में वही भाव परिवर्तन के साथ प्रस्तुत किया है । कवि ने सौम्यता लाने mellowing sun शब्द के जरिये नई रचना रखी है ।

 

जॉन कीट्स की प्रसिद्ध पंक्ति है -

 

"My heart aches and a drowsy numbness pains"

 

इसे यतीन्द्र तिवारी -

 

"हृदय हो रहा, विकल त्रसित हो उठी चेतना मेरी'

 

अनुवाद में बहुत स्वीकार्य मुहावरा 'हृदय हो रहा विकल' बनाया है । उसी तरह drowsy numbness को त्रसित हो उठी चेतना मेरी' यह शब्द समावेश कर संरचना को संपूर्ण बनाया गया है । अन्यथा संप्रेषण संभव न था । हृदय का दर्द और चेतना का त्रसित होना दोनों के लिए अनुवादक ने भी भिन्न पद प्रयोग कर संरचना के प्रति सचेतनता व्यक्त की है इसी दृष्टि से यह अनुवाद उल्लेखनीय बन जाता है. 

 

सृजनात्मक दृष्टि : 

अनुवादक प्रारंभिक दौर में बहुत सरल, सहज और एक जैसा इंसान होता है । परंतु बहुत शीघ्र साहित्यिक बारीकियों से परिचित हो जाता है अनुवाद करते-करते मूल के मोड़ उसमें प्रदत्त गुत्थियों का सामना करते-करते अपनी रचनात्मक क्षमता में वृद्धि करता जाता है । सब कुछ ज्यों का त्यों अनुवाद में प्रस्तुत करना संभव नहीं होता वह समीचीन भी नहीं समझता । कहीं कुछ घट-बढ़ करता है । इतना ही नहीं कुछ परिवर्तन' (Replacement) भी कर देता है । यह सब सामाजिक सांस्कृति अंतर के कारण करना पड़ता है । कुछ संकल्पनाएँ लक्ष्य भाषा समाज में प्रचलित नहीं होती । अथवा उनका वह अर्थ नहीं निकलता । अतः वे उनका परिवर्तन करते हुए रचना के स्तर पर अंतर करते हैं वे उपमान वहाँ उस प्रकार की धारणा नहीं देते । जैसे कौवा बोलना, बिल्ली रास्ता काटना, आँख फड़कना जैसे प्रयोग अनुवाद में भिन्न प्रयोगों की मांग करते हैं । वहाँ पर अनुवादक सम भाव व्यंजक भिन्न मुहावरे, कहावतें, अंधविश्वास, रूढ़ि का प्रयोग कर के स्थिति सम्हालता है । 

"एक तीर से दो शिकार' 

अंग्रेजी में इसी तर्ज पर भिन्न प्रयोग हैं अनुवादक दृष्टि यहाँ पर अपने विवेक का प्रयोग करते हुए नये क्षेत्र की रचना कर रखता है । बहुत उत्तम कोटि के अनुवाद में वह अपने लिए पूरी छूट ले कर कृति को नई चमक देकर प्रस्तुत करता है ऐसे में ज्यादा वक्त लगेगा । नहीं कि किसी अन्य रचना का अनुवाद है । उसकी टूट-फूट की भरपाई अपनी सृजन क्षमता से कर देता है । उसमें समावेशी स्वरूप के साथ अभिनव रूप में प्रस्तुत करता है । अनुवाद का यह सबसे चमत्कार पूर्ण रूप होता है ।

 

साहित्यिक अनुवाद की सार्थकता इसी में सर्वाधिक प्रकट होती है । एक साहित्यिक कृति का अनुवाद साहित्यिक कृति ही होनी चाहिए । उसका प्रकार भिन्न-भिन्न हो सकता है जैसे काव्यानुवाद करते समय काव्यानुवाद, छंदानुवाद, गद्यानुवाद, सारानुवाद. . कई प्रकारों का सहारा ले सकते । परंतु कुल मिला कर वह एक साहित्यिक कृति के रूप में उभर आना जरूरी है । अनुवादक अपनी दृष्टि से वह प्रकार चुनता है और फिर उसमें प्रस्तुत करता है इसमें अनुवादक का अपना निर्णय सर्वोपरि होता है ।

 

साहित्यिक अनुवाद की जरूरत और महत्व 

मानव चिंतन और जीवनानुभव का सर्वश्रेष्ठ रूप साहित्य में व्यक्त होता है । वह कहीं भी हो सकता है । विश्व में एक भाषा में व्यक्त इस रूप को दूसरी में लाना, उसे सार्वजनीन करना बहुत जरूरी है वरना ओड़िसी इलियड, वेद, रामायण, बाइबल ....  आदि अपनी-अपनी भाषा के दायरे में बंधे - रहते । विश्व धरोहर कभी नहीं बन पाते । एक दूसरे को निकट लाकर उनकी तुलना भी संभव नहीं हो पाती । तुलनात्मक साहित्य का भवन इस अनुवाद की ईंट पर ही बन पाता है ।

 

हमने पीछे देखा अनुवाद' एक यौगिक शब्द है । 'वेद' धातु में '' प्रत्यय लगने से 'वाद' शब्द बनता है । 'वद' धातु का अर्थ है बोलना या कहना । 'वाद' शब्द में 'अनु' उपर्सग के जुड़ने से 'अनुवाद' शब्द बनता है । 'अनु' उपसर्ग का अर्थ है पीछे पीछे चलना या अनुगमन करना । इस प्रकार अनुवाद शब्द का शाब्दिक अर्थ तो होगा किसी के कहने या बोलने के बाद बोलना दूसरे शब्दों में इसे अर्थ का भाषांतरण' भी कहा जा सकता है आज अनुवाद शब्द को हम जिस अर्थ में ग्रहण करते हैं वह संस्कृत में प्रयुक्त अनुवाद के अर्थ से थोड़ा भिन्न है आज अनुवाद शब्द को अंग्रेजी के Translation शब्द के पर्याय के रूप में ग्रहण किया जाता है । अंग्रेजी का ट्रांसलेशन शब्द भी लैटिन के दो शब्दों Trans तथा Lation के संयोग से बना है जिसका अर्थ होता है पार ले जाना । वस्तुतः अनुवाद में एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा में ले जाया जाता है । अत: एक भाषा के पार ले जाने की प्रक्रिया के लिए ही ट्रांसलेशन शब्द अंग्रेजी में प्रचलित हो गया ।

 

'अनुवाद' शब्द भारतीय साहित्य में कोई नया नहीं है । इसका प्रयोग बहुत प्राचीन समय से होता रहा है । आधुनिक काल में इसके अर्थ में परिवर्तन हुआ है । प्राचीन भारतीय शिक्षा की गुरू-शिष्य परंपरा में गुरू के कहे हुए वचन को शिष्य दुहराता था । दुहराने की यह क्रिया 'अनुवचन' या अनुवाद ' कहलाती थी । 'शब्दार्थ - चिंत्तामणि कोश' में अनुवाद का अर्थ 'प्राप्तस्थ पुनः कथने' या ज्ञानार्थस्य प्रतिपादने' दिया है, जिसका अर्थ है - पूर्व में कथित अर्थ का पुनर्कथन । वैदिक संस्कृत से लेकर लौकिक संस्कृत के अनेक ग्रंथों में 'अनुवाद' शब्द 'ज्ञात का कथन' या 'कही गयी बात को दुहराने' के अर्थ में बार-बार आया है ।

 

आज के संदर्भ में यदि हम अनुवाद को देखें तो यह कह सकते हैं कि अनुवाद वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करते हैं । जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है उसे स्रोत भाषा (एसएल) तथा जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है उसे लक्ष्य भाषा (टीएल) कहते हैं यों तो समस्त अभिव्यक्ति ही एक तरह से अनुवाद है । अज्ञेय के अनुसार - " समस्त अभिव्यक्ति अनुवाद है क्यों कि वह अव्यक्त (या अदृश्यादि) को भाषा (या रेखा या रंग) में प्रस्तुत करती है ...किन्तु प्रचलित अर्थ में एक भाषा में प्रकट किये गए विचारों को किसी दूसरी भाषा में अर्थ में यथासंभव समान और सहज अभिव्यक्ति द्वारा प्रस्तुत किया जाना अनुवाद कहलाता है ।"

 

स्रोत भाषा की अभिव्यक्तियों के लिए लक्ष्य भाषा में समतुल्य अभिव्यक्तियाँ खोजना एक कठिन कार्य होता है । अनुवादक - लक्ष्य भाषा और स्रोत भाषा के बीच एक ऐसे सेतु का निर्माण करता है जिससे दोनों के बीच तालमेल स्थापित हो सके और स्रोत भाषा पाठ तथा लक्ष्य भाषा पाठ के बीच इस सेतु का कार्य करता है अनुवाद । एक अनुवादक को इस बात की अत्यंत सर्तकता बरतने की जरूरत होती है कि लक्ष्य भाषा में किया गया अनुवाद उस भाषा की सहज प्रकृति के सर्वथा अनुरूप हो, वह स्रोत भाषा की छाया नहीं होनी चाहिए हर भाषा का विकास विशेष निजी परिस्थितियों में होता है । स्रोतभाषा के भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक आदि अनेक तत्व लक्ष्य भाषा के भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तत्वों से ईषत् भिन्नता प्रकट करते हैं । इस कारण स्रोतभाषा की पूरी-पूरी बात लक्ष्य भाषा में पूरी तरह हू-ब-हू बनाना बड़ा कठिन होता है । अच्छे अनुवादक के लिए स्रोत भाषा के लेखक के व्यक्तित्व एवं चर्चित विषय का भी सूक्ष्मता से ध्यान रखते हुए. अनुवाद अपेक्षित होता है । क्योंकि व्यक्तित्व के अनुसार व्यक्ति की भाषा में भिन्नता होती है । एक भाषा की ध्वन्यात्मक, शाब्दिक, रूपात्मक, वाक्यात्मक आदि विभिन्न विशेषताएँ दूसरी भाषा से प्रायः भिन्नता लिए होती हैं । डॉ. सुरेश कुमार के अनुसार अनुवाद एक जटिल कृत्रिम आवश्यकता जनित और सर्जनात्मक प्रक्रिया है, जिसमें असाधारण और विशिष्ट कोटि की प्रतिभा की आवश्यकता होती है । वे कहते हैं -

 

1. अनुवादक का द्विभाषिक होना एक अनिवार्य शर्त होती है, अर्थात् अनुवादक से यह अपेक्षा की जाती है कि उसका दोनों भाषाओं पर मातृभाषा के समान अधिकार होना चाहिए । 

2. इसके अलावा अनुवादक को मूल भाषा पाठ के विषय का भी अच्छा ज्ञान होना चाहिए । विषय की पर्याप्त जानकारी के अभाव में भी प्रायः अनुवाद स्तरीय नहीं हो पाता उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति भौतिक विज्ञान के पाठ का अनुवाद कर रहा है और उसे भौतिक विज्ञान का विषय ज्ञान बिल्कुल नहीं है तो भी दोनों भाषाओं का उचित ज्ञान होने पर भी वह आदर्श अनुवाद नहीं कर सकता । मनोवैज्ञानिक उपन्यास के अनुवाद के समय अनुवादक को मनोविज्ञान की आधरभूमि संकल्पनाओं से परिचित होना पहली शर्त है । वरना उपन्यास में चल रही मानसिक स्तर की उठा-पटक का सही परिप्रेक्ष्य संभव नहीं. 

3. यह बिल्कुल आवश्यक नहीं कि मूलभाषा की किसी अभिव्यक्ति के पूर्णत: समान अभिव्यक्ति से लक्ष्यभाषा में शब्द और अर्थ दोनों स्तरों पर हो ही जाए। पूर्णत: का अर्थ है स्रोतभाषा में व्यक्त विचार को पढ़कर स्रोतभाषी जो अर्थ ग्रहण करे लक्ष्यभाषा में उसके रूपांतर को पढ़ कर या सुनकर लक्ष्यभाषी भी ठीक वही अर्थ ग्रहण करे। लेकिन प्रायः होता यह है कि मूलभाषा में अभिव्यक्त होने वाला अर्थ लक्ष्य भाषा में अभिव्यक्त होने वाले अर्थ की तुलना में या तो विस्तृत हो जाता है या संकुचित या फिर कुछ भिन्न हो जाता है । इन कठिनाइयों के बावजूद अनुवाद कार्य आज इतना आवश्यक हो गया है कि इसके बिना मानव का विकास पथ अवरोध जैसा है

 

इक्कीसवीं सदी को अनुवाद का युग कहा जाने लगा है । आज अनुवाद की महत्ता को अनुप्रयुक्त भाषा - विज्ञान के अंग के रूप में स्थापित किया जा चुका है । इसी कारण अनुवाद जैसे कठिन और जोखिम भरे काम की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। प्रसिद्ध भाषाविद डॉ. भोलानाथ तिवारी अनुवाद या भाषांतर को 'प्रतीकांतर' का एक भेद मानते हैं। उनके अनुसार हमारे विचार किसी न किसी प्रकार के प्रतीक के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पाते हैं । भाषा में ये प्रतीक शब्द होते हैं । इन प्रतीकों का परिवर्तन ही प्रतीकांतर है डॉ. तिवारी के शब्दों में - एक प्रतीक द्वारा व्यक्त विचार को दूसरे प्रतीक द्वारा व्यक्त करना 'प्रतीकांतर' है ।

 

4. प्रतीकांतर तीन प्रकार के होते हैं। शब्दांतर, माध्यातंर और भाषांतर एक भाषा में व्यक्त किये गये विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करने को भाषांतर कहते हैं। डॉ. तिवारी अनुवाद को प्रतीकांतर का एक भेद मानते हैं, क्योंकि अनुवाद में एक भाषा के प्रतीकों के स्थान पर दूसरी भाषा के प्रतीक व्यवहृत होते हैं । डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने भी अनुवाद को दो संदर्भों में देखने का उल्लेख किया - एक व्यापक और दूसरा सीमित । संदर्भ में अनुवाद को प्रतीक सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है संक्षेप में प्रतीक सिद्धांत यह है कि कथ्य का प्रतीकांतरण अनुवाद है सीमित संदर्भ यह है - कि कथ्य का भाषांतरण अनुवाद है । पहला सिद्धांत प्रतीक - विज्ञान पर आधारित है ।

 

5. अनुवाद दो भाषाओं के बीच एक सेतु का काम करता है । अनुवाद वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से हम एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा के पाठकों तक पहुँचाने का कार्य करते हैं । 


विद्वानों ने इस अनुवाद की थोड़े बहुत अंतर के साथ अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं अनुवाद की ये परिभाषाएँ उसका स्वरूप समझने में सहायक सिद्ध होगी ।

 

1. एक भाषा की सामग्री के भावों की रक्षा करते हुए उसे दूसरी भाषा में बदल देना अनुवाद है ।

(सैमुएल जॉन्सन)

 

२ एक भाषा की पाठ्य सामग्री को दूसरी भाषा की समानार्थक पाठ्य सामग्री में प्रतिस्थापित करना अनुवाद कहलाता है । (कैट फोर्ड)

 

3. अनुवाद एक शिल्प है, जिसमें एक भाषा में लिखित संदेश के स्थान पर दूसरी भाषा में उसी संदेश को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जाता है। (न्यूमार्क)

 

4.अनुवाद एक संबंध है जो दो या दो से अधिक पाठों के बीच होता है, ये पाठ समान स्थिति में समान प्रकार्य संपादित करते हैं । दोनों पाठों का संदर्भ समान होता है और उनसे व्यंजित होने वाला संदेश भी समान होता है। (हैलिडे)

 

5. विचारों को एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरित करना अनुवाद है । स्रोत भाषा में व्यक्त प्रतीक व्यवस्था को लक्ष्यभाषा की सहज प्रतीक व्यवस्था में (देवेन्द्रनाथ शर्मा)

 

6. रूपांतरित करने का कार्य अनुवाद है। (डॉ. रीतारानी पालीवाल) एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथासंभव समान और सहज अभिव्यक्ति द्वारा 


7. दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है । (डॉ. भोलानाथ तिवारी)

 

डॉ. तिवारी ने अपनी उपर्युक्त परिभाषा की व्याख्या अनुवाद की वास्तविक प्रक्रिया दृष्टि से करते हुए यह कहा है- भाषा ध्वन्यात्मक प्रतीकों की व्यवस्था है और अनुवाद है इन्हीं प्रतीकों का प्रतिस्थापन । एक भाषा के प्रतीकों के स्थान पर दूसरी भाषा के निकटतम समतुल्य और सहज प्रतीकों का प्रयोग ।

 

उपयुक्त कुछ परिभाषाओं के विश्लेषण से अनुवाद की बहुपक्षता पर प्रकाश पड़ता है । अनुवाद एक श्रेष्ठ कला है साथ ही प्रक्रिया विज्ञान है तथा उसकी सफलता एक कुशल शिल्पी होने पर निर्भर करने के कारण यह एक शिल्प भी है उपयुक्त परिभाषाओं से सार रूप में जो बातें अनुवाद का परिचय कराती हैं, वे इस प्रकार हैं

 

1. स्रोत भाषा की सामग्री लक्ष्यभाषा में संपूर्णता में प्रकट हो  

2. सामग्री के साथ प्रस्तुति के ढंग में भी समानता हो । 

3. मूलभाषा से लक्ष्यभाषा में रूपांतरित करने में स्वाभाविकता का निर्वाह अनिवार्यतः हो । 

4. अनुवाद की प्रक्रिया प्रतिस्थापन, पुनरावृत्ति, स्थानांतरण या परिवर्तन की प्रकृति की होती है । 

5. लक्ष्य भाषा में व्यक्त विचारों में ऐसी सहजता हो कि वह मूलभाषा (स्रोतभाषा) पर आधारित न होकर स्वयं मूलभाषा होने का एहसास पैदा करे. 

 

अन्त में यह कहा जा सकता है कि अनुवाद एक भाषा में व्यक्त भावों और विचारों को दूसरी भाषा में रूपांतरित करने की एक विशेष प्रक्रिया है यह अपने कौशल के कारण अपने स्वरूप में इस प्रकार समाहित कर लेता है कि मूलभाषा और लक्ष्यभाषा में दूरी तथा दोनों में जो भेद है वह प्रायः समाप्त हो जाता है । इस प्रकार अनुवाद कला, विज्ञान और शिल्प की विशिष्टताओं से युक्त होकर अनुवादक के लिए एक चुनौती बन जाता है । अनुवाद कार्य तभी सफल हो सकता है जब स्रोतभाषा, लक्ष्य भाषा के निकट हो तथा अनुवादक विषय का अच्छा ज्ञाता हो । इसीलिए माना जाता है कि एक अनुवादक का काम अत्यन्त गुरुत्वपूर्ण तथा कठिन है हर कृति अनुवाद- योग्य है किन्तु हर कृति का अच्छा अनुवाद नहीं किया जा सकता ।

 

'अनुवाद' शब्द आज एक व्यापक स्वरूप ग्रहण कर चुका है वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ आज उद्योग, चिकित्सा, वाणिज्य, व्यापार, बैंक तथा साहित्य के क्षेत्रों में अनुवाद अपना स्थान बना चुका है । इसकी आवश्यकता को भी महसूस किया जा रहा है । आज दुनिया भर में वैज्ञानिक उपकरणों के सहारे हर देश एक दूसरे के करीब हो रहा है । इसी कारण प्रत्येक के मन में दूसरे देश के साहित्य, संस्कृति, सामाजिक परिवेश आदि को जानने की जिज्ञासा जाग्रत होती है, जिस के लिए उस देश की भाषा न जानने के कारण अनूदित साहित्य का सहारा लेना पड़ता है इसीलिए अनूदित साहित्य ही आज दोनों देशों में संबंध के लिए सहारा बन गया है । इसी के सहारे उस समाज में प्रवेश किया जा सकता है । यहाँ पर अनुवाद के स्तर के प्रति ध्यान नहीं दिया जाता है, बल्कि अनुवाद के माध्यम से उस समाज को जानने-समझने की भावना जाग्रत करना है इस रूप में अनुवाद के दो भिन्न अभिलक्षण उभर कर आते हैं । पहले रूप में अनुवाद सिद्धांतों के आधार पर अपना स्वरूप ग्रहण करता है तथा दूसरे रूप में वह व्यवहारमूलकता को प्रमुखता देता है तथा सिद्धांत उसीमें से अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं । आज अनुवाद के कारण स्थिति ही बदल गयी है । वहाँ अनुवाद के परंपरागत अर्थ का कोई मायना नहीं है।

 

आज अनुवाद अपने अर्थ का बहुत अधिक विस्तार कर चुका है । अन्य विज्ञानों की भाँति आज अनुवाद भी अनुवाद-विज्ञान के रूप में वैज्ञानिक स्वरूप धारण कर चुका है । वह अपने स्वरूप को इतना व्यापक बना चुका है कि आज अनुवाद शब्द की कोई सर्वसम्मत परिभाषा खोजना दुष्कर हो गया है । वह आज किसी सीमित क्षेत्र में बंधा हुआ नहीं है । इस क्षेत्र में नये सिद्धांत उभरकर सामने आ रहे हैं ।

 

आज अनुवादको सिद्धांत के दायरे से निकालकर व्यावहारिकता में देखा-परखा जा रहा है सिद्धांतों के दायरे में रहकर अनुवाद कार्य नहीं किया जा सकता । एक अच्छा अनुवादक विषय की मांग, पाठक की रुचि, अनुवाद की आवश्यकता, पाठक - वर्ग, सम-विषम संस्कृति तथा भाषा की प्रकृति के आधार पर अनुवाद करता है इस विषय के विवेचन में ओड़िया हिन्दी अनुवाद का अनुभव विशेष सहायक हुआ है

 

अनुवाद करते समय दो भाषाओं का संप्रेषण व्यापार ही प्रमुख रहता है । इसके लिए अनुवादक तीन बातों को आधार बना कर चलता है ।

 

1. विदेशी तथा सम-संस्कृति का पक्ष 

2. स्रोतभाषा तथा लक्ष्य भाषा 

3. लेखक तथा पाठक ।

 

अनुवादक इस प्रक्रिया में दोहरी भूमिका निभाता है । पहले वह पाठक के रूप में दिखाई देता है और दूसरी ओर अनूदित पाठ को प्रस्तुत करने के रूप में लेखक के रूप में दिखाई देता है । अर्था पाठक के रूप में वह पहले मूलपाठ के लेखक की रचना अपना तादात्म्य स्थापित करता है, उस पाठ को आत्मसात करता है, उस भाषा की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से अपने को जोड़ता है जिसे वह स्वयं पाठक बनकर परख सकता है कि जो बात वह संप्रेषित करना चाहता है, वह उपयुक्त है या नहीं

 

1. स्रोत भाषा की सामग्री का अर्थ समझना ही प्रक्रिया की पहली सीढ़ी है । यहाँ अर्थ व्याख्या अपेक्षित है। पाठक का काम है कि वह प्रसंगानुसार उपयोगी अर्थ - ग्रहण कर ले ।

 

2. शगत अर्थ के अलावा यौगिक अर्थ भी होता है, जो शब्द के अवयवों के अर्थ के मेल से प्राप्त होते हैं ।

 

3. तीसरा अर्थ 'प्रासंगिक मूलक' अर्थ है । तकनीकी विषयों में यह प्रासंगिक या प्रयोजनमूलक अर्थ ही सबसे महत्वपूर्ण है । स्रोतभाषा की सामग्री को समझने के बाद लक्ष्य भाषा में समतुल्य सामग्री से स्थानांतररित करना है । इसके दो अंग हैं -

 

  • 1. अर्थ या भाव। 
  • 2. व्याकरणिक संरचना |

 

अनुवादक को पहले लक्ष्यभाषा के पर्यायवाची शब्द, वाक्यांश आदि ढूंढकर तैयार करने पड़ते हैं । जब शब्द मिल जाते हैं तब व्याकरण या संरचना की बात आती है ।

 

अनुवाद प्रक्रिया पर कुछ विद्वानों ने गंभीरतापूर्वक विचार किया है । उनमें नाइडा और न्यूमार्क के विचार अधिक चर्चित हैं । नाइडा अनुवाद को एक वैज्ञानिक तकनीक के रूप में स्वीकार करते हैं । उनके अनुसार अनुवाद भाषा विज्ञान का एक अनुप्रयुक्त पक्ष है । अतः अनुवाद प्रक्रिया के विभिन्न सोपानों को समझने और उसके विश्लेषण के लिए भाषावैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग आवश्यक है । इन्होंने अनुवाद प्रक्रिया के तीन प्रमुख सोपान माने हैं -

 

  • 1. विश्लेषण । 
  • 2. अंतरण । 
  • 3. पुनर्गठन

 

एक कुशल तथा अनुभवी अनुवादक इन तीन भिन्न-भिन्न सोपानों को एक छंलाग में पार कर लेता है पर अनुवाद के प्रशिक्षार्थी को इन तीनों सोपानों से क्रमशः गुजराना पड़ता है ।

 

पहले अनुवादक स्रोतभाषा के पाठक का चयन करके उसमें निहित संदेश का विश्लेषण करता हैं । इस दौरान वह स्रोतभाषा के पाठ का अर्थ ग्रहण करता है अर्थ ग्रहण के पश्चात् उसे लक्ष्यभाषा में अंतरित करने की प्रक्रिया में आता है तथा लक्ष्यभाषा में उसका एक स्वरूप निश्चित कर लेता है । इसके प्रश्चात् वह लक्ष्यभाषा के स्वरूप एवं प्रकृति के अनुसार उस संदेश को पुनर्गठित करता है । जिसका अंतिम स्वरूप अनूदित पाठ के रूप में पाठक के समक्ष आता है । इस संदर्भ में एक बात ध्यान रखने की है कि अनुवाद प्रक्रिया के उपर्युक्त चरण अनुवाद की संकल्पना पर पूरी तरह से प्रकाश नहीं - डालते, फिर भी आधार रूप में इस सिद्धांत को महत्वपूर्ण माना जाता है साथ में अनुवाद - प्रक्रिया के संदर्भ में भी चर्चा की जाती है. 

 

अनुवादक जब अनुवाद के लिए मूलपाठ का चयन कर लेता है, तब उसे पहला कार्य यही करना होता है कि वह मूलपाठ का सम्यक विश्लेषण करे । इससे यह सम्यक रूप से उसका सही अर्थ ग्रहण कर सके । इस प्रक्रिया में वह पाठ के कथ्य तक पहुँच सकता है । यह विश्लेषण मुख्य रूप से इन स्तरों पर किया जाता है -

 

1. भाषा के स्तर पर । 

2. विषयवस्तु के स्तर पर

 

(क) भाषा के स्तर : 

इस स्तर पर भाषिक अभिव्यक्ति का विश्लेषण किया जाता है जिसके अंतर्गत पाठ में निहित

 

1. संकेतपरक अर्थ 

2. संरचनापरक अर्थ 

3. प्रयोगपरक अर्थ

 

आदि का विश्लेषण किया जाता है। संकेतपरक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए उस शब्द विशेष की संकल्पना पर विचार किया जाता है पीछे ओड़िया से हिन्दी अनुवाद को विशेष ध्यान रख कर विवेचन हुआ है ।

 

भाषा :- 

भाषा को परिवेशगत संदर्भ के साथ जोड़ा जाता है तो इससे सामाजिक शैली उद्भूत होती है और उससे सामाजिक अर्थ की अभिव्यंजना होती है वस्तुत: यह भाषा का प्रयोग या व्यवहार क्षेत्र है । इसमें वक्ता और श्रोता के बीच औपचारिक, अनौपचारिक तथा अंतरंग संबंध रहते हैं । कुछ ऐसे शब्द भी होते हैं जिनका संकेतार्थ एक ही होता है लेकिन सामाजिक- सांस्कृतिक परिवेश में उस शब्द का अर्थ विशिष्ट हो जाता है जैसे जल पानी, कलश - घड़ा, अक्षत चावल, पंकज कमल, चकाडोला - जगन्नाथ, आदि । जल का अर्थ जलना भी हो सकता है पानी भी लेकिन जब हम सांस्कृतिक अर्थ के रूप में प्रयोग करते हैं तब इसका अर्थ सिर्फ पानी ही होगा उसी प्रकार अक्षत का अर्थ है बिना टूटा हुआ चावल लेकिन जब हम सांस्कृतिक अर्थ प्रयोग करेंगे तब इसका अर्थ सिर्फ चावल ही रह जाएगा । उसी प्रकार पंकज का अर्थ जो पंक से जात है । लेकिन पंकज कहने से हम सिर्फ कमल को ही समझते हैं ।

 

(ख) विषयवस्तु :

 

जिस समय अनुवादक विषयवस्तु के स्तर पर पाठ का विश्लेषण करता है उस समय उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह उस विषय का भी विशेषज्ञ हो उसे भाषा के ज्ञान के साथ-साथ 'तकनीकी स्तर' की व्यापक जानकारी होनी चाहिए । इससे वह विषयवस्तु के स्तर पर पाठ में अंतर्निहित अर्थ तक पहुँच सके । इसके लिए केवल वाक्य से ऊपर के स्तर पर भी विश्लेषण करना होता है । वाक्य - संरचनाएँ संदर्भ से जुड़कर विभिन्न अर्थों की प्रतीति कराती हैं । कभी एक वाक्य अनेक अर्थों को प्रस्तुत करता है तो कभी कई वाक्य अपने आप में एक अर्थ तक ही सीमित रहता है । इतना ही नहीं कभी एक ही अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न वाक्यों का प्रयोग किया जाता है ।

 
पाठ का विश्लेषण :
 

इस प्रकार 1. अनेकार्थी, 2. संदिग्धार्थी, तथा 3. पर्याय संरचनाओं के आधार पर किया जाता है तथा यह विषय वस्तु के स्तर पर होता है यहाँ अनुवादक का दायित्व बढ़ जाता है, उसके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह इनमें से सटीक अर्थ का चयन करे ।

 

पाठ के विश्लेषण के बाद अनुवादक भाषा में व्यक्त विचारों को भाषा में रूपांतरित करता है । इस रूपांतरण प्रक्रिया में कई समस्यायें उत्पन्न होती हैं। क्योंकि एक भाषा में जो अर्थ व्यवहृत हुआ हैदूसरी भाषा में उसी रूप में प्रयोग कर पाना हमेशा संभव नहीं होता है । इस तरह ऐसी स्थिति भी आती है कि अनुवाद के समय कुछ छूट भी जाता है और कुछ अतिरिक्त जुड़ भी जाता है । इस प्रकार अनुवादक  को मूलपाठ तथा अनूदित पाठ में संतुलन बनाए रखने के लिए समझौते करने पड़ते हैं । अनुवादक को कभी संपूर्ण अर्थ का अंतरण करना पड़ता है, कभी केवल भाषिक इकाइयों का इस प्रकार वह कथ्य को संप्रेषित करने का भरसक प्रयास करता है ।

 

मुहावरे तथा लोकोक्तियों का अनुवाद संपूर्ण अर्थ के अंतरण से संबंध रखता है, जहाँ मूलपाठ की अभिव्यक्ति से निकलने वाले अर्थ को अनुवादक दूसरी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत करता है । जब तक इसके संपूर्ण अर्थ का अंतरण नहीं किया जाएगा तब तक कथ्य प्रभावी नहीं होगा । जब स्रोत भाषा से लक्ष्यभाषा में कथ्य का अंतरण किया जाता है वह 'पुनर्विन्यास' की स्थिति मानी गई है । इसकी मुख्य रूप से चार स्थितियाँ स्वीकार की गई हैं। -

 

1. पूर्ण पुनर्विन्यास । 

2. विश्लेषणात्मक पुनर्विन्यास 

3. संश्लेषणात्मक पुनर्विन्यास 

4. संरचनात्मक पुनर्विन्यास

 

इन चारों ही प्रकार के पुनर्विन्यास द्वारा पाठ में निहित अर्थ केवल अंतरित नहीं होता, वरन् समतुल्य अभिव्यक्ति के आधार पर निकलने वाले अर्थ को प्रतिस्थापित किया जाता है अतः हर स्तर पर समतुल्यता का सिद्धांत ही अधिक प्रभावी सिद्ध होता है । अंतरण के बाद अनुवादक अपने अनुवाद कार्य का पहला चरण ही समाप्त कर पाता है । क्योंकि उसके समक्ष केवल अनुवाद का पहला प्रारूप होता है जिसे उसे लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुरूप पुनर्गठित करना होता है । इसके बाद ही अनूदित पाठ का अंतिम स्वरूप तैयार होता है । इस स्तर पर अनुवादक पाठक की भूमिका में आकर पहले प्रारूप का विश्लेषण करता है तथा इसे कई स्तरों पर परखने का प्रयास करता है ।

 

अनुवादक को हर स्तर पर अनूदित पाठ की संप्रेषणीयता पर विशेष ध्यान देना पड़ता है । वास्तव में नाइडा के तीन सोपानों में एक दूसरे के साथ संबंध हैं । उपयुक्त विश्लेषण का तात्पर्य यह कदापि नहीं होना चाहिए कि अनुवादक खंडों में इन सोपानों से गुजरे ऐसा भी हो सकता है कि बिना किसी पाठ के विश्लेषण किये बगैर अनुवादक सीधे अंतरण की प्रक्रिया में आ जाए। लेकिन यह अनुवादक की भाषिक दक्षता/क्षमता और पाठ की आवश्यकता पर अधिक निर्भर करेगा । पुनर्गठन का स्तर अपने आप में महत्वपूर्ण होता है । इसलिए कठिन परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है । जब तक अनुवादक समीक्षात्मक विश्लेषण कर पाठ का पुनर्गठन नहीं करेगा तब तक अनुवाद की सटीकता सिद्ध नहीं हो पाएगी ।

 

स्वतंत्रता के बाद भारत में प्रांतीय भाषाओं की विशेष प्रगति करने का बीड़ा उठाया । संविधान की अष्टम अनुसूची में पंद्रह भाषाओं को शामिल किया गया था। 1992 में कोंकणी, मणिपुरी तथा नेपाली को भी इसमें शामिल कर लेने के पश्चात इनकी संख्या अठारह हो गई। फिर चार भाषाएँ (मैथिली, संथाली, बोडो, डोगरी ) और जुड़ गई । इस प्रकार अब कुल बाईस हुई । अर्थात् धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं की प्रगति के लिए कार्य किया जाने लगा है। इसलिए शिक्षा और प्रशासन में भारतीय भाषाओं को नई भूमिका मिलने लगी । इतना ही नहीं अनुच्छेद 343 के अनुसार संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की कालाविध के लिए संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग जारी रहेगा जिनके लिए प्रारंभ के ठीक पहले उनका प्रयोग होता था, परंतु राष्ट्रपति उक्त कालावधि में, आदेश द्वारा संघ के राजकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ हिन्दी भाषा का तथा भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप के साथ-साथ देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेंगे । तभी अनुवाद पर ध्यान दिया गया । और अनुवाद एक विशेष विषय बन गया । सिर्फ प्रशासन में ही नहीं बल्कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, वाणिज्य, व्यवसाय एवं सर्वसुलभ साहित्य के क्षेत्र में अनुवाद का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य बन गया ।

 

अनुवाद के आरंभ के संदर्भ में 'वैबेल' की दिलचस्प कहानी प्रचलित है । इसके अनुसार ऐसा माना जाता है कि आरंभ में दुनिया में सभी लोग एक ही भाषा बोलते थे इसलिए सब एक दूसरे की बात समझते थे एक दिन सबने मिलकर एक विशाल मीनार बनाना शुरू किया । मीनार ऊंची से ऊंची होने लगी । इसकी ऊंचाई देख स्वर्ग के देवताओं को खतरा महसूस हुआ कि कहीं मीनार स्वर्ग में प्रवेश न कर जाए । इस समस्या का समाधान बड़ी चतुराई से किया । उन्होंने मीनार बनाने वालों को अलग अलग भाषाएँ दे दी । परिणाम हुआ कि एकजूट लोग विभाजित हो गए फलतः निर्माण कार्य बंद हो गया और मीनार अधूरी रह गई । इस अधूरी मीनार को वैबेल की मीनार कहा गया ।

बैवल की मीनार की यह घटना अनुवाद के आरंभ का हेतु बनाती है, क्योंकि मनुष्य अलग अलग भाषाएँ तो बोलने लगा लेकिन उसे आपस में संपर्क करने के लिए अनुवाद की जरूरत पड़ी । भाषा का लिखित रूप लगभग साढ़े छः हजार वर्ष पुराना माना जाता है । अनुवाद का लिखित रूप लगभग भाषा के लिखित रूप के साथ-साथ ही चला होगा । कालांतर में भाषाओं से या इनके भीतर अनुवाद के विविध स्तर विकसित हुए । पश्चिमी वाङ्मय में अनुवाद की परंपरा दो धाराओं में मिलती है

 

  • 1) बाइबिल का अनुवाद 
  • 2) अन्य वाङ्मय का अनुवाद ।

 

पश्चिम में बाइबिल के अनुवाद की सुदीर्घ और विस्तृत परंपरा रही है । इसने अनुवाद चिंतन और सिद्धांतों को भी प्रभावित किया है । पश्चिम की अनुवाद परंपरा में ईसाइयों का धर्मग्रंथ बाइबिल ही प्रस्थान बिंदु बनता है । पहले बाइबिल हिब्रू में लिखा था। जोकि सर्वप्रथम ई.पू. तीसरी - दूसरी शती में यूनान भाषा में हुआ । इस शाब्दिक अनुवाद ने भी बाइबिल के परवर्ती अनुवादों को काफी प्रभावित किया । इसके बाद सुसमाचारों और यूनानी उत्तरविधान के अनुवाद हुए। पश्चिम में लौकिक साहित्य के अनुवाद की समृद्ध परंपरा रोमन लोगों द्वारा अनुवाद से शुरू होती है। पू. तीसरी शताब्दी में लिवियस ऐंद्रीनिकस ने होमरकृत ओड़िशी का एक पद्यात्मक किन्तु अनगढ़ अनुवाद किया था मध्य युग में यूनानी भाषा - साहित्य के अध्येताओं की संख्या पश्चिमी यूरोप में अत्यल्प रह गई थी । यद्यपि यह उल्लेखनीय है कि आयरलैंड के प्रसिद्ध विद्वान जोहासन स्कोटस एरीजिना ने 'जयोनीसियस दि एरियोपगीत' का अनुवाद किया था । बगदाद के अरबी विद्वानों पर अनुवाद का दायित्व पड़ा । उन लोगों ने अरस्तू की दार्शनिक कृतियों के प्रामाणिक रूपांतर को फिर लैटिन भाषा में भाषांतरण किया गया । यह मानव-सभ्यता के सांस्कृतिक विकास में अनुवाद के योगदान का सर्वोत्तम प्रतीक है । पुनर्जागरण के आंदोलन में जिस अनुवाद ने एकमहत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जो नए युग का प्रस्थान - बिंदु कहा जाता है, वह था लियोटियस पाइलेटस । पाइलेटस द्वारा किया गया होमर का लैटिन में अनुवाद |

 

यूनानी और लैटिन की रचनाओं के प्रचलित अंग्रेजी में सही-सही अनुवाद का युग एलिजाबेथ प्रथम और जेम्स प्रथम के शासन काल से आरंभ है । इस युग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण अनूदित कृति सर टॉमस नॉर्थ द्वारा अनूदित प्राचीन यूनान के नैतिकतावादी लेखक और भाववादी दार्शनिक प्लुटार्क की कृति 'लाइव्ज' है । एडलिंगटन के विपरीत जॉर्ज चैपमैन द्वारा किए गए इलीयाड और ओडीसी के अनुवाद अत्यधिक सीमित तथा आधुनिक हैं । विक्टोरियन युग में सर्जनात्मक साहित्य के साथ-साथ दार्शनिकों-चिंतकों के अनुवाद भी होते रहे । प्लेटो, अरस्तु आदि के अनुवाद हुए । इंग्लैंड में बेंजामिन जॉवेट ने 1811 ई. में प्लटो का अनुवाद प्रकाशित किया जो शैली की दृष्टि से बहुत आडंबरपूर्ण है सन् 1916 तक लोब क्लासिक' शृंखला के एक अनुवादक द्वारा किये गये वर्जिल के अनुवादों में अनगढ़ प्रयोगों के कई उदाहरण मिलते हैं जर्मन अनुवादक कहीं अच्छे थे । मार्टिन लूथर द्वारा किए गए बाइबिल के अनुसरण से जर्मन भाषा को नवजीवन ही नहीं मिला, बल्कि उसके परवर्ती अनुवादों को सहज और अकृत्रिम लेखन के लिए एक अग्रसर तथा मानक अनुवाद मिल गया और अनुवाद एक सर्जनात्मक विधा के रूप में मान्य हो गया । उधर फ्रांस में सबसे उल्लेखनीय अनुवाद लकौत दलीले हुए । पश्चिम में अनुवादों को जो गरिमा प्राप्त हुई है, उसका ही एक प्रमाण मैक्समूलर द्वारा संपादित और अनेक भाषाविदों द्वारा अनूदित पचास खंडों का 'द सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट' है । सन् 1861 में मैथ्यू आर्नल्ड का 'ऑन ट्रांसलेटिंग होमर' शीर्षक विचारोत्तेजक निबंध प्रकाशित हुआ । इसके बाद अनुवाद की समकालीन परंपरा का सूत्रपात होता है । इसकी कड़ियाँ कई सफल अनुवादों में निर्मित हुईहैं ।

 

बीसवीं सदी में पाश्चात्य अनुवाद - साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ है । साहित्य, दर्शन, विज्ञान, समाजशास्त्र इत्यादि सभी विभागों में अनुवाद कार्य हो रहे हैं। यूरोप, अमरीका, जापान, चीन आदि देशों के आचार्य अनुवादक अपने-अपने विश्वविद्यालयों में प्राचीन ग्रंथों की गवेषणात्मक - विवृतियाँ ही नहीं प्रस्तुत कर रहे हैं बल्कि विश्व के विशाल साहित्य को अपनी-अपनी भाषा में, विशेषत:, अंग्रेजी, रूसी और जापानी में रूपांतरित कर रहे हैं ।

 

भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक स्थितियाँ भिन्न होने के कारण प्राचीन भारतीय वांग्मय में अनुवाद की पश्चिमी अनुवाद जैसी परंपरा नहीं मिलती । तब भारत ज्ञान के क्षेत्र में काफी आगे था संस्कृत और पालि भाषाओं की प्रचुर साहित्यिक दुनिया का दूसरी भाषाओं में अनुवाद हुआ इन भाषाओं के अनेक ग्रंथों में काफी पंक्तियाँ संस्कृत का छायानुवाद प्रतीत होती हैं प्राकृत ग्रंथों के कुछ स्थलों का संस्कृत में यदा-कदा भाषांतर मिलता है । या फिर संस्कृत रचनाओं में प्रयुक्त प्राकृत संवादों का संस्कृत रूपांतरण मिलता है । पर समग्र ग्रंथों का अनुवाद करने का प्रचलन नहीं दिखाई देता है । लेकिन भारतीय परंपरा में अनुवाद का एक अन्य रूप बहुत संपन्न ढंग से विकसित हुआ यह रूप है अंतरभाषायी अनुवाद या अंतर भाषायी अनुवाद का आंतर भाषायी अनुवाद सामान्यत: अनुवाद कहने से एक भाषा से दूसरी भाषा में किया जाता है लेकिन भाषाविदों ने अनुवाद के तीन प्रकार बताए हैं -

 

१ अंतर्भाषायी अनुवाद - यानी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद 

2.आंतर भाषायी अनुवाद - यानी एक भाषा में प्रस्तुत पाठ का उसी भाषा में अनुवाद । इसे अंत:- भाषिक अनुवाद भी कहा जाता है । 

 

3. भाषिक प्रतीकों का अन्य प्रतीकों में अनुवाद इसमें भाषिक प्रतीकों का अन्य - संप्रेषण प्रतीकों में रूपांतर किया जाता है ।

 

हिन्दी में संस्कृत साहित्य का बहुत बड़ी तादाद में अनुवाद हुआ। मध्यकाल में हुए अनुवादों में तो संस्कृत, , प्राकृत आदि की रचनाओं और सूक्तियों का आधार लेकर लिखी गई रजनाएँ आती कुछ हैं ज्योतिष, वैद्यक, धर्म, राजनीति आदि ग्रंथों का प्रचुर मात्रा में अनुवाद इस काल में हुआ ।

 

हिन्दी का आधुनिक काल अनुवाद की दृष्टि से अत्यधिक संपन्न काल रहा है । प्राचीन संस्कृत रचनाओं के अनुवाद भारतेन्दु से पहले ही शुरू हो गए थे । भारतेन्दु युग और उसके बाद तो यह क्रम बड़े सिलसिलेवार ढंग से चला राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' का 'शकुंतला नाटक ' नाम से अनुवाद तो अत्यधिक लोकप्रिय हुआ । अन्य अनुवादों में भारतेन्दु द्वारा विशाखदत्त के 'मुद्राराक्षस' का, लाला सीताराम द्वारा 'मेघदूत', मृच्छकटिक' 'उत्तर रामचरित', बालमुकुंद गुप्त द्वारा रत्नावली का, पं. सत्यनारायण कविरत्न द्वारा 'उत्तर रामचरित' और 'मालती माधव' का अनुवाद विशेष रूप में हुआ ।

 

अनुवाद शब्द को आज अलग अर्थ में प्रयोग किया जाता है । लेकिन शब्दकल्पद्रुम कोश में अनुवाद शब्द का अर्थ अवधारित को फिर कहना चाहे वह उसी भाषा में ही क्यों न हो जिसमें मूल पाठ है । इस दृष्टि से भाष्य तथा टीका को भी 'अनुवाद' कहा जा सकता है । इन दोनों का रूप समान होता है, पर वेदों की व्याख्या को 'टीका' कहते हैं । इन दोनों क्लासिकल संस्कृत के ग्रंथों की व्याख्या को 'टीका' कहते हैं इन दोनों का मूल स्रोत हम पद-पाठ और निरुक्ति-पद्धति को मान सकते हैं ।

 

किसी भाषा के प्रत्येक वाक्य को उसके प्रायः सभी पदों का अर्थ देते हुए अन्य भाषा में प्रस्तुत करना 'अनुवाद' का व्यापक अर्थ है - आज भी व्यापक रूप से यह इसी रूप में प्रचलित होता है, किन्तु प्राचीन भारतीय साहित्य के अंतर्गत संस्कृत, पालि, प्राकृत और आगे चल कर अपभ्रंश आदि भाषाओं की सामग्री को इनमें से किसी अन्य भाषा में प्रस्तुत करने अर्थात् अनूदित करने का बहुत अधिक प्रचलन नहीं रहा लेकिन काव्यशास्त्रीय तथा नाट्यशास्त्रीय ग्रंथों में गाहासत्तसई, वृहत्कथा, सेतुबंध, गौडवहो, कर्पूरमंजरी आदि प्राकृत - ग्रंथों से गृहीत यथेष्ट स्थलों का संस्कृत अनुवाद प्रस्तुत किया गया है । प्राचीन भारतीय साहित्य में अनुवाद की क्रमबद्ध परंपरा भले ही न हो लेकिन भारतीय साहित्य के विश्व की अन्य भाषाओं में अनुवाद और रूपांतरण होते रहे हैं। मुगल काल में अकबर ने प्राचीन ग्रंथों के अरबी-फारसी में अनुवाद के लिए एक स्वतंत्र विभाग स्थापित कराया इसमें रामायण, महाभारत, गीता आदि के फारसी में अनुवाद कराए गए । अनुवाद की दृष्टि से पंचतंत्र का वशिष्ट स्थान है । आधुनिक युग में लगभग संपूर्ण वैदिक साहित्य, पुराण, महाभारत, रामायण, प्रबंधकाव्य, गद्यकाव्य, नाट्य - साहित्य के अतिरिक्त स्मृति - ग्रंथ, चिकित्सा, विधि आदि से संबंधित संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेजी, फारसी, चीनी, सिंहली आदि में प्रस्तुत किये गये हैं ।

 

बैदिक साहित्य में वेदों का अन्य भाषाओं में अनुवाद होते देखा गया है इतना ही नहीं उपनिषद में ईशोपनिषद का जोकि यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय ही है, का अनुवाद सर्वाधिक हुआ है । वैदिक साहित्य के उपरांत रामायण, महाभारत और पुराणों का युग आया है । अंग्रेजी में वाल्मीकि रामायण का पद्यबद्ध अनुवाद किया । महाभारत का अंग्रेजी गद्य में अनुवाद प्रतापचंद्र राय ने ग्यारह भागों में प्रस्तुत किया । इस महान ग्रंथ के अनेक अंशों के अनुवाद विभिन्न भाषाओं में किए गए। पुराणों में से श्रीमद् भागवत् का अंग्रेजी में गद्यानुवाद जे. एम. सान्याल ने किया ।

 

इन तीन महान अख्यान - काव्यों के उपरांत संस्कृत में अनेक और बहुविध महाकाव्यों, नाटकों, गीतिकाव्यों के अतिरक्ति गद्य काव्य की रचना होती रही । प्रायः इन सब के अनुवाद अंग्रेजी तथा अन्य अनेक विदेशी भाषाओं में हो चुके हैं। 'मेघदूत' का भारत की लगभग सभी प्रमुख' भाषाओं में अनुवाद हो चुका है । 'मेघदूत' की ही तरह 'अभिज्ञान शकुन्तलम' के भारत और विदेशों की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं । संस्कृत के लगभग सभी प्रख्यात महाकाव्य, मुक्तक काव्य, नाटक, गद्यकाव्य आदि का अनुवाद विदेशी भाषाओं में हो चुका है। कुछ रचनाओं के अनुवाद तो बार-बार होते रहे हैं । इनमें श्रीमद्भगवत गीता' और 'अभिज्ञान शाकुंतलम' का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है ।

 

अट्ठारहवीं - उन्नीसवीं शताब्दी में भारत का पश्चिमी भाषाओं और ज्ञान-विज्ञान से परिचय हुआ । जिस तरह पश्चिमी विद्वानों ने प्राचीन भारतीय क्लासिक साहित्य का अपनी भाषाओं में अनुवाद कर उसे हृदयंगम करने का प्रयास किया उसी तरह भारतीय जन भी पश्चिमी ज्ञान को भारतीय भाषाओं में लाने के लिए उत्सुक हुए। परिणाम स्वरूप भारतीय भाषाओं में पश्चिमी, विशेष रूप से अंग्रेजी रचनाओं अनुवादों का दौर चल पड़ा । बाइबिल के बाद शेक्सपीयर के नाटकों के अनुवाद भारतेन्दु के समय से शुरू हुए और आज तक होते आ रहे हैं ।

 

विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद का दौर आधुनिक भारतीय नवजागरण की विशिष्ट घटना है । हिन्दी में इसकी प्रक्रिया भी भारतेन्दु से ही शुरू हो गई थी । बाद में भी बंकिम, रवीन्द्रनाथ, शरत आदि के अनुवादों का विपुल भंडार हिन्दी में उपलब्ध हुआ । बंगला के अतिरिक्त ओड़िया, असमिया, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, कन्नड आदि भाषाओं से निरंतर अनूदित रजनाएँ हिन्दी में आती रही हैं और आ रही हैं । विभिन्न संस्थाएँ भी इस पर आग्रह प्रकाश कर रहे हैं। जैसे साहित्य अकादमी, भारतीय -ज्ञानपीठ, नेशनल बुक ट्रस्ट, भारतीय भाषा परिषद आदि इस कार्य में संलग्न हैं ।

 

आज सारे विश्व में अनुवाद की आवश्यकता का अनुभव किसी न किसी रूप में अवश्य किया जाता है विभिन्न भाषा-भाषी समुदायों के बीच संप्रेषण प्रक्रिया का महत्वपूर्ण घटक बन कर अनुवाद हमारे सामने आता है आज संसार के किसी भी देश में कोई नई खोज होती है, कोई नया विचार सामने है कोई नई विशिष्ट कृति चर्चित होती है तो हर व्यक्ति यही चाहता है कि उसकी सूचना जल्दी से जल्दी वह अपनी भाषा के माध्यम से अपने देशवासियों को दे सके जिस प्रकार प्रत्येक भाषा संरचना अपने में विशिष्ट होती है उसी तरह से उस भाषा का सामाजिक- सांस्कृति संदर्भ भी विशिष्ट होता है । अनुवाद दो भाषाओं के साथ-साथ दो संस्कृतियों को भी निकट ले आता है ।

 

अनुवाद के जरिये हम विश्व साहित्य का परिचय प्राप्त कर सकते हैं । जैसे पंचतंत्र की कहानियों का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ तथा इन कहानियों ने आगे चल कर एशिया तथा यूरोप के कथा साहित्य को प्रभावित किया । पर आज तो अनुवाद हमारी अनिवार्यता ही बन गया है । विभिन्न राष्ट्रों के बीच नित्य नई-नई तरह के राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संबंध स्थापित हो रहे हैं और नित्य विभिन्न प्रकार के दस्तावेज संबंध-पत्र दोनों देशों की भाषाओं में तैयार किये जाते हैं । यह अनुवाद द्वारा सहज, सरल तथा सुलभ हो जाता है । यू. एन. में जो भी वक्तव्य पढ़ा जाता है, उसका अनुवाद तुरंत ही विश्व की अनेक (सात) भाषाओं में उपलब्ध कराया जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि आज विश्व मंच पर अनुवाद की कितनी महत्ता है हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं ।

 

भारत तो बहुभाषा-भाषी देश है । अनेक भाषाएँ यहाँ बोली जाती हैं । इन भाषा-भाषी लोगों के बीच एकता, तथा भावात्मकता बनाए रखने के लिए अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका है । इतना ही नहीं शिक्षा, कानून, प्रशासन, चिकित्सा, वाणिज्य एवं व्यवसाय, कृषि, पर्यटन, दूरसंचार आदि के क्षेत्रों में भी सभी भारतीयों को एक सूत्र में बांधे रखने के कार्य में अनुवाद की भूमिका महत्वपूर्ण है। प्रो. गोपीनाथन के शब्दों में अनुवाद एक ऐसा सेतु बंधन का कार्य है जिसके बिना विश्व संस्कृति का विकास संभव नहीं है । अनुवाद के द्वारा हम मानव के इस विश्व कुटुंब में संपूर्ण एकता एवं समझदारी की भावना विकसित कर सकते हैं, मैत्री एवं भाईचारे को विकसित कर सकते हैं और गुटबंदी, संकुचित प्रान्तीयतावाद आदि से मुक्त होकर मानवीय एकता के मूल बिन्दु तक पहुँच सकते हैं ।" आधुनिक युग में तो अनुवाद की आवश्यकता वैयक्तिक रूचि पर आधारित न होकर सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक आवश्यकताओं पर आधारित है । इन्हीं आवश्यकताओं के कारण अब अनुवाद व्यक्ति परिधि से निकल कर समष्टि की परिधि में आ गया है । आज के समाज में अनुवाद की आवश्यकता इतनी अधिक बढ़ गई है कि अनुवाद का कार्य अब संगठित रूप में संस्था बना कर किया जाने लगा है अतः निष्कर्ष रूप में यह कहा जा रहा है कि अनुवाद का कार्य भी आज अन्य व्यवसायों की ही भांति एक व्यवसाय बन गया है

 

भारतीय साहित्य का इतिहास सभी भाषा के साहित्येतिहास से प्राचीन एवं कलामय है । भारत में प्राचीन काल से अब तक भारत की विभिन्न भाषाओं और बोलियों में सृजन होता रहा है । भारतीय साहित्य केवल विभिन्न भाषाओं की रचना से संबंध नहीं रखता बल्कि भारतीय साहित्य इस बहुभाषी और वैविध्यपूर्ण देश की सामासिक संस्कृति के समेकन का प्रयास भी है । अकेले सूरदास की चर्चा अब साहित्य में नहीं होगी, बल्कि सूरदास के साथ गुजराती के नरसी मेहता, तेलुगु के पोतना, ओड़िया के जगन्नाथ दास, असमिया के शंकरदेव, कन्नड के पुरंदर दास और बंगला के चंडी दास आदि कवियों की प्रासंगिक चर्चा होगी । यह अपरिहार्य बन गया है । जब हिन्दी में छायावादी कविताएँ लिखी जा रही थीं, ठीक उसी समय बंगला, मलयालम, पंजाबी, सिंधी, उर्दू, गुजराती, तेलुगु, मराठी आदि तमाम भारतीय भाषाओं में भाव और सौंदर्य पर आधारित स्वच्छंदतावादी काव्य रचा जा रहा था । लेकिन मलयालम से अपरिचित काव्यरसिक के लिए कठिन है कि वह कुमार आसन की भाववादी कविताओं से जुड़े । जो मराठी नहीं जानता वह विजय तेंदुलकर के नाटकों और कुसुमाग्रज की कविताओं का रसास्वादन नहीं कर सकता । जो हिन्दी नहीं जानता, वह प्रेमचंद की कहानियों और परसाई के व्यंगों से अनभिज्ञ ही रह जाएगा । भाषा ज्ञान के बिना भारत की विभिन्न भाषाओं में शताब्दियों में रचित साहित्य की उपलब्धियों से परिचित होना असंभव है इसी असंभव को अनुवाद संभव बनाता है अनुवाद के ही कारण तुलसी और कंबन, प्रेमचंद और शरतचंद्र, कबीर और वेमना, अंडाल, कालिदास और वाल्मीकि, भारतेन्दु, दिनकर, इकबाल, वृंदावनलाल वर्मा, हरिनारायण आप्टे, उमाशंकर जोशी, अज्ञेय और गोपीनाथ आदि भारतीय रचनाकारों से सारा हिन्दुस्तान परिचित है रवीन्द्र नाथ ठाकुर, कबीर, गालिब आदि अनुवाद के कारण सिर्फ बंगाल, हिन्दी या उर्दू के पाठकों को मुग्ध नहीं करते, बल्कि विश्व के पाठकों के चहेते बन गये हैं । भारती साहित्य की अनमोल उपलब्धियाँ अनुवाद के कारण भाषा और देशकाल की सीमा में बंधी हुई नहीं हैं । स्वभावत: भारतीय साहित्य के अध्ययन और आस्वादन में अनुवाद की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता ।

 

अनुवाद सिर्फ एक साहित्यिक कार्य नहीं है । उसकी पहचान जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय साधन के रूप में उभरी है । प्रशासन, चिकित्सा, कला, संस्कृति, विज्ञान, प्रतिरक्षा, विधि, प्रौद्योगिकी, तकनीकी, अनुसंधान, व्यवसाय, पत्रकारिता, जनसंचार आदि विभिन्न क्षेत्रों में अब अनुवाद के बिना कुछ नहीं हो सकता । भारत जैसे बहुभाषी और विविधताओं से भरपूर देश में राष्ट्रीय एकता के सूत्रों को समेटने में भी अनुवाद की अपनी विशिष्ट भूमिका है । भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय साहित्य के अध्ययन - अध्यापन में अनुवाद की उपादेयता असंदिग्ध है । इसी तरह साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन और अनुसंधान की विभिन्न दिशाएँ अनुवाद से ही नियंत्रित और विस्तृत होती हैं । क्रमशः अनुवाद एक स्वतंत्र व्यवसाय एवं आजीविका का साधन बन गया है असंख्य लोगों की रोजी-रोटी अनुवाद से सम्मानजनक

 

तरीके से चल रही है । ज्ञान-विज्ञान, औद्योगिक विकास और वाणिज्य-व्यवसाय के विभिन्न क्षेत्रों में अनुवाद के व्यापक उपयोग ने इसे अधिकाधिक लोकप्रिय बनाया है । बहुभाषी देश भारत में बहुभाषी शिक्षा प्रणाली की संभावनाओं के साथ भी अनुवाद का संबंध है जीवन की हर दिशा में अनुवाद की प्रासंगिकता प्रमाणित हो चुकी है आगे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुवाद के महत्व की उत्तरोत्तर प्रगति होगी । अब वैश्वीकरण का दौर चल रहा है । हिन्दी भी भारत से बढ़ कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैल रही हैं । यह अंग्रेजी की तरह क्रमशः विश्व भाषा का रूप ले रही है । अब क्षितिज बहुत विस्तृत हो रहा है । इसलिए अनुवादकों को भी बढ़चढ़ कर आगे आना चाहिए। जो दायित्व समय ने उन पर दिया है उसके लिए प्रस्तुत होकर उसे पूरा करना चाहिए ।

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