भ्रमरगीत का अलंकार विधान - बिम्ब-योजना लक्षणा-शक्ति | Bhramargeet Alankar Vidhan

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भ्रमरगीत का अलंकार विधान - बिम्ब-योजना लक्षणा-शक्ति

भ्रमरगीत का अलंकार विधान - बिम्ब-योजना लक्षणा-शक्ति  | Bhramargeet Alankar Vidhan

भ्रमरगीत का अलंकार विधान- प्रस्तावना ( Introduction)

 

सूरदास के काव्य में अलंकारों का अधिकारपूर्वक प्रयोग किया हुआ मिलता है। सूरदास भक्त कवि हैं। वहाँ उनका कवि रूप अधिक उभर आया हैजहाँ उन्होंने अलंकारों का प्रचुर प्रयोग किया है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसीलिए ये शब्द कहे हैं- “सूरदास अपने विषय का दर्शन कराते हैं तो मानो अलंकार - शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता हैउपमाओं की बाढ़ आ जाती हैरूपकों की वर्षा होने लगती है।"

 

सूरदास के काव्य में अलंकार विधान

 

भ्रमरगीत प्रसंग में भी सूरदास का कवि रूप अधिक देखने में आता हैजहाँ अनेक अलंकारों की योजना की गई है। इनमें से कुछ अलंकारों के उदाहरण दृष्टव्य हैं

 

अनुप्रास - तब वे लता लागति अति सीतल 

उपमा 

प्रीति करि दीन्ही गरे छुरी ।

बधिक चुगाय कपट कन पाछे करत बुरी ॥


रूपक 

दृष्टि धार करि मारि साँवदे घायल सब ब्रज नारि

 

उत्प्रेक्षा

 

तुमसो प्रेम कथा को कहिबो मनहुँ कटिबो घास

 

अर्थान्तरन्यास

 

सुनो भोग को काली जै यहाँ ज्यान है जी को । 

खाटी मही नहीं रुचि मानै सूर खवैया घी को ॥

 

संदेह - 

किधौं घन गरजन नहिं उन देसनि । 

किधौं वाह इन्द्र हठिहि हरि बरज्योंदादुर खाये देखनि ।।

 

व्यतिरेक 

देखो माई नयनन्ह ते घन हारे। 

बिनु ही ऋतु बरसत निसि बासर सदा सजल दोड तारे ॥

 

यथाक्रम

जैसे मीनकमलचातक की ऐसे ही गई बीति । 

तलफतजरतपुकारत सुन सठ नाहिन है यह रीति ।

 


सूरदास के अलंकार विधान की विशिष्टता यह है कि कवि ने एक साथ कई-कई अलंकारों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया हैं। ऐसे स्थलों पर यहां कई अलंकार मिले हुए हैंउभयालंकार भी दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए- “दिम तहिनोग लागत ऐसो अलि! ज्यों करुई ककरी।" (-32) यहाँ पर ज्यों करुई ककरी में उपमा अलंकार है। और करुई ककरी में अनुप्रास अलंकार एक साथ मिले हुए हैं- ये दूध और पानी की तरह मिले हुए हैंअतः यहाँ पर उपमा और अनुप्रास का संकट नामक उपमालंकार है। एक और उदाहरण देखिए- 

 

प्रीति करि दीनी गरे छुरी । 

जैसे बधिक चुगाय कपटकन पाछे करत बुरी ॥ 

मुरली मधुर चेप कर कांटो मोर चन्द्र टटवारी 

वक विलोकनि लूक लागि बस सकी न तनहि सम्हार ।

 

यहाँ पर दूसरी पंक्ति में उपमा अलंकार है। उसके बाद तीसरी और चौथी पंक्ति में रूपक अलंकार है। दोनों अलंकार तिल-तंडुल की तरह मिले हुए हैं। अतः यहाँ पर उपमा और रूपक का संसृष्टि नामक उभयालंकार है ।

 

बिम्ब-योजना 

सूरदास ने शब्दों द्वारा वर्ण्य वस्तु का चित्र उपस्थित कर देने की अद्भुत कला पाई है। उनके द्वारा वर्णित एक-एक बात का सजीव रूप हमारी आँखों के सामने साकार हो जाता है। शास्त्रीय शब्दावली में इसे ही बिम्ब योजना कहते हैं। ऐसे अनेक विषय भ्रमरगीत प्रसंग में आये हैं। श्रोतृ बिम्ब और घ्राण बिम्ब तो भ्रमरगीत में नहीं हैंपर नेत्र बिम्ब बहुत हैं। सूर के शब्दों को पढ़कर आँखों के आगे एक चित्र उपस्थित हो जाता है। इस तरह का एक उदाहरण देखिए

 

है कोई वैसोई अनुहारि 

मधुबन तें इत आवतसखि री ! चितो तु नयन निहारि ॥ 

माथे मुकुट मनोहर कुंडलपीत बसन रुचि कारि । 

रथ पर बैठ कहत सारथि सोंब्रज तन बाँह पसारि ॥ 


यहाँ पर रथ पर बैठे हुए उद्धव का एक चित्र हमारी आँखों के सामने आ जाता है। यह सूरदास की बिम्ब योजना की सफलता है। यहाँ पर नेत्र बिम्ब है। इसी तरह “देखो नंद द्वार रथ ठाढ़ो।”, “सूर स्याम भूतल गिरेरहे नयन जल छाय”, “हमारे हरि हारिल की लकरी”, “निरखत अंक स्याम सुन्दर केबार-बार लखति छाती” “अति मलीन वृषभानुकारी” आदि पंक्तियों से सम्बद्ध प्रसंगों में नेत्र बिम्बों को सफलतापूर्वक उभारा गया है। इस सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि सूरदास ने एक-एक बात को लेकर उसका चित्र भी खींचा हैजैसेकहीं नेत्र को लेकरकहीं आँसुओं को लेकरकहीं शरीर की कृषता को लेकर और कहीं प्रेम की किसी एक मधुर स्मृति को लेकर। कहीं ऐसा भी देखने में आता है कि कवि ने एक साथ अनेक चित्र उपस्थित कर दिये हैं। इस तरह के बिम्ब-“फूल बिनन नहीं जाऊँ सखी री ! हरि बिन कैसी बीनों फूल” तथा 'सुनहू स्यामू वै ब्रज वनिता बिरह तुम्हारे भई बावरी" पदों में अच्छी प्रकार उभरकर आये हैं। इस तरह के मिश्रित बिम्बों का एक संश्लिष्ट रूप निम्नलिखित पद में दृष्टव्य है। उद्धव श्रीकृष्ण के सामने ब्रज की सारी कथा और गोपियों के प्रेम का वर्णन करते हैं। उस पर कृष्ण उन्हें उत्तर देते हैं-

 

ऊधो मोहिं ब्रज विसरत नाहीं । 

हंस सुता की सुन्दर कगरी अरु कुंजन की छाहीं ॥ 

वै सुरभी वै वच्छ दोहनी खरिक दुहावन जाहीं 

ग्वाल बाल सब करत कुलाहल नाचत गहि गहि बाहीं । 

वह मथुरा कंचन की नगरी मनि मुक्ताहल जाहिं । 

जबहिं सुरति आवति वा सुख की जिय उमगत तुन नाहीं ॥ 

अनगन भांति करी बहु लीला जसुदा नंद निबाहीं । 

सूरदास प्रभु रहे मौन हैयह कहि कहि पछितांही ॥

 

इस पद में कृष्ण के अतीत के प्रसंगों के क्रम करके अनेक चित्र सामने आ जाते हैं। इसकी प्रत्येक पंक्ति में एक नवीन बिम्ब है। बिम्ब योजना का सफलतापूर्वक आख्यान अन्यत्र भी मिलता है। अन्धे सूर ने अपनी बाह्य आँखों से जैसे स्पष्ट बिम्बजितनी अधिकता से अपने काव्य में व्यक्त किए हैंउतनी मात्रा में हिन्दी के और किसी कवि की रचना में दुर्लभ हैं।

 

लक्षणा-शक्ति 

जहाँ मुख्य अर्थ में बाधा हो और कोई अन्य अर्थ लगाना पड़े वहाँ शब्द की लक्षणा शक्ति होती है। सूरदास के काव्य में पर्याप्त मात्रा में लक्षणा शक्ति का प्रयोग मिलता है। भ्रमरगीत प्रसंग एक उपालंभ काव्य है। गोपियों के वचनों की वक्रता और वैदग्ध्यपूर्ण अभिव्यक्ति में लक्षणा अत्यधिक प्रभावोत्पादक सिद्ध हुई है। इसमें भ्रमरगीत प्रसंग के शिल्प की प्रौढ़ता की अति वृद्धि हुई है। शब्द की लक्षणा शक्ति के अनेक उदाहरण भ्रमरगीत प्रसंग में मिलते हैं जैसे, “अँखियाँ हरिदर्शन की भूखी”। यहाँ पर भूखी शब्द में ही लक्षणा शक्ति है। भूखी का मुख्य अर्थ भूख न लगकर यहाँ इच्छुक अर्थ लग रहा हैअतः यहाँ शब्द की लक्षणा शक्ति है। इसी तरह "कहि कहि कथा स्याम सुन्दर की सीतल करु सब गात" में सीतल शब्द में लक्षणा शक्ति है। इस तरह के और भी बहुत से प्रयोग सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग में मिलते हैं। “ऊधो कुलिस गई यह छाती", "ऊधो काल-चाल चौराजी”, “इकटक मग जोवति अरु रोवतिभूलेहु पलक न लागी” “हरिमुख की सुन मीठी बातें डरपत है मन मेरो" इन सभी कथनों में शब्द की लक्षणा शक्ति है।


 

जहाँ मुख्य अर्थ में बाधा हो और शब्द का कोई अन्य अर्थ लगाना पड़े उसे लक्षणा शब्द शक्ति कहते हैं।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि काव्य के अनुभूति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष यानी कथ्य और शिल्प-दोनों ही दृष्टियों से सूरदास का भ्रमरगीत प्रसंग प्रशंसनीय है। उनकी रचना का अध्ययन करने के पश्चात् भक्तभाल में उनके विषय में लिखा गया छप्पय सर्वथा युक्तिसंगत लगता है। सूरदास की प्रशंसा में नाभादास ने भक्तभाल में इस प्रकार कहा है-

 

उक्ति योञ अनुप्रासवरन अस्थिति अति भारी । 

वचन प्रीति निर्वाहअर्थ अद्भुत तुक धारी ॥ 

प्रतिबिम्बित दिवि दृष्टिहृदय हरि लीला भासी।

जन्म कर्म गुन रूप सर्व रसना जू प्रवासी ॥ 

विमल बुद्धि गुनि और कीजो वह गुनि स्रवनान करै। 

श्री सूर कबित सुन कौन कविजो नहिं सिर चालन करें ॥

 

भ्रमरगीत का अलंकार विधान सारांश (Summary) 

सूरदास भक्त कवि हैं। वहाँ उनका कवि रूप अधिक उभर आया हैजहाँ उन्होंने अलंकारों का प्रचुर प्रयोग किया है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसीलिए ये शब्द कहे हैं-सूरदास अपने विषय का दर्शन कराते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता हैउपमाओं की बाढ़ आ जाती हैरूपकों की वर्षा होने लगती है।" सूरदास ने शब्दों द्वारा वर्ण्य-वस्तु का चित्र उपस्थित कर देने की अद्भुत कला पाई है। उनके द्वारा वर्णित एक-एक बात का सजीव विम्ब हमारी आँखों के सामने साकार हो जाता है। सूर के शब्दों को पढ़कर आँखों के आगे एक चित्र उपस्थित हो जाता है। जहाँ मुख्य अर्थ में बाधा हो और कोई अन्य अर्थ लगाना पड़े वहाँ शब्द की लक्षणा शक्ति होती है। सूरदास के काव्य में पर्याप्त मात्रा में लक्षणा शक्ति का प्रयोग मिलता है। भ्रमरगीत प्रसंग एक उपालंभ काव्य है। गोपियों के वचनों की वक्रता और वैदग्ध्यपूर्ण अभिव्यक्ति में लक्षणा अत्यधिक प्रभावोत्पादक सिद्ध हुई है । इसमें भ्रमरगीत प्रसंग के शिल्प की प्रौढ़ता की अति वृद्धि हुई है ।

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