कबीर की भक्ति भावना |कबीर की भक्ति का स्वरूप | Nature of devotion of Kabir

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कबीर की भक्ति भावना , कबीर की भक्ति का स्वरूप

कबीर की भक्ति भावना |कबीर की भक्ति का स्वरूप | Nature of devotion of Kabir



कबीर की भक्ति भावना  प्रस्तावना ( Introduction)

 

सन्त कबीर को यदि प्रेम था तो केवल परमात्मा से सांसारिकता को तो उन्होंने केवल अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए बोझे की तरह ढोया । यद्यपि वे इस सांसारिकता को त्यागकर शुद्ध वैराग्यवादी जीवन व्यतीत कर सकते थे, किन्तु तब शायद उन पर जीवन से पलायन कर जाने की मुहर लग जाती और शायद तब लोग उनकी बातों को उतनी गम्भीरता से न लेते। उन्होंने जो कहा, वैसा अपने जीवन में स्वयं करके दिखाया। उनकी भक्ति भावना ही उनके प्रेम का आधार थी। कबीर निर्गुण भक्ति में आस्था रखते थे ।

 

कबीर की भक्ति भावना

 

कबीर का जन्म भले ही लहरतारा के कमल-पुष्प पर न हुआ हो, किन्तु उन्होंने अपनी जीवन शैली और विचारधारा से यह सिद्ध करके दिखा दिया कि जैसे कमल-पत्र जल में रहते हुए भी जल से अलग रहता है, यानि उस पर जल ठहर नहीं पाता है, वैसे ही सांसारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए सांसारिकता से अलग रहा जा सकता है और उन्होंने वैसा कर दिखाया। संसार में व्यक्ति को सबसे अधिक प्रेम अपनी सन्तान से होता है और उसमें भी पुत्र से, किन्तु कबीर में वह पुत्र प्रेम कहीं दृष्टिगत नहीं होता। उन्होंने स्वयं इस सन्दर्भ में लिखा है- बूड़ा वंश कबीर का उपज्यो पूत कमाल ।

 

कबीर की भक्ति का स्वरूप

 

कबीर की भक्ति ही उनके प्रेम का आधार था। जहाँ कहीं भी उन्होंने सांसारिक प्रेम की बात कही है, वहाँ भी उनकी रहस्यवादी प्रवृत्ति अलौकिक प्रेम अर्थात् भक्ति का ही द्योतन कराती है। भारतीय भक्तिधारा में वैष्णव भक्ति के दो रूप मिलते हैं-सगुण और निर्गुण कबीर निर्गुण भक्तिधारा के अनुयायी थे। उनकी भक्ति का स्वरूप निम्नलिखित है

 

(1) निराकार ब्रह्म की उपासना - 

कबीर ईश्वर के निर्गुण एवं निराकार रूप के प्रति भक्ति भाव रखते थे । उनकी भक्ति भावना उस ईश्वर के प्रति थी, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्राणतत्व होकर भी निर्गुण, निराकार एवं सर्वव्यापी है। यह सम्पूर्ण सृष्टि उसी से उत्पन्न होती है और उसी में समाहित हो जाती है-

 

पाणीरी ही तैं हिम भया, हिम है गया बिलाइ । 

जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाइ ॥

 

(2) एक ही परमात्मा 

कबीर की भक्ति उस परमात्मा के प्रति है, जो समस्त सृष्टि के कण-कण में व्याप्त - है। वह प्राणिमात्र का परमात्मा है; किसी जाति, धर्म या समुदाय में अपना भिन्न अस्तित्व रखनेवाला परमात्मा नहीं । उन्होंने हिन्दुओं के बहुदेववाद का विरोध किया है तो इस्लाम धर्म के उस एकेश्वरवाद का भी विरोध किया है, जो खुदा को सातवें आसमान पर बन्दे से अलग बैठा बताता है

 

मुसलमान का एक खुदाई । 

कबीर का स्वामी रह्या रमाई ॥

 

कबीर का परमात्मा इस दृष्टि से वैदिक 'पुरुषसूक्त (ऋग्वेद का एक सर्ग) के परमात्मा से समानता रखता है। उसकी समानता उपनिषदों के परब्रह्म, ऋग्वेद के परम पुरुष के परमात्मा एवं आचार्य शंकर के अद्वैत ब्रह्म से की जा सकती है।

 

(3) कबीर - भक्ति में प्रेम का माधुर्य-

कबीरदास ने अपनी साखियों एवं पदों में यत्र-तत्र प्रेम का महत्त्व बताते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डाला है, किन्तु यहाँ स्मरणीय है कि कबीर के प्रेम का यह भाव किसी मनुष्य के प्रति नहीं है, वरन् उस परम तत्व के प्रति है, जिससे जीव अपनी अज्ञानता के कारण दूर है। ज्ञान प्राप्त करने के बाद कबीर की आत्मा उसी परमात्मारूपी प्रियतम से मिलने के लिए किसी विरहातुर नारी की तरह व्याकुल है-

 

बहुत दिनन की जोबती, बाट तुम्हारी राम । 

जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मन नाहीं विश्राम ॥

 

कबीर की भक्ति में प्रेम के माधुर्य का पुट है। इस माधुर्य भाव में प्रेमाकुल विरह की अभिव्यक्ति हुई है । यद्यपि उनकी भक्ति पर सूफी विचारधारा का प्रभाव है, तथापि इसकी मधुरता में शृंगार रस की प्रधानता है। इस विरहातुर प्रेम-भाव की अधिकता किसी प्रेमिका की भाँति प्रियतम पर स्वयं के अस्तित्व को मिटा देने की सीमा तक है-

 

यहु तन जालौं मसि करूँ, ज्यूँ धूवाँ जाइ सरग्गि । 

मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि ॥

 

कबीर के प्रेम का यह स्वरूप ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट प्रेम भक्ति की भावना से ओत-प्रोत है। वे परमात्मा की प्राप्ति हेतु प्रेमाकुल हैं और उसकी प्राप्ति के मार्ग की विकटता को समझते हुए भी प्रेम की वेदी पर स्वयं को बलिदान कर देना चाहते हैं। वे कहते हैं कि प्रेम का मार्ग अति विकट है। इसमें मनुष्य को अपने अहंकार अथवा अपने अस्तित्व के प्रति अभिमान को त्यागना होता है, तभी वह अपने प्रियतम के हृदयरूपी घर में प्रवेश पा सकता है-

 

कबिरा यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं 

सीस उतारे हाथ करि सो पैठे घर माहिं


( 4 ) नाम स्मरण का महत्त्व - 

कबीर की भक्ति में नाम स्मरण का अत्यधिक महत्त्व माना गया है। वे नाम के स्मरण को ही परमात्मा की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन मानते हैं, किन्तु नाम-स्मरण हेतु वे किसी भी प्रकार के बाहरी आडम्बरों के प्रबल विरोधी हैं। कबीर मुँह से ईश्वर के नाम को जपने या माला फेरने की आलोचना करते हैं। उनके अनुसार नाम का स्मरण मन से होना चाहिए- 

 

माला तो कर मैं फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं 

मनुवा तो दस दिसि फिरै, सो तो सुमिरन नाहिं ॥

 

प्रभु नाम के स्मरण का महत्त्व बताते हुए कबीर कहते हैं -

तूं तूं करता हूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ। 

बारी फेरि बत्ति गई, जित देखी तित हूँ।

 

(5) गुरु की महत्ता - 

कबीर की भक्ति में गुरु का महत्त्व ईश्वर से भी श्रेष्ठ है। उनकी भक्ति गुरु की ही देन है। इसीलिए वे भक्ति मार्ग का ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की सेवा करना आवश्यक मानते हैं

 

"गुरु सेवा ते भक्ति कमाई "

 

( 6 ) मध्यम मार्ग - 

कबीर सांसारिकता को त्यागकर जंगल में निवास करने या शरीर को कष्ट देकर ईश्वर की भक्ति करने के समर्थक नहीं थे। वे मध्यममार्गी भक्ति को महत्त्व देते थे, जिसे प्रत्येक मनुष्य सद्गुरु से ज्ञान प्राप्त कर, मन से प्रभु नाम का स्मरण करके और बिना किसी आडम्बर के, सरल भक्ति भाव से अपना सकता है।

 

(7) जीव और ब्रह्म की एकता

 कबीर जीव को ब्रह्म का ही रूप मानते थे, अर्थात् उनकी दृष्टि में जीव उस परमात्मा का ही अंग है अथवा प्रत्येक जीव के रूप में परमात्मा ही विद्यमान है, तभी तो वे कहते हैं- 

घट-घट है अविनासी, सुनहुँ तकी तुम शेख ।

 

 
(8) जीव का आत्म-समर्पण भाव- 

सगुण एवं निर्गुण दोनों प्रकार की भक्ति में परमात्मा की प्राप्ति के लिए स्वयं के अहंकार का त्याग एवं आत्मसमर्पण को आवश्यक माना गया है। कबीर भी उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अपना सारा अहंकार त्यागकर उस परमात्मा में ही एकाकार हो जाने पर बल देते हैं

 

लाली मेरे लाल की, जित देख तित लाल । 

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥

 

कबीर उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अपना सारा अहंकार त्यागकर उस परमात्मा में ही एकाकार हो जाने पर बल देते हैं।

 

(9) निर्मल भाव-

कवीर भक्ति के लिए हृदय की निर्मलता को ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं, वाह्याडम्बरों को नहीं। वे इसके लिए किसी जाति पाँति या ऊँच-नीच को महत्त्व नहीं देते। वे स्पष्ट कहते हैं कि भगवद्भक्ति के लिए किसी जाति विशेष की आवश्यकता नहीं है

 

जाति पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई 

यदि हृदय निर्मल नहीं, तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती

 

माला तो कर मैं फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं ।

 मनुवाँ तो दस दिसि फिरै, सो तो सुमिरन नाहिं ॥

 

(10) माया का प्रपंच-

भक्ति के मार्ग में माया ही सबसे बड़ी बाधा है। कबीर ने माया के जिस स्वरूप की व्याख्या की है, वह विशिष्टाद्वैत है। यह माया परब्रह्म की एक ऐसी रहस्यमयी शक्ति है, जो विश्वमोहिनी के रूप में प्रकट होकर सम्पूर्ण जीवों को फँसाए रहती है। वह ऐसी ठगिनी है, जो सदैव त्रिगुणी फाँस हाथ में लिए रहती है । इससे बचने की कोई लाख चेष्टा करे, यह उसका पीछा नहीं छोड़ती-

 

मीठी-मीठी माया तजि न जाई। 

अग्यानी पुरुष को भोलि भोलि खाई ॥

 

(11) प्रणय-भाव- 

कबीर की भक्ति की एक महती विशेषता यह है कि वह अधिकांश स्थानों पर प्रेमी-प्रेमिका के भाव में व्यक्त होती है। सूफियों के प्रभाव से प्रभावित उनकी इस भक्ति भावना का एक चित्र यहाँ द्रष्टव्य है -

भीजै चुनरिया प्रेम रस बूँदन । 

आरती साज के चली है सुहागिन, प्रिय अपने को ढूँढन ॥

 

उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त कबीर की भक्ति में अपने इष्टदेव के अनुकूल गुणों के ग्रहण करने का संकल्प, प्रतिकूल गुणों का त्याग, ईश्वर द्वारा रक्षा का विश्वास एवं परमात्मा के प्रति दीनता का भाव आदि विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं । यहाँ यह स्मरण रखना समीचीन होगा कि कबीर के राम निराकार परमात्मा ही हैं। राम के प्रति कबीर की भक्ति को देखकर उसे सगुण परमात्मा की भक्ति नहीं समझना चाहिए। राम का अर्थ कुछ विद्वान् उनके गुरु रामानन्द से लेते हैं, कुछ दशरथ पुत्र राम से, किन्तु यह दोनों ही अर्थ उचित नहीं हैं। वस्तुतः राम के नाम से कबीर ने निर्गुण निराकर ब्रह्म को ही सम्बोधित किया है। इस विषय में डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना के विचारों को भी यहाँ उद्धृत करना युक्तियुक्त होगा। वे लिखते हैं- "कबीर एक ऐसी भक्तिधारा को प्रवाहित करना चाहते थे, जिसे सभी वर्ण या सभी धर्म के व्यक्ति बिना किसी हिचकिचाहट के अपना सकें। उस समय हिन्दू एवं मुसलमानों में पारस्परिक वैमनस्य एवं ईर्ष्या-द्वेष अत्यधिक बढ़ रहे थे। अतः कबीर ने अपनी निर्गुण भक्ति का आश्रय लेकर दोनों जातियों की कटुता एवं वैमनस्यता की भावना को दूर करके एक ऐसी भक्ति का प्रचार किया, जिसमें राम और रहीम, कृष्ण और करीम, महादेव और मुहम्मद की एकरूपता स्थापित करके एक ईश्वर की उपासना पर जोर दिया गया था।" वास्तव में कबीरदास अपनी निर्गुण भक्ति भावना के द्वारा हिन्दू-मुस्लमानों के वैमनस्य को दूर करने में काफी हद तक सफल हुए। यही कारण है कि बहुत बड़ी संख्या में दोनों धर्मों के लोग उनके अनुयायी हो गए ।

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