कबीर की काव्यगत विशेषताएँ :वर्ण्य विषय रस योजना भावानुभूति व्यंग्यपरकता भाषा छन्द - अलंकार काव्य रूप | Kabir Kavya Visheshtayen

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कबीर की काव्यगत विशेषताएँ

कबीर की काव्यगत विशेषताएँ :वर्ण्य विषय रस योजना भावानुभूति व्यंग्यपरकता भाषा छन्द - अलंकार काव्य रूप | Kabir Kavya Visheshtayen

  

कबीरदास सामान्य परिचय  

कबीरदास का जन्म सन् 1398 में काशी में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि कबीर को एक ब्राह्मणी ने जन्म दिया था। किन्तु लोकलाज से बचने के लिए लहरतारा नामक तालाब के किनारे रख दिया। नीरू और नीमा नामक मुस्लिम दम्पति ने उनका पालन-पोषण किया। उन्होंने रामानंद नाम के गुरु से निर्गुण भक्ति की दीक्षा प्राप्त की थी। उनका विश्वास था कि सच्चे प्रेम और ज्ञान से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। कबीर की सभी रचनाएँ कबीर - ग्रंथावली में संकलित हैं। बीजक, रमैनी और सबद नाम से उनके तीन काव्य-संग्रह हैं। सिख धर्म के गुरुग्रंथसाहब में भी उनकी वाणी को स्थान मिला है।

 

कबीर की काव्यगत विशेषताएँ

 

'मसि कागद छुओ नहिं, कलम गह्यो नहिं हाथ" की स्वीकारोक्ति को कहने वाले कबीर ने न तो काव्यशास्त्र का विधिवत् अध्ययन किया था और न वह इसके समर्थक थे। उन्होंने तो भाव-विभोर होकर जो कुछ कह दिया, वही 'काव्य' बन गया। यहीं कारण है कि उनके काव्य में सायास विशेषताएँ नहीं हैं, किन्तु फिर भी काव्य-कला विषयक कुछ ऐसे तत्व अवश्य हैं जिन्होंने उसको 'विशिष्ट' की श्रेणी में ला बिठाया है। यहाँ कबीर की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन किया जा रहा है।

 

1 वर्ण्य विषय

 

कबीर संत थे, पर्यटक थे और उससे भी अधिक आत्मानुभवी थे। जीवन के विविध क्षेत्रों को उन्होंने आँख खोलकर देखा, भोगा और परखा था। यही कारण है कि उनके यहाँ सब कुछ देखा-परखा और भोगा हुआ है। 'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता हूँ आँखिन देखी' का दावा करने वाले कबीर के काव्य की समस्त वर्ण्य सामग्री इसी बात की साक्षी है।

 कबीर-काव्य के वर्ण्य विषय को तीन वर्गों में रख सकते हैं— 

(अ) सामाजिक-धार्मिक स्थितियों और उनके विविध पक्षों का चित्रण जिसमें साम्प्रदायिकता, लोकाचार, वर्ण भेद, कुरीतियां, बाह्याचार आदि विरोधी उक्तियाँ आ जाती हैं

(ब) रहस्यपरक अनुभूतियाँ जिसमें ब्रह्म, माया, भक्ति, दर्शन, जीव आदि से सम्बन्धित काव्यांश आते हैं; तथा

 (स) फुटकर उपदेशपरक यथा गुरु महिमा, आचरण, आत्मनिग्रह, पवित्रता, इन्द्रिय-निग्रह, जीवन की क्षणभंगुरता तथा चेतावनी आदि। इन सबकी सबसे बड़ी विशेषता है— सहज स्वाभाविक सत्यता । परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर साहित्य की परख की। प्रस्तावना में ठीक ही कहा है, 'कबीर साहित्य उन रंगबिरंगे पुष्पों में नहीं जो सजे-सजाये उद्यानों की क्यारियों में किसी क्रमविशेष के अनुसार उगाए जाते हैं और जिनकी छटा तथा सौन्दर्य का अधिकांश मालियों के कला - नैपुण्य पर भी आश्रित रहा करता है। यह तो एक वन्य कुसुम है जो अपने स्थल पर अपने आप उगा है और जिसका विकास केवल प्राकृतिक नियमों पर ही निर्भर रहा।'

 

2 रस - योजना

 

काव्य की आत्मा रस है। कबीर का सर्वाधिक प्रिय रस है— शांत (निर्वेद)। भक्तिपरक सभी पद और साखियां मूलतः इसी से युक्त हैं। इसके लिए कवि ने विविध युक्तियों को अपनाया है तथा जीवन की क्षणभंगुरता का सच्चा चित्रण, कुरूप यथार्थ के प्रति मानव मन को सजग करना तथा अकारण भय को उद्भूत करना। उदाहरणस्वरूप निम्न काव्यांश देखिये- 

 

(i) झूठे सुख को सुख कहैं, मानत हैं मन-मोद ।

खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद ॥ 


(ii) नर नारी सब नरक हैं, जब लग देह सकाम ।

कहै कबीर ते राम के, जे सुमिरै निहिकाम ॥ 


(iii) माली आवत देखि के, कलियाँ करें पुकार । 

फूलि फूलि चुन लई, काल्हि हमारी बार ॥

 

शांत के अतिरिक्त कबीर-काव्य के प्रमुख रस हैं— शृंगार और अद्भुत शृंगार के अन्तर्गत दाम्पत्य रूपकों के माध्यम से कबीर ने आत्मा-परमात्मा का रसमय चित्रण किया है। इसमें भी संयोग-वियोग और इनकी विविध स्थितियों को ग्रहण किया गया है। संयोग के दर्शन 'निहकर्मी पतिव्रता को अंग', 'पीव पीहाणन को अंग' और 'हेत प्रीती सनेह को अंग' में तथा वियोग के दर्शन 'विरह को अंग' तथा 'सती को अंग' में किये जा सकते हैं। उलटबांसियां (विपर्यय) अद्भुत रस की साक्षी हैं। विविध स्थानों पर आई व्यंग्योक्तियों में हास्य रस भी पूर्ण भाव सबलता के साथ छलकता मिलता है। निम्न उदाहरण भी हमारे इसी मत की पुष्टि करते हैं

 

श्रृंगार रसः

 

(i) संयोग —

 दुलहनिं गावहु मंगलाचार 

हम घरि आये हो राजा राम भरतार ॥

तन रत करि मैं मन रति करि पंचतत्त बराती । 

रामदेव मोरे पाहुन आये, मैं जोबन मदमाती ॥ 


(ii) वियोग — 

यह तन जालौं मसि करूँ लिखौं राम का नाउं । 

लेखणि करूँ करंक, लिखि लिखि राम पठाउं ॥ 


(iii)अद्भुत रस 

एक अचंभा देखा रे भाई

ठाड़ा सिंह चरावै गाई

 पहले पूत पीछे भई माई

चेला के गुरु लागै पाइ ॥ 

जल की मछली तरवर व्याई

पकड़ बिलाई मुर्गा खाई ॥ 

बैलहि डारि गूंनि घर आई 

कूत्ता कूं लै गई बिलाई ॥ 


हास्य रस

वेद पुरान पढ़त अस पांडे, खर चंदन जैसे भारा । 

राम नाम तत समझत नाहीं, अंति पड़े सुख छारा ॥

 

कहीं-कहीं, विशेषतः उपदेश और सिद्धान्त प्रतिपादन वाले स्थलों पर कबीर का काव्य नीरस भी हो गया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी आलोचनात्मक पुस्तक 'कबीर' के उपसंहार में लिखा है—“कबीर ने कहीं काव्य लिखने की प्रतिज्ञा नहीं की तथापि उनकी आध्यात्मिक रस की गगरी से छलकते हुए रस से काव्य की कटोरी में भी कम रस इकट्ठा नहीं हुआ है। फलतः काव्यत्व-रसत्व उनके पदों में फोकट का माल है, बाई प्रोडक्ट है, वह कोलतार और सीरे की भाँति और चीजों को बनाते-बनाते अपने आप बन गया है।"

 

भावानुभूति

 

कबीर का समस्त काव्य सहज-स्वाभाविक है। उन्होंने जिस चीज को जैसा अनुभव किया, उसको वैसे ही अभिव्यक्त कर दिया है। यहाँ तक कि डॉ. सतनाम सिंह शर्मा (कबीर एक विवेचन) के शब्दानुसार, “गहन सत्यों को, जिस रूप में भी सम्भव हुआ, उन्होंने प्रकट कर दिया। अभिव्यक्ति के लिये उन्हें न तो अलंकार शास्त्र के ज्ञान की आवश्यकता हुई और न किसी काव्य-रीति के पालन की। जो सहज में बन सका, उसी को उन्होंने अपनाया।" उनकी यह सहज-स्वाभाविकता सबसे अधिक उनके “भक्ति-पदों में मुखर हुई है। अनुभूति की यह सद्यता इनके पदों को पूर्णतया काव्यत्व से ओत-प्रोत कर देती है। निम्न उदाहरण हमारे इसी मत की पुष्टि करता है-

 

राम भगति अनियाले तीर । 

जेहि लागै सौ जानै पीर 

तथा 

हम घरि आये हो राजा राम भरतार

 

4 व्यंग्यपरकता

 

शास्त्रीय दृष्टि से, "व्यंग्य वह है जहाँ कहने वाला अधरोष्ठों में हँस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो।" कबीर ऐसे व्यंग्यकार हैं। धर्म और समाज तथा इन दोनों के नेता ठेकेदार ही अधिकांशतः कबीर की व्यंग्योक्तियों के शिकार बने हैं। इस प्रकार जाति-पांति, पूजा-पाठ, तीर्थाटन, जप-तप, मन्दिर-मस्जिद, पण्डित- शेख और मुल्ला तथा शाक्त आदि नाना विषयों को कबीर ने व्यंग्यपूर्ण, प्रायः कटु व्यंग्यपूर्ण, बना दिया है। उनके वैयक्तिक जीवन के कष्टों, अद्भुत फक्कड़ व्यक्तित्व और समकालीन धार्मिक सामाजिक परिस्थितियों आदि ने भी इस व्यंग्य भाव को सान पर चढ़ाया है डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी (कबीर) ने ठीक ही कहा है-"सच पूछा जाये तो आज तक हिन्दी में ऐसा जबर्दस्त व्यंग्य-लेखक पैदा ही नहीं हुआ। उनकी साफ चोट करने वाली भाषा, बिना कहे भी सब कुछ कह देने वाली शैली और अत्यन्त सादी किन्तु अत्यन्त तेज प्रकाशन-भंगी अनन्य साधारण है,... पढ़ते साफ मालूम होता है कि कहने वाला अपनी ओर से एकदम निश्चिन्त है। अगर वह अपनी ओर से इतना निश्चिन्त न होता तो इस तरह का करारा व्यंग्य नहीं कर सकता।" कुछ उदाहरणों से यह बात और भी अधिक पुष्ट हो जाती है—

 

(i) मूँड मुँडाये हरि मिलैं तो सब कोई मुँडाय

बार-बार के मूंडते, भेड़ न बैकुंठ जाय ॥


(ii) साधु भया तो क्या भया, माला फेरि चारि। 

बाहरी ढोला हींगला, भीतरि भरी अंगारि ॥


(iii) सेख सबूरी बाहिरा क्या हज काबै जाई । 

जाकी दिल साबत नहीं, ताको कहा खुदाई ॥

 

5 भाषा 

  • कबीर-काव्य की भाषा पर विद्वानों के विविध और परस्पर विरोधी मत हैं। स्वयं कवि ने उसको 'पूर्वी' कहा है जिसमें बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर आदि में प्रचलित शब्दावली प्रधान है। इनके अतिरिक्त उसमें ब्रज, अवधी, बुन्देलखण्डी, पंजाबी, राजस्थानी, अपभ्रंश, यहाँ तक कि अरबी फारसी के शब्द भी बहुतायत से हैं व्याकरण-दोष तो उसमें भरपूर मात्रा में हैं। इसी से इनकी भाषा को 'सघुक्कड़ी', 'पंचमेल खिचड़ी', 'मिश्रित' और 'गँवारू' तक कहा गया है। ध्यान से देखें तो यह भाषा "लोकभाषा' है। तत्कालीन लोकभाषाएँ परस्पर संगुफित थीं। दूसरे कबीर का विस्तृत पर्यटन विस्तृत दृष्टिकोण एवं शास्त्रीय नियमों की अवहेलना तथा कबीर शिष्यों का विविधभाषी होना आदि कई कारणों ने भी इसको "विचित्र" बना दिया है। श्री यज्ञदत्त शर्मा (कबीर साहित्य और सिद्धांत) के शब्दों में "कबीर जैसे स्वतंत्र प्रकृति के कवि के लिए प्रधानता भावना की थी।" इस दृष्टि से डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ('कबीर') के अनुसार, “भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा कहलवा दिया है— बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कबीर के सामने कुछ लाचार-सी नजर आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को ना कर सके और अकथनीय कहानी का रूप देकर मनोग्राही बना देने की जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी बहुत कम लेखकों में पायी जाती है।'

 

  • कबीर की यह भाषा अनगढ़, अपरिष्कृत और सादी है। सरलता इसका विशिष्ट गुण है। भावाभिव्यक्ति में यह पूर्णतया सक्षम है। वह जीवन्त और झकझोर देने वाली होने के साथ पूर्णतया भावानुकूल भी है। डॉ. पारसनाथ तिवारी ( 'कबीर वाणी ) का यह कथन अक्षरशः सत्य है "कबीर की भाषा को देखकर उस ग्रामीण नायिका (उसे वचनविदग्धा, रूपगर्विता, प्रगल्भा, क्या-क्या कहा जाए?) का स्मरण हो जाता है जो निहायत सादगी और आत्मविश्वास के साथ कहती है ..." गांव में पैदा हुई, गाँव में ही रहती हूँ। जानती भी नहीं कि नगर कहाँ होता है। इतना अवश्य है कि नागरिकाओं के पति आकर यहां की खाक छान जाया करते हैं। वैसे कहने को जो भी हूँ, सो हूँ ।"

 


  • डॉ. पारसनाथ तिवारी ने ठीक ही कहा है, "तीनों शब्द-शक्तियों का एक ऐसा संश्लिष्ट रूप मिलता है जिसमें नीचे की स्थिति अविभाज्य -सी रहती है। भावाभिव्यक्ति की प्रौढ़ता की यह सबसे बढ़ी परख है और कबीर का काव्य इस कसौटी पर कसने से बारह आना सोना सिद्ध होता है।" सारांश में डॉ. रामरतन भटनागर के शब्दों में कह सकते हैं, "इसी बहते नीर लोकभाषा को कबीर ने अपना आदर्श माना है। इसी से इसमें पिंगल की शुद्धता नहीं, संस्कृत शब्दों का अधिक प्रयोग नहीं, विदेशी शब्दों को तद्भव रूप में ही स्वीकार किया गया है। यहाँ तक कि भाषा के सर्वनामों और क्रियापदों की शुद्धता की ओर भी आग्रह नहीं है। ये बातें तो गौण हैं, प्रधान बात है कि भाषा उस ऊँचे धरातल पर उठ सके जिस पर कवि को अपना संदेश देना है। कबीर की भाषा की विशेषता है—उसकी समास - शक्ति और समाहार-शक्ति। वह बलवान् की भाषा है। ..... कबीर की फक्कड़ भाषा, ऊबड़-खाबड़ और गँवारू भाषा उनकी अपनी चीज है। इसका अनसँवारापन ही इसका सहज आकर्षण है।"

 

6 छन्द - अलंकार

 

कबीर ने प्रायः सधुक्कड़ी छन्दों का प्रयोग किया है जिनमें प्रमुख हैं— सबद, साखी, दोहा, रमैनी। साथ ही पदों में कहरवा, हिंडोला, बसन्त, चौंतीसी, विप्रमतीसी, बेलि और चाँचर आदि छन्द भी यहाँ उपलब्ध हैं। विशेषता यह है कि सभी छन्द-स्वच्छन्द और पिंगलशास्त्र के नियमों से स्वतन्त्र हैं। मात्राओं के बंधन को कवि ने सही स्वीकारा किन्तु लय और संगीत का ध्यान रखा है। श्री यज्ञदत्त शर्मा ने ठीक ही कहा है, "छन्द की बंदिशें उनके भावों के प्रसार और विचारों के प्रकाशन में प्रतिबन्ध बन जायें, यह वह सहन नहीं कर सकते थे।"

 

7 काव्य रूप 

कबीर का समस्त काव्य मुक्तक रूप में हैं। प्रधान है— दोहा, साखी, पद अथवा गीत तथा रमैनी चौपाई। कबीर अपने दोहों को "साखी" और पदों को "सबद" कहते हैं। रमैनी के कई भेद इनके यहाँ पर हैं— सतपदी अष्टपदी, द्विपदी और बारहपदी आदि। प्रतीक, उलटबाँसी, अन्योक्ति और समासोक्ति आदि न जाने कितनी अन्य शैलियां भी इन्होंने सफलतापूर्वक प्रयुक्त की हैं। एक मुसलमान विद्वान् श्री एम.ए. गनी तो कबीर की "हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या" के आधार पर उनको गजलकार और इस रचना को उर्दू की पहली गजल मानते हैं (हिस्ट्री आफ द परशियन लैंग्वेज एट मुगल कोर्ट) ।

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