सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -03 | Sursagar Ka Saar ( Gokul Leela) Explanation in Hindi

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सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -03

सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -03 | Sursagar Ka Saar ( Gokul Leela) Explanation in Hindi




श्रृंगार-पदः संयोग श्रृंगार


मुरली तऊ गुपालहि भावति का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या


मुरली तऊ गुपालहि भावति । 

सुनि री सखि ! जदपि नंदलालहिंनाना भांति नचावति ॥ 

राखति एक पाइ ठाढ़ौ करिअति अधिकार जनावति ।

कोमल तन आज्ञा करवावतिकरि ढेढ़ी है आवति ॥ 

अति आधीन सुजान कनौड़ेगिरिधर नार नवावति । 

आपु पौढ़ि अधर सज्जा पर कर पल्लव सन पद पलुटावति ॥ 

भृकुटि कुटिलनैन नासापुटहम पर कोप करावति । 

सूर प्रसन्न जानि एक छिनअधर सुसीस डुलावति ॥

 

शब्दार्थ - 

तऊ = तुम्हारी

भावति = अच्छी लगती है। 

नचावति = परेशान करती है। 

ठाढ़ौ = खड़ा 

जनावति = दिखाती है। 

कनौड़े = दास 

नार= गरदन 

नवावति = झुकवाती। 

पौढ़ि = लेट कर 

सज्जा = शय्या 

पलुटावति = दबवाती । 

कुटिल = टेढ़ी। 

नरासापुट = नथुने

कोप = क्रोध ।

 

प्रसंग - 

कृष्ण की वंशी के प्रति सौतिया भाव प्रकट करते हुए (एवं परोक्षतः सौत के वशीभूत कृष्ण पर व्यंग्य करते हुए) एक गोपी दूसरी से कहती है

 

व्याख्या-

हे सखी! यद्यपि वह मुरली नंद के पुत्र कृष्ण को तरह-तरह के नाच नचाती है (परेशान करती है) फिर भी उन्हें अच्छी लगती है। यह उनको एक पैर पर खड़ा रखती है (मुरली बजाते समय कृष्ण की मुद्रा ऐसी ही होती है) और अपना अधिकार प्रदर्शित करती है। कृष्ण का शरीर कोमल है फिर भी यह उनसे अपनी आज्ञा का पालन कराती है जिसके फलस्वरूप उनकी कमर टेढ़ी हो जाती है। (यद्यपि कृष्ण पर्वत को धारण करने वाले होने के कारण वीर हैं लेकिन यह नारी - बांसुरी उन्हें भी झुका देती है)। साथ ही साथ यह इतनी स्वार्थिनी भी है कि स्वयं तो अधर रूपी शय्या पर विराजमान रहती है और कृष्ण के पत्ते जैसे कोमल हाथों से अपने चारण छिद्र दबवाती है। यह कृष्ण की भौंहों को टेढ़ा और नथुनों को कोपयुक्त (फूले हुए) बनाकर न केवल हम पर अपना क्रोध प्रकट करती है वरन् उनको भी हमारे प्रति क्रोधित कर देती है। कृष्ण इससे इतने अधिक प्रभावित हैं कि इसको प्रत्येक क्षण प्रसन्न जानस्वयं भी मस्त होअपना शीश हिलाते रहते हैं।

 

विशेष - 

1. यहाँ कवि का वाक्चातुर्य और काव्य-कौशल दोनों ही देखने योग्य बन पड़े हैं। 

2. नारी मनोविज्ञान और तत्कालीन युग में नारी समाज की स्थिति का द्योतक यह पद एकदम भाव सबल और स्वाभाविक बन पड़ा है। 

3. सूर की भाषा का एक सबल तत्व है-शब्द का सटीक उपयुक्त प्रयोग प्रस्तुत पद में 'गिरिधरऔर 'गुपालहिंशब्द इसी के प्रमाण हैं। 

4. ठाढ़ौकनौड़ेपौढ़िपलुटावति आदि तथा सीस डुलावति आदि लोक-प्रचलित मुहावरों का सार्थक प्रयोग दृष्टव्य है।

6. वंशीवादक कृष्ण का मुद्रा-चित्रण एकदम सफल बन पड़ा है जो अंधकवि सूर की सूक्ष्म कल्पना-शक्ति का परिचायक है।

7. अलंकार- (क) श्लेष - गुपालहिंगिरिधर । (ख) रूपक-कर- पल्लव 

8. 'आपुन - पलुटावतिमें मुरली का ( नायिका रूप में) किया गया मानवीयकरण अत्यधिक मनोरम बन पड़ा है।

 

जब हरि मुरली अधर धरी शब्दार्थ अर्थ व्याख्या

जब हरि मुरली अधर धरी । 

गृह-ब्यौहार तजे आरज-पथचलत न संक करी ॥ 

पद-रिपु-पट अटकायौन सम्हारतिउलट न पलट खरी । 

सिव-सुत - वाहन आइ मिले हैंमन-चित्त-बुद्धि हरी ॥ 

दुरि गये कीरकपोतमधुपपिक सारंग सुधि बिसरी । 

उडुपतिबिद्रुमबिंबखिसानेदामिनि अधिक डरी ॥

मिलिहैं स्यामहिं हंस- सुता-तटआनंद- उमंग भरी 

सूर-श्याम कौं मिली परसपरप्रेम-प्रवाह ढरी ॥

 

शब्दार्थ-

अधर = होंठ 

ब्यौहार = कार्य-कलाप

आरज-पथ =आर्य ( मान्यता या परम्परा वाली ) मर्यादा का पथ 

संक= शंका 

पद-रिपु = पैर का शत्रुकाँटा 

पट= वस्त्र 

सिव-सुत-वाहन = शिव के पुत्र कार्तिकेय का वाहनमोर। 

दुरि = छिपना 

कीर = तोता। 

कपोत = कबूतर 

मधुप = भ्रमर 

पिक = कोयल

सारंग = मृग ।

उडुपति = नक्षत्रों का स्वामीचन्द्रमा 

विद्रुम = मूँगा। 

बिम्ब = बिम्बा-फल। 

खिसान = खिसिया गये। 

दामिनि = आकाश-विद्युत। 

हंस-सुता-पट सूर्य की पुत्री यमुना नदी के किनारे।

 

प्रसंग - 

श्रीकृष्ण द्वारा किया गया वंशी-वादन अत्यधिक मनमोहक और आकर्षक है। कारणउसके आकर्षण के वश में चर-अचरजड़-जंगम सभी हो जाते हैंफिर भला कृष्ण से अटल-अनन्य प्रेम करने वाला गोपी- समाज किस प्रकार अछूता रह सकता हैगोपी समाज पर पड़े वंशी-वादन प्रभाव और गोपियों की प्रतिक्रियाओं का परिचय देते हुए कवि ने कहा है

 

व्याख्या - 

जिस समय श्री कृष्ण ने (वादन करने के लिये) मुरली को अपने होठों पर रखा वैसे ही ब्रज की रमणियों द्वारा किये जाने वाले सभी प्रकार के घरेलू क्रिया-कलाप बन्द हो गयेयहाँ तक कि आर्य-मर्यादा के पथ को (जिसके अनुसार नारी को पर-पुरुष के सामने घर से नहीं निकलना चाहिये था) तज़ कर (कृष्ण के पास) जाने में भी उन्होंने शंका तक नहीं की (और वंशी - ध्वनि को सुनते ही घर-घर से दौड़ पड़ीं)। (इतना ही नहींपहुँचने की शीघ्रता में मार्ग पर दौड़ते समय ) अपने वस्त्र में अटके कांटे को भी नहीं निकालती थी और न तो उलट कर काँटा देखतीं और न पलट कर खड़ी होतीं। वंशी-वादन को सुनकर शिव के पुत्र कार्तिकेय के वाहन अर्थात् मोर भी उनसे आकर मिल गये थे। सच में तो इस समय उनकी मन-चित्त और बुद्धि सभी का हरण हो चुका (क्योंकि उतावली में सोच-विचार का प्रश्न ही नहीं था)। (कृष्ण-शरीर के सौन्दर्य को देख अंग-प्रत्यंग से समानता वाले उपमान भी छिप गये। इस प्रकार नासिका का उपमान) तोता ( गरदन का उपमान) कबूतर, ( केश राशि का उपमान) भ्रमर, (वाणी का उपमान) कोयल आदि (लज्जित होकर छिप गये तथा (नेत्रों के उपमान) मृग ने तो अपनी सुधि भी बिसरा दी ( मानो मंत्रमुग्ध होकर रह गये थे। इसी भाँति ( मुख का उपमान) चन्द्रमा, (दाँतों का उपमान) मूँगा, (होठों का उपमान) बिम्बाफल खिसिया गये तो (शरीर की कांति का उपमान) आकाश-विद्युत और भी अधिक भयभीत हो गयी। सूर्य पुत्री यमुना के तट पर आनंद-उमंग में भर गोपियाँ कृष्ण से मिलीं और सूरश्याम (कृष्ण) से परस्पर भेंट कर प्रेम-प्रवाह से युक्त हो गयीं।

 


विशेष - 

1. प्रस्तुत पद में गोपियों की उत्कंठाप्रेम-भरी विवशता और अनन्यता आदि का सजीव अंकन है।

2. प्रारम्भिक पंक्तियों में गोपी- समाज का सजीव मुद्रा-चित्रण मिलता है।

3. कृष्ण के बाह्य-सौन्दर्य का परोक्ष शैली में वर्णन कवि-कौशल का परिचायक बन पड़ा है। 

4. अलंकार- (क) प्रतीक- सिवडरी। (ख) अतिशयोक्ति दुरि.....डरी । (ग) अनुप्रास - स्थान-स्थान पर 

5. सिव-वाहन और हंससुता-तट में कूट शैली है।

 

6. भावसाम्य

 

(क) मुरली अधर सजी बलबीर । 

नाद सुनि बनिता विमोहिबिसारे उर-चीर ॥ 

(ख) जैसी हुति उठि तैसिय दौरिछाँड़ि सकल गृह काम | 

रोम पुलक गद्गद् भइँ तिहि छनसोचि अंग अभिराम ॥ 

(ग) किती न गोकुल कुलवधूकाहि न कित सिख दीन ।

 कौने तजी न कुल-गलीहै मुरली सुर लीन ॥

(घ) मुरली सुनत भई सब बौरी मनहूं परि सिर मांझ ठगौरी। 

जो जैसे सो तैसे दौरी । तन व्याकुल भई बिबस किसोरी ॥ 


सुनहु हरि मुरली मधुर बजाई शब्दार्थ अर्थ व्याख्या

सुनहु हरि मुरली मधुर बजाई । 

मोहे सुर-नर-नाग निरन्तरब्रज-बनिता उठि धाई ॥ 

जमुना- नीर-प्रवाह थकित भयोपवन रह्यो मुरझाई । 

खग मृग-मीन अधीन भये सबअपनी गति बिसराई ॥ 

द्रुमबेलि अनुराग पुलक तनुससि थक्यो निसि न घटाई । 

सूर-स्याम वृन्दावन विहरतचलहु सखि सुधि पाई ॥ 

शब्दार्थ - 

मोहे = मोहित हुए

नाग = एक जाति 

बनिता = स्त्रियाँ 

धाई = दौड़ पड़ीं 

खग = पक्षी 

मीन = मछली 

बिसराई = छोड़कर 

द्रुम = वृक्ष 

अनुराग = प्रेम

विहरत = विचरण करते हैं।

 

प्रसंग- 

वृन्दावन में विचरण करने वाले श्रीकृष्ण के वंशी वादन का प्रभाव सर्वव्यापी है। उसी से आकर्षित प्रभावित होकर कोई ब्रज- रमणी अपनी सखी से कहती है

 

व्याख्या - 

(अरी सखी!) सुनो। कृष्ण ने मधुर (स्वर उत्पन्न करने वाली) वंशी बजाई हैं जिसको सुनकर देवतामनुष्य और नाग (जो क्रमशः स्वर्गमृत्यु और पाताल लोक में रहते हैं) निरन्तर मोहित हो गये हैं तथा ब्रज की स्त्रियाँ ( गोपियाँ) तो ( जिस अवस्था में बैठी थींउसी अवस्था में) उठकर दौड़ पड़ीं। (वंशी की ध्वनि से मोहित होकर ही मानो) यमुना नदी का जल प्रवाह थम गया तथा वायु ने भी संचरण बन्द कर दिया है। (आकाश में रहने वाले) पक्षी, (भूमि पर रहने वाले) हिरण तथा (जल में रहने वाली) मछलियाँ सभी इस (वंशी-वादन के आकर्षण) के वश में हो गये हैं तथा अपनी स्वाभाविक गति (उड़नादौड़ना और तैरना) को भी भूल गये हैं। (वायु के मंद झोंकों में हिलते डुलते हुए) वृक्ष और बेल (रूपी नायक-नायिका) के शरीर प्रेम-भाव के प्रसरण से पुलकित हो उठे हैं। (चन्द्रमा के रथ में जुते हुए मृग मोहित होकर आगे नहीं बढ़तेफलतः रथ भी नहीं बढ़ता। परिणामतः रात्रि भी नहीं घटती मानो वंशी ध्वनि से आकर्षित मोहित होकर) चन्द्रमा थम गया है और उसने रात्रि को भी नहीं घटाया सूर के श्याम (कृष्ण) वृन्दावन में बिहार कर रहे हैं। हे सखी! चलो वही सुधि प्राप्त करेंगे।

 

विशेष - 

1. प्रस्तुत पद में नायिका (गोपी और वास्तव में कवि ) का वाक्-कौशल एकदम मनोविज्ञान-क्रम में अंकित है। वंशी-वादन का त्रैलोक्य प्राणियोंपशु-पक्षियोंजड़-चेतन आदि पर पड़ा प्रभाव अतिशयोक्तिपरक होने पर भी नायिका की मनोदशा का सच्चा परिचायक है। 

2. यहाँ पर नायिका की गुणकथनउत्कंठापरोक्षतः मनोच्छा प्रकटीकरण तथा प्रेमोद्दीपक अवस्था आदि विशेष दृष्टव्य हैं। 

3. अलंकार - (क) अनुप्रास - नर निरन्तरव्रज-बनितावृन्दावन विहरत। (ख) अतिशयोक्ति- जमुना.....घटाइ (ग) रूपक-अनुराग पुलक तनु । 

4. भावसाम्य 

(क) जैसी हुति उठि तैसिय दौरिछाँड़ि सकल गृह-काम 

(ख) "जब हरि मुरली अधर धरत । 

थिर चर चर थिर पवन थकित रहेंजमुना जल न बहत । 

खग मोहेमृग-जूथ भुलाहींनिरखि मदन छवि रहत।" 

(ग) गहे बीन मकु रैन बिहाई। ससि बहन तह रहे ओनाई ॥ 

(घ) किती न गोकुल कुलवधूकाहि न किन सिख दीन ।

कौं न तजी न कुल गलीहै मुरली सुर लीन ॥

 

मानो माई घन घन अंतर दामिनी   शब्दार्थ अर्थ व्याख्या

 

मानो माई घन घन अंतर दामिनी । 

घन दामिनी दामिनी घन अंतरसोभित हरि-ब्रज भामिनि ॥ 

जमुन पुलित मल्लिका मनोहरसरद सुहाई जामिनि । 

सुन्दर ससि गुन रूप-राग-निधिअंग-अंग अभिरामिनि ॥ 

रच्यौ रास मिलि रसिक राइ सौंमुदित भई गुन-ग्रामिनि ।

रूपनिधानस्यामसुन्दर घनआनंद मन बिस्त्रामिनि ॥ 

खंजन - मीन- मयूर - हंस-पिकभाइ-भेद गजगामिनि । 

को गति गनै सूर-मोहन संगकाम बिमोह्यो कामिनि ॥

 

शब्दार्थ - 

घन = घने । 

घन = मेघ 

दामिनि = आकाश-विद्युत । 

भामिनि = स्त्रियाँगोपियाँ 

पुलिन = तट 

मल्लिका = एक बेल 

जामिनि = यामिनीरात्रि

 राग = प्रेम 

अभिरामिनि = शोभा 

राइ = भुला कर गनै-गिने । 

बिमोह्यो = मोहित किया।

 

प्रसंग - 

शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र के मादक चन्द्रिकामय वातावरण में श्रीकृष्ण ब्रज रमणियों के साथ रास लीला कर रहे हैं। उसी का परिचय देते हुए कोई ब्रज- रमणी अपनी अंतरंग सखी से कहती है

 

व्याख्या - 

(श्रीकृष्ण और गोपियों द्वारा की गयी रास लीला को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि) मानो घने मेघ (वर्णीय कृष्ण के आलिंगन रूपी हृदय) में ( गौरवर्णीय सजी-धजी गोपी रूपी) आकाश-विद्युत हो। इस समय मेघ में विद्युत है और विद्युत में मेघ (अर्थात् श्यामवर्णीय कृष्ण और गौरवर्णीय गोपियाँ परस्पर नृत्य करते हुए एक-दूसरे से लिपटे हुए प्रतीत होते हैं)। इसी रूप में श्रीकृष्ण और ब्रज की स्त्रियाँ (गोपियाँ) सुशोभित हो रही हैं। (यमुना तट पर ) मल्लिका की सुगंधित लताएँ मनोरम प्रतीत होती हैं तथा शरद (कालीन पूर्ण चन्द्रिका वाली) रात्रि सुशोभित हुई लगती है। ऐसे में सुन्दर चन्द्रमा के समान गुणरूप प्रेम की खान (गोपियों के एक-एक अंग-प्रत्यंग) की शोभा सुन्दर लगती है। आज उन गोपियों ने रसिक-शिरोमणि (श्रीकृष्ण) के साथ मिलकर रास रचा है। इसी से वे गुणवती ग्रामीण स्त्रियाँ अत्यधिक प्रसन्न हैं। मेघवर्णीय श्रीकृष्ण रूपनिधान हैं तथा मन को आनन्द और विश्राम देने वाले (प्रतीत होते) हैं। खंजनमछलीमोरहंस तथा कोयल आदि के (परम्परागत उपमानों के) भेद-भाव को त्याग गोपियाँ मस्तानी चाल में गजगामिनी की भाँति मंथर गति से चल रही हैं। सूर के मोहन कृष्ण के साथ इनकी ( प्रेममय संबंधी) गति-विधियों को कौन गिन (जान) सकता है। सच में तोआज इन रमणियों को काम (रूपी कृष्ण) ने विमोहित कर दिया है।

 

विशेष -

 1. सूर द्वारा ग्राह्य पुष्टिमार्ग में रास का धार्मिक-आध्यात्मिक महत्त्व माना गया हैयहाँ पर उसी का काव्यात्मक चित्रण है। 

2. प्रारंभिक पंक्तियों में रास नृत्य के अन्तर्गत गत्यात्मक मुद्रा-चित्रण किया गया है जो कवि-कुशलता का परिचायक है। 

3. 'जमुन.....जामिनि में प्रकृति का सुन्दर उद्दीपक रूप में अंकन है। 

4. रूप...... बिस्त्रामिनिमें संयोग शृंगारान्तर्गत गुणकथन की अवस्था है।

5. 'स्यामसुन्दर और कामिनिका सटीक सार्थक प्रयोग कवि की समुचित शब्द-प्रयोग कला का परिचायक है। 

6. अलंकार - (क) उत्प्रेक्षा - मानौ .... दामिनि । (ख) पुनरुक्ति ( यमक).....घन-घनदामिनि दामिनिअंग-अंग । (ग) तद्गुण - घन... ब्रजभामिनि । (घ) अनुप्रास - रच्यौ ... राई सौं । (ङ) अतिशयोक्ति को गति..... संग।

 

7. भावसाम्य

 कंठ-कंठभुज-भुज दोउ जोरे। 

घन-दामिनि छूटत नहिं छोरे ||


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