सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -02 | Sursagar Ka Saar ( Gokul Leela) Explanation in Hindi

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सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -02

सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -02 | Sursagar Ka Saar ( Gokul Leela) Explanation in Hindi



सूरसागर का सार ( गोकुल लीला ) का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या भाग -02


कहाँ लौं बरनौं सुन्दरताई ? शब्दार्थ अर्थ व्याख्या


कहाँ लौं बरनौं सुन्दरताई ? 

खेलत कुँवर कनक आँगन मैं नैन निरखि छवि पाई ॥

कुलही लसति सिर स्यामसुन्दर कैबहुविधि सुरंग बनाई । 

मानौ नव घन ऊपर राजत मधवा धनुष चढ़ाई || 

अति सुदेस मृदु हरत चिकुर मन मोहन मुख बगराई ।

 मानौ प्रकट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई || 

नील सेतु अरु पीतलाल मनि लटकन भाल रुलाई ।

 सनिगुरु-असुरदेवगुरु मिलि मनौ भीम सहित समुदाई ॥ 

दूध-दंत-दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई। 

किलकत हँसत दुरति प्रगटति मनु घन मैं बिज्जु छटाई ||

खंडित बचन देत पूरन सुख अलप जलप जलपाई । 

छुटुरुनि चलत रेनु-तन मंडितसूरदास बलि जाई ॥

 

शब्दार्थ- 

बरनौं = वर्णन करूँ। कनक =  स्वर्ण,  कुलही = टोपी। लसति = शोभित। सुरंग = रंग-बिरंगी । मधवा धनुष = इन्द्र धनुष,  चिकुर = केश बगराई = फैले हुए , कंज = कमल , अलि-अवली = भ्रमरों की पंक्तियाँ। सेत = श्वेत। रुलाई = सुन्दर। गुरु-असुर = असुरों के गुरुशुक्राचार्य देवगुरु = बृहस्पति । भौम =मंगल,  समुदाई = समुदाय, दुरति = छिपती। जलपाई = बोलना। 

 

व्याख्या-

(सूरदास जी कहते है) "श्री कृष्ण की सुन्दरता का कहाँ तक वर्णन करूँ वे (बालक कृष्ण) स्वर्णिम आँगन में खेल रहे हैं। उन्हें देखकर नेत्रों में अद्भुत शोभा छा जाती है। कृष्ण के सिर पर छोटी-छोटी सीअनेक सुन्दर रंगों की बनी हुईपगड़ी शोभायमान है। ऐसा लगता है मानो सुन्दर बादलों के ऊपर इन्द्रधनुष छा गया हो। कृष्ण के सुन्दर मुख पर इधर-उधर फैले हुए कोमल बाल ऐसे शोभायमान हैं मानो कमल के चारों ओर सुन्दर भ्रमरों की पंक्तियाँ फैली हुई हों। कृष्ण के शरीर का वर्ण नीला है। मुख कमल जैसा श्वेत वर्ण का है। उनके वस्त्र पीले रंग के हैं। उनकी लाल मणियों की मालाझूलती हुई अत्यन्त सुन्दर लग रही है। ऐसा प्रतीत होता है मानो शनि (नीला)शुक्र (पीला)बृहस्पति (श्वेत) और मंगल (लाल) एक ही स्थान पर मिल गये हों। उनके दूधिया दाँतों की चमक का वर्णन नहीं किया जा सकता। उनकी उपमा एक ही चीज से दी जा सकती है। जब कृष्ण किलकारी मारकर हँसते हैं तो दाँत कभी छिपते हैं कभी दिखाई देने लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो बादलों में बिजली-छिपी हुई हो। कृष्ण के अधूरे वचन आनन्द देते हैं जो फल को थोड़ा-थोड़ा खाने में आता है। घुटनों से चलने वालेधूल से जिसका शरीर युक्त हैमैं उस कृष्ण पर बलिहारी जाता हूँ।"

 

विशेष - 

1. अलंकार - (क) अतिशयोक्ति - कहाँ लौ.... सुन्दरताई। (ख) उत्प्रेक्षा - कुलही...... चढ़ाईअति....... आईनील.....समुदाईदूध......छटाई । (ग) यथासंख्य - कुलही..... जलपाई । (घ) अनुप्रास - दूध दुतिसिर... सुन्दर कैअलि......अवली ।

2. यहाँ पर बालकृष्ण के बाह्य सौन्दर्य का सर्वांग (नख - शिख) चित्रण है।

3. 'कुलहीका प्रयोग तत्कालीन (कवि-युगीन) मुस्लिम समाज का प्रभाव है। 

4. भाषा की दृष्टि से 'कुलही' (फारसी)बगराई जलपाईअलप - जलप आदि (देशज शब्दावली ) तथा कनकमघवाकंजमंजुलअलि-अवली आदि तत्सम-परक संस्कृत शब्दावली के परिचायक हैं। 

5. उपमान-योजना की झड़ी कवि के सटीक काव्यशास्त्रीय ज्ञान परिचायक है। 

6. भावसाम्य 

(क) भाल बिसाल ललित लटकन वरबालदसा के चिकुर सुहाए। 

मनु दोउ गुर सनि कुज आगे करि ससिहि मिलन तम के गन आए । -तुलसी गीतावली


7. 'सनि...... समुदाईकाव्यांश कवि के ज्योतिष ज्ञान का परिचायक है। साथ हीचारों वर्णों का समुचित रूप मंगलकारी माने जाने से कवि कृष्ण के प्रति मंगलकामना भी प्रकट कर देता है। 


हरिजू की बाल- छवि कहौं बरनी का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या

हरिजू की बाल- छवि कहौं बरनी । 

सकल सुख की सींवकोटि मनोज शोभा हरनि ॥ 

भुज भुजंग सरोज-नैननिबएन बिधु लरनि । 

रहे बिवरनिसलिलनभउपमा अपर दुरि डरनि ॥

 मंजु मेचक मृदुल तनु अनुहरत भूषन भरनि । 

मनहु सुभग सिगार - सिसु-तरुफर्यो अद्भुत फरनि ॥ 

चलत पद प्रतिबिम्ब मनि आँगन घुटरुवनि करनि । 

जलज संपुट सुभ- छवि भरि लेति उर जनु धरनि ॥ 

पुन्यफल अनुभवति लुतहिं विलोकि के नंद घरनि । 

सूर प्रभु की उर बसी किलकनि ललित लरखरनि ॥

 

शब्दार्थ- 

बरनी = वर्णन करना, सींव = सीमा,  मनोज =मन्मथकाम देव,  भुजंग = सर्प, सरोज =कमल । बदन = मुख, विधु =चन्द्रमा,  लरनि= लड़कर युद्ध में,  बिवरनि = वर्ण रहित बिल, सलिल = जल, अपर = दूसरी,  दुरि = छिप गयीं। मेजक = केश। अनुहरत = शोभित। फरनि = फल, संपुट = दोना, उर = हृदय, धरनि =  पृथ्वी। घरनि = पत्नी,  किलकनि = किलकारी,  लरखरनि = लड़खड़ाहट ।

 

व्याख्या- 

मैं श्रीकृष्ण की बाल छवि का वर्णन करता हूँ जो समस्त सुखों की सीमा तथा करोड़ों कामदेवों (के सौन्दर्य) की शोभा का हरण करने वाली हैं। (सौन्दर्य-समानता के) युद्ध में (श्रीकृष्ण की) भुजाओं ने सर्प कोनेत्रों ने कमलों को और मुख ने चन्द्रमा को जीत लिया (अर्थात् श्रीकृष्ण के ये अंग अन्य उपमानों से भी अधिक सुन्दर हैं।) इसी से लज्जित होकर ये सभी उपमान क्रमशः बिलजल और आकाश में जाकर (और मुँह छिपाकर ) रहने लगे। (इसी भांति अन्य अंग-प्रत्यंगों के) विविध दूसरे उपमान भी डरकर ( पहले से ही) छिप गये (ताकि कम से कम परास्त होने और लज्जित होने से तो बच सकें) उनके केश सुन्दर हैं तथा शरीर कोमल जो नाना आभूषणों से सुसज्जित होकर ऐसा लगता है मानो सुन्दर हारसिंगार के छोटे से वृक्ष (रूपी बालकृष्ण के शरीर पर ) अद्भुत फल (रूपी आभूषण) फले हों। मणियों से निर्मित (या सुसज्जित) आंगन में घुटनों के बल चलते समय (कृष्ण के चरणों का ( मणियों में पड़ता हुआ) प्रतिबिम्ब ऐसा प्रतीत होता है मानो पृथ्वी कमल दोने की सुन्दर छवि (प्रतिबिम्ब) को ( प्रसन्न होकर ) हृदय से भर रही हो (धारण कर रही हो ) । नंद की पत्नी यशोदा ऐसे सुन्दर पुत्र (कृष्ण) को देखकर अपने (पूर्वसंचित) पुण्य कर्मों का अनुभव करती हैं। उनके हृदय में (सूर के) प्रभु कृष्ण की किलकारी तथा ( चलने के समय की ) लड़खड़ाहट बस गयी है।

 

विशेष - 

1. वात्सल्य -चित्रण का एक सबल अंग होता है शिशु के अंग-प्रत्यंगों और क्रीड़ाओं का अंकन करना। यह पद इसी का प्रमाण है। 

2. कवि के भाव चित्रण की दृष्टि से यह पद महत्त्वपूर्ण हैक्योंकि इसमें कवि की सूक्ष्म और स्वाभाविक चित्रण की भाव-विषयक विशेषता एकदम परिपक्व रूप में मिलती है। 

3. कवि की अद्भुत उपमान-योजना सबल तो हैं हीनवीन भी है। 

4. अलंकार - (क) अनुप्रास - सकल-सींवमंजु मृदुल (ख) अतिशयोक्ति-सकल.....हरनि । (ग) प्रतीप भुज....डरनि। (घ) उत्प्रेक्षा- मनहु... फरनिचलन... धरनि। 5. 'लरखरनिदेशज शब्दावली प्रयोग का उदाहरण है। 

6. भावसाम्य- 'रघुवर बाल छवि कहौ बरनी। पूरा पद तुलसी : गीतावली

 

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या


किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत। 

मनिमय कनक नंद के आँगनबिम्ब पकरिबै धावत ॥ 

कबहुं निरखि आपु हरि छाँह कौंकर सों पकरन चाहत ।

किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँपुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥ 

कनक भूमि पर कर पग-छायायह उपमा इक राजति । 

करि करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा कमल-बैठकी साजति ॥ 

बाल-दसा सुख निरखि जसोदापुनि-पुनि नंद बुलावति । 

अंधरा तर ले ढाँकिसूर के प्रभु को दूध पियावति ॥ 

 

शब्दार्थ - 

घुटुरुवनि = घुटनों के बल, कनक = स्वर्ण,  बिंब= परछाई,  कर = हाथ,  अवगाहत = करते हैं। बसुधा = पृथ्वी। 

प्रसंग - 

बाल कृष्ण अपने आंगन में घुटनों के बल चलते हुए नाना बाल-सुलभ क्रीड़ाएँ कर रहे थे। उनको देख शोभित , माता यशोदा का हृदय वात्सल्य भाव से भर उठा।

 

व्याख्या -

 (बालसुलभ प्रसन्नता में भर कर ) किलकारी मारते हुए बालक कृष्ण (भवन के आँगन में) घुटनों के बल ( चलते हुए) आ रहे हैं। नंद के भवन का आँगन मणियों और सोने से युक्त है जिसमें (प्रतिबिम्बित होती हुई ) अपनी परछाई को पकड़ने के लिये कृष्ण (घुटनों के बल तेजी से चलते हुए मानो) दौड़ रहे हैं। कभी कृष्ण अपनी छाया को देख हाथ से पकड़ना चाहते हैं (और पकड़ लेने की भ्रांतिजन्य प्रसन्नता में भरकर किलकारी मारकर हँसते समय उनके आगे के) दूध के दो दाँत दीख जाते हैं और बारम्बार वही क्रिया दोहराते हैं। आँगन की स्वर्ण-भूमि पर ( चलते समय पड़ने वाली) हाथ-पैरों की परछाई को देखकर यही एक उपमा ठीक प्रतीत होती है कि (पग-पग पर पड़ने वाली हाथ-पैरों की छाया रूपी) मणियों से पग-पग पृथ्वी अपनी कमल-बैठक को सजा रही है। बालकृष्ण की इस सुखद अवस्था को देख यशोदा (उत्साह और ममत्व से भरकर कृष्ण -क्रीड़ा दिखाने के लिये) बारम्बार नंद को बुलाती हैं और ( अतिशय ममत्व में भर भावी आशंका से डर ) आँचल से ढक सूर के प्रभु कृष्ण को दुग्धपान कराने लगती हैं।

 

विशेष - 

1. प्रस्तुत पद के पूर्वार्द्ध में बालकृष्ण के माध्यम से बाल मनोवृत्ति का एवम् उत्तरार्द्ध में यशोदा के माध्यम से मातृ-हृदय के वात्सल्य भाव का एकदम मनोविज्ञान सम्मत और स्वाभाविक अंकन किया गया है। 

2. कबहुँ. ..... अवगाहतकाव्यांश कवि की सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता का द्योतक है और कवि के जन्मान्ध होने की मान्यता पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा देता है। कारण यह है कि इस प्रकार के सूक्ष्म-स्वाभाविक चित्रण बिना देखे भोगे करना प्रायः संभव नहीं है। 

3. 'अंचरा... ढाकिअंश यशोदा के साधारण ग्राम्य मातृत्व का सबल परिचायक है और एकदम स्वाभाविक बन पड़ा है।

 4. 'कनक साजतिअंश में एकदम नवीन उपमान-योजना प्रस्तुत की गयी है। 

5. अलंकार - (अ) अनुप्रास-किलकत कान्ह। (ख) पुनरुक्ति - पुनि-पुनि । (ग) उपमा-कनक साजति । (घ) तद्गुण-कनक. ..... साजति 

6. भावसाम्य- रघुवर बाल छवि कहौं बरनि ।.

 

लसत कर प्रतिबिम्ब मनि-आँगन का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या


लसत कर प्रतिबिम्ब मनि-आँगन घुटुरुवनि चरनि 

जनु जलज-संपुट सुछवि भरि भरि धरति उर धरनि ॥ 

सखि रीनंद-नंदन देख पूरि-धूसर जटा जुटलीहरि किए हर-भेषु ॥ 

नील पाट रिपोई मनि-गनफनिग धोखै जाइ 

खुनखुनाकर हँसत हरिहर नचत डमरू बजाइ ॥ 

जलज-माल गुपाल पहिरेकहा कहाँ बनाइ । 

मुंडमाल मनौ हर-गलऐसी सोभा पाई ॥ 

स्वाति सुत माला बिराजत स्याम तन इतिं माइ । 

मनो गंगा गौरि उर हर लइ कंठ लगाइ ॥ 

केहरी- नख निरखि हिरदेरही नारि बिचारि 

बाल-ससि मनु भाल तैं लै उर धरूय त्रिपुरारि ॥ 

देखि अंग - अनंग झझक्यौनंद-सुर हर जान । 

सूर के हिरदै बसौ नित स्याम-सिव को ध्यान ॥

 

शब्दार्थ - 

धूसर = युक्त । हर = शिव, पाट= माला ,फनिग= सर्प , खुनखुन =  खिलखिला । स्वातिसुत = मोती। भाल = माथा । उर = हृदय, त्रिपुरारि = त्रिपुर के शत्रु शिव,  अनंग = कामदेव । सुत = पुत्र । 

प्रसंग - 

बालकृष्ण के शिव वेषी सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कोई ब्रज-रमणी अपनी सखी से कहती है . 

 

व्याख्या

अरी सखी! नंद के पुत्र को देखो। कृष्ण (हरि) की जटायें धूल धूसरित होकर ऐसी लग रही हैं जैसे उन्होंने शिव का वेश धारण कर लिया हो। उनके नीले शरीर पर मणियों की माला को देखकर सर्प भी धोखे में आ जाते हैं कि कहीं ये शंकर तो नहीं हैं जो खिलखिलाकर हँसते और नाचते हुए डमरू बजाते हैं। कृष्ण ने गले में कमलों की माला पहन रखी है। उसका क्या वर्णन करूँयह माला ऐसी शोभित हो रही है मानो शिव के गले में मुंडों की माला हो। मोतियों की माला श्रीकृष्ण के शरीर पर ऐसी शोभित हो रही है मानो पार्वती के उर से शिव ने गंगा को अपने हृदय से लगा लिया हो । छाती पर सुशोभित सिंह-नख को देखकर नारियाँ यह विचार करती हैं मानों शिवजी ने बाल चन्द्रमा को मस्तक से उतार करहृदय पर धारण कर लिया हो। श्रीकृष्ण के अंगों को शिव रूप समझ कर कामदेव भी घबरा गया। (सूरदास कहते हैं कि) “शिव रूपी श्रीकृष्ण का यह ध्यान सदैव मेरे हृदय में बसा रहे।"

 

विशेष - 

1. अलंकार - (क) अनुप्रास नद-नदंनधूरि-धूसरहँसत हरअंग-अनंग (ख) भ्रम- नीलजाइ । (ग) अतिशयोक्ति - जलज.....बनाइ । (घ) उत्प्रेक्षा मुंड....पाइस्वाति.....लगाइकेहरि त्रिपुरारिबाल जान। 

2. यहाँ पर कवि ने देशज शब्दों का एकदम मर्मस्पर्शी और रसात्मक प्रयोग किया है ( यथा धूरि-धूसरखुनखुनाझझक्यो आदि)। 

3. अंतिम पंक्ति में कवि की अनन्य भक्ति भावना प्रस्फुटित होती है।

4. दार्शनिक दृष्टि से यहाँ पर शैववाद और वैष्णववाद का समन्वय है जो कवि की समन्वयवादी उदार विचार दृष्टि का भी परिचायक है।

 

देखी माई! दधिसुत मैं दधि जात का शब्दार्थ अर्थ व्याख्या

देखी माई! दधिसुत मैं दधि जात । 

एक अचंभौ देखि सखि री रिपु मैं रिपु जु समात ॥ 

दधि पर कीरकीर पर पंकजपंकज के द्वै पात । 

यह शोभा देखत पसुपालकफूलै अंग न समात ॥ 

बारंबार बिलोकि सोचि चितनंद महर मुसुक्यात ।

 यह ध्यान मन आनि स्याम कौसूरदास बलि जात ॥

 

शब्दार्थ - 

दधिसुत = समुद्र का पुत्रचन्द्रमा (मुख)

दधि = समुद्रदही।

 रिपु = शत्रु (चन्द्रमा और कमल-हाथ)। 

कीर = तोता (नाक)। 

पंकज = कमल (नेत्र) । 

पात = पत्ते ( पलकें)।

बिलोकि = देखकर 

महर = पत्नी ( यशोदा)। 

बलि = न्यौछावरबलिहारी ।

 

प्रसंग-

कोई ब्रज़-रमणी (अथवा यशोदा) बालक कृष्ण को दही खाते हुए देखती है और वात्सल्य के साथ-साथ आश्चर्य-भाव से अभिभूत हो अपनी किसी अंतरंग सखी (अथवा यशोदा) से कहती है . 

व्याख्या-

अरी माई! देखो। चन्द्रमा में समुद्र प्रवेश कर रहा है (अर्थात् समुद्र के पुत्र चन्द्रमा जैसे कृष्ण मुख से दही खा रहे हैं)। अरी सखी! मैंने एक आश्चर्य देखा है कि शत्रु शत्रु से मिल रहा है (अर्थात् चन्द्रमा और कमल मूलतः शत्रु हैं क्योंकि चन्द्रोदय होने पर कमल मुरझा जाता है लेकिन यहाँ चन्द्रमुख से कमल हस्त मिला रहा है ) (इतना ही नहीं वरन्) समुद्र पर तोता बैठा हुआ है (जबकि साधारणतः तोता जल पर नहींकमल पर बैठ सकता है)तोते पर कमल और कमल पर केवल दो पत्ते हैं (अर्थात् कृष्ण का मुख शोभा का सागर है जिसके ऊपर नाक रूपी तोता है और उसके ऊपर कमल जैसे नेत्र तथा नेत्रों पर केवल दो पत्ते रूपी पलकें हैं)। (कृष्ण की इस (अद्भुत) शोभा को देखकर पशुओं का पालन करने वाले ब्रज के निवासी जन (अथवा शिव भी) प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं मानों उनका एक-एक अंग प्रसन्नता की अतिशयता से भरकर फूला नहीं समाता। इस कृष्ण सौन्दर्य को बारम्बार देखकर नंद की पत्नी यशोदा मन में सोच-सोच ( और प्रसन्न होकर) मुस्कराने लगती हैं। श्याम के इस रूप ध्यान के मन में आने पर (कवि अथवा यशोदा) बलिहारी जाते हैं।

 

विशेष - 

1. यह पद कवि के कूटकाव्य का परिचायक है। 

2. पद-पूर्वार्द्ध में शाब्दिक चमत्कार का प्रदर्शन किया गया है। 

3. कवि का पांडित्य और उक्ति कौशल एकदम सजीव बन पड़ा है। 

4. यहाँ पर आश्चर्यउत्कंठा और वात्सल्यपरक मोहादि भावों का रसमय अंकन किया गया मिलता है। 

5. अलंकार- (क) यमक - दधि-दधिरिपु-रिपु कोरपंकज । (ख) रूपकातिशयोक्ति - एक समात। (ग) विरोधाभास - दधि पात। (घ) श्लेष - पशुपालक 

6. माई! लोक प्रचलित आश्चर्यसूचक सम्बोधन है और यहाँ पर एकदम सटीक

7. 'फूलै..... समातएक सुन्दर मुहावरा प्रयोग है। 

8. अंतिम पंक्ति में कवि की अनन्य भक्तिभावना का प्रकटीकरण है।

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