आचार्य शुक्ल का वीरगाथा काल |Heroic period of Acharya Shukla

Admin
0

आचार्य शुक्ल का वीरगाथा काल

आचार्य शुक्ल का वीरगाथा काल |Heroic period of Acharya Shukla



आचार्य शुक्ल का वीरगाथा काल

➽ आचार्य शुक्ल के इस वीरगाथा काल नामकरण पर उनके निजी असंतोष का आभास इनकी निम्न पंक्तियों में मिल जाता है- “इसी संक्षिप्त सामग्री को लेकर जो थोड़ा-बहुत विचार हो सकता है उसी पर हमें संतोष करना पड़ता है।" वस्तुतः इस संदिग्ध सामग्री के आधार पर किया गया विवेचन कई जगह असंगत एवं दोषपूर्ण बन गया हैजिस पर अर्वाचीन शोध कार्य से प्राप्त नवीन तथ्यों के प्रकाश में पुनर्विचार करने की महती आवश्यकता है।

 

➽  आचार्य शुक्ल ने वीरगाथाओं का परिचय देते हुए कहा है कि इस काल के अधिकांश कवि चारण थे। संभव हैडॉ. रामकुमार वर्मा ने वीरगाथा काल को इसी आधार पर चारणकाल कहा। पर उनकी यह धारणा संगत नहीं कही जा सकती। इस विषय में डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त के विचार अवलोकनीय हैं। " पर आश्चर्य की बात यह है कि स्वयं डॉ. वर्मा के इतिहास के नवीनतम संस्करण तक में इस काल की सीमाओं के अंतर्गत लिखी गई एक भी प्रामाणिक चारण कृति का उल्लेख नहीं है और साथ ही सं. 1715 तथा 1895 तक की रचनाओं को भी इस काल में सम्मिलित कर लिया गया है जबकि वह उसकी उच्चतम सीमा सं. 1375 ही स्वीकार करते हैं। यदि इन्हीं चारणों को साहित्य में विशेषता देनी ही थी तो चारणकाल के स्थान पर चारण काव्य शीर्षक दे देते तो भी ये असंगतियाँ नहीं आतीं।" अर्वाचीन अनुसंधानों से उपलब्ध आदिकाल की साहित्यिक सामग्री के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि तत्कालीन साहित्य में चारण प्रवृत्ति आंशिक रूप से भले ही होकिंतु उसकी प्रमुखता नहीं है जिसके आधार पर इस युग के साहित्य का नामकरण किया जा सके। हमारा विवेच्य काल अनेक साहित्यिक प्रवृत्तियों के संक्रमण का युग है जिनका उल्लेख हम डॉ. हजारीप्रसाद के शब्दों में ऊपर कर चुके हैं।

 

➽  महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने प्रस्तुत काल को 'सिद्ध सामन्त युगके नाम से अभिहित किया है और उन्होंने उसकी पूर्वापर सीमाएँ 8वीं सदी से 13वीं तक निर्धारित की है। उन्हें इस काल के साहित्य में दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर हुई हैं- सिद्धों की वाणी और सामंतों की स्तुति । सिद्धों की वाणी के अंतर्गत बौद्ध तथा नाथ सिद्धों की तथा जैन मुनियों की रूक्ष एवं उपदेशमूलक और हठयोग महिमा एवं क्रिया का विस्तार से प्रचार करने वाली रहस्यमूल रचनाएँ आती हैं। इसके अंतर्गत धार्मिक और आध्यात्मिक भाव - धारा से स्पंदित कुछ उत्कृष्ट जैन मतावलंबी कवियों की रचनाएँ नहीं आतीं। राहुल जी की सामन्तों की स्तुति नामक प्रवृत्ति में चारण कवियों के चरित काव्य आते हैंजिनमें कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का यशोगान किया है। इन काव्यों में युद्धविवाह आदि का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। राहुल जी के इस नामकरण से लौकिक रस से अनुप्राणित अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचनाओं का कुछ भी आभास नहीं मिलता है। इस नामकरण से विवेच्य काल के साहित्य की समूची प्रवृत्तियों का भी बोध नहीं हो सकता। संदेशरासकविद्यापति की पदावलीपउम चरिउ (रामायण) इत्यादि अनेक रचनाएँ जिनकी प्रवृत्तियों का परवर्ती साहित्य में विकास हुआउपेक्षित रह जाती हैं। सांकृत्यायन जी का यह नामकरण भाषाशास्त्रीय दृष्टि से भी असंगत है। उस काल को अपभ्रंश भाषा का पूर्ण यौवन काल कहा जा सकता है। इसमें हिंदी का कोई निश्चित रूप नहीं मिलता है। राहुल जी ने पुरानी हिंदी और अपभ्रंश को एक ही कह दिया है जो कि भ्रांति के सिवा और कुछ नहीं। राहुल जी अपनी पुस्तक 'हिंदी काव्यधारामें एक स्थान पर लिखते हैं- " जब हम पुराने कवियों की भाषा को हिंदी कहते हैं तो उस पर मराठीउड़ियाबंगलाआसामीगोरखालीपंजाबीगुजराती भाषाभाषियों को आपत्ति हो सकती है। उन्हें भी उसे अपना कहने का उतना ही अधिकार है जितना हिंदी भाषाभाषियों को। वस्तुतः ये सारी आधुनिक भाषाएँ बारहवीं - तेरहवीं शताब्दी में अपभ्रंशों से अलग होती दिखती हैं। वस्तुतः इन सिद्ध सामन्त युगीन कवियों की रचनाएँ उपर्युक्त सारी भाषाओं की सम्मिलित निधि हैं। "

 

➽  राहुल जी के उक्त कथन में एक बड़ी आश्चर्यजनक असंगति है। एक ओर वे अपभ्रंश को सभी अन्य भाषाओं की सम्मिलित निधि बताते हैं जो दूसरी ओर हिंदी का एक ऐसा आधिपत्य स्वीकार करते हैं कि उसे पुरानी हिंदी तक कह डालते हैं। हिंदी प्रेम और भावुकता की दृष्टि से राहुल जी की पुरानी हिंदी संबंधी मान्यता एवं विश्वास भले ही ठीक हों परंतु भाषाशास्त्र की दृष्टि से इसे नितान्त असंगत ही कहना होगा।

 

  आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने प्रस्तुत काल को 'बीजवपन कालके नाम से अभिहित किया है परंतु यह नाम समीचीन दिखाई नहीं पड़ता । साहित्यिक प्रवृत्तियों की दृष्टि से इसे उक्त नाम से पुकारना असंगत है क्योंकि इस काल में प्रायः अपने पूर्ववर्ती साहित्य की सभी काव्य-रूढ़ियों और परंपराओं का सफलतापूर्वक निर्वाह हुआ है। साथ-साथ कुछ नवीन साहित्यिक प्रवृत्तियों का भी उद्भव हुआ है जो अपने समुचित विकास रूप में है। उस काल के साहित्य पर Literature infancy or infancy in literature की उक्ति लागू नहीं हो सकती। उस समय का कलाकार अत्यंत सजग और उबुद्ध था।

 

➽  इस दिशा में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रयास कुछ सफल कहा जा सकता है। उन्होंने प्रस्तुत काल के साहित्य को अंतर्विरोधों का साहित्य कहा है। उन्होंने किसी एक साहित्यिक प्रवृत्ति के आधार पर इस काल के नामकरण को अनुपयुक्त ठहराया है और अंततः घूम-फिरकर इस काल को आदिकाल के नाम से पुकारा है जो इसी रूप में मिश्रबंधुओं द्वारा पहले ही प्रतिपादित हो चुका थापर साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि " वस्तुतः हिंदी साहित्य का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावापन्नपरम्पराविनिमुक्त काव्यरूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परंपरा प्रेमीरूढ़िग्रस्तसजगसचेत कवियों का काल है ..... यदि पाठक इस धारणा से सावधान रहे तो यह नाम बुरा नहीं है।" आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि आदिकालनाम भी उस समूह के साहित्य के लिए सर्वथा निर्भ्रात एवं नितान्त उपयुक्त नहीं है। उनके 'बुरी नहीं हैशब्दों में अर्द्ध स्वीकृति ही ध्वनित होती है। उनके आदिकालके नाम के साथ पाठक या श्रोता को चेतावनी के रूप में अपने मस्तिष्क में सदैव एक लंबा-चौड़ा वाक्य "वस्तुत: बुरा नहीं है। " वहन करना पड़ेगा अन्यथा भ्रांति की संभावना ज्यों की त्यों बनी रहेगी। इससे तो 'हिंदी साहित्य का प्रारंभिक काल नामक शब्द उपयुक्त रहेगा जिससे किसी भ्रांत धारणा के फैलने की आशंका तो न होगी क्योंकि प्रत्येक प्रकार का साहित्य अपनी प्रारंभिक अवस्था में से गुजरकर आगे बढ़ा करता है। वस्तुतः सच तो यह है कि निरंतर कई वर्षों अथक परिश्रम के पश्चात् भी प्रस्तुत काल के नामकरण की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। इस संबंध में गहरी छानबीन और अनुसंधान कार्य की महती आवश्यकता है।

 

➽  प्रस्तुत काल के साहित्य की पूर्वापर सीमा को निर्धारित करने का प्रश्न भी कुछ कम विवादास्पद नहीं है। आचार्य शुक्ल ने इस काल का आरंभ सं. 1050 और अंत सं. 1375 है। शुक्ल जी की इस मान्यता का आधार कदाचित् उनका प्राकृताभासअपभ्रंश एवं देशी भाषा को हिंदी मान लेना है। शुक्ल के बाद के इतिहास लेखकों ने अत्यंत श्रद्धा के साथ अनुकरण किया है। उन्होंने भी देशी भाषा काव्य को हिंदी भाषा काव्य के रूप में ग्रहण करके इस काल की सीमाएँ निर्धारित की हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तो 8वीं सदी के अपभ्रंशों को पुरानी हिंदी कहकर अपने सिद्ध सामन्त युग का आरंभ इसी काल से मान लिया और इस काल की अपर सीमा 13वीं सदी मानी। राहुल जी को यदि यही अभीष्ट है तो 8वीं सदी से पूर्व की शताब्दियों में रचित अपभ्रंश काव्यों को भी उन्हें हिंदी साहित्य में सम्मिलित कर लेना चाहिए था। इसके साथ-साथ उन्हें अपने काल की अपर सीमा भी 16वीं सदी तक खींचकर ले जानी चाहिए थी क्योंकि उस समय तक अपभ्रंश में किसी-न-किसी रूप में ग्रंथों का प्रणयन होता ही रहा है। इस संबंध में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपेक्षित सतर्कता और दक्षता से काम लिया है। उन्होंने अपभ्रंश और हिंदी को भिन्न रूप में समझा है और इन दोनों भिन्न भाषाओं को एक मानने वाले विद्वानों को सावधान भी किया है। उनका कहना है कि "यह विचार (अपभ्रंशों को पुरानी हिंदी कहना) भाषाशास्त्रीय और वैज्ञानिक नहीं है।" द्विवेदी जी आगे चलकर कहते हैं, “जहाँ तक नाम का प्रश्न है गुलेरी जी का सुझाव पंडितों को मान्य नहीं हुआ है। अपभ्रंश को अब कोई पुरानी हिंदी नहीं कहता परंतु जहाँ तक परंपरा का प्रश्न है नि:संदेह हिंदी का परवर्ती साहित्य अपभ्रंश साहित्य से क्रमशः विकसित हुआ है।" आचार्य द्विवेदी ने हिंदी का विकास लगभग 13वीं शताब्दी में स्वीकार किया है। उनका कहना है कि "हेमचंद्र ने दो प्रकार की अपभ्रंश भाषाओं की चर्चा की है। दूसरी श्रेणी को हेमचंद्र ने ग्राम्य कहा है। वस्तुतः यह भाषा आगे चलकर आधुनिक देशी भाषाओं के रूप में विकसित हुई है।" द्विवेदी जी ने यहाँ आगे चलकर उस काल का परित्राण नहीं दिया है किंतु इसका तात्पर्य कम से कम एक शताब्दी भी लें तो हिंदी का विकास द्विवेदी जी की मान्यता के अनुसार हेमचंद्र (1088 से 1172 ई.) के एक सौ वर्ष बाद अर्थात लगभग 13वीं सदी ई. सिद्ध होता है। उपर्युक्त तथ्य का समर्थन अनेक प्रसिद्ध भाषाशास्त्रियों और विद्वानों द्वारा हो चुका है।

 

(क) सुनीति कुमार - "यह मालूम नहीं पड़ता कि यह हिंदी ठीक-ठीक कौन सी बोली थी परंतु संभव है कि यह ब्रजभाषा या पश्चात्कालीन हिंदुस्तानी के सदृश न होकर 13वीं सदी में प्रचलित सर्वसाधारण की साहित्यिक अपभ्रंश हो रही होक्योंकि 13वीं या 14वीं सदी ईस्वी तक हमें हिंदी या हिंदुस्तानी का दर्शन नहीं होता।  -भारतीय आर्य भाषा और हिंदीप्रथम सं.पृ. 190

 

(ख) राहुल सांकृत्यायन-वस्तुतः ये सारी आधुनिक भाषाएँ 12वीं 13वीं शताब्दी में अपभ्रंश से अलग होती दिख पड़ती है।" -हिंदी काव्यधारा पृ. 11-12


(ग) उदय नारायण तिवारी- “ आचार्य हेमचंद्र के पश्चात् 13वीं सदी के प्रारंभ में आधुनिक भारतीय भाषाओं के अभ्युदय के समय 15वीं सदी के पूर्व तक का काल संक्रांति काल थाजिसमें भारतीय आर्य भाषाएँ धीरे-धीरे अपभ्रंश की स्थिति को छोड़कर आधुनिक काल की विशेषताओं से युक्त होती जा रही थीं। " हिंदी भाषा का उद्भव और विकासपृ. 140-141 

 

(घ) नामवर सिंह - " यह देश भेद धीरे-धीरे इतना बढ़ा कि 13वीं शताब्दी तक जाते-जाते अपभ्रंश के सहारे ही पूर्व और पश्चिम के देशों ने अपनी-अपनी बोलियों का स्वतंत्र रूप प्रकट कर दिया। " हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगद्वि. सं.पृ. 54 


(ङ) बाबूराम सक्सेना" विद्यापति के समय में आधुनिक भाषाओं का हिंदीमैथिली आदि नाम अभी प्रचलित नहीं हुआ था। भाषाएँ अभी अपभ्रंश ही कहलाती थीं। नहीं तो विद्यापति एक ही वस्तु को देसिल बअना या अवहट्टा नहीं कहते।" आगे डॉ. सक्सेना ने कहा है- "कीर्तिलता के अपभ्रंश को मैथिली अपभ्रंश कहना उचित होगा। " कीर्तिलता विद्यापति कृत भूमिका डॉ. बाबूराम सक्सेनापृ. 19-20 


➽ उपर्युक्त मतों के अवलोकन के पश्चात हम सहज रूप से एक निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से हिंदी का विकास ग्राम्य या लौकिक अपभ्रंश से तेरहवीं शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। इस तथ्य का समर्थन एक और बात से भी हो जाता हैवह यह है कि संदेशरासक के कर्ता अब्दुर्रहमान (11वीं सदी) ने अपनी रचना में स्पष्ट रूप से कहा है कि वह एक ऐसी भाषा में रचना कर रहा है जो सर्व साधारण के लिए बोधगम्य हो। संदेशरासक की भाषा परिनिष्ठितः अपभ्रंशों की कोटि में आती है। यदि अपभ्रंशों से निकली हुई हिंदी आविर्भाव में आई होगी तो कम से कम एक-डेढ़ सदी के बाद ही । अतः आधुनिक आर्य भाषा हिंदी का अस्तित्व 13वीं सदी में स्वीकार करना नितान्त समीचीन प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में 1050 सं. में हिंदी का अस्तित्व और हिंदी साहित्य का विकास मानना सर्वथा भ्रांत है।

 

➽ एक और बात भी बड़ी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। वह यह है कि एक ओर तो आचार्य हजारीप्रसाद हिंदी को ग्राम्य अपभ्रंशों का विकसित रूप मानते हैं और भक्तिकाल के निरूपण के समय उसके साहित्य को वास्तविक हिंदी का साहित्य कहते हैं और दूसरी ओर वे हिंदी साहित्य का आरंभ 1050 से और आदिकाल की समाप्ति 1375 तक मान बैठते हैं। एक स्थान पर वे लिखते हैं, “ दसवीं सदी से चौदहवीं शताब्दी तक के समय में लोक भाषा में लिखित जो साहित्य उपलब्ध हुआ है उसमें परिनिष्ठित अपभ्रंश से कुछ आगे बढ़ी हुई भाषा रूप दिखाई देता है। दसवीं शताब्दी की भाषा के गद्य में तत्सम शब्दों का व्यवहार बढ़ने लगा था परंतु पद्य की भाषा में तद्भव शब्दों का ही एकछत्र राज्य था। चौदहवीं शताब्दी तक के साहित्य में इसी प्रवृत्ति की प्रधानता मिलती है। " आगे चलकर वे लिखते हैं-"दसवीं से चौदहवीं शताब्दी के उपलब्ध लोकभाषा साहित्य को अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न भाषा का साहित्य कहा जा सकता है। वस्तुतः वह हिंदी की आधुनिक बोलियों में से किसी-किसी के पूर्वरूप के रूप में ही उपलब्ध होता है। यही कारण है कि हिंदी साहित्य के इतिहास लेखक दसवीं सदी से ही इस साहित्य का आरंभ स्वीकार करते हैं। इसी समय से हिंदी भाषा का आदिकाल माना जा सकता है।" उक्त कथनों के अध्ययन के अनंतर यहाँ कुछ प्रासंगिक बातों का विचार कर लेना आवश्यक है। सबसे पहली बात तो यह है कि 10वीं या 11वीं शताब्दी की अपभ्रंश की किस रचना की पद्य की भाषा में तद्भव शब्दों का प्रयोग हुआ हैमेरे विचार में निश्चित रूप से किसी भी प्रामाणिक रचना की ओर संकेत नहीं किया जा सकता है। 

➽ दूसरी बात यह है कि प्रस्तुत काल (दसवींग्यारहवीं सदी) की किस अपभ्रंश रचना में तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है उदाहरणार्थ 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण का नाम लिया जा सकता है जिसमें ब्रह्मचारियों के परस्पर वार्तालाप की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। द्विवेदी जी स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि संस्कृत पढ़ने वाले छात्रों के लिए संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग स्वाभाविक ही है। उस समय के जनसाधारण के लिए लिखे गये किसी भी काव्य में भाषा की उक्त दोनों प्रवृत्तियों का दर्शन नहीं होता है और यदि किसी ग्रंथ में छिटपुट रूप से एक-दो शब्द उक्त दोनों प्रवृत्तियों के अनुरूप मिल ही जायें तो उससे किसी भाषा के विकास का व्यापक प्रश्न हल नहीं हो सकता। वैदिक साहित्य में कहीं-कहीं पर 'तितउजैसे प्राकृत भाषा के शब्द आये हैं परंतु उनके आधार पर प्राकृत भाषा का विकास वैदिक भाषा का समकालीन नहीं माना जा सकता है। भाषाएँ एक वृत्ताकार में रहकर यथाकाल अपने विकास की दिशाओं को खोजा करती हैं। तथाकथित पुरानी हिंदी का छिटपुट रूप भले ही अपभ्रंश भाषाओं के प्रयोग में मिलने लगा होकिंतु यह तो सर्वथा निश्चित है कि वह उस समय तक साहित्यिक स्तर की भाषा नहीं थी।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top