कैवल्य (मोक्ष) की अवधारणा अर्थ | कैवल्य क्या होता है | Kavilya (Moksh) concept in Hindi

Admin
0

  कैवल्य (मोक्ष) की अवधारणा,  कैवल्य क्या होता है 

 

कैवल्य (मोक्ष) की अवधारणा अर्थ  | कैवल्य क्या होता है | Kavilya (Moksh) concept in Hindi
कैवल्य (मोक्ष) सामान्य परिचय 

प्रिय पाठकों, जैसा कि आपको पूर्वज्ञान है कि मानव जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, - काम, मोक्ष होते हैं। इन चार पुरुषार्थों में सबसे अन्तिम एवं शीर्ष सोपान मोक्ष है जिसे सामान्य लोक व्यवहारिक भाषा में मुक्ति तथा योग के ग्रन्थों की भाषा में कैवल्य की संज्ञा दी जाती है। पूर्व की इकाई में प्रकृति एवं पुरुष के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त पुरुष की मुक्ति अर्थात कैवल्य को जानने एवं समझने की जिज्ञासा भी आपके मन में अवश्य ही उत्पन्न हुई होगी । प्रस्तुत ईकाई में आपकी इसी जिज्ञासा को शान्त करने हेतु कैवल्य का स्वरूप एवं कैवल्य की प्राप्ति के उपायों पर प्रकाश डाला गया है।

 

वास्तव में यह संसार अनेक दुखों का घर है। संसार के महापुरुष एवं विद्धवत जन इस संसार को सुखालय के स्थान पर दुखालय की संज्ञा देते हुए संसार में सर्वत्र फैले त्रिविध दुखों की व्याख्या अलग-अलग प्रकार से करते हैं। इन दुखों के तापों से संसार का प्रत्येक प्राणी त्रस्त रहता है। सामान्य मनुष्य तो सांसारिक पदार्थों की मृगतृष्णा तथा विषय भोगों की वासना रुपी भवर में फस कर दुख के सागर में डूबा हुआ रहता है, लेकिन जैसा कि आपने पूर्व की इकाई में जाना कि जब पुरुष को स्वंम एवं प्रकृति के यथार्त स्वरूप का ज्ञान होता है तब वह अपना सम्बन्ध संसार एवं सांसारिक विषयों से हटाकर परमात्मा के साथ स्थापित कार लेता है। जीवात्मा का सांसारिक बन्धनों से छूटकर अपने केवल स्वरूप में स्थित होना (स्वरुपेऽवस्थानम् ) ही कैवल्य है, दूसरे शब्दों में सांसारिक विषय भोगों से छूटकर अखण्ड ब्रह्मानन्द में लीन हो जाता ही मोक्ष अर्थात मुक्ति है। लेकिन प्रश्न उपस्थित होता है कि इस मोक्ष में क्या होता है अर्थात इसका स्वरूप क्या है ? इसे प्राप्त करने के क्या उपाय है ?यद्यपि यह विषय बहुत गंभीर एवं चिन्तनीय है जो सामान्य रुप में समझ से बाहर ही रहता है। विषय की जटिलता एवं दुर्गमता को स्पष्ट करते हुए योगीराज श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश करते हैं कि बहुतों को यह ज्ञान प्राप्त नही हो पाता है। कुछ मार्ग की कठिनाईयों से डर जाते है। कुछ मार्ग के मध्य में संशय से ग्रस्त हो जाते हैं कुछ ही ऐसे बिरले पुरुष होते हैं अपने मूल लक्ष्य परम पद अर्थात कैवल्य (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं। योग साधक की साधना का मूल उद्देश्य कैवल्य प्राप्ति ही है जिसकी व्याख्या महर्षि पतंजलि योगसूत्रों में करते है।इस आर्टिकल में आप योगसूत्रों के साथ साथ अन्य वैदिक ग्रन्थों में वर्णित कैवल्य के स्वरूप एवं कैवल्य प्राप्ति के उपायों का सविस्तार अध्ययन करेगें ।

 

कैवल्य (मोक्ष) की अवधारणा  (कैवल्य का अर्थ) 

 

कैवल्य का सामान्य अर्थ मोक्ष अथवा मुक्ति से होता है। परन्तु प्रश्न उपस्थित होता है कि यह मुक्ति क्या है ? प्रिय विधार्थियों मुक्ति संस्कृत भाषा की मुच धातु से उत्पन्न शब्द है। इस धातु को छूटने के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है अर्थात मुक्ति का शाब्दिक अर्थ छूटने से होता है, यहां पर मुक्ति का शाब्दिक अर्थ जीवात्मा का समस्त दुखों, क्लेशों, विषय वासनों तथा सांसारिक बन्धनों से छूटकर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होने से किया गया है अर्थात मुक्ति वह अवस्था विशेष है जिसके अर्न्तगत जीवात्मा सभी प्रकार के दुखों, क्लेशों, विषय वासनों तथा सांसारिक बन्धनों से छूटकर अपने शुद्ध स्वरुप में स्थित हो जाता है।


जीवात्मा के इस स्वरुप की व्याख्या महर्षि पतंजलि योग सूत्र में करते हुए कहते हैं-

 

तदा द्रष्टुः स्वरुपरुपेऽवस्थानम् । (पा० योo सू० 1/3)

 

अर्थात चित्त वत्तियों के निरोध हो जाने पर (असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में) जीवात्मा अपने तथा परमात्मा के स्वरुप को जानकर अपने शुद्ध स्वरुप में स्थित हो जाता है। यही जीवात्मा के कैवल्य की अवस्था है।

 

जीवात्मा की यह अवस्था अत्यन्त विशिष्ट एवं मानव जीवन की सर्वोच अथवा सर्वश्रेष्ठ गति को अभिव्यक्त करने वाली अवस्था है जिसे प्राप्त करने के लिए संसार का प्रत्येक मनुष्य प्रयत्नशील रहता है। इस अवस्था विशेष का वर्णन संसार के सभी धर्मों एवं मत सम्प्रदायों में अलग अलग रूपों में किया गया है। संसार के अधिकांश विद्वानों ने इस विषय पर अपना मत एवं लेखकों ने विषय को समझाने के लिए अपनी लेखनी चलाई है। विभिन्न ग्रन्थों में मुक्ति की इस अवस्था में जीवात्मा को कहीं परमधाम में, बैकुण्ठ में, गोलोक में, वगलोक में, हैवन में जन्नत में तथा कहीं बहिस्त में स्थित होना बतलाया गया है। जीवात्मा की इस अवस्था की व्याख्या कैवल्य अपवर्ग, मुक्ति, मोक्ष, निवार्ण, स्वरुपस्थिति, परमपद व निश्रेयस आदि एकार्थी शब्दों से की जाती है।

 

विविध ग्रन्थों में वर्णित कैवल्य के अर्थ एवं स्वरुप

प्रिय पाठकों, यहा अध्ययन का प्रमुख विषय कैवल्य की अवधारणा को स्पष्ट करना है अतः हम विविध ग्रन्थों में वर्णित कैवल्य के अर्थ एवं स्वरुप पर विचार करते हैं। विषय का प्रारम्भ सृष्टि के आदि मूल ग्रन्थ अर्थात वेद से करते हैं 


1 वेद के वर्णित कैवल्य की अवधारणा -

 

यजुर्वेद में ईश्वर से कैवल्य अर्थात मुक्ति की प्रार्थना करते हुए कहा गया-

 

त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् 

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात् ।। ( यजुवेद 3 / 60 )

 

जिस प्रकार एक पका हुआ फल (खरबूजा) पूर्ण रूप से पकने के बाद स्वतः ही बेल की डटल से अलग हो जाता है और जिस समय वह पूर्ण रूप से पककर बेल से पृथक होता है तब उसकी सुगन्ध प्रकृति में चारों ओर फैल जाती है। हे प्रभु मेरा जीवन भी ऐसा ही बनाओं कि जब मैं पूर्णायु को प्राप्त होऊँ तब मैं स्वतः ही बिना किसी कष्ट अथवा विध्न के ईश्वर की अमृतमयी गोद में चला जाऊँ तथा मेरे पश्चात मेरे सद्गुणों की सुगन्ध सम्पूर्ण संसार में फैल जाए। वेद के इस मंत्र में जीवात्मा की जन्म मरण के चक्र से छूटकर सीधे कैवल्य अवस्था में जाने की प्रार्थना परमात्मा से की गयी है, इसीलिए इस मंत्र को महामत्युजंय मंत्र की संज्ञा दी जाती है। 


2 उपनिषद् में वर्णित कैवल्य की अवधारणा

 

प्रिय पाठकों, वैदिक वाङगमय की अनुपम निधि के रूप में उपनिषदों को स्वीकार किया जाता है। इन्हें ज्ञान का अनुपम भण्डार माना जाता है। उपनिषदों को वेदान्त भी कहा जाता है। उपनिषदों में जहाँ मोक्ष प्राप्ति के उपायों या साधनों पर उपदेश किया गया है वहीं मोक्ष क्या है, उसके स्वरूप आदि पर भी गहन विचार मन्थन किया गया है।

  कैवल्य (मोक्ष) की अवधारणा अर्थ, कैवल्य क्या होता है




उपनिषद् साहित्य में स्पष्ट किया गया है कि मानव जीवनयापन के दो ही मार्ग है -

एक प्रेय मार्ग और दूसरा श्रेय मार्ग प्रेय मार्ग अत्यन्त रमणीय है। सांसारिक सुखों से आकृष्ट मनुष्य इस मार्ग में प्रवृत्त होते हैं। इसे ही प्रवृत्ति मार्ग कहा जाता है क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति सांसारिक बन्धनों की ओर होती है अतः मनुष्य सामान्य एवं स्वभाविक रूप में प्रवृत्ति मार्ग का पथिक बन जाता है। दूसरा श्रेय मार्ग या निवृत्ति मार्ग है। इनके उदाहरण उपनिषदों में देखें जा सकते हैं। यमाचार्य नचिकेता को भोग सामग्री व धन आदि का लालच देते हैं किन्तु नचिकेता इसे तुच्छ समझकर अमृत पथ के मार्ग को जानने की इच्छा करता है। वह केवल तत्व ज्ञान चाहता है। ऐसे ही वृहदारण्यक उपनिषद् में मैत्रोयी याज्ञवल्क्य से दिए वित्तादि ( धन आदि) को न ग्रहण करने की बात कहकर अमर होने के उपदेश देने की बात कहती है।

 

उपनिषदों के अनुसार मोक्ष का अर्थ है - 

स्वोपलब्धि अर्थात अपनी आत्मा को जानना। इसीलिए कहा कि कैवल्यावस्था अथवा मोक्षावस्था में जीवात्मा से ही प्रेम करता है। (आत्मरति) आत्मा से ही खेलता है (आत्मक्रीड़) आत्मा में ही आसक्त रहता है और आत्मा में ही निरतिशय आनन्द को (आत्मानन्द) को प्राप्त करता है।

 

कठोपनिषद् में यामाचार्य इस परमगति मोक्ष का वर्णन इस प्रकार करते हुए कहते हैं- 

कि परमात्मा ने इन्द्रियों का मुख बाहर की ओर खोला है इसलिए यह बाह्यमुखी है, अन्तर्मुखी नहीं। कोई धीर व्यक्ति ही बिरला होता है जो अमृतत्व की इच्छा करता हुआ चक्षुरादि इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करके आत्मा का प्रत्यक्ष करता है। अन्यत्रा कठोपनिषद् कहती है कि उस अवस्था (कैवल्यावस्था) में पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि र्निव्यापार हो जाते हैं। महोपनिषद् में कहा कि वासनाओं का जो निःशेष परित्याग होता है, वही श्रेष्ठ त्याग है। उसी विशुद्ध अवस्था को साधुजनों ने मोक्ष कहा है। 


मुण्डकोपनिषद् कहती है कि जब इस जीव के हृदय की अविद्या रूपी गांठ कट जाती है और तत्वज्ञान से उसके सब संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा जितने दुष्ट कर्म हैं, सब जिस समय क्षय हो जाते हैं उस समय जीव उस परमात्मा को आत्मा के भीतर - बाहर व्याप्त हुआ, देखता है, यही मोक्षावस्था अथवा कैवल्य की अवस्था है। तैतिरियोपनिषद् में कहा है कि जो जीवात्मा अपनी बुद्धि और आत्मा में स्थित सत्य, ज्ञान और अत्यन्त आनन्द स्वरूप परमात्मा को जानता है वह उस व्यापक रूप ब्रह्म में स्थित होकर उस आनन्द विद्यायुक्त ब्रह्म के साथ सब कामनाओं को प्राप्त होता है। ईशावास्योपनिषद् में अमृत को प्राप्त करने की प्रार्थना ईश्वर से की गयी है। उपनिषद् में समझाया गया है कि विद्या और अविद्या दोनों की उपासना करने वाले घने अंधकार में जाकर गिरते हैं लेकिन विद्या और अविद्या को एक साथ जान लेने वाला, अविद्या को समझकर विद्या द्वारा अनुष्ठानित होकर मृत्यु को पार कर लेता है, वह मृत्यु को जीतकर अमृत का उपभोग करता है। जैमिनीय उपनिषद् में मृत्युपाश से मुक्ति और अमृतत्व वर्णित है। मृत्यु और अमृत इस संसार समुद्र के दो तट हैं। भौतिक सीमा के अन्तर्गत मृत्य और उससे परे अमृत है। जहाँ शरीर है वहाँ मृत्यु है, जहाँ शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं वहीं अमृत है। जीवात्मा का जन्म मरण के चक से छूटकर ईश्वर के परम आनन्द में लीन होना ही कैवल्य है।

 

इस प्रकार उपनिषद साहित्य में कैवल्य (मोक्ष) को दुःखों के अभाव रूप में ही नहीं अर्थात नकारात्मक रूप में ही नहीं अपितु आनन्द के सकारात्मक रूप में वर्णित किया गया है। उपनिषद् साहित्य में मृत्यु से परे स्थित अमृत में कैवल्य को समझाया गया है जिसकी प्राप्ति के लिए ज्ञान, कर्म, उपासना (भक्ति) आदि साधन हैं।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top