पुरुष की अवधारणा | पुरुष शब्द का अर्थ पुरुष का स्वरुप | Concept of Purusha in Yoga

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पुरुष की अवधारणा, पुरुष शब्द का अर्थ पुरुष का स्वरुप

 

पुरुष की अवधारणा | पुरुष शब्द का अर्थ पुरुष का स्वरुप | Concept of Purusha in Yoga

प्रिय पाठकोंमैं कौन हूँ कहां से आया हूँ मेरा मूल उद्देश्य क्या है ये ऐसे प्रश्न है जो प्रत्येक विद्वान पुरुष के मन मस्तिष्क में स्वभाविक रुप से ही उत्पन्न होते हैं। मैं को जानने और समझाने के लिए मनुष्य प्राचीन काल से प्रयत्नशील रहा है। इस मैं को शास्त्रीय भाषा में पुरुष शब्द से वर्णित किया गया है जिस पर वेदउपनिषद एवं दर्शन साहित्य में सविस्तार विचार मंथन किया गया है। यद्यपि सामान्य लोक व्यवहार में पुरुष शब्द का प्रयोग लिंग निर्धारण के लिए किया जाता है किन्तु वास्तव में पुरुष शब्द मात्र लिंगवाचक शब्द नही है अपितु पुरुष शब्द एक गूढ अर्थ में प्रयुक्त होने वाला शब्द है जिसे साहित्य में अनेक रूपों व अर्थों में किया प्रयोग किया गया है। पुरुष शब्द का प्रधान अर्थ जीवात्मा से लिया जाता है। इस लोक में विभिन्न शरीरों को धारण करने वाली जीवात्माओं को पुरुष की संज्ञा दी जाती है। इसके साथ-साथ वैदिक साहित्य में कुछ स्थानों पर ईश्वर के लिए भी पुरुष शब्द प्रयोग किया गया है तथा वहा पर ईश्वर को परम पुरुष शब्द से सम्बोधित किया गया है।

 

पुरुष वह सुक्ष्म तत्व है जिसका आंखों से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकताइन्द्रियों से ग्रहण नही किया जा सकता किन्तु सम्पूर्ण सृष्टि में इसकी सत्ता की अनुभूति अवश्य की जा सकती है। जिस प्रकार विधुत ऊर्जा को देखा नहीं जा सकता बल्कि उसके कार्यो को देखकर उसे अनुभव किया जा सकता हैइसी प्रकार पुरुष की चेतना को उसके कार्यों के आधार पर अनुभव किया जा सकता है। पुरुष अर्थात आत्मा चेतन हैकियावान है किन्तु चेतन और कियावान होने पर भी जब तक यह पुरुष शरीर के साथ संयुक्त नहीं होता तब तक यह कुछ भी करने में सार्मथ्यवान नही है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार एक ज्ञानी पुरुष को अपने ज्ञान का प्रकाश करने के लिए बाह्य साधनों की आवश्यक्ता पडती है और बाह्य साधनों के अभाव में वह अपने ज्ञान को प्रकट नही कर पाताठीक इसी प्रकार चेतन पुरुष को अपनी चेतना का प्रकाश करने के लिए शरीर रुपी बाहय उपकरण की आवश्यक्ता पड़ती है। पुरुष की चेतना के कारण जड शरीर चेतन सा प्रतीक होता है और तब तक चेतन बना रहता है जब तक शरीर में चेतन पुरुष अर्थात आत्मा का वास रहता है। जब पुरुष का शरीर से वियोग हो जाता है तब वह जड शरीर चेनताहीन अर्थात शव में परिवर्तित हो जाता है। पुरुष का शरीर से वियोग ही मृत्यु कहलाती है। इस प्रकार पुरुष शब्द का मूल अर्थ जीवात्मा से होता है। पुरुष शब्द के अर्थ को जानने के बाद अब हम पुरुष के स्वरूप पर विचार करते हैं।

 

पुरुष का स्वरुप Form of Purusha in Yoga

 

पुरुष के स्वरुप की व्याख्या भिन्न भिन्न ग्रन्थों में भिन्न भिन्न रूपों में की गयी है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर सृष्टि के आदि ग्रन्थ वेद से लेकर आधुनिक विज्ञान तक अनेक प्रकार के प्रमाणटीकाएं एवं व्याख्याएं प्राप्त होती है। पुरुष के स्वरूप को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से इन ग्रन्थों में समझाया गया है। यहां पर हम विषय का प्रारम्भ वेद की ऋचाओं से करते है।

 

1 वेद में वर्णित पुरुष का स्वरुप

 

ऋग्वेद के इस मंत्र में ब्रह्म (ईश्वर)जीव (पुरुष) एवं प्रकृति ( संसार ) के स्वरुप पर प्रकाश डालते हुए कहा गया -

 

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिस्वजाते। 

तयोरन्य पिप्पलं स्वाद्वात्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।। (ऋग्वेद 01/164/10)

 

अर्थात

ब्रह्म और जीव दोनों चेतनता और पालन आदि गुणों से सदृश व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि है और वैसा ही अनादि मूल रुप कारण और शाखारुप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है। ऊपर वर्णित तीन तत्वों में प्रथम चेतन तत्व परमात्मा अर्थात ईश्वर है जो सर्वत्र प्रकाशमान है एवं पाप व पुण्य रुप फलों से परे हैंइसके साथ सखा रूप में रहने वाला दूसरा तत्व जीव अर्थात पुरुष है जो वृक्षरुप संसार (प्रकृति) में पाप एवं पुण्यरुप फलों को भोगता है। तीसरा अनादि तत्व प्रकृति अर्थात संसार है। 


2 उपनिषद में वर्णित पुरुष का स्वरूप

 

उपनिषद् साहित्य में पुरुष के स्वरूप पर सविस्तार चिन्तन मनन किया गया है। कठोपनिषद में यम और नचिकेता संवाद का प्रमुख विषय पुरुष के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना रहा है। यम से प्राप्त तीन वरों में तृतीय वर के रुप में बालक नचिकेता यम से आत्मज्ञान (आत्मा के स्वरुप ) को जानने की जिज्ञासा व्यक्त करता है। जिस पर यम नचिकेता को समझाते हुए कहते हैं-

 

न जायते म्रियते वा विपश्चि न्यायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् 

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। (कठो0 उप0 1/2/18 ) 

 

अर्थात 

नित्य ज्ञान स्वरुप आत्मा न तो जन्मता है और न ही मरता है। यह न तो स्वयं किसी से उत्पन्न हुआ है और न इससे कोई होता है अर्थात यह न तो किसी का कार्य है और न कारण ही है। यह अजन्मानित्यशाश्वत ( सदा एक रस रहने वाला) पुरातन अर्थात क्षय और वृद्धि से रहित है। शरीर के नाश किए जाने पर भी इसका नाश नही किया जा सकता।

 

पुरुष के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए ध्यान बिन्दु उपनिषद् में कहा है

 हृत्पद्मकर्णिकामध्ये स्थिरदीपनिभाकृतिम् । 

अऽगुंष्ठमात्रमचलं ध्यायेदोंकारमीश्वरम् ।। (ध्यान बिन्दु उप0 3 / 1 )

 

अर्थात 

हृदय कमल की खिली हुई पंखरियों के बीच में स्थिर चमकदार जलती हुई दीपशिखाआभा सदृश इस ओंकार रुप निश्चल मूर्ति कोजिसका आकार एक अंगुल मात्र हैअचल है उस ईश्वर के ओंकार रुप आत्मा का ध्यान करोस्मरण करो।

 

इस प्रकार उपनिषद साहित्य में पुरुष अर्थात आत्मा को ईश्वर के रूप में अभिव्यक्त किया गया तथा इसके अजरअमरनित्य व पुरातन स्वरुप का वर्णन करते हुए कहा गया शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नही होता अर्थात शरीर के मरने पर भी पुरुष नही मरता अपितु यह सदा बने रहने वाला है।

 

3 आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित पुरुष का स्वरुप - 

आयुर्वेद शास्त्र में विभिन्न स्थानों पर पुरुष के स्वरुप पर चिन्तन मनन किया गया है। आयुर्वेद शास्त्र में मुख्य रुप से चिकित्सकीय पुरुष पर प्रकाश डाला गया है।


आयुर्वेद के विभिन्न ग्रन्थों में पुरुष शब्द का प्रयोग निम्न तीन अर्थों में किया गया है- 

 

(क) पुरुष शब्द से कई स्थानों पर परमात्मा का ग्रहण किया गया है तथा इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए परम पुरुष शब्द का प्रयोग किया गया हैं यही परम पुरुष संसार को उत्पन्न करने वालानियंत्रण करने वाला तथा संहार करने वाला । आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित इस पुरुष को वेद में साक्षीचेतानिगुण आदि विशेषणों से पुकारा गया है।

 

(ख) पुरुष शब्द से जीवात्मा का ग्रहण भी किया जाता है। यह पुरुष चेतनास्वरुप अर्थात चैतन्य और सदा बने रहने वाला अर्थात नित्य है। यह पुरुष कर्मों को करने वाला कर्ता और किए गये कर्मों के फलों को भोगने वाला भोक्ता है। यह अपने शुभ व अशुभ कर्मों के परिणामों को भोगने के लिए असंख्य उच्च और निम्न यौनियों में जन्म लेता है और जन्म-मरण के चक में घूमता रहता है। इस पुरुष की यह गति प्रलय प्रर्यन्त अथवा मोक्ष प्रर्यन्त चलती रहती है।

 

(ग) पुरुष शब्द से जीवात्मा युक्त शरीर का ग्रहण भी किया जाता है। शरीर से युक्त होकर ही यह जीवात्मा कार्यों को करने में सक्ष्म होता है। शरीर के अभाव में यह ना तो किसी कार्य को करने में सक्ष्म है तथा न ही फलों का भोग कर सकता है। प्रकृति में शरीर और जीवात्मा युक्त इसी पुरुष की प्रधानता सर्वत्र दिखलाई पड़ती है। आयुर्वेद शास्त्र भी इसी पुरुष को प्रधानता देता हुआ कहता है कि अजर अमर व अत्यन्त सुक्ष्म होने के कारण जीवात्मा की चिकित्सा का कोई औचित्य ही नही है जबकि पंचभूतों से उत्पन्न जड शरीर मात्र की चिकित्सा भी नहीं की जा सकती क्योंकि जीवात्मा के निकल जाने पर जब यह शरीर निर्जीव हो जाता है तब इसकी कोई चिकित्सा संभव नही होती अतः जीवात्मायुक्त शरीर ही चिकित्सकीय पुरुष है।

 

दर्शन शास्त्र में वर्णित पुरुष का स्वरुप 

जिज्ञासु पाठकोंयोग दर्शन में पुरुष के स्वरूप को समझाते हुए योगदर्शकार महर्षि पतंजलि कहते हैं

 

द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययनुपश्य ।। (पा० योसू० 2/20 )

 

अर्थात

प्राकृतिक पदार्थों के सम्मिश्रण तथा अज्ञान अधर्मविकारादि दोषों से रहित होता हुआ भी चित्त की वृत्तियों के अनुसार देखने वाला चेतन पदार्थ जीवात्मा है। इस योग सूत्र में पुरुष के स्वरूप का वर्णन किया गया है। योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि पुरुष को प्रकृति एवं प्राकृतिक पदार्थों से भिन्न अर्थात अलग मानते हुए कहते है कि अज्ञान और अधर्म आदि दोषों से रहित हुआ भी चित्त की वृत्तियों के अनुसार प्रकृति को देखने वाला चेतन पदार्थ जीवात्मा है। जिसके भोग और अपवर्ग के लिए प्रकृति है। 

तदर्थ एव दृश्यस्याऽऽत्मा ।। (पा० यो० सू० 2/21 )

 

अर्थात 

उस दृष्टा (जीवात्मा) के भोग और अपवर्ग के लिये दृश्य (प्रकृति) का स्वरूप हैं। किन्तु वह पुरुष (योगसाधक) जो साधना के द्वारा ईश्वर साक्षात्कार तक पहुंचकर मोक्ष का अधिकारी बन जाता हैऐसे साधक के लिए यह प्रकृति प्रयोजनहीन हो जाती है। इस पर प्रकाश डालते हुए महर्षि पतंजलि अगले योगसूत्र में कहते हैं-

 

कृतार्थम्प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ।। (पा० यो० सू० 2/22 )

 

अर्थात कतार्थ जीवात्माओं के लिए नष्ट हुआ जैसा भी दृश्य ( प्रकृति) नष्ट नही होताअन्य अकतार्थ जीवात्माओं के लिए सामान्य रूप से भोग और अपवर्ग की सिद्धी कराने वाला होता है।

 

दर्शनकार का आशय यह है कि जो पुरुष अर्थात जीवात्माएं मोक्षसुख को प्राप्त हो चुकी होती है उनके लिए यह प्रकृति प्रयोजनहीन हो जाती है किन्तु ऐसे पुरुष जिन्हें अभी मोक्षप्रप्ति नही हुई है उनके भोग और अपवर्ग प्रयोजन की सिद्धी के लिए प्रकृति का अस्तित्व बना रहता है। इस प्रकार दर्शन शास्त्र में पुरुष के स्वरुप को जानने के उपरान्त अब गीता में वर्णित पुरुष के स्वरूप पर विचार करते है।

 

5 गीता में वर्णित पुरुष का स्वरुप - 

योगीराज श्रीकृष्ण पुरुष अर्थात जीवात्मा के स्वरुप का वर्णन करते हुए गीता में द्वितीय अध्याय कहते हैं कि यह आत्मा अजर अमर है यह आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेती हैन मरती हैयह अजन्मा हैनित्य व पुरातन है। यह जीवात्मा नाशरहितनित्यस्वरूपअप्रमेय है। 

योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं -

 

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणति नरोऽपराणि। 

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । 

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ।। (गीता 2 / 22-23)

 

अर्थात जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर व्यक्ति नवीन वस्त्रों को धारण करता है वैसे ही जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है। इस अजर-अमर जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकतेआग जला नहीं सकतीहवा सुखा नहीं सकती तथा पानी गीला नहीं कर सकता है अतः इसके लिए शोक करना उचित नहीं है ।

 

इस प्रकार गीता में पुरुष के अजरअमरनित्यपवित्रशाश्वत स्वरुप का वर्णन किया गया है। अज्ञानता के कारण मनुष्य प्रकृति एवं पुरुष के स्वरूप को भली भांति समझ नही पाता है और इस कारण वह प्रकृति के साथ अज्ञानजनित बंधन में फँस जाता है। इस अज्ञान जनित बंधन में फँसा मनुष्य अपने मानव जीवन के मूल लक्ष्य अर्थात मोक्ष से दूर होता चला जाता है। किन्तु जब ज्ञान के प्रकाश का उदय होता है तब वह स्वंम अर्थात पुरुष और प्रकृति के स्वरूप को समझकर स्वंम को प्रकृति से भिन्न पाता है। इस अवस्था में वह प्रकृति से पृथक होकर अपना सम्बन्ध परमात्मा से स्थापित करने में सक्षम होता हैजिसके परिणाम स्वरुप वह साधक पुरुष आत्मबोध व आत्मज्ञान जैसी अनुभूतियों को प्राप्त करता हुआ मोक्षानन्द को अनुभव करता है।

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