वासवदत्ता एक कथा|वासवदत्ता का कथानक | VasVadtta Katha evam Kathanak

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 वासवदत्ता एक कथा,वासवदत्ता का कथानक (VasVadtta Katha evam Kathanak)

वासवदत्ता एक कथा|वासवदत्ता का कथानक | VasVadtta Katha evam Kathanak


वासवदत्ता एक कथा

 

  • जहाँ तक वासवदत्ता का सम्बन्ध हैआलंकारिकों के अनुसार कथा के प्रायः सभी लक्षण इसमें दृष्टिगोचर होते हैं । इसमें कन्दर्पकेतु और वासवदत्ता की प्रेमकथा का सरस गद्य में वर्णन है। अतः इसमें श्रृंगार रस मुख्य रस है। रचना के आरम्भ में आर्याछन्द में सरस्वतीकृष्ण और शिव की स्तुति की गयी हैं। इसके अनन्तर खल-निन्दाकवि प्रशंसा कवि द्वारा अपना संक्षेप में परिचय इत्यादि का काव्य में सफल सन्निवेश हुआ है। इसके बाद कथा शुरू होती है और निर्बाधगति से अन्त तक चलती रहती है। कथा के लक्षणों के अनुसार इसमें कोई उच्छवास नहीं है और वक्त्र या अपरवक्त्र छन्दों का भी समावेश नहीं है। इसकी कथा नामक से भिन्न अन्य पात्र (शुक) से कहलवायी गयी है। इसमें अवान्तर कथा (शुक प्रसंग) का प्रयास सफलता से किया गया है। जो बाद में मुख्यकथा से सम्बद्ध हो जाती है । इसके अतिरिक्त इसको कथा सिद्ध करने के लिए सर्वप्रमुख कारण हैइसका कवि कल्पनाप्रसूत होना। इसकी कथा का ऐतिहासिक इतिवृत्त से कहीं कोई सम्बन्ध नहीं है। अमर सिंह की परिभाषा के अनुसार भी यह कथा ही है क्योंकि यह कवि कल्पना पर आधारित प्रबन्ध है।

 

  • इस प्रकार वासवदत्ता’ में उपलब्ध उपर्युक्त तथ्यों जो कि साहित्यशास्त्रियों के अनुसार कथा के ही लक्षण है के आलोक में यह कहा जा सकता है कि 'वासवदत्तानिःसन्देह रूप से कथा ही है किसी भी रूप में आख्यायिका नहीं है।

 

वासवदत्ता एक कथा

कथा और आख्यायिका के लक्षण


  • संस्कृतसाहित्य शास्त्र में गद्य को गद्यकाव्य के रूप में ग्रहण किया है जाता है और इसीलिए भामहदण्डी और वामन से लेकर कविराज विश्वनाथ तक सभी आचार्यों ने गद्य के भेद-प्रभेदों का विशद् विवेचन किया है। गद्यकाव्य के भेद के रूप में साहित्यशास्त्र में कथा तथा आख्यायिका इन दो संज्ञाओं की ही विशेष चर्चा हुयी है। सर्वप्रथम अमरकोश में कथा तथा आख्यायिका का स्वरूप निर्देश उपलब्ध होता है। इसके अनुसार आख्यायिका की कथावस्तु प्रख्यात एवं इतिहास-सम्मत होती है और कथा का विषयकवि कल्पित होता है । संस्कृत गद्यकाव्यों को कथा और आख्यायिका इन दो प्रमुख भेदों के अन्तर्गत परिगणित किया जाता है । दण्डी ने कथा और आख्यायिका के उस समय प्रचलित जो लक्षण बताये है वह इस प्रकार है-

  •  क. 'आख्यायिकामें नायक सब कहानी कहता है, 'कथामें नायक या अन्य पात्र द्वारा कहानी कही जा सकती है।

 

  • ख. 'आख्यायिकामें उच्छवास नामक अध्याय होते हैकथा में नहीं।

 

  • ग. 'आख्यायिकामें वक्त्र और अपवका छन्द रहने आवश्यक हैकथा में नहीं । दण्डी ने ही कथा और आख्यायिका के इन पूर्व प्रचलित भेदक लक्षणों की अत्यन्त उपेक्षा करते हुए लिखा है कि नायक द्वारा कहानी कही जाना या अन्य द्वारावक्त्र या अपवक्त्र छन्दों का प्रयोग होना या न होनाउच्छवासों का पाया जाना अथवा न पाया जाना ये सब महत्व की बातें नहीं है। कथा और आख्यापिका में कोई अन्तर नहीं हैं।

 

  • इन समस्त लक्षणों की सीमा में रहकर किसी गद्यकवि ने 'कथाअथवा 'आख्यायिकाकी रचना नहीं की हैं । दण्डी के विचारों को पढ़ने से भी यी ज्ञात होता है कि प्राचीन समय में निर्धारित इन लक्षणों की प्रायः उपेक्षा ही होने लगी थी। 'कथाऔर 'आख्यायिकामें मोटा अन्तर हम यही मान सकते है कि एक में ऐतिहासिक कथानक होता है और दूसरी में कवि कल्पित ।

 

  • 'वासवदत्ताका कथानक कल्पित है और हर्षचरित का ऐतिहासिक । हर्षचरित उच्छवासों में विभक्त हैप्रारम्भ में कवि-वंश-वर्णनऔर कालिदासभट्टारहरिश्चन्द्र आदि अन्य कवियों का उल्लेख है। उच्छवास में प्रारम्भ में ऐसे पद्य भी कवि ने रखा दिये है जिनसे आगे घटने वाली घटना का संकेत मिलता है। वासवदत्ता में भी प्रारम्भ में देव-स्तुति खलनिन्दा और कवि-वंश वर्णन है। इसी आधार पर सुबन्धु ने स्वयं वासवदत्ता को कथा कहा है।

 

वासवदत्ता का कथानक:

 

  • सुबन्धु की 'वासवदत्तामें नायक राजकुमार कन्दर्पकेतु और नायिका राजकुमारी वासवदत्ता की प्रेमकथा वर्णित हैं लेखक का उद्देश्य दोनों का मिलन करना ही हैं छोटे से कथानक को लेखक ने अपनी वर्णन शक्ति के द्वारा ग्रन्थ का कलेवर दे दिया है। संक्षेप में कथानक इस प्रकार है राजा चिन्तामणी का पुत्र राजकुमार कन्दर्पकेतु अपने पिता की ही भाँति सद्गुणों से युक्त नवयुवक है। एक बार स्वप्न में वह अष्टादश वर्षीया अप्रतिम सुन्दरी कन्या को देखता हैं उसकी सुन्दरता के आकर्षण से वह उस कन्या से प्रथम दृष्टया प्रेम कर बैठता है। प्रेमाभिभूत राजकुमार उस कन्या को पाने के लिए बेचैन हो उठता है और उसके वियोग में भूख-प्यास त्यागकर एकान्तवास करने लगता है। किसी प्रकार उसका मित्र मकरन्द इस बात से अवगत होता है और उसको नीतिपरक उपदेश देते हुए समझाने का प्रयास करता हैकिन्तु राजकुमार पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं होता है वह अपने मित्र से उस सुन्दरी को खोजने में सहायता मांगता है और उसको भुला पाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करता है। इसके पश्चात उस अज्ञात सुन्दरी की खोज में कन्दर्पकेतु अपने मित्र मकरन्द के साथ निकल पड़ता है। खोजने के क्रम में एक रात वे विन्ध्य पर्वत की तलहटियों में एक वृक्ष के नीचे ठहरते है।


रात में उसी वृक्ष पर बैठे एक शुकदम्पत्ती का वाकयुद्ध कन्दर्पकेतु को सुनायी देता है। सारिका (स्त्री शुक) पर परस्त्रीगमन का आरोप लगाते हुए देर रात्रि में आने कारण पूछती है शुक अपने देर से आने का कारण बताते हुये नायिका वासवदत्ता का निम्नवत् वर्णन करने लगता है -


 

  • सकल गुणों से युक्त श्रृंगारशेखर कुसुमपुर का राजा है। राजा की एक पुत्री हैजिसका नाम वासवदत्ता है उसकी माता का नाम अनंगती है। पुत्री के विवाह योग्य हो जाने पर राजा उसको मनपसन्द वर चुनने की छूट दे देता है और भूमण्डल के समस्त राजकुमारों को स्वयंवर हेतु आमंत्रित करता है। किन्तु वासवदत्ता को कोई भी राजकुमार पसन्द नहीं आता है। उसी रात वासवदत्ता स्वप्न में एक सुन्दर राजकुमार को देखती है ओर स्वप्न में ही कन्दर्पकेतु के प्रेमपाश में आबद्ध हो जाती है। इस प्रेमपाश से वासवदत्ता को मुक्त कराने में उसकी सखियों के सारे प्रयास निरर्थक सिद्ध होते हैं । उसकी विरहावस्था तीव्रतर होती जाती हैं अन्ततः राजकुमारी की विश्वस्त सारिका तमालिका को कन्दर्पकेतु का पता लगाने के लिए भेजा जाता है। जो कथा कहने वाले शुक के साथ उसी वृक्ष पर आ पहुँचती है जिसके नीचे कन्दर्पकेतु और मकरन्द्र विश्राम कर रहे थे इतना सब जानने के पश्चात् मकरन्द भी तमालिका से कन्दर्पकेतु के विषय में सम्पूर्ण वृतान्त बताता हैं । कन्दर्पकेतु बहुत प्रसन्न होता है और तमालिका को गले लगाते हुए उससे वासवदत्ता का कुशलक्षेम पूछता है। इसके पश्चात दोनों मित्र तमालिका (सारिका) का अनुकरण करते हुए वासवदत्ता से मिलने के लिए उसके राज्य की ओर प्रस्थान करते हैं।

 

  • वहाँ वासवदत्ता को अपने भव्य प्रसाद में दासियों से घिरे हुए देखकर खुशी से कन्दर्पकेतु अचेत हो जाता है । वासवदत्ता भी अपने सपनों के राजकुमार को देखक मूर्च्छित हो जाती है। सखियों द्वारा युगलप्रेमी चेतना में लाये जाते हैं। इसके पश्चात् वासवदत्ता की प्रिय सखी कलावती कन्दर्पकेतु से वासवदत्ता की विरहकालीन व्यथाओं का वर्णन करती है। उसी के द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि वासवदत्ता के पिता वासवदत्ता की इच्छा के विरूद्ध उसका विवाह विद्याधरों के देवपुत्र पुष्पकेतु से कल ही करना चाहते हैं। इतना जानते ही कन्दर्पकेतु सखियों की सहायता से वासवदत्ता के साथ मनोजव नामक जादुई घोड़े पर चढ़कर निकल भागता है और मकरनछ को नगर का समाचार जानने के लिए वही छोड़ जाता है। दोनों प्रेमी भागते हुए विन्ध्य जंगल में पहुँचते है और थककर एक लताकुंज में सो जाते हैं। 


  • प्रातः काल जब कन्दर्पकेतु सोया ही थावासवदत्ता इसके लिए फल इत्यादि लाने जंगल में चली जाती है। वासवदत्ता को जंगल में घूमते देखकर वहीं पर डेरा डाले दो किरात समूह उस पर अपना-अपना अधिकार जताने लगते हैं। फलस्वरूप भयंकर युद्ध होता है और इसी में एक ऋषि की कुटिया भी नष्ट हो जाती है। इस में उपद्रव का कारण वासवदत्ता को मानते हुए ऋषि उसे शापमुक्त होने का रास्ता भी बताते हैं कि अपने अपने प्रिय द्वारा स्पर्शित होने पर शापमुक्त होकर पूर्वरूप में आ सकती है। इधर नींद टूटने पर कन्दर्पकेतु अपनी प्रिया वासवदत्ता को वहाँ नहीं पाता है। वह उसकी खोज में निष्फल ही इधर-उधर भटकता हैं अन्त में दुःखी होकर वह समुद्र में डुबकर अपने प्राण त्यागने को उद्यत होता है किन्तु उसी समय आकाशवाणी उसे ऐसा करने से रोकती है और उसको प्रिया से पुर्नमिलन होने का आश्वासन देती है। इसके पश्चात् कन्दर्पकेतु प्रिया-वियोग में इधर-उधर घूमता-फिरता है। इस प्रकार रात-दिन और ऋतुएं व्यतीत होने लगती हैं। अन्त में घूमते हुए एक स्थान पर वह वासवदत्ता के सदृश एक पाषाणमूर्ति को देखता हैजब वह उस पाषाणमूर्ति का स्पर्श करता है तो उसके स्पर्श से वह मूर्ति सजीव हो जाती है। इस प्रकार वासवदत्ता पुनः स्त्री रूप में आ जाती हैशाप का प्रभाव समाप्त हो जाता है। 


  • दोनों प्रेमी प्रसन्न होकर आलिंगनबद्ध हो जाते है और दो समर्पित हृदयों का मिलन होता है। बाद में मकरन्द भी वहाँ पहुँच जाता है। कन्दर्पकेतु सबके साथ राज्य लौट आता है और अलभ्य मनोवांछित सुखों का उपभोग करते हुए समय व्यतीत करता है।

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