रससूत्र की व्याख्या | भरतसूत्र की व्याख्या |Explanation of Bharatsutra

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रससूत्र की व्याख्या,   भरतसूत्र की व्याख्या (Explanation of Bharatsutra)

रससूत्र की व्याख्या |  भरतसूत्र की व्याख्या |Explanation of Bharatsutra


रससूत्र की व्याख्या,  भरतसूत्र की व्याख्या 

विभिन्न मतों के अनुसार रससूत्र की व्याख्या प्रस्तुत करते है 

विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगद्रसनिष्पत्तिः

 

1. उनमें प्रथम अभिनवगुप्त के मतानुसार भरतसूत्र की व्याख्या करते है

  • विभावअनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग अर्थात् व्यंजना से चिदानन्दविशिष्ट स्थायीभाव रूप अथवा स्थायीभव से उपहित चिदानन्द रूप रस की निष्पत्ति होती है अर्थात् अपने स्वरूप से प्रकाशित होता है। यहाँ पर 'संयोग" पद का अर्थ व्यज्जन व्यापार और 'निष्पत्तिका अर्थ 'स्वरूप से प्रकाशनहोता है।

 

2. द्वितीय भट्टनायक के अनुसार रससूत्र की व्याख्या

 

  • विभावअनुभावव्यभिचारीभावों के सम्यक् अर्थात् साधारण रूप योग से भावकत्व व्यापार के द्वारा भावित होने से स्थायीभाव से उपहित सत्त्वगुण के उद्रेक से प्रकाशित आत्मानन्द रूप रस की निष्पत्ति अर्थात्भोग नामक साक्षात्कार के द्वारा अनुभव होता है" यहाँ पर 'संयोगपद का अर्थ: सम्यक् साधारणात्मकत्व और 'निष्पत्तिका अर्थ: विषयीकृतिहोता है। 


3. तृतीय नवीनों के मतानुसार भरतसूत्र की व्याख्या

 

  • विभावअनुभाव और व्याभिचारीभावों के संयोग से अर्थात् भावनारूप दोष से दुष्यन्त आदि के अनिर्वचनीय इत्यादि रूप रस की निष्पत्ति अर्थात् उत्पत्ति होती है। यहाँ वह 'संयोगपद का अर्थ भावना रूप दोष और निष्पत्ति का अर्थ 'उत्पत्ति है


4.  अन्य मत के अनुसार भरतसूत्र की व्याख्या 

  • विभावअनुभाव और व्यभिचारीभावों के संयोग अर्थात् ज्ञान से ज्ञान-विशेष रूप रस की निष्पति अर्थात् उत्पत्ति होती है। यहाँ पर 'संयोगपद का अर्थ ज्ञानऔर निष्पतिका अर्थ उत्पत्ति है।

 

5. श्री भट्टलोल्लट का मत के अनुसार भरतसूत्र की व्याख्या

 

  • विभावअनुभाव और व्यभिचारीभावों के संयोग अर्थात् सम्बन्ध से इत्यादि रूप रस की निष्पत्ति अर्थात् आरोप किया जाता है। यहाँ पर 'संयोगपद का अर्थ 'सम्बन्धऔर निष्पत्तिका अर्थ आरोप होता है। 


6. श्रीशंकुक के मत के अनुसार भरतसूत्र की व्याख्या

  • "विभावअनुभाव और व्यभिचारीभावों के संयोग कृत्रिम होते हुए अकृत्रिम रूप से गृहीत विभावादिकों के संयोग अर्थात् अनुभव के द्वारा इत्यादि रूप से रस की निष्पत्ति अर्थात् अनुमति होती है। यहाँ पर 'संयोगपद का अर्थ 'अनुमानऔर निष्पत्तिका अर्थ 'अनुमितिहै।

 

7. सप्तम मत के अनुसार भरतसूत्र की व्याख्या

  • विभावअनुभाव और व्यभिचारीभाव तीनों के संयोग अर्थात् समुदाय से रस की निष्पत्ति अर्थात् 'रसपद का व्यवहार होता है। यहाँ पर 'संयोगपद का अर्थ 'समुदायऔर निष्पत्ति का अर्थ 'पदव्यवहारलिया गया है।

 

8. अष्टम मत के अनुसार भरतसूत्र की व्याख्या

  • "विभावअनुभाव और व्यभिचारीभावों में से संयोग अर्थात् चमत्कारी होने से 'रसपद का व्यवहार होता है। यहाँ पर संयोग पद का अर्थ 'चमत्कारऔर निष्पतिका अर्थ 'रसपदव्यवहारलिया गया है।

 

इस प्रकार ये आठ मतों के अनुसार प्रतिपादित हैं। शेष तीन मतों में सूत्र से विरोध पर्यवसित होता है। विभावअनुभाव और व्यभिचारीभावों में से केवल एक किसी नियत रस के व्यंजक नहीं होतेक्योंकि वे जिस प्रकार एक रस के विभावादि होते हैं उसी प्रकार दूसरे के हो सकते हैं। जैसै व्याघ्रादि जिस प्रकार भयानक रस के विभाव हो सकते है उसी प्रकार वीरअद्भुत और रौद्र रस के भी विभाव हो सकते है। अतः सूत्र में तीनों को सम्मिलित रूप में ग्रहण किया गया है।

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