संस्कृत में रसम्बन्धी अवधारणा | संस्कृत काव्य में रस की अवधारणा | Concept of Rasa in Sanskrit Poetry

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संस्कृत में  रसम्बन्धी अवधारणा , संस्कृत काव्य में रस की अवधारणा ,Concept of Rasa in Sanskrit Poetry

संस्कृत में  रसम्बन्धी अवधारणा | संस्कृत काव्य में रस की अवधारणा | Concept of Rasa in Sanskrit Poetry



संस्कृत में  रसम्बन्धी अवधारणा (Concept of Rasa in Sanskrit Poetry)


  • पण्डितराज जगन्नाथ ने मम्मट और अभिनवगुप्त के मत को प्रस्तुत कर फिर अपना मत प्रस्तुत किया है। रसो वै सः’ इत्यादि श्रुति के अनुसार रत्यादि-विशिष्ट आवरण-रहित चैतन्य का नाम 'रसहै और चैतन्य के आवरण का भास हो जाना रस- चर्वणा हैरस का आस्वाद हैं यह आस्वाद काव्य के व्यंज्जन व्यापार के द्वारा उत्पन्न होता है। इस रस के आस्वादन में अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है।

 

  • कहा जाता है कि आरम्भ में रस-सिद्धान्त का चिन्तन प्रमुख रूप से नाट्याश्रित थाकाव्य के क्षेत्र में इसका प्रयोग आगे चलकर हुआ। आरम्भ में काव्यांग के रूप में तो बोध रस के महत्त्व का सहज बोध थाकिन्तु सिद्धान्त के रूप में उसकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकी थी। काव्याश्रित रस के सम्बन्ध में प्रथम चर्चा अग्निपुराण में हुईसम्भवतः तभी से काव्याश्रित रस-सिद्धान्त में चर्चा का विषय बना । किन्तु भरत के नाट्ययाश्रित रस-सिद्धान्त को काव्याश्रित रस-सिद्धान्त के मूल स्रोत के रूप में देखा जा सकता है. 

 

  • अग्निपुराणकार ने रस और काव्य के परम्परा सम्बन्ध की एक नवीन व्याख्या प्रस्तुत की है जिसे विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ में उद्धृत किया है। अग्निपुराण में 'वाग्वैदग्ध्य की प्रधानता होने पर भी रस को काव्य की आत्मा कहा गया है ( वाग्वैदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम्) रस के सम्बन्ध में अग्निपुराणकार ने एक विचित्रकिन्तु मौलिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है जिसके अनुसार परब्रह्म परमात्मा की सहज आनन्द की अभिव्यक्ति का नाम चैतन्यचमत्कार अथवा रस है (चैतन्चमत्काररसाख्या)। उस चैतन्य रूप परब्रह्म का प्रथम विकार महत्त तत्त्व हैउस महत्त तत्त्व से अभिमान या अहंकार की अनुभूति होती हैमहत्तत्त्व के समान अहंकार भी त्रिगुणात्मक है। जब रजस् एवं तमस् के संस्पर्श से रहित सत्त्व का उद्रेक होता है तब सहृदयों के द्वारा रसानुभूति होती हैयही अनुभूति ही आस्वाद है। यही चैतन्यचमत्कार अथवा रस है। अग्निपुराण का यह रस-सिद्धान्त काव्याश्रित और नाट्याश्रित दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।


  • अग्निपुराण के पश्चात् आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्त ने काव्य में रस के महत्त्व को स्वीकारा और रस को काव्याश्रित सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठापित किया। किन्तु आनन्दवर्धन ने रस को काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार नहीं किया। जबकि अभिनवगुप्त ने रस- सिद्धान्त को अधिक महत्व दिया और रस को काव्य का जीवन कहा (रसेनैव सर्वं काव्य जीवति)। उनके मतानुसार रस से शून्य काव्य कोई चीज नहीं है। (नहि तच्छून्यं काव्यं किच्चिदस्ति) । इसलिए रस ही वस्तुतः काव्य की आत्मा हैवस्तुध्वनि और अलंकारध्वनि तो सर्वथा रस के प्रति पर्यवसित होते हैं। (रस एवं वस्तुतात्मा । वस्त्वलंकारध्वनी तु रसं प्रति पय्रवस्येते) । विश्वनाथ ने इस रस सिद्धान्त को जिसे अग्निपुराणकार ने आत्मा का रूप दिया और अभिनवगुप्त ने प्रतिष्ठा की तथा अधिक विकसित रूप में व्यवस्थित कियाउसे काव्य का जीवन बताया (रसात्मकं वाक्य काव्यम्) विश्वनाथ ने रस को सहृदय संवेद्यअलौकिक काव्यार्थतत्त्व कहा हैकिन्तु रस का आस्वादन सबको नहीं होता। रस का अनुभव उसी को होता है जिसके हृदय में सत्त्व का उद्रेक होता हैं रजोगुण और तमोगुण के संस्पर्श से रहित चित्त सत्त्व कहलाता हैउस सत्त्व के उद्रेक से सहृदयों के द्वारा अनुभूत रस अखण्डस्वयं प्रकाश एवं आनन्दमय इत्यादि स्वसंवेदनरूप है। उस समय किसी ज्ञेय वस्तु का संस्पर्श नहीं रहता । यह अनुभव अलौकिक चमत्कार अर्थात् सहृदय के चित्त का विस्तार है और वह चमत्कार ही रसानुभूति का प्राण है। पण्डितराज जगन्नाथ ने अभिनवगुप्त एवं मम्मट के मत को उद्धृत कर अपना मत प्रस्तुत किया हैं मम्मट के अनुसार विभावादि व्यक्त स्थायीभाव रस है। 'व्यक्तहै अज्ञान रूप आवरण का नाश होने से चैतन्य का प्रकाशित होना। जिस प्रकार शराब आदि के द्वारा पिहित दीपक उस आवरण के हटा देने पर पदार्थो को प्रकाशित करता है और स्वयं भी प्रकाशित होता है। उसी प्रकार स्वप्रकाशानन्द रूप आत्म-चैतन्य भी आवरण के हट जाने पर विभार्वाद संवलित इत्यादि को प्रकाशित करता है और स्वयं भी प्रकाशित होता है। इस प्रकार मम्मट और अभिनवगुप्त के अनुसार अज्ञान रूप आवरण से रहित चिद्धिशिष्ट (चैतन्य से युक्त) इत्यादि स्थायीभाव रस है । वस्तुतः 'रसो वै सः इत्यादि श्रुति के अनुरूप इत्यादि विशिष्ट आवरण रहित चैतन्य ही रस है और चैतन्य के आवरण का भग्न हो जाना अर्थात् उसका अज्ञान हट जाना ही रस की चर्वणा (आस्वाद) है अथवा अन्तःकरण की वृत्ति का आनन्दमय हो जाना चर्वणा है। यह चर्वणा ब्रह्म के आस्वाद रूप समाधि से विलक्षण है। क्योंकि रसजन्य आत्मानन्द आलम्बनविभावदि के विषयों से संवलित है और समाधिजन्य आत्मानन्द विषयों के अभाव से युक्त होता है। यह आस्वाद (चर्वणा) काव्य के व्यंजना व्यापार के द्वारा उत्पन्न होता हैं अब यह प्रश्न होता है कि रसास्वादन में सुख की प्रतीति होने में क्या प्रमाण हैतो यह भी प्रश्न उठता है कि समाधिजन्य सुख के भान होने में क्या प्रमाण हैदोनों में प्रश्न समान है। यदि यह कहा जाय कि समाधिजन्य सुख के विषय में सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्" इत्यादि शाब्द प्रमाण है तो यहाँ भी रसास्वाद के विषय में भी रसो वै सः । स ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दीभवति" यह श्रुति प्रमाण है और दूसरा सहृदयों का अनुभव प्रत्यक्ष प्रमाण है। 


भट्टनायक का मत

 

  • भट्टनायक ने अभिधा शक्ति के अतिरिक्त भावकत्व और भोजकत्व दो नवीन व्यापारों को स्वीकार किया है। उसके अनुसार अभिधा व्यापार द्वारा पहले काव्य का अर्थमात्र समझा जाता हैफिर भावकत्व व्यापार उस अभिधाजन्य अर्थ को परिष्कृत कर व्यक्ति विशेष से उसका सम्बन्ध हटाकर साधारणीकृत करत देता है। उसके बाद भावकत्व व्यापार के द्वारा साधारणीकरण हो जाने पर भोजकत्व व्यापार उस साधारणीकृत इत्यादि स्थायीभाव का रस के रूप में भोग करवाता है भाव यह कि भट्टनायक के अनुसार भाव्यमान स्थायीभाव सहृदयों के हृदय में स्थिति रजस् और तमस् को अभिभूत करके सत्त्व गुण को उद्रेक होने से प्रकाशरूप आनन्द का अनुभव होता हैयह आनन्दानुभव वेदान्तरससम्पर्कशून्यब्रह्मास्वादसविध रसानुभव हैयही रसभोग है। इस मत में पूर्व मत से भावकत्व व्यापार का स्वीकरण ही विशेषता है। भोग आवरणरहित चैतन्य रूप है और भोगीकृत्त्व व्यापार व्यंजना है।

 

नवीनों का मत

 

  • काव्य में कवि के द्वारा और नाटक में नट के द्वारा विभावादि के प्रकाशित हो जाने पर दुष्यन्तादि के प्रकाशित हो जाने पर व्यंजना व्यापार के द्वारा दुष्यन्तादि का शकुन्तला विषयक प्रेम (रति) का ज्ञान हो जाने पर तदनन्तर सहृदयता के कारण उल्लसित भावना विशेष रूप दोष की महिमा से हमारा अन्तः करण अज्ञान से अच्छादित हो जाता हैतब उस अज्ञानवृत्त अन्तःकरण में सीप में चाँदी की प्रतीति के समान कल्पित दुष्यन्तत्व से आच्छादित अपने आत्मा में शकुन्तला विषयक अनिर्वचनीय इत्यादि चित्तवृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती है और वे चित्तवृत्तियाँ आत्मचैतन्य के द्वारा प्रकाशित होती हैं। उन्हीं विलक्षण इत्यादि चित्तवृत्तियों का नाम 'रसहै । यह रस पूर्वोक्त दोष विशेष का कार्य है और उसके नष्ट हो जाने पर नष्ट हो जाता है अर्थात् जब तक दोष का प्रभाव रहता है तभी तक हमें उसकी प्रतीति होती है।


अन्य मत

 

  • दूसरे विद्वानों का कथन है कि न तो इत्यादि बोध के लिए व्यंजना व्यापार की आवश्यकता है और न अज्ञानावृत अन्तःकरण में अनिर्वचनीय इत्यादि की कल्पना काम की किन्तु पूर्वोक्त भावनारूप दोष के विशेष प्रभाव से सहृदय अपने को दुष्यन्तादि समझने लगता तब अन्तःकरण में यह भ्रम होता है कि हम शकुन्तला - विषयक इत्यादि से विशिष्ट व्यक्ति से अभिन्न हैं अर्थात् मैं शकुन्तलाविषयक रतिमान् दुष्यन्त हूँ इस प्रकार का भ्रमात्मक बोध ही 'रसहै । इस प्रकार रस एक प्रकार का भ्रम है।

 

भट्टलोल्लट आदि का मत

 

  • भट्टलोल्लट प्रभृति आचार्यों का मत है कि मुख्यतया दुष्यन्तादिगत इत्यादि स्थायीभाव ही रस हैउन्हीं का कमनीय विभावादि का अभिनय प्रदर्शन में निपुण आदि के अनुकर्ता नट में आरोप करके हम रस का अनुभव करते हैं। इस मत में पूर्व की तरह शकुन्तला दुष्यन्त विषयक इत्यादि पात्र विशिष्ट है। इस प्रकार दुष्यन्तगत शकुन्तला-विषयक रति ही 'रसहै . 


श्रीशंकुक प्रभृति आचार्यो का मत

 

  • शंकुक प्रभृति आचार्यों का मत है कि दुष्यन्तादिगत इत्यादि का में दुष्यन्त समझकर अनुमान कर लिया जाता है तो वह सहृदय द्वारा अनुमीयमान इत्यादि स्थायीभाव ही 'रसकहलाता है। नाट्य आदि में विभावादि के कृत्रिम होने पर भी उसे अकृत्रिम (स्वाभाविक) मानकर और नट को दुष्यन्त समझकर विभावादि के द्वारा नट में इत्यादि का अनुमान कर लिया जाता है । यह अनुमीयमान इत्यादि रस है। इस प्रकार शंकुक आदि के अनुसार सहृदय का रसबोध अनुमति अर्थ है और अनुमान का आधार नट है जिसमें इत्यादि स्थायीभाव रूप रस अनुकृत है और नट अनुकारक है। 


कुछ अन्य आचार्यों का मत

 

  • कुछ अन्य आचार्यों का मत है कि विभावअनुभाव और व्याभिचारी भाव तीनों का समुदित रूप रसहै। तीनों में से किसी एक को रस मानना समुचित नहीं है। 


अपर मत 

  • बहुत से आचार्यों का मत है कि विभावअनुभाव और व्यभिचारी भाव इन तीनों में जो चमत्कारी हो वह 'रसहै। यदि चमत्कारी न हो तो तीनों ही रस नहीं कहलायेगें ।

 

अन्य आचार्यों का मत

 

  • कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि नट को अभिनय करता हुआ देखकर उसका बार-बार अनुसन्धान करने पर हमें आनन्द का अनुभव होता है। अतः विभाव ही रस है (भाव्यमानो विभाव एव रसः) अर्थात् बार-बार अनुसन्धान किया हुआ इत्यादि का आलम्बन ही 'रसहै। 

दूसरों का मत  

  • कुछ अन्य आचार्यों का मत है कि नट के द्वारा दुष्यन्तादि की शारीरिक चेष्टाओं का बार-बार अनुसन्धान करने से आनन्द प्राप्त होता है। अतः अनुभाव ही 'रस। (अनुभावस्तथा )

 

कुछ अन्य आचार्यों का मत

 

  • कुछ अन्य आचार्यों का मत है कि बार-बार अनुसन्धान किया हुआ व्यभिचारीभाव ही रस रूप में परिणत होता हैअर्थात् आलम्बन विभाव की चित्तवृत्तियाँ ही रस के रूप में परिणत होती हैं। 

('व्यभिचार्येव तथा परिणमतिइति केचित्)

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