भवभूति का व्यक्तित्व | Bhav Bhuti Ka Vyaktitatv

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 भवभूति का व्यक्तित्व Bhav Bhuti Ka Vyaktitatv

भवभूति का व्यक्तित्व | Bhav Bhuti Ka Vyaktitatv


 

  • यद्यपि नाटककार को अपने नाटक में प्रत्यक्ष रूप से आत्माभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नही रहती हैतथापि वह किसी न किसी रूप में अपनी कृतियों में अपने गुणस्वभावविचारों तथा सिद्धान्तो को बिना अभिव्यक्त किये नहीं रहता। भवभूति की कृतियों के अध्ययन से उनके भी व्यक्तित्व का आभास हमें सुगमता से हो जाता है । भवभूति उत्कृष्ट कोटि के विद्वान् थे । 


  • इन्हे विद्वत्ता पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हुई थी। अपनी विद्वता पर इन्हें गर्व भी थाजो भाषा पर इनके पूर्ण अधिकार को देखते हुए स्वाभाविक एवं सात्त्विक प्रतीत होता है। 'मालतीमाधवके ये नाम केचिदिह-इत्यादि श्लोक से प्रतीत होता है कि इन्हें प्रारम्भिक जीवन में उचित सम्मान नही प्राप्त हुआ था । किन्तु 'सर्वथा व्यवर्त्तव्यं कुतो ह्मवचनीयता । यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः ।' (उत्तर. ) के अनुसार कर्त्तव्य-पालन में आस्था रखने वाले महाकवि 'उत्तररामचरितकी रचना के बाद यश:प्राप्ति के साथ-साथ प्रौढ़ावस्था में कन्नौज के राजा यशोवर्मा का आश्रय भी प्राप्त हो गया था । 


  • कर्मकाण्ड - प्रवीण तथा विश्रुत मीमांसक होते हुए भी भवभूति स्त्री शिक्षा के पक्षपाती थे । इनके नाटकों में विदूषक की योजना न होने से इनके गम्भीर स्वभाव का पता लगता है। बहुत संभव है कि साहित्य क्षेत्र में बहुत दिनों तक होने वाली इनकी उपेक्षा नेअथवा बारम्बार विधुरावस्था के इनके वर्णन से प्रतीयमान असामयिक वैधुर्य भाव ने ही इन्हें गम्भीर बना दिया हो । इनकी यह गम्भीरता हास-परिहास को भी गम्भीर बनाकर ही प्रस्तुत करती है । चित्रवीथी में लक्ष्मण द्वारा चित्रों को दिखलाते समय उर्मिला को छोड़कर आगे बढ़ने पर सीता की-वत्स! 'इयमप्यपरा काइस उक्ति से लक्ष्मण लजा जाते है। यह परिहास अत्यन्त शिष्ट और मनोरम होते हुए भी कवि की गम्भीरता के कारण स्मिति तक ही सीमित रह जाता है। प्रस्तुत नाटक के अन्त में सीता को मिलते समय लक्ष्मण प्रणाम करते हुए कहते है-अयं निर्लज्ज लक्ष्मणः प्रणमति। सीता आर्शीवाद देती है-वत्सईदृशस्त्वं चिरन्जीव ।सीता की यह युक्ति मधुर उपालम्भ के साथ ही विनोद से भी पूर्ण हैकिन्तु कवि की गम्भीरता के कारण ही इसमें उच्छृखंलता की गन्ध नही है। वस्तुतः निर्मल हास का प्रस्तुतीकरण भी गम्भीरता की अपेक्षा रखता है। यही कारण है कि भवभूति हास्य के क्षेत्र में भी अन्य कवियों से अनूठे ही दिखलायी पड़ते हैं। अन्य कवि तो हास्य को उच्छृखंल बनाने के ही उद्देश्य से विदूषक की योजना करते है । अतः उसमें निर्मलता का दर्शन असम्भव है।

 

  • महाकवि भवभूति सात्त्विक प्रेम के पक्षपाती है। इसमें भी उनके हृदय का गाम्भीर्य ही हेतु है। अतएव उसमें वासना का ज्वार नहीं और बाहरी कारणो की अपेक्षा भी नही है । वह तो आन्तरिक हेतु पर निर्भर है। जो उसे गहरी आत्मीयता में निमग्न कर सात्त्विक रूप प्रदान करता है।

 

'व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतु 

र्न खलु बहिरूपाधीन् प्रीतयः संश्रयन्ते । ' (उत्तर. )

 

भवभूति ने श्रृंगार के संभोग का भी चित्र पूर्व स्मृति के रूप में खींचा हैकिन्तु वहाँ भी इनकी गम्भीरता ने कामचेष्टाओं के ओछापन को नही आने दिया है। और आत्मीयता के गहरे रंग से रंजित कर मनमोहक बना दिया है।

 

किमपि किमपि मन्दं मन्दमासत्तियोगाद्विरलितकपोलं जल्पतोरक्रमेण । 

अशिथिलपरिरम्भव्यापृतैकैदोष्णो रविदितगतयामा रात्रिरेव व्यरंसीत् । (उत्तर ) 


  • भवभूति मानव-मन के चतुर पारखी थे। मन के अन्तर्द्वन्द्व को पकड़ने तथा उसे सफल अभिव्यक्ति देने में ये सिद्धहस्त थे। यहीं कारण है कि प्रस्तुत नाटक में सीतारामराजर्षि जनककुश लवचन्द्रकेतुकौसल्यावासन्ती आदि विभिन्न कोटि के मनुष्यों के मन के अन्तर्द्वन्द्व की जैसी सफल अभिव्यक्ति हुई हैविश्व के साहित्य में भी दुलर्भ है। इस बात की प्रशंसा पाश्चात्य समालोचक भी मुक्तकण्ठ से करते है । भवभूति की वेदनाव्यथित विधुरावस्था की अनुभूति की तीव्रता में उनके उल्लासमय दाम्पत्य जीवन की मधुरता ही मुख्य हेतु है। उनके आदर्श दाम्पत्य जीवन की मनोरम झॉकी उत्तररामचरित में दर्शनीय एवं स्पृह्णीय है । सत्चरित्रतानिष्ठा और मर्यादा पूर्ण जीवन जीने वाले तथा धर्म में गहरी आस्था रखने वाले भवभूति के मत में ही स्त्री भोग विलास की सामग्री नहींअपितु घर की लक्ष्मी तथा नेत्रों के लिए अमृतशलाका की भाँति शान्ति-प्रदायिनी हैवह जीवन सहचरी है और पवित्रता की मूर्ति है । विवाह का उद्देश्य भोग विलास नहीअपितु कर्त्तव्य-पालनत्याग तपस्याप्रजातन्तु को विच्छेद से बचाना है। गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाने में सन्तान का महत्व सर्वोपरि है। वह दम्पति के अन्तःकरण की आनन्दग्रन्थि ही तो है।

 

  • सर्वथा कल्याणकारी दाम्पत्य स्नेह के विषय में भवभूति की मान्यता है कि वह किसी किसी सौभाग्यशाली को ही भाग्य से ही प्राप्त होता है। उसकी यह विशेषता है कि सुख-दुःख और सभी अवस्थाओं में एकरस रहता है । वह हृदय को अपूर्व विश्राम देता है । वृद्धावस्था में भी उसमें अनुराग की कमी नही होती। वह समय पाकर सभी प्रकार के संकोचो के समाप्त हो जाने से प्रगाढ़ एवं उत्कृष्ट प्रेम के रूप में स्थिर रहता है ।


  • डा. व्यास के शब्दों में संक्षेप में यों कहा जा सकता है कि भवभूति का व्यक्तित्व संस्कृत साहित्य में जीवन की मधुरता और कटुताअन्तः प्रकृति और बाह्मप्रकृति के कोमल और विकटदोनो रूपों के ग्रहण करने की क्षमता रखता है। भवभूति ही वह श्रीकण्ठ हैजिन्होंने ने एक साथ चन्द्रकला की शीतल सरसता और विष की तिक्ततादोनो को जीवन के उल्लासमय और वेदनाव्यथितदोनो तरह के पहलुओं को सहर्ष अंगीकार किया है।

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