बालकों में प्रतिस्पर्धा, सहयोग एवं संघर्ष
बालकों में प्रतिस्पर्धा, सहयोग एवं संघर्ष
प्रतिस्पर्धा-
प्रतिस्पर्धा की उपस्थिति में बालक अधिक कार्य करते हैं और ऐसे कार्यों में भी भाग लेते हैं, जिनमें मूलतः उनकी विशेष रुचि नहीं हैं। प्रतिस्पर्धा स्कूलों मे एक महत्वपूर्ण प्रेरक का कार्य करती हैं। इसके मूल में सामाजिक आवश्यकताएँ होती हैं। वालक समाज रूपी स्कूल में अपना स्थान बनाना चाहता है। इसके लिए विद्यार्थियों के सम्मुख प्रतिस्पर्धा में भाग लेने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रहता है। यहाँ प्रतिस्पर्धा के सम्बन्ध में कुछ आधारभूत जानकारी आवश्यक है।
प्रतिस्पर्धा की सफलता निम्नलिखित बातों में निहित होती हैं-
- प्रत्येक विद्यार्थी को अपने परिश्रम के अनुसार पुरस्कार की आशा हो।
- प्रत्येक बालक को प्रतिस्पर्धा में भाग लेने की प्रशिक्षा दी गई हो।
- प्रतिस्पर्धा की क्रियाएँ पर्याप्त तथा अनेक हों जिससे सभी विद्यार्थियों को सफलता का कुछ अनुभव हो।
- असफलता को असफलता न समझी जाकर एक अस्थायी बाधा समझी जाए।
- स्पर्धा के अवांछित परिणाम भी हो सकते हैं। 'यदि-
- स्पर्धा इतनी प्रबल हो कि संवेगात्मक असन्तुलन उत्पन्न हो जाए।
- सफलता केवल कुछ विद्यार्थियों तक ही सीमित रहे।
- विजय पर इतना बल दिया जाए कि सहयोग आदि गुणों के विकास का ध्यान ही न रहे।
- लक्ष्य को प्राप्त न कर सकना पूर्ण असफलता समझी जाए तथा साथियों के बिछुड़ने का भय हो।
- यह सामाजिक व्यवस्थापन में बाधक हो।
- प्रारम्भिक बाल्यकाल में सहोदरों से स्पर्धा का मुख्य कारण खाने-पीने की वस्तुएँ होती हैं। बच्चे घर में स्वादिष्ट फल या मिठाई अधिक खाने के लिए एक-दूसरे से स्पर्धा करते हैं और एक-दूसरे पर झूठे आरोप भी लगाते हैं। धीरे-धीरे उनका स्पर्धात्मक भाव अन्य वस्तुओं की ओर भी विकसित हो जाता है। जैसे-सुन्दर और महंगे वस्त्र, आकर्षक कलम, खेल में स्पर्धा तथा प्रतिष्ठा जनक अन्य वस्तुओं के बारे में स्पर्धा। किशोर बालक को अपनी प्रतिष्ठा का विशेष ध्यान रहता है, किशोर और किशोरियाँ उन सब वस्तुओं को प्राप्त करना चाहते हैं, जो प्रतिष्ठाजनक है। जैसे-मोबाईल, लेपटॉप, कलाई की घड़, प्रचलित फैशन के कपड़े आदि। क्योंकि ये वस्तुएँ विषम लिगियों से सम्पर्क तथा सम्बन्ध स्थापित करने हेतु तथा सामाजिक लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहायक होती है। अतएव यह स्वाभाविक ही है कि किशोर एवं किशोरियाँ भौतिक सुख-सुविधा तथा आलंकारिक वस्तुओं को प्राप्त करने में स्पर्धापूर्ण व्यवहार करें। जिन किशोरों को ये वस्तुएँ उपलब्ध नहीं होती वे अपने दुर्भाग्य को कोसते रहते हैं और जिनके पास ये वस्तुएँ होती हैं उन्हें वे भाग्यशाली कहते हैं। इन प्रतिष्ठाजनक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए कुछ किशोर कठिन परिश्रम करते हैं और कुछ चोरी आदि निन्दनीय कार्य करने लगते हैं।
सहयोग-
- बालकों के मन में यदि यह भावना उत्पन्न कर दी जाए कि किसी विशेष विषय का ज्ञान प्राप्त करने के लिए वे स्वयं उत्तरदायी है तो इससे उस विषय में वे रुचि लेने लगते हैं। ऐसा करने के लिए यह आवश्यक है कि बालकों को निःसंकोच सुझाव प्रेषित करने तथा विचारों में योग देने का अवसर दिया जाए। इससे बालक अनुभव करेंगे कि अमुक कार्य का परिणाम उनके प्रयत्नों पर ही निर्भर है, इस कार्य की सफलता अथवा असफलता के लिए वे स्वयं उत्तरदायी है।
संघर्ष का अन्तर्द्वन्द्व-
- बालकों में अन्तर्द्वन्द्व की उत्पत्ति के अनेक कारण हैं। अन्तर्द्वन्द्व का एक स्त्रोत परिवार भी है। परिवार के प्रत्येक सदस्य के दृष्टिकोणों में भिन्नता होती है। इस भिन्नता के कारण भी अन्तर्द्वन्द की उत्पत्ति होती है। जब बच्चे माता-पिता के आधिपत्य में रहते हैं तो उनका किशोरावस्था तक का जीवन तो सरलता से कट जाता है, परन्तु जब वे बड़े होकर किसी व्यवसाय में जाते हैं तब उन्हें भिन्न परिस्थितियों में समायोजन की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में वह विभिन्न अन्तर्द्वन्द्वों से ग्रस्त हो जाता है। हीनता की भावना से ग्रस्त व्यक्तिभी अनेक प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व का शिकार हो जाते हैं। जब व्यक्ति अपने आकांक्षा स्तर से अधिक स्तर वाली आवश्यकताओं की पूर्ति चाहता है अथवा जब उसका आकांक्षा स्तर उसकी योग्यताओं से अधिक होता है तब इस अवस्था में वह अपनी उच्च आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में असफल हो सकता है। असफलता के फलस्वरूप उसमें अन्तर्द्धन्द्ध उत्पन्न हो सकते हैं। संस्कृति का फैलाव भी अन्तर्द्वन्द्व का कारण है। जब एक संस्कृति के कुछ व्यक्ति अपनी संस्कृति के अनुसार चलाते हैं तथा अन्य व्यक्ति दूसरी संस्कृति के तौर-तरीके पसन्द करते हैं, तो दूसरी संस्कृति का पहली संस्कृति में यह प्रचलन भी व्यक्तियों में अन्तर्द्वन्द्व का कारण बनता है।
- कामवासना की सन्तुष्टि होने और न होने का सम्बन्ध भी किशोरों में अन्तर्द्वन्द्व का कारण बनता है। किशोरावस्था के मध्य तक कामवासना की दृष्टि से लड़के, लड़कियाँ परिपक्व हो जाते हैं, परन्तु इनकी सामाजिक अनुमति अर्थात् विकास इस अवस्था में 5 या 10 या इससे अधिक वर्षों के बाद प्राप्त होती है। लगभग 15 वर्ष की अवस्था से लेकर आगे जब तक लड़के-लड़कियों का विवाह नहीं हो जाता है, तब तक यह विभिन्न प्रकार के कामवासना से सम्बन्धित अन्तर्द्वन्द्वों से पीड़ित रहते हैं। अन्तर्द्वन्द्र से ग्रसित व्यक्ति आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं।