सांख्य दर्शन की तत्वमीमांसा | Sankhya Darshan Tatvmimansha

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सांख्य दर्शन की तत्वमीमांसा

सांख्य दर्शन की तत्वमीमांसा | Sankhya Darshan Tatvmimansha


सांख्य दर्शन की तत्वमीमांसा 

  • आप सांख्य दर्शन के अर्थआचार्य परम्परा व साहित्य आदि से भलीभाँति परिचित हो गये होगें। अब सांख्य दर्शन की तत्वमीमांसा पर विचार किया जायेगा। सांख्य की तत्वमीमांसा का वर्णन करने के पहले तत्वमीमांसा का अर्थ जानना उचित होगा।

 

तत्वमीमांसा का अर्थ - 

  • दर्शन का मौलिक स्वरूप तत्वविषयक है। दार्शनिक मूल तत्व की समस्या पर विचार करते हैं। मौलिक तत्व की संख्या कितनी है। एक है या अनेक है। मौलिक तत्व का स्वरूप चेतन है अचेतन। मूल तत्व के साथ एक और भी प्रश्न जुड़ा हुआ है। यदि तत्व मौलिक है। तो सम्पूर्ण सृष्टि उसी से हुई है। दूसरे शब्दों में सृष्टि मूल तत्व की कृति है। अतः सृष्टि विचार भी तत्वमीमांसा से सम्बन्धित है। मान लिया जाय कि सृष्टि कार्य है। तो इसका कर्ता अवश्य होगा। इस सृष्टिकर्ता को प्रायः ईश्वर कहते है। अतः ईश्वर विचार भी तत्वमीमांसा से सम्बन्धित है। इस प्रकार तत्वों की संख्यास्वरूपसृष्टि प्रक्रिया और ईश्वर विचार ही तत्वमीमांसा है।

 

सांख्य स्वीकृत तत्वों की संख्या - 

सांख्य दर्शन में स्वीकृत तत्वों की संख्या का संकेत करते हुए गौडपाद कहते है-

 

पंचविंशतितत्वज्ञो यत्र तत्र आश्रमे वसन् । 

 जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ।।

 

  • अर्थात जिस किसी भी आश्रम में निवास करने वाला जटाधारीसिर मुड़ायें रहने वाला और शिखा धारण करने वाला 25 तत्वों के ज्ञान से मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसमें संदेह नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सांख्य दर्शन 25 तत्वों को स्वीकार करता है। ये तत्व हैं- प्रकृतिमहानअहंकार 11 इन्द्रियां, 5 तन्मात्र, 5 महाभूत। इन्हीं पच्चीस तत्वों को व्यक्त अव्यक्त एवं ज्ञ में ईश्वकृष्ण ने अन्तर्भूत किया हैऔर इन्हीं के तत्वज्ञान से उत्पन्न कैवल्य को त्रिविध दुःख शमन का आत्यंतिक व एकांतिक उपाय बताया है।। अव्यक्त तत्व प्रकृति है। और ज्ञ तत्व पुरूष है। इनपर क्रमशः प्रकाश डाला जा रहा हैं। इन्ही 25 तत्वों को अविकृतिप्रकृति विकृतिविकृतिन प्रकृति न विकृति के चार विभाग में दिखाया गया है । 

 

  • प्रकृति अविकृति तत्व है यह एक है। प्रकृति विकृति और विकृति ये कुल 23 तत्व हैं। और ये प्रकृति के परिणाम विशेष हैं। ज्ञ तत्व पुरूष हैं। यह अनेक है। इनमें स्वरूपगत एकता एवं संख्यागत भिन्नता है। चूँकि प्रकृति और पुरूष के संयोग से 23 व्यक्त तत्व उत्पन्न होते हैं। अतः इन 23 तत्वों के स्वरूप का प्रतिपादन सृष्टि प्रक्रिया को बतलाते हुए किया जायेगा। चूँकि व्यक्त प्रकृति के परिणाम हैं। अतः प्रकृति और पुरूष ही दो मूल तत्व हैं। इन्ही दो मूल तत्वों को स्वीकार करने के कारण सांख्य दर्शन को द्वैतवादी दर्शन कहते है। दो मूल तत्वों की संख्या स्वीकार करना ही द्वैतवाद है। सांख्य के अनुसार तत्व और उसके परिणाम सभी यथार्थ हैं। अतः यह यथार्थवादी दर्शन है।

 

सांख्य सम्मत मूल तत्वों का स्वरूप व सिद्धि- 

  • चूँकि प्रकृति और पुरूष ये दो ही मूल तत्व हैं। अतएव इन के स्वरूप व सिद्धि पर विचार करना युक्ति संगत होगा। सांख्य सम्मत प्रकृति तत्व स्वरूप व सिद्धि प्रकृति का अर्थ है प्रकरोति इति प्रकृतिः प्रकृष्ट सर्जनात्मक शक्ति ही प्रकृति है। अव्यक्तप्रधान और माया इसके अपर पर्याय है। समस्त कार्य इसमें अव्यक्त रूप से विद्यमान रहते है अतः इसे अव्यक्त कहते हैं। प्रकर्षेण धीयते अवस्थाप्यते अत्राखिलम् इति प्रधानम् 1 अर्थात् सम्पूर्ण कार्य समूह जिसमें प्रकृष्ट रूप से अवस्थित हो जाता हैं। वह प्रधान है। देवी भागवत 2 के अनुसार प्रकृति में प्र शब्द और कृति शब्द है। प्रशब्द का अर्थ है- प्रकृष्ट और कृति का अर्थ है सृष्टि जो सृष्टि करने में मूल तत्व है। वही प्रकृति है। प्रकृऔर ति सत्वरजस एवं तमो गुण के बोधक हैं। अतः त्रिगुणात्मिका शक्ति प्रकृति है। वही प्रकृति है। प्र शब्द प्रथम का वाचक है कृति-सृष्टि का वाचक है अतः जो सृष्टि का आदि कारण है वही प्रकृति है।

 

  • प्रकृति अन्य कारण से अनुत्पन्न है अतः अकारण है। नश्वर नहीं होने से नित्य है। कार्या में व्याप्त रहने से व्यापक है। एक है। आश्रय है क्योंकि कार्य इसी में आश्रय लेते है। अन्य कहीं लीन न होने से अलिंग है। निरवयव है। स्वतन्त्र है। त्रिगुणात्मिका है। अविवेकी है। भोग्य होने से विषय है। सर्वसाधारण होने से सामान्य है। सुख-दुःख एवं मोह को नही जानती है अतः अचेतन है। जड़ है। नित्यपरिणामी है। प्रकृति में प्रलयावस्था में गुणों में सरूपरिणाम और सृष्टि की बेला में विरूपपरिणाम होते हैं। यह अत्यन्त सूक्ष्म है। इसकी उपलब्धि इसके कार्यों से होती है। इसकी सत्ता सामान्यतोदृष्ट अनुमान से सिद्ध होती है। प्रकृति ही पुरूष का कैवल्य सम्पन्न करती है। प्रकृति उपकारिणी है। गुणवती है। विभिन्न आश्रयों वाली प्रकृति ही बँधतीसंसरण करती एवं छूटती है। तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है। गुण का अर्थ है दूसरे के लिए होनारज्जु होनागौड होना इन तीनों ही अर्थों में सत्वरजस् तमस् गुण हैं। ये प्रकृति के संरचनात्मक तत्व है। प्रकृति और गुणों में तद्रूपता है। चन्द्रधर शर्मा के अनुसार तीनों गुण प्रकृति के निर्माणक व संघटक तत्व हैं।

 

सत्वगुण - 

  • श्रद्धावान लभते ज्ञानम् सत्व गुण का स्वरूप सुखात्मक है। इसका प्रयोजन विषयों को प्रकाशित करना है। यह लघु है। इसका रंग श्वेत है। इसके उत्कट होने पर सरलता सत्य पवित्रता क्षमा धैर्य अनुकम्पा लज्जा शान्ति संतोष और सच्ची श्रद्धा उत्पन्न होती है। अंग हल्के होते हैं। इन्द्रियों में निर्मलता होती है। वे विषयों को प्रकाशित करती हैं। धर्म में सदैव प्रीति होती है। रजोगुण रजोगुण का स्वरूप दुखात्मक है। क्रियाशील रहते हुए दूसरे गुणों को उत्तेजित करना इसका प्रयोजन है। इसका रंग लाल है। जब यह प्रबल होता है तो उत्कंठा अनिद्रा राजसी श्रद्धा द्वेष द्रोह मत्सर स्तम्भ मान मद गर्व उत्पन्न होता है। रजोगुण की प्रबलता से चित्त अस्थिर होता है।

 

तमोगुण - 

  • तमोगुण का स्वरूप मोहात्मक है। नियमन करना इसका प्रयोजन है। वह भारी और अवरोधक है। इसका रंग कृष्ण है। इससे विषाद उत्पन्न होता है। इसके प्रबल होने पर आलस्य अज्ञान निद्रा दीनता भय विवाद कायरता कुटिलता रोष वैषम्य अतिनास्तिकतादूसरों के दोषमात्र देखने की प्रवृत्तिदूसरों को पीड़ित करने की प्रवृत्ति होती है। 
  • गुणों का व्यापार- गुणों का व्यापार निम्न वाक्यांश में वर्णित है।

 

अन्योऽन्याभिभवाश्रयजननमिथुनवृत्तयश्च

 

  • तीनो गुण परस्पर एक दूसरे को तिरस्कृत करने वाले हो कर ही अपने प्रयोजन को करते हैं जैसे सत्वगुण तमोगुण व रजोगुण को अभिभूत करके ही विषयों को प्रकाशित करता है ऐसे ही रजोगुण और तमोगुण भी अन्य दोनो गुणों को अभिभूत करके अपने प्रयोजन को पूरा करते है। 
  • गुण एक दूसरे क आश्रय बनने वाले होते है। जब विषयों का प्रकाशन होता है तो वह तमोगुण और रजो गुण पर अवलम्बित होता है ऐसे ही अन्य गुणो की क्रिया अन्य दूसरे पर अवलम्बित होती है। तीनों गुण एक दूसरे के परिणाम सहकारी हैं। गुण परस्पर अपेक्षा रखते हुए प्रलयावस्था मे प्रकृति मे सरूपरिणाम (जनन) उत्पन्न करते है। ये परस्पर मिथुन भाव से रहते है ये परस्पर सहयोगी है जैसे स्त्री पुरूष मिलकर अपने प्रयोजनो को पूरा करते हैं ठीक वैसे ही गुण भी परस्पर सहायक होकर ही अपना प्रयोजन पूरा करते हैं। जैसा कि कहा गया हे- 

 

अन्योन्यमिथुनाः सर्वे सर्वे सर्वत्रगामिनः ।  

रजसो मिथुनं सत्वं सत्वस्य मिथुनं रजः ।। 

तमसश्चापि मिथुने ते सत्वरजसी उभे । 

उभयोः सत्व रजसोर्मिथुनं तम उच्यते ।। 

नैषामादिः सम्प्रयोगो वियोगो वोपलभ्यते ।। देवीभागवत्

 

  • गुण एक दूसरे की वृत्ति को उत्पन्न करते हैं अन्योन्यवृत्तिः जनयन्ति इति माठरः) जैसे कोई जैसे कोई नय विनम्रता विश्वास चतुरा स्त्री भातृ बन्धु व पति को सुखी करती है वही सौतों मे दुःख एवं मोह को उत्पन्न करती है। इस प्रकार सत्व गुण के द्वारा रजो गुण व तमो गुण की वृत्ति उत्पन्न की जाती हैऐसे ही अन्य दोनो गुण भी अन्य दोनों के व्यापार को उत्पन्न करते है। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता मे इसका संकेत किया है- गुणा गुणेषु वर्तन्ते। 

  • सांख्यकारिका में प्रकृति के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए पांच हेतुओं को दिया गया है। जो निम्न कारिका में हैं।

 

भेदानां परिमाणात् समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेश्च। 

कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य ।। का0.15

 

  • भेदानां परिमाणात्- महदआदि कार्यों के सीमित होने से अव्यक्त का अस्तित्व सिद्ध होता है। 

  • इस संसार के पदार्थ सीमित परतंत्र अव्यापक और अनेक हैं। ये असीमित स्वतंत्र व्यापक और एक की ओर संकेत करते हैं। जैसे बुद्धि अहंकार 11 इन्द्रियां 5 तन्मात्र 5 महाभूत सीमित परतंत्र अव्यापक और अनेक हैं इनका जो कारण है वह असीमित स्वतंत्र व्यापक और एक होना चाहिए वह कारण है अव्यक्त।

 

समन्वयात् - 

  • संसार के सभी पदार्थ सुखात्मक दुखात्मक और मोहात्मक हैं इन सभी कार्यों के मूल कारण में भी इस त्रिगुणात्मक स्वभाव का होना आवश्यक है। इनका मूल कारण अव्यक्त है जो त्रिगुणात्मक है। इस प्रकार तीनो गुणों के स्वरूप का समन्वय प्रकृति में होने से उसका अस्तित्व सिद्ध है।

 

शक्तितः प्रवृत्तेः - 

  • शक्ति से प्रवृत्त होने से अव्यक्त का अस्तित्व सिद्ध होता है। व्यक्त आदि कार्य शक्ति के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। शक्ति आश्रयहीना नहीं होती है। उस शक्ति का आश्रय अव्यक्त है। लोक में जिस व्यक्ति में जैसा कार्य करने की शक्ति होती है वैसे ही कार्य को करता है ठीक ऐसे ही सृष्टि को उत्पन्न करने की शक्ति केवल प्रकृति में ही है। अतः उसका अस्तित्व सिद्ध है।

 

कारणकार्यविभागात् - 

  • करोति इति कारणं क्रियते इति कार्यं तयोर्विभागः तस्मात् जो करता है वह कारण है और जो किया जाय वह कार्य कहा जाता हैचूँकि कारण अलग होता है और कार्य अलग होता है इससे भी प्रकृति का अस्तित्व सिद्ध होता है। जैसे मिट्टी का पिण्ड कारण है और घट कार्य है क्योंकि वही मधु जल दुग्ध आदि ग्रहण करने में समर्थ है न कि मिट्टी का पिण्ड। इसी तरह से व्यक्त और अव्यक्त में भी भेद हैव्यक्त कार्य अलग हैं और अव्यक्त प्रधान व्यक्त से भिन्न कारण है अतः अव्यक्त का अस्तित्व सिद्ध है। 


वैश्वरूप्यस्य अविभागात् - 

  • विश्वरूपस्य भावो वैश्वरूप्यम् बहुरूपम् इति अर्थः तस्य विश्वरूपता का भाव ही वैश्वरूप्य है। वैश्वरूप्य का अर्थ है बहुरूपता उसके अविभक्त रूप में अन्तर्भूत होने के कारण प्रधान का अस्तित्व सिद्ध है। प्रलयकाल में त्रैलोक्य 5 महाभूतों में अभिन्न बन जाता है। 5 महाभूत 5 तन्मात्राओं मे अभिन्न बन जाते हैं। पंच तन्मात्र और 11 इन्द्रियां अहंकार मेंअहंकार बुद्धि में और वह अव्यक्त में अविभक्त बन जाती हैं। इस प्रकार तीनो लोक प्रलयकाल में प्रकृति में अविभक्त रूप से विद्यमान रहते हैं। सभी कार्य समूह के प्रकृष्ट रूप से अवस्थित होने के कारण अव्यक्त को प्रधान कहते हैं। माठरवृत्ति कहती है- प्रकर्षेण धीयते अवस्थाप्यते अत्राखिलमिति प्रधानम्। इस अविभाग के कारण प्रकृति का अस्तित्व सिद्ध होता है।

 

सांख्य सम्मत पुरूष का स्वरूप अस्तित्व व बहुत्व सिद्धि- 

  • आप प्रकृति के स्वरूप गुण और प्रकृति की सिद्धि से परिचित हो चुके हैं। अब सांख्य सम्मत पुरूष तत्व का विवेचन किया जायेगा। 
  • पुरूष आत्मा पर्याय है। पुरूष न तो प्रकृति है न विकृति है। यह किसी अन्य कारण से उत्पन्न नहीं होता है। अतः विकृति अर्थात कार्य नहीं है। और इससे अन्य कोई उत्पन्न ही नहीं होता है अतः यह किसी दूसरे का कारण भी नहीं है। अतएव यह न तो प्रकृति है न विकृति। पुरूष कार्य एवं कारण से अतीत है। पुरूष निर्गुण विवेकी भोक्ता असाधारण चेतन अपरिणामी है। पुरूष अहेतुमत् नित्य व्यापक निष्क्रिय अनेक आश्रय अलिंग निरवयव और स्वतंत्र तत्व है। पुरूष वस्तुतः साक्षी द्रष्टा अकर्ता और उदासीन हैजो पुरूष का स्वरूप धर्म है। संसारी अवस्था में प्रकृति से संयुक्त होने से यह कर्ता और भोक्ता सा प्रतीत होता है। यह सत् चित् है। वन्धन अवस्था में इसे सुख और दुःख का अभिघात सहना पड़ता है। जब तक कैवल्य नहीं हो जाता है। तब तक उसे सुख-दुःख भोगना पड़ता है। पुरूष अनुपकारी है। प्रकृति के द्वारा इसका कैवल्य सम्पन्न होता है। 
  • पुरूष सूक्ष्म तत्व है। इसकी सिद्धि सामान्यतोदृष्ट अनुमान से होती है। पुरूष की सत्ता सिद्ध करने के लिए ईश्वरकृष्ण ने निम्न कारिका में पांच हेतुओं को दिया है।

 

सड्. घातपरार्थत्वात् त्रिगुणादिविषययादधिष्ठानात्। 

पुरूषोऽस्ति भोक्तृभावात्कैवल्यार्थं प्रवृतेश्च ।। का0.17।।

 

पुरूषः अस्ति अर्थात पुरूष हैइसके अस्तित्व के साधक हेतु हैं- 

सङ्‌घातपरार्थत्वात् 

  • जो यह महदादि सघात पदार्थ है वह पुरूष के लिए है ऐसा अनुमान किया जाता है। क्योकि संघात पदार्थ अचेतन है अतः वे पर्यंक् की तरह दूसरे के लिए है और भी यह शरीर पंचमहाभूतो का संघात है। यह भोग्य शरीर जिसके लिए है वह पुरूष है।

 

त्रिगुणादिविपर्ययाद् 

  • त्रिगुणअविवेकि विषय सामान्य अचेतन परिणाम धर्म सावयवपरतंत्र से विपरीत धर्मो वाला होने से पुरूष का अस्तित्व सिद्ध है। व्यक्त तथा अव्यक्त दोनो ही मे ये सरूप धर्म है-त्रिगुण अविवेकि विषयसामान्य परिणाम समान धर्म है। त्रिगुण निर्गुण का अविवेकीविवेकी काऔर विषय अविषय कासामान्य असामान्य का तथा चेतन अचेतन का परिणाम अपरिणाम का निर्देश करता है। ये व्यक्त एवं अव्यक्त के विपरीत धर्म जिसमे है वह तत्व पुरूष है।

 

अधिष्ठानात्-

  • संचालक होने के कारण भी पुरूष का अस्तित्व है। व्यक्त और अव्यक्त सभी त्रिगुणात्मक होने से जड़ हैं। वे स्वयं अपना संचालन नही कर सकते है। उसके संचालक के रूप में पुरूष की सत्ता सिद्ध होती है। जैसे- संसार मे लंघन धावन क्रिया मे समर्थ अश्वो से युक्त रथ सारथी के द्वारा प्रेरित होता है वैसे ही यह अचेतन शरीर भी पुरूष के द्वारा प्रेरित होता है। गीता भी कहती है।

 

हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। यही रहस्य पंचशिख ने ष्टितन्त्र मे निर्दिष्ट किया है। 

पुरूषाधिष्ठितं प्रधानं प्रर्वतते ।

 

4. भोक्तृभावात् 

  • भोक्ता का भाव हो के कारण भी पुरूष का अस्तित्व सिद्धि होता है। व्यक्त और अव्यक्त विषय और सामान्य है। भोग्य होने के कारण विषय है। मूल्यदासी वत् होने के कारण सामान्य है। इन भोग्य पदार्थो को भोक्ता की अपेक्षा होती है। वह भोक्ता पुरूष है जैसे षड्रस समन्ति व्यंजन भोग्य है उसके भोक्ता के रूप मे यज्ञदत्त कि सिद्धि होती है। ऐसे ही महदादि लिङ्‌ग स्वयं अपने भोक्ता नही है ये भोग्य है। इनके भोक्ता के रूप मे आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है।

 

कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च 

  • कैवल्य के लिए प्रवृत्त होने से भी पुरूष की अलग सत्ता सिद्ध होती है। कैवल्य का अर्थ है दुःख का आत्यन्तिकशमन। यतः शास्त्र कैवल्य का प्रतिपादन करते है और लोग इसे पाना चाहते हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि पुरूष है जो मुक्ति चाहता है। 
  • अद्वैत वेदान्त एकात्मवाद का सिद्धान्त मानता है। किन्तु सांख्य दर्शन बहुत से पुरूषों की सत्ता स्वीकार करता है। इसके अनुसार पुरूषों में स्वरूपगत एकता किन्तु संख्यागत बहुत्व है। पुरूष बहुत्व को सिद्ध करने के लिए सांख्यकारिका में पांच हेतु दिये गए हैं .

 

जननमरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च 

पुरूष बहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव ।। का0 18

 

पुरूषबहुत्वं सिद्धम अर्थात् पुरूष बहुत से हैं यह सिद्ध है। इसके सिद्धि के हेतु हैं -

 

जननमरणकरणानां प्रतिनियमाद्  

  • जन्म मृत्यु तथा इन्द्रियों की प्रत्येक जीव के साथ अलग-अलग व्यवस्था होने के कारण पुरूष बहुत हैं। यदि आत्मा एक होती तो एक ही जीव के जन्म से सभी जीवों का जन्म हो जाता। लेकिन हम देखते हैं कि एक ही जीव के जन्म के साथ सभी जीवों का जन्म नहीं होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा एक नहीं अनेक है। इसी तरह से प्रत्येक जीव की मृत्यु भी अलग-अलग होती है। ऐसा नहीं है कि यदि एक की मृत्यु हो जाय तो सभी मर जाय। इससे भी सिद्ध होता है कि आत्मा एक नहीं अनेक है। इसी तरह से प्रत्येक जीव के साथ ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच अलग-अलग व्यवस्था देखने को मिलती है। यदि आत्मा एक ही होती तो एक जीव के अन्धे होने पर सभी जीव अन्धे हो जाते। एक ही जीव के पंगु होने पर सभी जीव पंगु हो जाते। किन्तु ऐसा लोक में दिखाई नहीं पड़ता है। अतएव यह मानना युक्ति संगत है कि जीव एक नहीं अनेक हैं। इस अंश में पुरूष बहुत्व के साधक तीन हेतु जन्म की व्यवस्थामृत्यु की अलग-अलग व्यवस्था और इन्द्रियों की अलग-अलग व्यवस्था को बताया गया है।

 

  • अयुग्पप्रवृत्तेश्च और सभी जीवों के एक ही साथ सदृश कार्यों में प्रवृत्त न होने से भी पुरूष का बहुत्व सिद्ध होता है। यदि आत्म तत्व एक होता तो सभी जीवों की क्रियाओं में सादृश्य दिखाई पड़ताकिन्तु हम देखते हैं कि सभी जीव एक ही साथ एक ही कार्य में प्रवृत्त नहीं होते हैं कुछ जीव धर्म में प्रवृत्त होते हैं तो कुछ अधर्म में। कुछ जीव वैराग्य में प्रवृत्त होते हैं तो कुछ जीव आसक्ति में लगे होते हैं। कुछ जीव ऐश्वर्य में प्रवृत्त होते हैं तो कुछ जीव अनैश्वर्य की ओर प्रवृत्त होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है पुरूष एक नहीं है बल्कि अनेक है।

 

  • त्रैगुण्यविपर्ययात् च तीनों गुणों के परिणाम सुख दुःख मोह में विपर्यय दिखाई पड़ने से पुरूष बहुत हैं। यदि आत्मा एक हो तो सभी जीवों को एक ही साथ सुखी एक ही साथ दुखी अथवा एक ही साथ मोहयुक्त होना चाहिएकिन्तु हम देखते हैं समान जन्म होने पर भी सात्विक पुरूष सुखीराजसी दुखी तथा तामसी व्यक्ति मोहयुक्त होता है। इस कारण यही मानना युक्तिसंगत है कि आत्मा एक नहीं अनेक है।

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