मोक्ष का स्वरुप सांख्य दर्शन के अनुसार | Sankhya Darshan Moksh

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मोक्ष का स्वरुप सांख्य दर्शन के अनुसार 

मोक्ष का स्वरुप सांख्य दर्शन के अनुसार | Sankhya Darshan Moksh


मोक्ष का स्वरुप सांख्य दर्शन के अनुसार 

  • मोक्ष कैवल्यअपवर्गसमानार्थी मुच धातु से बना है जिसका अर्थ है बन्धन से छुटकारा। बन्धन जन्म हैं। मोक्ष शब्द और मरण का अनवरत चक्र है जिसमें पड़कर जीव संसार में सदा दुःख भोगता रहता है। दुःखों का आत्यन्तिक शमन ही मोक्ष है। पुरुष साक्षीउदासीननिर्गुण तथा नित्य कैवल्य प्राप्त है किन्तु अज्ञान के कारण बुद्धि प्रतिबिम्बित अपने प्रतिबिम्ब के साथ तादाम्य में स्थापित कर लेता है जिससे वह अन्तः करण वच्छिन्न चैतन्य के रुप में प्रतीत होने लगता है और अपने को कर्ताभोक्ता व संसारी समझने लगता है और इसी अवस्था में वह आध्यात्मिकआधिभौतिकआधिदैविक दुःखों को भोगने लगता है। यह सब अज्ञान के कारण होता है। अज्ञान से पुरुष का बन्धन होता है। पुरूष ही ज्ञ तत्व है। उसका शरीर में पड़े रहन ही बन्धन है। बन्धन से ही जीव को सुख-दुःख आदि भोगां की प्राप्ति होती है। बन्धन तीन प्रकार का होता है- प्राकृतिकवैकृतिकदाक्षिणिका प्रकृति को आत्मा समझकर उसी की उपासना से उसी में लीन हो जाना प्राकृतिक वन्धन है। प्रकृति के विकारों को आत्मा समझकर उनकी उपासना कर उन्ही में लीन हो जाना वैकृतिक वन्धन है। इष्ट तथा पूर्त कर्मों से दाक्षिणिक वन्धन होता है। इन बन्धनों में पड़े रहने वाले जीव मुक्त नही होते है। बल्कि पुनः जन्म आदि को प्राप्त कर सुखी-दुःखी होते हैं। मोक्ष दुःखों का आत्यन्तिक व एकान्तिक शमन है। वह लौकिक और वैदिक उपायों से नही होता है। दुःख का आत्यन्तिक शमन तो व्यक्तअव्यक्त ज्ञ के विवेकख्याति के द्वारा होता है। विवेकख्याति को केवल ज्ञान के नाम से भी जाना जाता है। इस विवेकख्याति से अपवर्ग होता है जो दुःखातीतावस्था के साथ-साथ सुखातीतावस्था भी है। केवल ज्ञान से उत्पन्न होने से इसे कैवल्य भी कहते हैं। यह कैवल्य तत्वों के अभ्यास से होता है जिसका स्वरुप सांख्यकारिका में प्रतिपादित है।

 

....नास्मि न मे नाऽहमित्यपरिशेषम्। 

अविपर्यायाद्विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ।। कारिका 64

 

  • अर्थात मैं कर्ता नही हूँ (नास्मि)। यह शरीर मेरा नही है (न मे)। मै प्रकृति नही हूँ (नास्मि)। यह केवल ज्ञान भ्रमादि रहित विशुद्ध ज्ञान है। विशुद्ध ज्ञान का तात्पर्य है किसी अन्य विपरीत ज्ञान से मिश्रित नही होता। यही रहस्य विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः (योगसूत्रमं संकेतिक है)। सांख्यप्रवचनभाष्य के अनुसार नास्मि से पुरुष में कर्तृत्व का निषेध हैन मे से संग का निषेध है तथा नाऽहम् से तादात्म का निषेध है। इस तत्व ज्ञान से विमल एवं दृष्टा के समान निष्क्रिय पुरुष विवेकज्ञान के सामर्थ्य से धर्म अधर्मअज्ञानऐश्वर्यअनैश्वर्यरागविरागइन सात रुपों से रहित अपने सम्बन्ध में परिणाम न उत्पन्न करने वाली प्रकृति को देखता है। यह विशुद्ध चैतन्य पुरुष का स्वरुप है यह स्वरुप ज्ञान ही मोक्ष है। इससे सम्पूर्ण दुःख का पूर्णतया शमन हो जाता है। पुरुष निगुर्णसाक्षीचेतन रुप में अवस्थित हो जाता है।

 

मोक्ष में प्रकृति की भूमिका- 

  • पुरुष नित्यमुक्त हैकिन्तु वह अज्ञान से अपने को वन्धनग्रस्त समझता हैउसका वन्धन शुक के बन्धन जैसा है। वस्तुतः प्रकृति पुरुष का संयोग प्रकृति द्वारा पुरूष का कैवत्य सम्पन्न करने के लिए एवं पुरुष के द्वारा प्रकृति का दर्शन अर्थात् भोग करने के लिए होता है। प्रत्येक पुरुष का कैवल्य सम्पन्न करने के लिए ही प्रकृति प्रवृत्त होती है2। प्रकृति का व्यापार पुरुष को विमुक्त करने के लिए ही होता है। जैसे नर्तकी रंग को अपना नृत्य दिखाकर उपरत हो जाती है वैसे ही प्रकृति भी अपने को पुरुष को दिखाकर उपरत हो जाती है। गुणवती तथा उपकारिणी प्रकृति प्रत्युपकार विहीन एवं निर्गुण पुरुष का बिना किसी स्वार्थ के ही अनेक उपयों द्वारा मोक्ष सम्पन्न करती है4। प्रकृति अत्यन्त लज्जालू है पुरुष के देखने के बाद वह उसकी दृष्टि में नही आती है5। वन्धनसंसरण और मोक्ष वस्तुतः प्रकृति का ही होता है। प्रकृति स्वयं से ही अपने को अपने सात रुपों के द्वारा बांधती है और अपने एक रुप ज्ञान के द्वारा पुरुष के कैवल्य के लिए स्वयं को मुक्त करती है।

 

मोक्ष के भेद- 

  • सांख्य दर्शन दो तरह की मुक्ति मानता है जीवन मुक्ति एवं विदेह मुक्ति। जीवन रहते ही विवेकज्ञान होते ही पुरुष मुक्त हो जाता है और शरीरपात के अनन्तर होने वाली मुक्ति विदेह मुक्ति है। जीवनमुक्ति की अवस्था में प्रारब्धकर्मों के बचे हुए संस्कारों के सामर्थ्य से साधक वैसे ही शरीर धारण किये रहता है जैसे दण्ड से चलाई गई चाक पूर्व उत्पन्न वेग नामक संस्कार से घुमती रहती है।। इस अवस्था में संचित एवं संचीयमान कर्म दग्धबीज हो जाते है। प्रारब्ध का भोग मिलते रहने पर भी पुरुष उसमें वैसे ही निर्लिप्त रहता है जैसे पानी में पड़ा हुआ कमल का पत्ता। शरीरपात के अन्नतर भोग एवं अपवर्ग दोनों ही प्रयोजनों के पूर्व से ही सिद्ध हुए रहने के करण प्रकृति के निवृत्त हो जाने से पुरुष ऐकान्तिक और आत्यन्तिक कैवल्य प्राप्त करता है मुक्त हुए पुरूष को परमात्मा कहा जाता है। मुक्ति में क्षय मल और वैषम्य दोष नहीं होता है। यह पूर्ण समता की स्थिति है। इसमें सभी पुरूष एक दूसरे के समान होते हैं।

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