शेखर जोशी :लेखक परिचय गलता लोहा | 11th Hindi Shekhar Joshi Galta Loha

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 शेखर जोशी :लेखक परिचय गलता लोहा

शेखर जोशी :लेखक परिचय गलता लोहा | 11th Hindi Shekhar Joshi Galta Loha
 

शेखर जोशी :जीवन परिचय

जीवन परिचय - 

  • शेखर जोशी का जन्म उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले के ओलिया गाँव में सितंबर 1932 में हुआ। इनको प्रारंभिक शिक्षा अजमेर और देहरादून में हुई। इन्टरमीडियेट की पढ़ाई के दौरान ही सुरक्षा विभाग में जोशी जी का ई.एम.ई. अप्रेन्टिसशिप के लिए चयन हो गया, जहाँ वे सन् 1986 तक सेवा में रहे। तत्पश्चात् स्वैच्छिक रूप से पदत्याग कर स्वतंत्र लेखन में संलग्न हैं। इन्हें पहल सम्मान से सम्मानित किया गया।

 

शेखर जोशी रचनाएँ - 

शेखर जोशी कथा लेखन को दायित्वपूर्ण कर्म मानने वाले सुपरिचित कथाकार हैं। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

 

कहानी संग्रह- 

  • कोसी का घटवार, साथ के लोग, दाज्यू, हलवाहा, नौरंगी बीमार है, मेरा पहाड़। शब्दचित्र-संग्रह-एक पेड़ की याद। 
  • शेखर जोशी की कहानियों का विभिन्न भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, पोलिश, चेक, रुसी और जापानी, भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी सुप्रसिद्ध कहानी 'दाज्यू' पर बाल-फिल्म सोसायटी द्वारा फिल्म का निर्माण भी हुआ है।

 

शेखर जोशी साहित्यिक विशेषताएँ - 

  • 20वीं सदी का छठवाँ दशक हिंदी कहानी के लिए युगांतकारी समय था। एक साथ कई युवा कहानीकारों ने अब तक चली आती कहानियों के रंग-ढंग से अलग तरह की कहानियाँ लिखनी शुरू की और देखते-देखते कहानी की विधा साहित्य जगत के केंद्र में आ खड़ी हुई। उस पूरे उठान को नाम दिया गया नई कहानी आन्दोलन। इस आंदोलन के बीच उभरी हुई प्रतिभाओं में शेखर जोशी का स्थान अन्यतम है। उनकी कहानियाँ नई कहानी आंदोलन के प्रगतिशील पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं। समाज का मेहनतकश और सुविधाहीन तबका उनकी कहानियों में जगह पाता है। निहायत सहज एवं आडंबरहीन भाषा-शैली में वे सामाजिक यथार्थ के बारीक नुक्तों को पकड़ते और प्रस्तुत करते हैं। उनकी रचना संसार से गुजरते हुए समकालीन जनजीवन की बहुविध विडंबनाओं को महसूस किया जा सकता है। ऐसा करने में उनकी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि और यथार्थ बोध का बड़ा योगदान रहा है। वस्तुत: जोशी जी की कहानियों ने न सिर्फ उनके प्रशंसकों को लंबी जमात खड़ी की अपितु नई कहानी की पहचान को भी अपने तरीके से प्रभावित किया है।

 

गलता लोहा पाठ का सारांश 

शेखर जोशी नई कहानी के कहानीकार हैं। उनकी कहानियों में आधुनिक जीवन के यथार्थ का मार्मिक चित्रण हुआ है। 'गलता लोहा' जोशी जी की कहानी-कला का प्रतिनिध नमूना है। इसमें उन्होंने जातीय अभिमान के पिघलने और उसे रचनात्मक कार्य में ढलते दिखाया है। कहानी का सारांश इस प्रकार है-

 

  • मोहन के पिता वंशीधर ने जीवन भर पुरोहिती की। अब वृद्धावस्था में उनसे कठिन श्रम व व्रत-उपवास नहीं होता। उन्हें चंद्रदत्त के यहाँ रुद्री पाठ करने जाना था, परंतु जाने के लिए तबियत ठीक नहीं है। मोहन उनका आशय समझ गया, लेकिन पिता का अनुष्ठान कर पाने में वह कुशल नहीं है। पिता का भार हलका करने के लिए वह खेतों की ओर चला, लेकिन हँसुवे की धार कुंद हो चुकी थी। उसे अपने दोस्त धनराम की याद आ गई। यह धनराम लोहार की दुकान पर धार लगवाने पहुँचा। 

  • धनराम उसका सहपाठी था। दोनों बचपन की यादों में खो गए। मोहन ने मास्टर त्रिलोक सिंह के बारे में पूछा। धनराम ने बताया कि वे पिछले साल ही गुजरे थे। दोनों हँस-हँसकर उनकी बातें करने लगे। मोहन पढ़ाई व गायन में निपुण था। वह मास्टर का चहेता शिष्य था और उसे पूरे स्कूल का मॉनीटर बना रखा था। वे उसे कमजोर बच्चों को दंड देने का भी अधिकार देते थे। धनराम ने भी मोहन से मास्टर के आदेश पर डंडे खाए थे। धनराम उसके प्रति स्नेह व आदरभाव रखता था, क्योंकि जातिगत आधार की हीनता उसके मन में बैठा दी गई थी। उसने मोहन को कभी अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा। 
  • धनराम गाँव के खेतिहर या मजदूर परिवारों के लड़कों की तरह तीसरे दर्जे तक ही पढ़ पाया। मास्टर जी उसका विशेष ध्यान रखते थे। धनराम को तेरह का पहाड़ा कभी याद नहीं हुआ। इसकी वजह से उसकी पिटाई होती। मास्टर जी का नियम था कि सजा पाने वाले को अपने लिए हथियार भी जुटाना होता था। धनराम डर या मंदबुद्धि होने के कारण तेरह का पहाड़ा नहीं सुना पाया। मास्टर जी ने व्यंग्य किया- "तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें ?"

 

  • इतना कहकर उन्होंने थैले से पाँच-छः दराँतियाँ निकालकर धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दो। हालांकि धनराम के पिता ने उसे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखा दी। विद्या सीखने के दौरान मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी पसंद का बेंत चुनने की छूट देते थे, परंतु गंगाराम इसका चुनाव स्वयं करते थे। एक दिन गंगाराम अचानक चल बसे। धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत सँभाल ली।

 

  • इधर मोहन ने छात्रवृत्ति पाई। इससे उसके पिता वंशीधर तिवारी उसे बड़ा आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे। पैतृक धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था। वे कभी परिवार का पूरा पेट नहीं भर पाए। अतः उन्होंने गाँव से चार मील दूर स्कूल में उसे भेज दिया। शाम को थका-माँदा मोहन घर लौटता तो पिता पुराण कथाओं से उसे उत्साहित करने की कोशिश करते। वर्षा के दिनों में मोहन नदी पार गाँव के यजमान के घर रहता था। एक दिन नदी में पानी कम था तथा मोहन घसियारों के साथ नदी पार कर घर आ रहा था। पहाड़ों पर भारी वर्षा के कारण अचानक नदी में पानी बढ़ गया। किसी तरह वे घर पहुँचे इस घटना के बाद वंशीधर घबरा गए और फिर मोहन को स्कूल न भेजा।

 

  • उन्हीं दिनों बिरादरी का एक संपन्न परिवार का युवक रमेश लखनऊ से गाँव आया हुआ था। उससे वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई के संबंध में अपनी चिंता व्यक्त की तो वह उसे अपने साथ लखनऊ ले जाने को तैयार हो गया। उसके घर में एक प्राणी बढ़ने से कोई अंतर नहीं पड़ता। वंशीधर को रमेश के रूप में भगवान मिल गया। मोहन रमेश के साथ लखनऊ पहुँचा। यहाँ से जिंदगी का नया अध्याय शुरू हुआ। घर की महिलाओं के साथ- साथ उसने गली की सभी औरतों के घर का काम करना शुरू कर दिया। रमेश बड़ा बाबू था। वह मोहन को घरेलू नौकर से अधिक हैसियत नहीं देता था। मोहन भी यह बात समझता था। कह सुनकर उसे समीप के सामान्य स्कूल में दाखिल करा दिया गया। काम के बोझ व नए वातावरण के कारण वह अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। गर्मियों की छुट्टी में भी वह तभी घर जा पाता जब रमेश या उसके घर का कोई आदमी गाँव जा रहा होता। उसे अगले दरजे की तैयारी के नाम पर शहर में रोक लिया जाता।

 

  • मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था। वह घर वालों को कर लिया था। यह घर वालों को असलियत बताकर दुखी नहीं करना चाहता था। आठवीं कक्षा पास करने के बाद उसे आगे पढ़ाने के लिए रमेश का परिवार उत्सुक नहीं था। बेरोजगारी का तर्क देकर उसे तकनीकी स्कूल में दाखिल करा दिया गया। वह पहले की तरह घर व स्कूल के काम में व्यस्त रहता। डेढ़-दो वर्ष के बाद उसे कारखानों के चक्कर काटने पड़े। इधर वंशीधर को अपने बेटे के बड़े अफसर बनने की उम्मीद थी। जब उसे वास्तविकता का पता चला तो उसे गहरा दुःख हुआ। धनराम ने भी उससे पूछा तो उसने झूठ बोल दिया। धनराम ने उन्हें यही कहा-मोहन लला बचपन से ही बड़े बुद्धिमान थे।

 

  • इस तरह मोहन और धनराम जीवन के कई प्रसंगों पर बातें करते रहे। धनराम ने हँसुवे के फाल को बेंत से निकालकर तपाया, फिर उसे धार लगा दी। आमतौर पर ब्राह्मण टोले के लोगों का शिल्पकार टोले में उठना- बैठना नहीं होता था। काम-काज के सिलसिले में वे खड़े-खड़े बातचीत निपटा ली जाती थी। ब्राह्मण टोले के लोगों को बैठने के लिए कहना भी उनकी मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। मोहन धनराम की कार्यशाला में बैठकर उसके काम को देखने लगा।

 

  • धनराम अपने काम में लगा रहा। यह लोहे की मोटी छड़ को भट्टी में गलाकर गोल बना रहा था, किंतु वह छड़ निहाई पर ठीक से फैंस नहीं पा रही थी। इस कारण लोहा ठीक ढंग से मुड़ नहीं पा रहा था। यह देखकर मोहन अपनी जगह से उठा। उसने कुशलतापूर्वक लोहे को स्थिर किया तथा नपी-तुली चोटों से छड़ को पीटते- पीटते गोला बना दिया। मोहन ने यह काम इतनी कुशलता और स्फूर्ति से किया कि धनराम उसे देखता रह गया। घनराम को इससे भी बड़ी हैरानी इस बात पर हुई कि ब्राह्मण लड़के ने लोहार का काम करना कैसे स्वीकार कर लिया। मोहन इन सब बातों से बेलाग होकर लोहे के छल्ले की गोलाई को जाँच रहा था। उसकी आँखों में सृजन की चमक थी एवं प्रशंसा पाने का भाव था।

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