अतीत में दबे पाँव - ओम थानवी लेखक परिचय | Om Thanvi Biography in Hindi

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 अतीत में दबे पाँव - ओम थानवी लेखक परिचय

अतीत में दबे पाँव - ओम थानवी लेखक परिचय | Om Thanvi Biography in Hindi
 

ओम थानवी लेखक परिचय 

  • ओम थानवी का जन्म 1 अगस्त, सन् 1957 को राजस्थान के जोधपुर जिले के फलोदी नामक कस्बे में हुआ। इनके पिता एक शिक्षक थे। इन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद सन् 1978 में राजस्थान के जयपुर से निकलने वाले पत्रिका समूह के साप्ताहिक पत्र 'इतवारी' से अपने पत्रकार जीवन की शुरुआत की। इसके बाद वे इसी के संपादक भी बने। इनको रुचि साहित्य, कला, सिनेमा, पर्यावरण, पुरातत्व, स्थापत्य और यात्राओं में थी। उन्होंने देश-विदेश की यात्रा की। 

  • इनके प्रमुख कृतित्व में हड़प्पा सभ्यता के ऊपर विमर्शपरक किताब, अपने-अपने अज्ञेय संस्मरण, अज्ञेय जन्मशती पर दो खंडों में स्मृतिग्रंथ हैं। पत्रकारिता के लिए थानवी को भारत के राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। इनकी प्रसिद्ध कृति मुअनजोदड़ो के लिए शमशेर सम्मान, सार्क लिटरेरी अवार्ड तथा बिहारी पुरस्कार प्राप्त हुआ।

 

अतीत में दबे पाँव पाठ का परिचय-

अतीत में दबे पाँव' लेखक की सिंधु घाटी सभ्यता का यात्रा वृतांत एवं रिपोर्ताज का सम्मिलित रूप है। जिसमें उन्होंने मुअनजोदड़ो और हड़प्पा महान नगरों का सौंदर्य, बसावट, संस्कृति, वास्तुकला आदि को दर्शाया है जो किसी ताकत के बल पर अनुशासित न होकर आपसी सूझ-बूझ से अनुशासित थी।

 

 अतीत में दबे पाँव पाठ का सारांश 

  • लेखक के अनुसार मुअनजोदड़ो और हड़प्पा दुनिया के सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। खुदाई में मिले अन्य शहरों में मुअनजोदड़ो ताम्र काल का सबसे बड़ा और उत्कृष्ट शहर है। बड़ी तादाद में मिले इमारतें, मूर्तियाँ, बर्तन, मुहरें, खिलौने आदि के कारण ही इस सभ्यता का अध्ययन संभव हो सका। जबकि हड़प्पा की सभ्यता विकास की भेंट चढ़ गई। 
  • कच्ची पक्की मिट्टी के टीलों के ऊपर इस शहर को आवाद किया गया था। ताकि इसे सिंधु नदी के पानी से बचाया जा सके। मुजनजोदड़ो की सड़कों और गलियों में घूमकर, रसोई की खिड़की में खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं, सुनसान मार्ग पर बैलगाड़ी की रुन-झुन सुन सकते हैं, आँगन की टूटी-फूटी सीढ़ियों आकाश की तरफ अधूरी रह जाती हैं। यह सब आज भी उसके पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है।  

  • 25 फुट सबसे ऊँचे चबूतरे पर बौद्ध स्तूप है। 26 वीं सदी के पहले बनी इंटों से यह स्तूप बना है। जहाँ बौद्ध भिकुओं के कमरे भी हैं 1922 में जब राखालदास बनर्जी यहाँ आए थे इसके आस-पास खुदाई होने पर उन्हें पता चला कि यहाँ ईसा पूर्व के निशान हैं। इसकी खोज ने भारत को मिस्र और मेसोपोटामिया (इराक) की प्राचीन सभ्यताओं के समकक्ष ला खड़ा किया। यहाँ का बौद्ध स्तूप नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप है। यह इलाका राजस्थान से मिलता-जुलता है। रेत के टीले नहीं खेतों का हरापन है यहाँ। 

  • दुनिया भर में प्रसिद्ध यहाँ की इमारतों के खंडहर चबूतरे के पीछे यानी पश्चिम में है। जिनमें प्रशासनिक इमारतें, सभा भवन, ज्ञानशाला और कोठार है। अनुष्ठानिक महाकुंड भी सिंधु घाटी सभ्यता के अद्वितीय वास्तु कौशल को स्थापित करने के लिए अकेला ही काफी माना जाता है। 

  • नगर नियोजन की मुअनजोदड़ो अनूठी मिसाल है। इमारतें भले ही खंडहरों में बदल चुकी हों किन्तु सड़कें सीधी या फिर आड़ी हैं। वास्तुकार इसे 'ग्रिडप्लान' कहते हैं, आज को सेक्टर मार्का कॉलोनियों में हमें आड़ा-सौधा 'नियोजन' बहुत मिलता है। ब्रासीलिया या चंडीगढ़ और इस्लामाबाद 'ग्रिड' शैली के शहर हैं जो आधुनिक नगर नियोजन के प्रतिमान ठहराए जाते हैं।

 

  • मुअनजोदड़ो को साक्षर सभ्यता एक सुसंस्कृत समाज की स्थापना थी। स्तूप वाले चबूतरे के पीछे 'गढ़और ठोक सामने 'उच्च' वर्ग की बस्ती है। इसके पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंधु बहती है। पूरब की इस बस्ती से दक्षिण को तरफ नजर दौड़ाते हुए पूरा पीछे घूम जाएँ तो मुअनजोदड़ो के खंडहर हर जगह दिखाई देंगे। दक्षिण में टूटे-फूटे घरों का जमघट है वह कामगारों को बस्ती है। संपन्न समाज में वर्ग भी होंगे। निम्न वर्ग के घर इतनी मजबूती से नहीं रहे होंगे जो पाँच हजार साल टिक सके। सौ साल में अब तक इस इलाके में एक तिहाई हिस्से को खुदाई हो पाई है

 

  • लेखक स्तूप के टीले से महाकुंड के विहार की दिशा में उतरे धरोहर के प्रबंधकों ने इस गली का नाम 'दैव मार्ग' रखा है। माना जाता है कि उस सभ्यता में सामूहिक स्नान किसी अनुष्ठान का अंग होता था। कुंड करोय चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। सात फुट गहरा। कुंड में उतरने के लिए सीढ़ियाँ हैं। तीनों तरफ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं। उत्तर में दो पाँत में आठ स्नानघर हैं। कुंड की खास बात है पक्की ईटों का जमाव ताकि कुंड का पानी रिस न सके और बाहर का अशुद्ध पानी कुंड में न आए। इसके लिए कुंड के तल में और दीवारों पर ईंटों के बीच चूने और चिरोड़ी के गारे का इस्तेमाल हुआ है। पार्श्व की दीवारों पर सफेद डामर का प्रयोग है। कुंड के पानी के बंदोबस्त के लिए कुआँ है। कुंड से पानी को बाहर निकालने के लिए नालियाँ हैं जो ईंटों से बनी व ढँकी हैं। यह कुंड के पवित्र या अनुष्ठानिक होने का प्रमाण देता है। कुंड के दूसरी तरफ विशाल कोठार है। कर के रूप में हासिल अनाज शायद यहाँ जमा किया जाता था। उत्तर की गली में बैलगाड़ियों के प्रयोग के भी साक्ष्य मिले हैं। इस तरह का कोठार हड़प्पा में भी है।

 

  • सिंधु घाटी के दौर में व्यापार ही नहीं उन्नत खेती भी होती थी। यह मूलतः खेतिहर और पशुपालक सभ्यता की थी। लोहा की अपेक्षा पत्थर और ताँबे की बहुतायत थी। ताँबे की खाने राजस्थान में थीं। जिनके उपकरण खेती-बाड़ी में प्रयोग किए जाते थे। जबकि मित्र और सुमेर में चकमक और लकड़ी के उपकरण इस्तेमाल होते थे। इतिहासकार इरफान हबीब के अनुसार रबी की फसल-कपास, गेहूँ, जौ, सरसों और चने की उपज के पुख्ता सबूत खुदाई में मिले हैं। यह सभ्यता का तर-युग था। यहाँ ज्वार, बाजरा, रागी, खजूर, खरबूजे और अंगूर उगाते थे। कपास के बीज नहीं पर सूती कपड़ा मिला। सूत की कताई-चुनाई और रंगाई भी होती थी। 

  • महाकुंड के उत्तर पूर्व में लंबी इमारत के अवशेष हैं जहाँ धार्मिक अनुष्ठानों में ज्ञान शालाएँ होने का प्रमाण है जिसे कॉलेज ऑफ प्रीस्ट्स माना जा सकता है। दक्षिण का भग्न इमारत बीस खंभों वाला बड़ा हॉल है जो सचिवालय, सभा भवन या सामुदायिक केन्द्र रहा होगा। 
  • पूरब को बस्ती रईसों की बस्ती है। शहर की मुख्य सड़क यहीं पर है जिसकी लंबाई पूरे शहर को नापती है और चौड़ाई तैतीस फुट है। इस सड़क पर दौ बैल गाड़ियाँ आसानी से एक-साथ आ-जा सकती हैं। सड़क के दोनों ओर घर हैं जिनके दरवाजे सड़क पर ना खुलकर अंद्र गलियों में खुलते हैं। यहाँ कोई भी घर मुख्य सड़क पर नहीं खुलता है। 

  • बैंकी हुई नालियाँ सड़क के दोनों तरफ समांतर दिखाई देती हैं। हर घर में एक स्नानघर है। घर के भीतर से पानी या भैल की नालियाँ बाहर हौदी तक जाती है। फिर नालियों के जाल से जुड़ जाती है। स्वास्थ्य के प्रति मुजनगो-दड़ो के बाशिंदों के सरोकार का यह बेहतर उदाहरण है। यहाँ के कुएँ भी पक्की ईंटों से बने हैं जो खोदकर भू-जल तक पहुँचती है। मुअनजोदड़ो में सात-सौ के करीब कुएँ थे। नदी, कुएँ, कुंड, स्नानागार और बेजोड़ पानी-निकासी। सिंधु घाटी सभ्यता को हम जल-संस्कृति भी कह सकते हैं। यहाँ घर छोटे और बड़े हैं। सब एक कतार में हैं। ज्यादातर घरों का आकार तीन गुना तीस फुट का होगा।

 

  • कुछ इससे दुगने और तिगुने आकार के भी हैं। व्यवस्थित और नियोजित शहर में एक घर को मुखिया का घर कहा जाता है। जिसमें दो आँगन और करीब बीस कमरे हैं। दाढ़ी वाले याजक-नरेश की मूर्ति इसी तरफ के एक घर से मिली थी।

 

  • यहाँ पर एक बड़ा घर है जिसे उपासना केन्द्र समझा जाता है। इसमें आमने-सामने की दो चौड़ी सीढ़ियाँ ऊपर को मंजिल की तरफ जाती हैं।

 

  • मुअनजोदड़ो में कुआँ को छोड़कर सब कुछ चौकोर या आयताकार होता था जैसे नगर की योजना, बस्तियाँ, घर, कुंड, बड़ी इमारतें, मुहरें, चौपड़ का खेल, गोटियाँ, तौलने के बाँट आदि सब । मुअनजोदड़ो के किसी घर में खिड़‌कियाँ या दरवाजों पर छज्जों के चिन्ह नहीं हैं। खुदाई में नहर होने का प्रमाण नहीं मिला। यानि बारिश उस काल में काफी होतो होगी। क्या बारिश घटने और कुओं के अत्यधिक इस्तेमाल से भू-तल जल भी पहुँच से दूर चला गया ? क्या पानी के अभाव में यह इलाका उजड़ा। उसके साथ सिंधु घाटी को समृद्ध सभ्यता भी है। यहाँ के घरों में हर कोई पाँव आहिस्ता उठाते हुए एक घर से दूसरे घर में बेहद धीमी गति से दाखिल होता था। मानो मन में अतीत को निहारने की जिज्ञासा हो न हो किसी अजनवी घर में अनाधिकार चहल-कदमी का अपराध बोध भी हो।

 

  • जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरों वाला एक खूबसूरत गाँव है। गाँव में घर है पर लोग नहीं हैं। कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर स्वाभिमानी गाँव का हर बाशिंदा रातों-रात अपना घर छोड़ चला गया। घरों की दीवारें प्रवेश और खिड़कियाँ ऐसी हैं जैसे कल की बात हो। जैसे सुबह अपने घरों से निकले हो शायद रात ढले लौट आने वाले हों। राजस्थान ही नहीं, गुजरात, पंजाब और हरियाणा में भी कुएँ, कुंड, गली- कूचे-कच्ची-पक्की ईंटों के कई घर भी आज वैसे मिलते हैं जैसे हजारों साल पहले। 

  • जॉन मार्शल ने मुअनजोदड़ो पर तीन खंडों का एक विशद प्रबंध छपवाया था जिसमें खुदाई में मिली ठोस पहियों वाली मिट्टी की गाड़ी और बैलगाड़ी के चित्र प्रकाशित हैं, हवाई जहाज के पहिए की तरह ऊँट गाड़े के पहिए भी थे। 
  • अकेले मुअनजोदड़ो की खुदाई में निकली पंजीकृत चीजों की संख्या पचास हजार से ज्यादा है। काला पड़ गया गेहूँ, ताँबे और काँसे के बर्तन, मुहरें, वाद्य, चाक पर बने विशाल मृदभांड, उन पर काले-भूरे चित्र, चौपड़ की गोटियाँ, ताँबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी और दूसरे खिलौने, दो पाटन वाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन, रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औजार। अजायबघर में तैनात अली नवाज बताता है कुछ सोने के गहने भी यहाँ हुआ करते थे जो चोरी हो गए। 
  • अजायबघर में औजार है पर हथियार नहीं। समूची सिंधु सभ्यता में हथियार उस तरह नहीं मिले जैसे किसी राजतंत्र में होते हैं, मानते हैं कोई सैन्य सत्ता शायद यहाँ न रही हो। मगर कोई अनुशासन जरूर था जो नगर योजना, वास्तुशिल्प, मुहर, पानी या साफ-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं में एकरूपता थी।

 

  • दूसरी जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल, उपासना स्थल, मूर्तियाँ और पिरामिड आदि हैं। हड़प्पा संस्कृति में न भव्य राजप्रासाद है न मंदिर। न राजाओं, महंतों की समाधियाँ। यहाँ के मूर्तिशिल्प और औजार छोटे हैं। मुअनजोदड़ो के नरेश के सिर पर जो मुकुट है उससे छोटे सिर पेंच की कल्पना नहीं की जा सकती। उन लोगों की नावे मिस्त्र की नावों से भी आकार में छोटी रही। अतः कह सकते हैं कि वह लो-प्रोफाइल सभ्यता थी। लघुता में भी महत्ता अनुभव करने वाली संस्कृति। यहाँ भव्यता का आडंबर नहीं है। यहाँ वास्तुकला या नगर नियोजन ही नहीं, मूर्तियों, भांडों पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियों की छवियाँ, केश विन्यास, खिलौने, आभूषण, सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक सिद्ध से ज्यादा कला सिद्ध जाहिर करता है। एक पुरातत्ववेत्ता के मुताबिक सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य बोध है, "जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था ।"

 

  • अजायबघर में खुदाई में ताँबे और काँसे की बहुत सारी सुइयाँ मिली थीं। काशीनाथ दीक्षित की सोने की तीन सुइयाँ मिलीं जो एक दो इंच लंबी थीं। जो कशीदेकारी में काम आती होंगी। नर्तकी के अलावा मुअनजो- दड़ो के नाम से प्रसिद्ध जो दाढ़ी वाले नरेश की मूर्ति है। उसके बदन पर गुलकारी वाला दुशाला भी है आज छापे वाला कपड़ा 'अजरक' सिंध की खास पहचान बन गया है। खुदाई में सुइयों के अलावा हाथी दाँत और ताँबे के सुए भी मिले हैं। दरी का साक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ है। सिंधु के पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है। उसे बचा कर रखना अपने आप में बड़ी चुनौती है।

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