हिन्दी नाटय साहित्य का विकास एवं स्वरूप :भारतेन्दु प्रसाद प्रसादोत्तर स्वातन्त्र्योत्तर युग के नाटककार एवं नाटक | Pramukh Natak Aur Natakkar

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भारतेन्दु प्रसाद प्रसादोत्तर स्वातन्त्र्योत्तर युग के नाटककार एवं नाटक

हिन्दी नाटय साहित्य का विकास एवं स्वरूप :भारतेन्दु प्रसाद प्रसादोत्तर स्वातन्त्र्योत्तर युग के नाटककार एवं नाटक | Pramukh Natak Aur Natakkar

हिन्दी नाटय साहित्य का विकास एवं स्वरूप 

हिन्दी में नाटक के स्वरूप का समुचित विकास आधुनिक युग से आरम्भ होता है। सन् 1850 से अब तक के युग को हम नाट्य-रचना की दृष्टि से तीन खण्डों में विभक्त कर सकते हैं- 

(1) भारतेन्दु युग (1857-1900 ई.),

(2) प्रसाद युग (1900-1930), और 

(3) प्रसादोत्तर युग (1930 से अब तक)। इनमें से प्रत्येक युग का परिचय यहाँ कमशः प्रस्तुत किया जाता है। 


1 भारतेन्दु युग 

स्वयं बाबू हरिश्चन्द्र ने हिन्दी का प्रथम नाटक अपने पिता बाबू गोपालचन्द्र द्वारा रचित 'नहुष नाटक' (सन् 1841 ई.) को बताया है। किन्तु तात्विक दृष्टि से यह पूर्ववर्ती ब्रजभाषा पद्य नाटकों की ही परम्परा है। सन् 1861 ई. में राजा लक्ष्मणसिंह ने 'अभिज्ञान शाकुन्तलका अनुवाद प्रकाशित करवाया। भारतेन्दु जी की प्रथम नाटक 'विद्या-सुन्दर' (सन् 1868 ई.) भी किसी बंगला नाटक का छायानुवाद था। इसके अनन्तर उनके अनेक मौलिक व अनुवादित नाटक प्रकाशित हुए जिनमें पाखण्ड - बिडम्बन (1872), वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ( 1872), धनंजय-विजयमुद्राराक्षस (1875), सत्य- हरीश्चन्द्र ( 1875), प्रेम योगिनी (875), विषस्य विषमौषधम् (1876), कर्पूर- मंजरी (1876), चन्द्रावली (1877), भारत दुर्दशा (1876), नील देवी (1877), अंधेर नगरी (1881) और सती- प्रताप (1884) आदि उल्लेखनीय है। भारतेन्दु के नाटक मुख्यतः पौराणिकसामाजिक एवं राजनैतिक विषयों पर आधारित है। सत्य हरीश्चन्द्रधनंजय-विजयमुद्राराक्षसकर्पूर-मंजरी ये चारों अनुवादित है। अपने मौलिक नाटकों में उन्होंने सामाजिक कुरीतियों एवं धर्म के नाम पर होने वाले कुकृत्यों आदि पर तीखा व्यंग्य किया है। 'पाखण्ड- बिडम्बन', वैदिकी हिंसा हिंसा न भवतिइसी प्रकार के नाटक हैं। 'विषस्य - विषमौषधम्में देशी नरेशों की दुर्दशाराष्ट्रभक्ति का स्वर उदघोषित हुआ है। इसमें 'अंग्रेजको भारत-दुर्देव के रूप में चित्रित करते हुए भारतवासियों के दुर्भाग्य की कहानी को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें स्थान- स्थान पर विदेशी शासकों की स्वेच्छाचारितापुलिस वालों के दुर्व्यवहारभारतीय जनता की मोहान्धता पर गहरे आघात किए गए हैं।

 

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को संस्कृतप्राकृतबंगला व अंग्रेजी के नाटक-साहित्य का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने इन सभी भाषाओं में अनुवाद किए थे। नाट्यकला के सिद्धान्तों का भी उन्होंने अध्ययन किया थाउन्होंने अपने नाटकों में अभिनय की भी व्यवस्था की थी तथा उन्होंने अभिनय में भाग भी लिया था। इस प्रकार नाट्यकला के सभी अंगों का उन्हें पूरा ज्ञान और अनुभव था। यदि हम एक ऐसा नाटककार ढूंढे जिसने नाट्य शास्त्र के गंभीर अध्ययन के आधार पर नाट्य कला पर सैद्धान्तिक आलोचना लिखी होजिसने प्राचीन और नवीनस्वदेशी और विदेशी नाटकों का अध्ययन व अनुवाद प्रस्तुत किया होजिसने वैयक्तिकसामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं को लेकर अनेक पौराणिकऐतिहासिक एवं मौलिक नाटकों की रचना की हो ओर जिसने नाटकों की रचना की नहींअपितु उन्हें रंगमंच पर खेल कर दिखाया हो इन सब विशेषताओं से सम्पन्न नाटककारहिन्दी में ही नहीं अपितु समस्त विश्व - साहित्य में केवल दो चार ही मिलेंगें और उन सब में भारतेन्दु का स्थान सबसे ऊँचा होगा। उनकी शैली सरलतारोचकता एवं स्वाभाविकता गुणों से परिपूर्ण है

 

भारतेन्दु युग के अन्य नाटककारों में लाला श्रीनिवास दासराधाकृष्णदासबालकृष्ण दास भट्टबद्रीनारायण चौधरी प्रेमधनराधाचरण गोस्वामीप्रताप नारायण मिश्र आदि का नाम उल्लेखनीय है। लाला श्रीनिवास दास ने 'प्रहलाद चरित्र', रणधीर - प्रेम मोहिनी (1877), और संयोगिता - स्वयंवर (1855), की रचना की। इनमें सर्वश्रेष्ठ रचना 'रणवीर सिंह और प्रेम- मोहनी है। इसका सुसंगठितचरित्र- चित्रण स्वाभाविक तथा कथोपकथन वाताकुलित एवं परिस्थितियों के अनुसार हैं। लाला जी ने कहीं-कहीं प्रादेशिक भाषाओं का भी प्रयोग वातावरण को यथार्थ रूप देने के लिए किया है। इसे हिन्दी का पहला दुःखान्त नाटक भी माना गया है।

 

राधाकृष्ण के द्वारा रचित नाटकों में 'महारानी पदमावती ( 1883), धर्मालाभ (1885), महाराणाप्रताप सिंह तथा राजस्थानकेसरी (1897) उल्लेखनीय हैं। जिसमें महारानी पदमावती का कथानक ऐतिहासिक है। जिसमें सतीत्व के गौरव की व्यंजना की गई है। धर्मालाभ में विभिन्न धर्मो के प्रतिनिधियों का वार्तालाप दिखाते हुए अंत में सभी धर्मों की एकता का प्रतिपादन किया गया है। 'दुखिनी बालाअनमेल विवाह के परिणामों को व्यक्त करता है। इनका सर्वश्रेष्ठ नाटक महाराणाप्रताप सिंह’ है जिसमें महाराणा के साहसशौर्यत्याग की व्यंजना अन्त्यन्त ओजपूर्ण शैली में की गई है। महाराणा का चरित्र स्वयं उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है- 

जब लौं तन प्राण न तब लौं मुख की मोड़ौं । 

जब लौं कर में शक्ति न तब लौं शस्त्रहिं छोड़ौं 

जब लौं जिह्वा सरस दीन वच नाहिं उचारौं । 

जब लौं धड़ पर सीस झुकावन नाहिं विचारौं ।

 

महाराणा के साथ- साथ अकबर के चरित्र को भी सहानुभूति के साथ उजागर किया है। बालकृष्ण भट्ट ने लगभग एक दर्जन मौलिक एवं अनुदित नाटक प्रस्तुत किए हैं। उनके मौलिक नाटकों में दमयंती स्वयंवर', 'वृहन्नला', 'वेणुसंहार', 'कलिराज', की सभा, 'रेल का विकट 'खेल', 'बाल विवाह', ' जैसा काम वैसा परिणाम', आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें अन्तिम चार प्रहसन हैं जिनमें अपने युग ओर समाज के विभिन्न वर्गों एंव परिस्थितियों पर व्यंग्य किया गया । वस्तुतः प्रहसनों की परम्परा को आगे गढ़ाने में भट्ट जी का अद्भुत योगदान है। बद्रीनारायण 'प्रेमघनने समाज एवं राष्ट्र की विभिन्न परिस्थियों से प्रेरित होकर 'भरत सौभाग्य' (1888), ‘प्रयागरामागमन' (1904), वारांगन-रहस्य' (अपूर्ण)वृद्ध- विलापआदि नाटकों की रचना की जो राष्ट्र-सुधार की भावनाओं सं अनुप्राणित है। इसी प्रकार राधाचरण गोस्वामी ने भी अनेक नाटकों की रचना की जैसे- 'सती चन्द्रावली' (1890), 'अमर-राठौर' (1894), 'श्रीदामा ' (1904), 'बूढ़े मुंह मुंहासे (1887), 'भंग-तरंग' (1892)। इनमें प्रथम तीन को छोडकर शेष प्रहसन हैं । जिनमें अपने युग की सामाजिक एवं धार्मिक बुराईयों की आलोचना व्यंग्यात्मक शैली में की गई है। प्रताप नारायण मिश्र के 'भारत दुर्दशा' (1902), 'गो-संकट (1886), ' हठी हमीर’, ‘कलिकौतुक रूपक', आदि भी राष्ट्र जागरण एवं समाज सुधार की प्रेरणा से रचित हैंकिन्तु नाट्य कला की दृष्टि से साधारण कोटि के हैं। भारतेन्दु युग के अन्य मौलिक नाटक- रचियताओं में देवकीनन्दन त्रिपाठी शालिग्रामअम्बिकादत्त व्यासजंगबहादुर मल्लबलदेव प्रसादतोतारामज्वालाप्रसाद मिश्रदामोदर शास्त्री आदि का नाम उल्लेखनीय हैं। देवकी नन्दन त्रिपाठी ने अनेक पौराणिक नाटकों एवं प्रहसनों की रचना की थी। उनके पौराणिक नाटक 'सीता- हरण' (1876), रूक्मणी हरण' ( 1876), कंस वध' (1904), आदि हैं तथा प्रहसनों की नामावली इस प्रकार है- 'रक्षा बन्धन' (1878), 'एक-एक के तीन-तीन' (1879), 'स्त्री चरित्र' (1879), ‘वैश्य-विलास’, 'बैल छः टके को', आदि । त्रिपाठी जी के पौराणिक नाटक उच्च कोटि के नहीं हैंकिन्तु प्रहसनों में व्यंग्यात्मक शैली का विकास यथेष्ठ रूप में हुआ है। शालिग्राम भी 'अभिमन्यु वध' (1896), 'पुरू-विक्रम' (1906), 'मोरध्वज (1890), आदि पौराणिक तथा 'लावण्यवती- सुदर्शन ' ( 1892), माध्वानन्द- कामकंदला' (1904), आदि रोमांटिक नाटकों की रचना की थीजो कलात्मक दृष्टि से सामान्य कोटि के हैं। अम्बिकादत्त व्यास के दो नाटक-भारत-सौभाग्य' (1887), 'गो संकट नाटक' ( 1886 ), युगीन परिस्थियों पर आधारित है। इनके अतिरिक्त उनके द्वारा रचित 'ललिता नाटिका', 'मन की उमंगआदि भी उपलब्ध है। इनमें प्रेम और हास्य का सम्मिश्रण हैं। खड्ग बहादुर मल्ल ने भी 'महारास' (1885), 'हर- तालिका' (1887), ‘कल्प वृक्ष' (1887), आदि पौराणिक नाटकों की रचना की हैंकिन्तु इनके अतिरिक्त उनका एक प्रहसन 'भारते - भारत' (1888) भी उपलब्ध है। बलदेव प्रसाद मिश्र का मीराबाई’ (1897), भक्ति-भाव से परिपूर्ण है। इसमें बीच-बीच में मीरा के पदों का भी उपयोग किया गया है। इनके अतिरिक्त तोताराम रचित 'विवाह विडम्बन' (1900), कृष्णदेव शरण सिंहगोपका 'माधुरी रूपक' (1888), दामोदर शास्त्री का रामलीला नाटक' (1869), ज्वाला प्रसाद मिश्र का 'सीता - बनवास' ( 1875), काशीनाथ खत्री के तीन ऐतिहासिक रूपक' (1884), आदि भी इस युग की उल्लेखनीय कृतियां हैं। प्रहसनों की परम्परा को आगे बढ़ाने की दृष्टि से किशोरी लाल गोस्वामी का 'चौपट चपेट' (1891), गोपालराम गहमरी का 'जैसे का तैसा', नवल सिंह का वेश्य नाटक', विजया नंद त्रिपाठी का 'महा अंधेर नगरी' (1895), बलदेव प्रसाद मिश्र का लल्ला बाबूआदि उल्लेखनीय है। इनमें समाज के विभिन्न वर्गों की कलुषित प्रवृत्तियों पर व्यंग्य किया गया है।

 

अनुवाद- इस युग में संस्कृतबंगला और अंग्रेजी के नाटकों के अनुवाद भी बहुत बडी संख्या में प्रस्तुत हुए। संस्कृत के कालिदासभवभूतिशूद्रकहर्ष आदि के नाटकों के हिन्दी अनुवाद सीतारामदेवदत्त तिवारीनन्दलालज्वालाप्रसाद मिश्र ने तथा बंगला के 'पदमावती', 'कृष्णकुमारी', 'वीरनारीआदि का बाबू रामकृष्ण वर्माउदित नारायण लालब्रजनाथ आदि ने. प्रस्तुत किए। अंग्रेजी के शेक्सपियर के नाटकों के अनुवाद भी तोतारामरत्नचन्द्रमथुराप्रसाद उपाध्याय आदि के द्वारा किए गए। वस्तुतः 19वीं सदी के अन्त तक भाषाओं के अनेक उत्कृष्ट नाटकों के अनुवाद हिन्दी में प्रस्तुत हो गए थेजिनकी परवर्ती नाटककारों को बडी प्रेरणा मिली।

 

प्रसाद युग  के नाटक 

इस युग के नाटक- साहित्य को भी विषय गत प्रवृत्तियों की दृष्टि से चार वर्गों में विभक्त किए जा सकता है- 1. ऐतिहासिक, 2. पौराणिक, 3. काल्पनिक, 4. अनुदित नाटक। इनमें से प्रत्येक वर्ग का संक्षिप्त परिचय यहां क्रमशः दिया जाता है।

 

(1) प्रसाद युग के ऐतिहासिक नाटक - 

इस युग के सर्व प्रमुख नाटककार जयशंकर प्रसाद ने मुख्यतः ऐतिहासिक नाटकों की ही रचना की थी। उनके नाटकों का रचना - क्रम इस प्रकार है- 'सज्जन' (1910), 'कल्याणी- परिणय' (19112), 'करूणालय' (1913), 'प्रायश्चित' (1914), ‘राजश्री’ (1915), ‘विशाख' (1921), 'अजातशत्रु ' (1922), 'जनमेजय का नाग-यज्ञ' (1926), ‘स्कन्दगुप्त’ (1928), 'एक घूँट' (1929), 'चन्द्रगुप्त' (1929), और 'ध्रुवस्वामिनी' (1933)। प्रसाद जी अपने देश वासियों में आत्म गौरवस्वाभिमान उत्साह एवं प्रेरणा का संचार करने के लिए अतीत के गौरव पूर्ण दृश्यों को अपनी रचनाओं में चित्रित किया। यही कारण है कि उनके अधिकांश नाटकों का कथानक उस बौद्ध-युग से सम्बन्धित है। जबकि भारत की सांस्कृतिक-पताका विश्व के विभिन्न भागों में फहरा रही थीं। प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति को प्रसाद ने बड़ी सूक्ष्मता प्रस्तुत किया हैउसमें केवल उस युग की स्थूल रेखाएं ही नहीं मिलती हैं। धर्म की बाहय परिस्थितियों की अपेक्षा उन्होंने दर्शन की अन्तरंग गुत्थियों को स्पष्ट करना अधिक उचित समझा है। पात्रों के चरित्र चित्रण में भी उन्होंने मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का चित्रण करते हुए उनमें परिस्थिति के अनुसार परिर्वतन व विकास दिखाया हैं। मानव-चरित्र के सत् और असत् दोनो पक्षों को पूर्ण प्रतिनिधित्व उन्होंने प्रदान किया है। नारी रूप को जैसी महानतासूक्ष्मताशालीनता एवं गम्भीरता कवि प्रसाद के हाथों प्राप्त हुई है उससे भी अधिक सक्रिय एवं तेजस्वी रूप उसे नाटककार प्रसाद ने प्रदान दिया है। प्रसाद के प्रायः सभी नाटकों में किसी न किसी ऐसी नारी- पात्र की अवधारणा हुई है जो धरती के दुःखपूर्ण अन्धकार के बीच प्रसन्नता की ज्योति की भांति उद्दीप्त हैजो पाशविकतादनुजता और क्रूरता के बीच क्षमाकरूणा एवं प्रेम के दिव्य संदेश की प्रतिष्ठा करती है जो अपने प्रभाव से दर्जनों को सज्जनदुराचारियों को सदाचारीऔर नृशंस अत्याचारियों को उदार लोक सेवी बना देती है ।

 

इस युग अन्य ऐतिहासिक नाटकों में बद्रीनाथ भट्ट द्वारा रचित चन्द्रगुप्त' (1915), 'दुर्गावती' (1926), 'तुलसीदास' (1925), सुदर्शन द्वारा रचित दयानन्द' (1917), मुंशी प्रेमचन्द का 'कर्बला' (1924), पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्रका 'महात्मा ईसा' (1922), जगन्नाथप्रसाद मिलिन्दके 'प्रताप - प्रतिज्ञा' (1928), गोविन्द बल्लभ पंत का 'वरमाला ' (1925), चन्द्रराज भण्डारी का 'सम्राट अशोक' (1923), आदि उल्लेखनीय है। बद्रीनाथ भट्ट के नाटकों में 'दुर्गावतीसर्वश्रेष्ठ है। इसकी घटनाएँ ऐतिहासिक हैतथा चरित्र-चित्रण में स्वाभाविकता है। संवाद एवं भाषा-शैली की दृष्टि यह उत्कृष्ट है। सुदर्शन का 'दयानन्द चरित्र प्रधान नाटक है। चरित्र चित्रण एंव घटना क्रम के विकास की दृष्टि से यह भी एक सफल नाटक है। प्रेमचन्द का काबा कर्बलापाठ्य रचना की दृष्टि से तो ठीक है किन्तु अभिनय की दृष्टि से दोष-पूर्ण है। नाटक की असाधारण लम्बाईपात्रों की अत्यधिक संख्यायुद्धमार-काटसेना के प्रयोग आदि के दृश्यों के कारण यह अनभिनेय बन जाता है। इस वर्ग के अन्य नाटकमहात्मा ईसाप्रताप - प्रतिज्ञा', 'वरमालाआदि अवश्य उच्च कोटि के नाटक हैं। इनमें ऐतिहासिकतास्वाभाविकताएवं कल्पना का सुन्दर संयोग हुआ है।

 

(2) प्रसाद युग के पौराणिक नाटक- 

पौराणिक नाटकों की एक सशक्त परम्परा का प्रर्वतन इस युग से बहुत पूर्व ही भारतेन्दु- मण्डल के विभिन्न लेखकों द्वारा हो चुका थाजिसकी चर्चा पीछे की जा चुकी है। इस युग के पौराणिक नाटकों की एक सूची यहां प्रस्तुत है- 1. गंगाप्रसाद कृत रामाभिषेक नाटक' (1910), 2. ब्रजनंद कृत 'रामलीला नाटक' (1908), 3. गिरिधर लाल का 'रामवन यात्रा' (1910), 4. नारायण सहाय का 'रामलीला नाटक' (1911), 5. राम गुलाम का 'धनुष- यज्ञ लीला' (1912), 6. महावीर सिंह का 'नल-दमयन्ती' (1905), 7. गोचरण गोस्वामी का 'अभिमन्यु वध' (1906), 8. लक्ष्मी प्रसाद का 'उर्वशी' (1910), 9. शिवनन्दन सहाय का 'सुदामा नाटक' (1907), 10. ब्रजनन्दन सहाय का 'उद्धव' (1909), 11. रामनारायण मिश्र का कंस वध' (1910), 12. परमेश्वर मिश्र का 'रूपवती' (1907), 13. हरिनारायण का 'कामिनी- कुसुम' (1907), 14. रामदेवी प्रसाद का 'चन्द्रकला - भानु कुमार' (1904)। साधारण कोटि के हैं। इनमें से अनेक पर पारसी रंगमचं की छाप है। ये नाटक सामान्यतः

 

(3) प्रसाद युग कल्पनाश्रित नाटक- 

जिन नाटकों की कथा वस्तु में इतिहास पुराण और कल्पनामिश्रित होती है उन्हें कल्पनाश्रित नाटक कहा जाता है। इस वर्ग के नाटकों के दो भेद किए जा सकते है- 1. प्रहसन एवं 2. सामाजिक नाटक । प्रहसनों के अंतर्गत मुख्यतः जे.पी श्रीवास्तव द्वारा रचित 'दुमदार आदमी' (1919), उलट फेर (1919), 'मर्दानी औरत' (1920), बद्रीनारायण भट्ट द्वारा रचित 'चुगी की उम्मीदवारी' (1919), 'विवाह विज्ञापन' (1927), बेचेन शर्मा के दो नाटक चार बेचारे सम्मिलित किए जा सकते है। सामाजिक नाटकों के अंतर्गत मिश्र बन्धुओं के नाटक मुंशी प्रेम चन्द्र का संग्रामलक्ष्मण सिंह का गुलामी का नशा प्रमुख नाटक है।

 

(4) प्रसाद युग के अनुदित नाटक- 

इस युग में संस्कृतबंगला और अंग्रेजी से अनेक नाटकों के अनुवाद किए गए सत्य नारायण भवभूती के नाटकों कारूपनारायण पाण्डेय ने बंगला के द्विजेन्द्र लाल राय के ऐतिहासिक नाटकों का तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाटकों का अनुवाद किया। अंग्रेजी के नाटकों का अनुवाद भी मुंशी प्रेमचन्द्र और ललित प्रसाद शुक्ल द्वारा किया गया। 


3 प्रसादोत्तर युग

 

(1) प्रसादोत्तर युग के ऐतिहासिक नाटक - 

इस युग में ऐतिहासिक नाटकों की परम्परा का विकास हुआ। हरिकृष्ण प्रेमीवृन्दावन लाल वर्मागोविन्द बल्लभ पंतउदय शंकर भटटइस युग के प्रमुख नाटककार है। हरिकृष्ण प्रेमी के ऐतिहासिक नाटकों में रक्षाबंधन (1934), शिव साधना (1937), स्वपन भंग (1940), आहुति (1940), उद्धार (1949), शपथ (1951), भग्न प्राचीर (1954) आदि को सम्मिलित है। प्रेमी जी ने अपने नाटकों में प्राचीन इतिहास को न लेकर मुगल कालीन इतिहास का संदर्भ लिया है और उसके परिपेक्ष में वर्तमान राजनैतिकसाम्प्रदायिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया है। वृदांवनलाल वर्मा इतिहास के विशेषज्ञ हैं ऐतिहासिक नाटकों में झासी की रानी (1948), बीरबल (1950), ललित विक्रम (1953) आदि उल्लेखनीय हैं।

 

(2) प्रसादोत्तर युग के सामाजिक नाटक

गोविन्द बल्लभ पंत ने अनेक सामाजिक व ऐतिहासिक नाटकों की रचना की है। उनके 'राज- मुकुट' (1935), 'अन्तःपुर का छिद्र' (1940), आदि ऐतिहासिक नाटक हैं। पहले नाटक में मेवाड़ की पन्ना धाय का पुत्र के बलिदान तथा दूसरे में वत्सराज उदयन के अन्तःपुर की कलह का चित्रण प्रभावोत्पादक रूप में किया गया है। पंत जी के नाटकों पर संस्कृतअंग्रेजीपारसी आदि विभिन्न परम्पराओं का प्रभाव परिलक्षित होता है। अभिनेयता का उन्होंने अत्यधिक ध्यान रखा है। उनकी कला का उत्कृष्टतम रूप उनके सामाजिक नाटकों में मिलता है।

 

(3) प्रसादोत्तर युग के पौराणिक नाटक - 

इस युग में पौराणिक नाटकों की परम्परा का भी विकास हुआ। विभिन्न लेखकों ने पौराणिक आधार को ग्रहण करते हुए अनेक उत्कृष्ट नाटक प्रस्तुत किएसेठ गोविन्द दास का कर्तव्य' (1935), चतुरसेन शास्त्री का 'मेघनाद' (1936), पृथ्वीनाथ शर्मा का उर्मिला’ (1950), सद्गुरूशरण अवस्थी का मझली रानी', रामवृक्ष बेनीपुरी का 'सीता की मां', गोकुल चन्द्र शर्मा का अभिनय रामायण', किशोरीदास वाजपेयी का 'सुदामा' (1939), चतुरसेन शास्त्री का राधा-कृष्ण', वीरेन्द्र कुमार गुप्त का 'सुभद्रा-परिणय', कैलाशनाथ भटनागर भीम प्रतिज्ञा' (1934), और 'श्रीवत्स' (1941), उदय शंकर भटट के विद्रोहिणी अम्बा' (1935), और 'सगर- विजय' (1937), पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्रका 'गंगा का बेटा' (1940), डॉ. लक्ष्मण स्वरूप का नल-दमयन्ती' (1941), प्रभुदत्त ब्रहमचारी का श्री शुक' (1944), तारा मिश्रा का 'देवयानी' (1944), गोविन्द दास का 'कर्ण' (1946), प्रेमनिधि शास्त्री का प्रणपूर्ति’ (1950), उमाशंकर बहादुर का 'वचन का मोल' (1951), गोविन्द बल्लभ पंत का ययाति' (1951), डॉ.कृष्ण दत्त भारद्वाज का 'अज्ञातवास' (1952), मोहन लाल 'जिज्ञासुका पर्वदान' (1952), हरिशंकर सिन्हा 'श्रीवासका 'मां दुर्गे' (1953), लक्ष्मी नारायण मिश्र के 'नारद की वीणा' (1946), और 'चक्रव्यूह' (1954), रांगेय राघव का 'स्वर्ण भूमि का यात्री' (1951), मुखर्जी गुंजन का 'शक्ति-पूजा' (1952), जगदीश का 'प्रादुर्भाव' (1955), सूर्यनारायण मूर्ति का 'महा विनाश की ओर' (1960) आदि। प्राचीन संस्कृति के आधार पर पौराणिक गाथाओं के असम्बद्ध एवं असंगत सूत्रों में सबंधं एवं संगति स्थापित करने का प्रयास पौराणिक नाटक हमें आज के जीवन की व्यापकता एवं विशालता का संदेश देते हैं। रंग-मंच एवं नाटकीय शिल्प की दृष्टि से अवश्य इनमें अनेक नाटक दोषपूर्ण सिद्ध होंगे किन्तु गोविन्द बल्लभ पंतसेठ गोविन्द दासलक्ष्मीनारायण मिश्रजैसे मंजे हुए नाटककारों ने इसका कोई संदेह नहीं किया की ये नाटक विषय वस्तु की दृष्टि से पौराणिक होते हुए प्रतिपादन- शैली एवं कला के विकास की दृष्टि से पौराणिक होते हुए प्रतिपादन शैली एवं कला के विकास की दृष्टि से आधुनिक है तथा वे समाज की रूचि एंव समस्याओं के प्रतिकूल नहीं हैं।

 

(4) प्रसादोत्तर युग के  कल्पनाश्रित नाटक - 

इस युग के कल्पनाश्रित नाटकों को भी उनकी मूल प्रवृत्ति की दृष्टि से तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- 1. समस्या- प्रधान नाटक, 2. भाव- प्रधान, 3. प्रतीकात्मक नाटक । समस्या- प्रधान नाटकों का प्रचलन मुख्यतः इब्सनबर्नाड शा आदि पाश्चात्य नाटककारों के प्रभाव से ही हुआ है। पाश्चात्य नाटक के क्षेत्र में रोमांटिक नाटकों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप यर्थाथवादी नाटकों का प्रादुर्भाव हुआजिनमें सामान्य जीवन की समस्याओं का समाधान विशुद्ध बौद्धिक दृष्टिकोण से खोजा जाता है। लक्ष्मीनारायण मिश्र के समस्या प्रधान नाटकों में 'सन्यासी' (1931), 'राक्षस का मन्दिर' (1931), 'मुक्ति का रहस्य' (1932), 'राजयोग' (1934), 'सिन्दूर की होली' (1934), 'आधीरात' (1937), आदि उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त इन्होने कुछ ऐतिहासिक नाटक भी लिखे थे। मिश्र जी के इन नाटकों में बौद्धिकतावादयर्थाथवादएवं फ्रायडवाद की प्रमुखता है। सामाजिक नाटकों के क्षेत्र में सेठ गोविन्द दासउपेन्द्र नाथ अश्कवृंदावनलाल वर्माहरिकृष्ण प्रेमी आदि का महत्वपूर्ण योगदान है। सेठ गोविन्ददास ने ऐतिहासिकपौराणिक विषयों के अतिरिक्त सामाजिक समस्याओं का चित्रण भी अपने अनेक नाटकों में किया हैजिनमें से 'कुलीनता' (1940), ‘सेवा-पथ' (1940), ‘दुःख क्यों?' (1946), सिद्धांत - स्वातंत्र्य' (1938), ‘त्याग या ग्रहण' (1943), ‘संतोष कहाँ’ (1945), 'पाकिस्तान' (1946), 'महत्व किसे' (1947), गरीबी- अमीरी' (1947), ‘बड़ा पापी कौन' (1948) आदि उल्लेखनीय हैं। सेठ जी ने आधुनिक युग की विभिन्न सामाजिकराजनीतिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं का चित्रण सफलतापूर्वक किया है। ऊँच-नीच का भेद, 'भ्रष्टाचार एवं राजनीति के आधार पर नाटक लिखे। उपेन्द्र नाथ अश्क ने राष्ट्र की विभिन्न समस्याओं का चित्रण अपने नाटकों में किया उनके उल्लेखनीय नाटकों में - कैद (1945), उड़ान (1949), छठा बेटा (1955), अलग- अलग रास्ते प्रमुख हैं।

 

वृंदावनलाल वर्मा ने ऐतिहासिक और सामाजिक नाटक लिखे उनके नाटकों में राखी की लाज (1943), बांस की फांस (1947), नीलकंठ (1951), प्रमुख हैं। वर्मा जी इन नाटकों में विवाह जाति-पाति और सामाजिक बुराइयों का अंकन किया है। इस युग के अन्य सामाजिक नाटकों में उदय शंकर भटट का कमला (1950), हरिकृष्ण प्रेमी का 'छाया', प्रेमचन्द का प्रेम की बेदी (1933), चतुरसेन शास्त्री का पद ध्वनि 1952, शम्भू नाथ सिंह का धरती और आकाश (1954), उल्लेखनीय हैं। प्रतीकवादी नाटकों की परम्परा जयशंकर प्रसाद के कामना से मानी जा सकती है। सुमित्रानन्दन का 'ज्योत्सना' (1934), भगवती प्रसाद वाजपेयी का 'छलना', गोविन्द दास का नवरस एवं डॉ. लक्ष्मी नारायण दास का 'मादा कैक्टसउल्लेखनीय है। 


4 स्वातन्त्र्योत्तर युग सेठ 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात हिन्दी नाटक का विकास तेजी से हुआ कुछ लेखकों ने पुरानी परम्परा का ही निर्वाह किया किन्तु कुछ लेखकों ने नए शिल्प का प्रयोग किया। इसे हम तीन वर्गों में विभक्त कर सकता है-

 

1. सामाजिक एवं सांस्कृतिक नाटक - 

इस वर्ग में मुख्यतया जगदीश माथुरनरेश मेहताविनोद रस्तोगीडॉ. लक्ष्मी नारायण दास एवं डॉ. शंकर शेष की रचनाएं आती है। जगदीश चन्द्र माथुर ने 'कोर्णाक' 1952, पहला राजा 1969, 'दशरथनन्दन' 1974 में सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के विषय में लिखा है। विष्णु प्रभाकर ने 'युगे युगे क्रान्ति', 'टूटते परिवेशआदि नाटकों में पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं को चित्रित किया है। नरेश मेहता ने सुबह के घण्टे (1956), और खण्डित यात्राएं (1962) में आधुनिक राजनिति और विसंगतियों पर प्रकाश डाला है। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने 50 से अधिक नाटकों की रचना की है- 'अंधा कुआं', 'रात रानी', 'दर्पण', 'कर्फ्यू', 'अब्दुला दीवाना', 'मि. अभिमन्यूउनके महत्वपूर्ण नाटक है। डॉ. शंकर शेष ने अपने नाटकों में व्यक्ति समाज और संस्कृति के अन्तर द्वंद्व को उदघाटित किया है। 'बिन बाति के दीप', 'फंदी', 'खजुराहो के शिल्पी', 'एक और द्रोणाचार्यउनके उल्लेखनीय नाटक है।

 

2. व्यक्तिवादी नाटक - 

इस वर्ग में मोहन राकेशसुरेन्द्र वर्मारमेश बक्षीमुद्रा राक्षस की रचनाएं आती है। मोहन राकेश ने अपने तीन नाटकों 'आषाढ़ एक दिन' (1958), 'लहरों के राजहंस' (1963), 'आधे-अधूरे' (1969), में व्यक्ति एवं समाज के द्वंद्व को प्रदर्शित किया है। सुरेन्द्र वर्मा ने 'द्रोपदी' (1972), 'सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' 1975, और 'आठवां सर्गनाटक में परम्परागत मान्यताओं को चुनौती दी है। रमेश बक्षी ने अपने 'देवयानी का कहना हैनाटक में वैवाहिक संस्था की उपयोगिता पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया हैइसी प्रकार मुद्राराक्षस ने 'तिल चटटा' 1975 में विवाह के संबंध में परम्परागत मूल्यों के प्रति विद्रोह किया है। इस वर्ग के लेखकों की दृष्टि मुख्यतः व्यक्ति स्वातन्त्रयअहमऔर प्रेम संबंधों पर केन्द्रित रही है।

 

3. राजनैतिक नाटक - 

राजनीति सदा से ही नाटकों का विषय बनती रहीं हैं । स्वतन्त्रता के पश्चात राजनीति को आधार बनाकर अनेकानेक नाटक लिखे गएजिनमें दया प्रकाश सिन्हा का इतिहास चक्र एवं कथा एक कंश कीविपिन अग्रवाल का 'ऊँची-नीची टांग का जांघिया हमीदुल्ला का 'समय संदर्भ', गिरीराज किशोर का 'प्रजा ही रहने दो', सुशील कुमार सिंह का 'सिंहासन खाली है', मणि मधुकर का रस- गन्धर्वसर्वेश्वर दयाल सक्सेना का 'बकरीविशेष उल्लेखनीय हैं इनमें एक ओर जनता का शोषण करने वाले राजनीतिज्ञों का भण्डाफोड़ किया गया है तो इसमें दूसरी ओर सत्ताधारी वर्ग द्वारा किए जाने वाले अनाचारदुराचार और भ्रष्टाचार का चित्रण किया गया है। इसके अतिरिक्त शरद जोशी का अन्धों का हाथीमन्नू भण्डारी का बिना दिवार का घरशम्भू नाथ सिंह का 'धरती और आकाशआदि भी उल्लेखनीय रचनाएं है। हिन्दी नाटक के क्षेत्र में डॉ. कुसुम कुमार का नाम भी महत्वपूर्ण है 'संस्कार को नमस्कार', 'रावण लीला', इनके महत्वपूर्ण नाटक है।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी नाटक का विकास अनेक रूपों और अनेक दिशाओं में हुआ है। यद्यपि प्रारम्भ में हिन्दी रंगमंच के अभाव तथा एकांकी रेडियो रूपों एवं चलचित्रों की प्रतियोगिता के कारण इसकी विकास की गति मंद रही परन्तु कुछ स्वतन्त्र संस्थाओं द्वारा नाटकों का अभिनय किया जाता रहा हैटेलिविजन में दिखाए जाने वाले उबाउ विषयों से दर्शक धीरे- धीरे नाटक देखने की और पुन: उत्सुक हो रहें हैं. आशा है नाटकों का विकास पूर्व की भांति निरन्तर होता रहेगा

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