पाश्चात्य काव्यशास्त्र :प्लेटो: परिचय एवं काव्य सिद्धांत |Plato kavya siddhant

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पाश्चात्य काव्यशास्त्र :प्लेटो: परिचय एवं सिद्धांत

पाश्चात्य काव्यशास्त्र :प्लेटो: परिचय एवं  काव्य सिद्धांत |Plato kavya siddhant



पाश्चात्य काव्यशास्त्र प्रस्तावना 

प्रस्तुत इकाई में आप पढ़ेंगे कि मनुष्य को सौंदर्य तत्व की अनुभूति कराते हुए आनंद प्रदान करने वाली कलाएं समाज को सुव्यवस्थित रूप से आगे बढ़ाने में कितनी सहायक या बाधक हो सकत हैं; तथा कला के मूल तत्व एवं प्रक्रिया क्या है; इसी के मंथन के साथ पाश्चात्य काव्यशास्त्र का चिंतन आरंभ हुआ। इस चिंतन में पहला नाम प्लेटो का आता है; जिसने सबसे पहले एक आदर्श राज्य की कल्पना की थी। पाश्चात्य काव्यशास्त्र का प्रारंभ ईसा से लगभग चौथी- पाँचवी शताब्दी पूर्व प्लेटो से ही माना जाता है। 

प्रस्तुत इकाई में हम महान विचारक प्लेटो के साहित्यिक सिद्धांतों का परिचय प्राप्त करेंगे।


प्लेटो: परिचय एवं सिद्धांत  पृष्ठभूमि

 

इस भाग में सर्वप्रथम हम प्लेटो के काल, पृष्ठभूमि और कृतित्व का सामान्य परिचय प्राप्त करेंगे।

 

प्लेटो के बारे में जानकारी  पृष्ठभूमि 

यूरोप की आलोचना -पद्धति का मूल स्रोत प्राचीन ग्रीस का सांस्कृतिक जीवन है। प्लेटो (ई0पू0 428 से 347) और अरस्तू (384-3220पू0) से बहुत पहले से वहाँ रचनात्मक साहित्य की सृष्टि हो रही थी। तत्कालीन ग्रीक कवियों, दार्शनिकों और चिंतकों द्वारा रचे गए दर्शनशास्त्र, भाषण- शास्त्र, नाटक, काव्य तथा इतिहास आदि के स्फुट संदर्भ मिलते हैं; जिनमें साहित्य के आदर्शों और आलोचना सिद्धांतों पर निर्णय दिए गए हैं; जैसे काव्य का जन्म किस प्रकार होता है, उसकी रचना- पद्धति क्या है, काव्य का उद्देश्य क्या है आदि। ईसा पूर्व पाँचवी - छठी शताब्दी में होमर कृत 'इलियड एडं ओडीसी' नामक महाकाव्य के अनेक रूपांतर मिलते हैं। किंतु ई०पू० चौथी शताब्दी में उत्कृष्ठ कलाओं और सर्जनात्मकता का एकाएक हास होने लगा। राजनीति, शिक्षा, आचार-विचार आदि में एक प्रकार की अराजकता फैल गई थी। इसके बाद धीरे-धीरे दर्शनशास्त्र तथा वक्तृत्व कला में कुशल पंडितों ने देश की बागडोर संभाली। उन्होंने तर्क विद्या के बल से ज्ञान के नए क्षेत्रों का यूनान की अवगाहन किया। इसी से साहित्य-समीक्षा के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का भी प्रादुर्भाव हुआ । इन चिंतकों ही प्रसिद्ध प्राचीन ग्रीक विद्वान सुक्रात भी थे; जिन्होंने अपने दार्शनिक चिंतन प्रधान भाषणों और संवादों द्वारा तत्कालीन युवाओं पर गहरा प्रभाव डाला था। उनके प्रिय शिष्यों में प्लेटो प्रमुख थे।

 

सुक्रात के बाद उनके सबसे प्रतिभाशाली शिष्य प्लेटो ने साहित्य, राजनीति एवं समाज- निर्माण का बौद्धिक नेतृत्व संभालकर यूनान में बौद्धिक क्रांति का सूत्रपात किया। प्लेटो एक संभ्रांत कुल में पैदा हुए थे। उनके माता-पिता दोनों का संबंध एथेंस के राजघरानों से था। प्लेटो महान दार्शनिक सुकरात के विचारों तथा तर्क पद्धति से अत्यधिक प्रभावित थे। सुकरात को नवयुवकों को भड़काने और पथभ्रष्ट करने के आरोप में प्राणदंड मिलने के पश्चात् प्लेटो को विश्वास हो गया कि सच्चे और ईमानदार व्यक्ति के लिए राजनीति में कोई स्थान नहीं है। कुछ समय तक अन्य देशों की यात्रा करके पुनः एथेंस लौटकर उन्होंने ई0पू0 387 में अकादमी की स्थापना की; जिसका उद्देश्य दार्शनिक और वैज्ञानिक अनुसंधान करना था। इस अकादमी को यूरोप का प्रथम विश्वविद्यालय माना जाता है। प्लेटो साहित्य, गणित एवं दर्शनशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। उनके विद्यापीठ में दर्शनशास्त्र, गणित, प्राकृतिक विज्ञान, न्याय और कानून की शिक्षा दी जाती थी । सहृदय और दूरदर्शी प्लेटो के आलोचना संबंधी विचारों का परिचय 'गोर्जिपास एडं फ्रीड्स', 'प्रोटागोरस', 'आयॉन', 'क्रैटिलस', 'रिपब्लिक' और 'लौज' आदि तीस से अधिक संग्रहों में संवादों के रूप में उपलब्ध होता है। इनमें से 'रिपब्लिक' नामक ग्रंथ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसमें ग्रीक जीवन तथा आचरण के सभी पक्षों पर प्लेटो ने अपनी सूक्ष्म और आदर्शवादी अन्तर्दृष्टि का परिचय दिया है। आगे चलकर इन्हीं के आधार पर यूरोपीय काव्यशास्त्र की रूपरेखा प्रस्तुत हुई । प्लेटो के संवादों में आलोचना सिद्धांतों का कोई व्यवस्थित निरूपण नहीं मिलता। वे जहाँ-तहाँ बिखरे हुए हैं, फिर भी वे इतने मौलिक तथा गंभीर हैं कि पाश्चात्य काव्यशास्त्र के इतिहास का प्रारंभ उन्हीं से माना जाता है।

 

ईसा की तीसरी से पाँचवी शताब्दी तक प्लेटो के विचारों पर टीका-टिप्पणियाँ लिखी जाती रहीं। उसके बाद दसवीं से बारहवीं शताब्दी तक उन विचारों के मनन, अध्ययन और विवेचन का कार्य चलता रहा। फिर पुनर्जागरण काल और 19वीं शताब्दी के स्वच्छंदतावादी  युग (रोमेंटिक पीरियड) के विद्वानों तथा कवियों पर भी प्लेटो ने पूर्ण प्रभाव डाला। विशुद्ध आनंदानुभूति वाली कला और उपयोगिकतापूर्ण कला के विषय में प्लेटो द्वारा प्रारंभ किया गया विवाद बीसवीं शताब्दी तक कवियों-कलाकारों के आंदोलनों का एक प्रमुख बिंदु बना रहा।

 

प्लेटो के काव्य सिद्धांत 

प्लेटो को काव्य और कवियों की निंदा करने वाला माना जाता है। ऐसा क्यों कहा जाता है? यह जानने के लिए इस भाग में हम कला और काव्य निर्माण के विषय में प्लेटो के विचारों के विषय में पढ़ेंगे।

 

प्लेटो के काव्य-विषयक विचार- 

प्लेटो काव्य - साहित्य का गहन अध्येता था तथा अपनी गद्य रचनाओं में कवित्त्वपूर्ण शब्द और पंक्तियाँ उद्धृत करता था, फिर भी उसने कवियों की भर्त्सना की है। हम पूछ सकते हैं कि ऐसा विरोधाभास क्यों? इसीलिए कि प्लेटो का मूल उद्देश्य आदर्श राज्य और आदर्श व्यक्ति का निर्माण करके व्यक्ति के आंतरिक गुणों को विकसित करना था। उसकी विचारधारा में एक ओर समाज तथा राजनीति का उत्थान है, तो दूसरी ओर व्यक्ति का । वह साहित्य और कला में वहीं तक रूचि रखता था जहाँ तक उनसे राजनीतिक उत्थान हो सके और उदात्त नैतिक सिद्धांतों की स्थापना हो सके। वह मानता था कि कवि तर्करहित होकर आवेग और भावना से काव्य रचना करता है, अतः काव्य वैज्ञानिक नहीं होते। वे समाज को उत्तेजित कर उसे अनैतिक तथा अनुशासनहीन बनाते हैं। किसी कवि या काव्य के मात्र सुंदर होने से कोई लाभ नहीं, जब तक कि वह 'रिपब्लिक' के अनुशासन का पालन न करे। वह कहता था कि यदि कवि को काव्य-रचना की स्वतंत्रता दी जाती है तो उसे यह भी बता देना चाहिए कि वह अपने काव्य में सिर्फ 'शुभ' और 'लाभप्रद ' चरित्रों का ही चित्रण करे । अशुभ, विलासिता, नीचता और भद्देपन की अनुकृति प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता कवि को नहीं देनी चाहिए। ऐसा करने से नागरिकों पर गलत असर पड़ेगा। उनके मन में अशुभ तत्वों की प्रतिमाएं स्थिर हो जाएंगी। प्लेटो ने अपने पूर्ववर्ती कवि होमर और हिसियोड की भी आलोचना की, क्योंकि उन्होंने अपने वीर नायकों को फूट-फूट कर रोते, भद्दी भाषा का प्रयोग करते तथा लड़ते हुए चित्रित किया था। अपने उद्देश्यों के लिए गलत साधनो ं का प्रयोग करने वाले पात्रों के चित्रण युक्त काव्य नागरिकों को भ्रष्ट बना सकते हैं। नैतिकता की रक्षा के लिए देवताओं और योद्धाओं को आदर्श रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। ईश्वर को उसी जगत का स्रष्टा बताना चाहिए, जो परम रूप से शुभ दुष्ट लोगों को सुखी नहीं दिखाना चाहिए और दंगा फसाद करने वालों की तारीफ नहीं करनी चाहिए। उसके अनुसार जो देवी-देवता या महापुरुष नागरिकों को प्रभावित करते हैं; उन्हें निष्कृष्ठ रूप में आपस में लड़ते, उच्छृंखल होते अथवा अनैतिक, कामी- अत्याचारी रूप में चित्रित करना देश और समाज के लिए अपमानजनक है। ऐसी कला मनुष्य को हीन, पतित तथा अनैतिक बनाती है। आदर्श राज्य में ऐसे कवियों के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्हें फूलों का हार पहनाकर राज्य से कहीं बाहर भेज देना चाहिए। प्लेटो ऐसी काव्य रचनाएं चाहता था; जो मनुष्य को देवोपम गुणों से विभूषित कर सकें, चारित्रिक दृष्टि से उसे लौह पुरुष बना सकें।

 

प्लेटो ने काव्य-कला का खंडन दो आधारों पर किया

1. नैतिक दृष्टि से वह अनैतिकता को प्रश्रय देने वाली है, तथा 

2. वह मिथ्या या अवास्तविक प्रचार करती है। एक आदर्श नागरिक के रूप में मनुष्य को नैतिक आदर्श का अनुसरण करना चाहिए। कला उसे दोनों ही दृष्टियों से पथभ्रष्ट करती है, इसलिए वह निंदनीय है।

 

कवि 'विशेष' का चित्रण करता है, सामान्य का नहीं। उसका ज्ञान ऐन्द्रिय ज्ञान तक ही सीमित रहता है, प्रज्ञा-ज्ञान तक नहीं पहुँच पाता। वह आदर्श जगत की अनुकृति प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि उसकी छाया की अनुकृति करता है। प्लेटो के अनुसार उत्कृष्ठ कला वही है जो अपार्थिव एवं अमूर्त सत्य के प्रति मनुष्य को सचेत कर दे। प्लेटो ने सत्य, शिव और सुंदर को स्वीकार किया, किंतु इन तीनों में भी शिव को सर्वाधिक मान्यता दी। वह नैतिकता और सुंदरता का पुजारी था। इसलिए उसी कला को श्रेष्ठ मानता था जो मानव चरित्र को शिव और उन्नत बनाने में समर्थ हो। उसके मतानुसार दूसरी कलाओं की भाँति कविता को भी समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए। काव्य का लाभप्रद और सुंदर होने के साथ-साथ आनंदप्रद होना भी आवश्यक है। यदि वह ऐसा नहीं है तो वह त्याज्य है। चूंकि कविता हमारी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना के साथ ही सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति भी है, इसीलिए उसे अवश्य ही दोष रहित और शिव स्वरूप होना चाहिए। अश्लील संवेगों को कुरेदने वाली कविता हमारी आत्मा की शत्रु है।

 

प्लेटो ने कलाओं को दो भागों में बाँटा; ललित कला और उपयोगी कला तथा काव्य की तीन प्रमुख शाखाएं मानीं; गीत, महाकाव्य और नाटक । उसके अनुसार गीत विवरणात्मक होते हैं, नाटक अनुकरणात्मक और महाकाव्य मिश्रित होते हैं; जिसमें कुछ अंश कवि अपनी ओर से व्यक्त करता है. कुछ पात्रों के माध्यम से कहता है। नाटक की चर्चा करते हुए उसने ट्रेजेडी के श्रेष्ठ कवियों को न्यायकर्ताओं और समाजसेवियों के समकक्ष बताया, तथा हास्यास्पद और बेढंगे कार्यों को कॉमेडी का आधार बताया। उसने संगीत का उदाहरण देते हुए समझाया है कि आरोह-अवरोह तथा स्वरों की विभिन्नता के बाद भी संगीत का लक्ष्य सामंजस्य और समन्वय स्थापित करके आनंद की सृष्टि करना होता है। इसी प्रकार काव्य में कथा, पात्र, भाषा आदि विभिन्न तत्वों का प्रयोग करते हुए कवि की दृष्टि भी समन्वय एवं समग्रता पर होनी चाहिए। प्लेटो का एक और अनेक का समन्वय उसके 'कला के अनुकरणात्मक सिद्धांत का मूल है। काव्य के मूल्यांकन के लिए प्लेटो उसके यथार्थ रूप का ज्ञान आवश्यक समझता था तथा मनोविज्ञान और मानव- चरित्र के सूक्ष्म रहस्यों का उद्घाटन करने की शक्ति को प्रमुखता देता था। उसने कल्पना और संवेगों का अर्थ मनोवैज्ञानिक रूप से समझा था। वह मनोविज्ञान के इस तथ्य से भी अनभिज्ञ नहीं था, कि मनोभावों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति शांति और मुक्ति मिलती है। दूसरी ओर वह ललित कला तथा व्यावहारिक कला में भी भेद करता है; जैसे चित्रकला और खेल । वे मानते हैं कि सच्चे नागरिक को शरीर और मन दोनों की शिक्षा देना जरूरी है। मन के लिए कला तथा शरीर के लिए व्यायाम। प्लेटो उसी साहित्य और कला को अच्छा समझता था, जो मानव चरित्र को उन्नत और शिव बनाए । काव्य का उद्देश्य केवल आनंद प्रदान करना ही नहीं है, बल्कि मानव को प्रभावित कर उसके चरित्र में छिपी हुई आत्म-शक्तियों को सामने लाकर उसका चरित्र-निर्माण करना भी है।

 

प्लेटो की काव्यकला की कसौटी सत्य है। वह कठोर संयम और आत्म नियंत्रण पर आधारित हैं। प्लेटो के संपूर्ण आलोचना सिद्धांतों के मूल में नैतिकता, संयमित और सीमित कल्पना, अनुशासन, व्यवस्था क्रम और भेदाभेद वाला दर्शन ज्ञान निहित है।

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