भारतीय काव्य शास्त्र के प्रमुख सम्प्रदायः रीति वृत्ति प्रवृत्ति | Kavya Shatra Ke Pramukh Sampraday

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भारतीय काव्य शास्त्र के प्रमुख सम्प्रदायः रीति

भारतीय काव्य शास्त्र के प्रमुख सम्प्रदायः रीति वृत्ति प्रवृत्ति | Kavya Shatra Ke Pramukh Sampraday


 

भारतीय काव्य शास्त्र के प्रमुख सम्प्रदायः रीति- प्रस्तावना 

भारतीय साहित्यशास्त्र से सम्बन्धित इस इकाई से पूर्व की इकाईयों के अध्ययन के बाद आप यह बता सकते हैं कि साहित्य क्या है, साहित्य कैसे रचा जाता है, साहित्य क्यों लिखा, पढ़ा, सुना जाता है, रस क्या है? और अलंकारों के विषय में हमारी शास्त्रीय मान्यताएं क्या हैं?

 

भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य के स्वरूप, काव्य के हेतु और काव्य के प्रयोजनों के विषय में चर्चा करने के साथ ही आचार्यों ने इस विषय में गम्भीर चिन्तन किया है कि काव्य में वह कौन सा तत्व है, जो काव्य की समस्त वस्तुसत्ता और प्रक्रिया में व्याप्त है, जिसके अन्दर काव्य के सभी तत्त्व सफलतापूर्वक समाविष्ट हो जाते हैं, जिसके उच्चारण से काव्य की सभी विशेषताओं का परिचय मिल जाता है और जिसके अभाव में काव्य में जीवन्तता नहीं होती है। इस सन्दर्भ में आत्मा शब्द का प्रयोग किया जाने लगा और रीति सिद्धान्त की तो नींव ही काव्यात्मा के प्रसंग में रखी गई। प्रस्तुत इकाई में रीतिसिद्धान्त के विषय में विस्तार से विवेचन प्रस्तुत है। 


रीति का अभिप्राय 

रीति सिद्धान्त भारतीय साहित्यशास्त्र का एक प्रसिद्ध सिद्धान्त है, जिसके अनुसार रीति 'काव्य की आत्मा' या मूलतत्त्व है। आचार्य वामन ने 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ता नामक अपनी रचना में रीति को काव्य का जीवनाधायक तत्व मानकर रीतिसिद्धान्त की स्थापना की। इस सिद्धान्त को जानने से पहले रीति शब्द के विषय में जानना जरूरी है।

 

रीति शब्द का कोषगत अर्थ है- 'गमन प्रणाली'- अर्थात् जिससे जाया जाय या गतिशील हुआ जाय, वह रीति है। रीयते गम्यतेऽनेन इति रीतिः । मार्ग, पन्थ, पद्धति, प्रणाली, शैलीढंग, प्रकार, तरीका आदि इसके प्रयोगमूलक अर्थ हैं। अंग्रेजी का 'स्टाइल' शब्द भी रीति के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। स्टाइल का कोशगत अर्थ है तरीका, काम करने का ढंग, अभिव्यक्ति का एक प्रकार, आचरण, प्रणाली, ढब, तर्ज, रीति, प्रथा, रिवाज, फैशन, बनावट, डिजाइन, वाक्यरचना का वह ढंग जो लेखक की भाषा सम्बन्धी निजी विशेषताओं का सूचक होता है।

 

ऋग्वेद में रीति शब्द धारा- महावरीतिः शवसासारत् पृथक् (ऋ.1/28/14), गति - वातेवाजुर्यानद्येवरीति:(ऋ.2/39/5) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आचार्य भरत रीति को प्रवृत्ति, , दण्डी, कुन्तक आदि- मार्ग, मम्मट तथा पण्डितराज जगन्नाथ वृत्ति आनन्दवर्धन रीति को संघटना कहते हैं। राजशेखर रीति, प्रवृत्ति और वृत्ति में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करते हुए वेषविन्यासक्रम को प्रवृत्ति, विलासविन्यासक्रम को वृत्ति और वचनविन्यासक्रम को रीति कहते हैं भारतीय ( साहित्यशास्त्र कोश )|

 

आइए, रीति के विषय में स्पष्टतः जानने के लिए काव्य की शैली के सन्दर्भ में आचार्यों द्वारा वर्णित प्रवृत्ति, वृत्ति, मार्ग आदि के विषय में जानें।

 

रीति का अर्थ परिभाषा व्याख्या  

आचार्य वामन ने रीति शब्द का प्रयोग विशिष्ट पदरचना के अर्थ में किया है- विशिष्टपदरचनारीति: (काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, 3/ 2 / 15)। उनकी दृष्टि में रीति काव्य का सर्वोच्च तत्व है। वामन ने शब्द गुम्फ को रीति का बहिरंग तत्व और गुण, रस, अलंकार तथा दोषाभाव को उसका अन्तरंग तत्त्व माना है। इसीलिए रीति को विशिष्ट पदरचना और पदरचना में गुणों की अनिवार्यता को स्वीकार किया और रीति का विभाजन देशभेद के आधार पर किया है। वैसे पदरचना के वर्गीकरण का प्रयास आरम्भ से ही आचार्यों ने भिन्न-भिन्न रूपों में किया है। पदरचना के अतिरिक्त विभिन्न प्रदेशों के आचार-विचार तथा रहन-सहन के वर्गीकरण का प्रयास भी मिलता है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में प्रवृत्ति के नाम से यह वर्गीकरण प्राप्त होता है। उन्होंने आवन्ती, दाक्षिणात्य, पांचाली और औड मागधी- ये चार प्रकार की प्रवृत्तियाँ मानी थीं और इनके द्वारा यह निर्देश किया था कि इन-इन प्रदेशों के लोग किस प्रकार का आचार-व्यवहार करते हैं।

 

नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने नाट्यवृत्तियों का निर्देश नाट्य की माता के रूप में किया है। ये नाट्यवृत्तियाँ विविधप्रकार की नाट्यशैलियाँ ही हैं। आगे चलकर इसी आधार पर काव्य- वृत्तियों का आविष्कार हुआ। काव्यवृत्तियों के वर्गीकरण का आधार शैली ही है। काव्यशास्त्र के आदि आचार्य भामह के समय में काव्यप्रकारों का वर्गीकरण प्रदेशों के आधार पर किया जाता था। उनके समय में वैदर्भ और गौड दो प्रकार के काव्य प्रचलित थे। वैदर्भ को गौड़ की अपेक्षा श्रेष्ठ माना जाता था। भामह ने इस प्रकार का भेद नहीं माना और स्पष्ट कहा कि वैदर्भी काव्य स्पष्ट, लघु और होते हुए भी यदि पुष्टार्थ और वक्रोक्ति से युक्त नहीं है तो वह मात्र श्रुतिमधुर होगा। इसके विपरीत अलंकारयुक्त ग्राम्यता रहित अर्थवान्, न्याय्य और जटिलतारहित गौडीय काव्य भी श्रेष्ठ होगा।

 

दण्डी ने वैदर्भ और गौड़ को मार्ग नाम दिया है और गौडी की अपेक्षा वेदर्भी को श्रेष्ठ माना है। आचार्य कुन्तक ने काव्यमार्गों का उललेख किया है, किन्तु उनका वर्गीकरण प्रदेशों के आधार पर नहीं है। उनके अनुसार केवल तीन मार्ग हैं- सुकुमार, विचित्र और मध्यम। उनका मानना है कि देशभेद के आधार पर मार्गभेद उचित नहीं। उसका आधार कवियों का स्वभावभेद ही होना चाहिए। यद्यपि कवियों का स्वभाव अलग-अलग होता है, इसलिए मार्ग भी अनन्त हो सकते हैं, लेकिन उनकी गणना असम्भव होने से तीन प्रकार के मार्ग ही मानना श्रेयस्कर है।

 

यहाँ यह बात साफ है कि काव्यरचना की शैली का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया जाता रहा है। देशभेद के आधार पर, कवि स्वभाव के आधार पर। रचनाकार अपने परिवेश, अपने संस्कारों से सदैव प्रभावित होता है, उसकी भाषा पर उसके देशकाल का प्रभाव निश्चित रूप से पढ़ता है और इसी आधार पर उसकी शैली में भी वैशिष्ट्य होता है और इसीलिए हम उसकी भाषा शैली से उसके स्थानादि से परिचित हो जाते हैं। इस वैशिष्ट्य को स्पष्ट करने के लिए ही संस्कृत के आचार्यों ने रीति, वृत्ति, प्रवृत्ति, मार्ग, संघटना आदि शब्दों का प्रयोग किया है। 


वृत्ति का अर्थ एवं व्याख्या  

वृत्ति शब्द का सामान्य अर्थ जीविका का व्यापार है। पर काव्यशास्त्र में यह विशिष्ट अर्थ का वाचक है। वहाँ यह तीन विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होती है- 1. शब्दशक्तिके रूप 2. अनुप्रास अलंकार के उपनागरिका, परुषा तथा कोमला नामक प्रकारों के लिए और 3. नाट्यवृत्तियों के लिए। नाटक की वृत्तियों की कल्पना का मूल आधार वाचिक तथा आंगिक अभिनय है। समाज में प्राणियों के भाव या चेष्टाओं का अनुकरण काव्य में किया जाता है। इसीलिए भरतमुनि ने वृत्तियों को समस्त काव्यों की माता माना है- 'सर्वेषामिति काव्यानां काव्यस्य मातृका इति'। उन्होंने नायकादि की मन, वाणी और शरीर की विभिन्न प्रकार की चेष्टाओं को ही वृत्ति कहा है। वृत्तियाँ मुख्य रूप से चार हैं- भारती, सात्वती, कैशिकी तथा आरभटी। ये वृत्तियाँ नाट्यरचना में उपयोगी होती थीं (नाट्यशास्त्र, 6/24-25 ) 1 दरअसल कवि का अभिप्रेत नाटक के माध्यम से रसोन्मीलन करना होता है और इस कार्य की साधिका वृत्तियाँ होती हैं। श्रंगार और हास्य रस में कैशिकी, वीर, रौद्र तथा अद्भुत रसों में सात्त्वती, करुण और अद्भुत रसों में भारती और भयानक और वीभत्स रसों में आरटी का प्रयोग किया जाता है ( भारतीय साहित्यशास्त्र कोश ) । इसीलिए इन वृत्तियों को संघटना धर्म विशेष माधुर्य, ओज आदि गुणों से अभिन्न कहा गया अतः इनकी स्वतन्त्र सत्ता समाप्त हो गई। आगे चलकर प्रतिहारेन्दुराज ने कहा कि भामह द्वारा अनुप्रास नामक भेद के रूप में उपनागरिका तथा ग्राम्या नामक दो वृत्तियों की उद्भावना की गई थी ( भामहो हि ग्राम्योपनागरिका वृत्तिभेदेन द्विप्रकारमेवानुप्रास व्याख्यातवान् - उद्भट के टीकाकार प्रतिहारेन्दुराज द्वारा 1/2 की लघुवृत्ति) । आचार्य रुद्रट ने पाँच वृत्तियाँ मानी- मधुरा, प्रौढा, परुषा, ललिता तथा भद्रा। किन्तु ये वृत्तियाँ मुख्यत: अनुप्रास से ही सम्बन्धित हैं। इन सभी वृत्तियों में रुद्रट ने विविध प्रकार के अक्षरों का विधान बताया है। | मधुरा वैदर्भी रीति के या उपनागरिका वृत्ति के सदृश मानी जाएगी, भद्रा कोमला या ग्राम्याके सदृश और शेष तीनों वृत्तियाँ परुषा वृत्ति के समकक्ष मानी जाएंगी। इससे स्पष्ट है कि वृतियां दो प्रकार की हैं-1. नाट्यसम्बन्धी और 2. अनुप्राससम्बन्धी । प्रथम प्रकार की भारती आदि चार नाट्यवृत्तियाँ रसानुकूल अर्थ का सन्निवेश करती हैं और द्वितीय प्रकार की परुषा, उपनागरिका, ग्राम्या आदि रसानुरूप शब्दयोजना में सहायक होती हैं। वामन द्वारा वर्णित रीति वृत्ति ही है । हम कह सकते हैं कि रीति और वृत्ति में विशेष अन्तर नहीं है। वृत्तियों में अर्थयोजना पर अधिक महत्व दिया जाता है और रीतियों में शब्दयोजना पर जिस प्रकार शब्द से अर्थ और अर्थ से शब्द पृथक नहीं किये जा सकते, उसी प्रकार रीति और वृत्ति भी संयुक्त हैं।

 

प्रवृत्ति का अर्थ एवं व्याख्या  

प्रवृत्ति का प्रयोग सर्वप्रथम आचार्य भरतमुनि ने किया। भरत के अनुसार नाना देशों के वेश, भाषा तथा आचार का बखान करने वाली प्रवृत्ति है। इस प्रकार प्रवृत्ति केवल भाषा से ही सम्बन्धित न होकर वेश तथा आचार से भी सम्बन्धित है, जबकि रीति का सम्बन्ध केवल भाषा से ही है। प्रवृत्ति आचार-विचार से सम्बन्ध रखती है और रीति बोलने तथा लिखने से सम्बन्धित है। तरह प्रवृत्ति का आधार बाह्य है और रीति का आन्तरिक प्रवृत्ति का आधार भौगोलिक है, रीति कविस्वभाव पर आधारित है। इसीलिए राजशेखर ने प्रवृत्ति को वेशविन्यास से सम्बन्धित - 'वेशविन्यासक्रमः प्रवृत्तिः' कहा और रीति को वचन विन्यास से सम्बन्धित - 'वचनविन्यासक्रमो रीति:' माना। राजशेखर ने काव्यमीमांसा के तीसरे अध्याय में काव्यपुरुष की उत्पत्ति के प्रसंग में प्रवृत्ति, वृत्ति और रीतियों से सम्बन्धित एक रोचक कथा दी है। उनके अनुसार ब्रह्मलोक में किसी विषय पर ऋषियों और देवताओं में विवाद हो जाने पर ब्रह्मा ने निर्णयार्थ सरस्वती को ब्रह्मलोक भेज दिया। फिर सरस्वती को खोजने के लिए सरस्वती का पुत्र काव्यपुरुष चारों दिशाओं में गया। सर्वप्रथम वह पूर्वदेश में अर्थात् गोड़देश में गया, वहाँ गौड़ मागधी प्रवृत्ति, भारती वृत्ति और गौड़ीया रीति का प्रयोग काव्यरचना में होता है। फिर वह पांचाल देश में गया, जहाँ मध्यमा प्रवृत्ति, सात्वती या आरभटी वृत्ति और पांचाली रीति काव्य रचना में विशेषरूप से प्रयुक्त होती है। पांचाल देश से वह अवन्तिदेश में पहुँचा, जहाँ आवन्ती प्रवृत्ति, कैशिकी वृत्ति प्रयुक्त होती है, इसके बाद दक्षिण दिशा में जाने पर काव्यपुरुष ने पाया कि वहाँ दाक्षिणात्या प्रवृत्ति, कैशिकी वृत्ति और वैदर्भी रीति में काव्यरचना होती है। काव्यपुरुष को साहित्यवधू पूर्व दिशाओं में उतना आकृष्ट नही कर पायी, जितना धीरे-धीरे पांचाल देश में और उससे कुछ अधिक और अन्त में दक्षिण दिशा में काव्यपुरुष साहित्यवधू के मोहपाश में आसक्त हो गया और उसने जिस वाणी का प्रयोग किया, वह वैदर्भी रीति ही है।

 

राजशेखर के रूपक के इस प्रसंग में वामन का यह मत पुष्ट होता है कि रीतियों का नामकरण उन उन देशों में इसी प्रकार की रचना की प्रधानता से हुआ। इसका आशय यह नहीं है कि जिस प्रकार विशिष्ट द्रव्य देश विशेष में उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार ये रीतियाँ भी देश विशेष में ही प्रयुक्त होती हैं। ये रीतियाँ किसी भी स्थान में प्रयुक्त हो सकती हैं, हाँ इनके नामकरण का आधार यह है कि जो जो काव्यगुण जिस स्थान की कविता में पाये जाते हैं, उन्हीं के आधार पर रीतियों नामकरण कर दिया गया।

 

मार्ग का अर्थ एवं व्याख्या  

आचार्य कुतक का कहना है कि रीति का सम्बन्ध साक्षात् कवि से है, देश विशेष से नहीं। इसलिए उन्होंने रीति, वृत्ति या प्रवृत्ति के स्थान पर मार्ग शब्द का व्यवहार किया। उनके अनुसार काव्य में सुकुमार मार्ग, विचित्र मार्ग और मध्यम मार्ग- ये तीन मार्ग होते हैं। इन तीनों मार्गों की व्याख्या कुन्तक ने इस प्रकार की है- कवि की अम्लान प्रतिभा से उद्भिन्न, नवीन शब्द और अर्थ से मनोहर, अयत्नविहीन स्वल्प अलंकारों से युक्त पदार्थ के स्वभाव की रक्षा के लिए आहार्य कौशल की उपेक्षा करने वाला, रसादि परमार्थज्ञ, मनः संवाद सुन्दर सुकुमार मार्ग है। इस मार्ग से कविगण उसी प्रकार जाते हैं, जैसे फूलों से खिले वन में होकर भ्रमर। कहने का आशय यह है कि सुकुमार मार्ग वह मार्ग हैं, जो कवि की प्रतिभाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण नये नये शब्दों और अर्थों से युक्त होता है, जिसमें अलंकारों का प्रयोग अनायास किया जाता है, प्रयत्नपूर्वक अलंकारों का प्रयोग नहीं किया जाता। यह मार्ग सहृदय के मन को मोहने वाला है। इसके विपरीत जहाँ कवि एक ही अलंकार से सन्तुष्ट न होकर मणियों के जड़ाव के समान एक के बाद एक अलंकार जोडते जाते हैं, वहाँ विचित्र मार्ग होता है। और जहाँ पुराने कवियों द्वारा वर्णित वस्तु भी केवल उक्तिवैचित्र्य मात्र से सौन्दर्य को प्राप्त कराई जाती है, वहाँ मध्यम मार्ग होता है। मध्यम मार्ग में सुकुमार और विचित्र दोनों मार्गों की सम्पत्ति समान रूप से होती है। इन तीनों मार्गों में सौभाग्य और औचित्य नामक दोनों गुण पद, वाक्य और प्रबन्ध तीनों में स्पष्ट और व्यापक रूप से रहते हैं।

 

कुन्तक ने वामन के द्वारा देशाश्रित रूप में विभाजित रीतियों के स्थान पर काव्याश्रित मार्गनिर्देश करके एक वैज्ञानिक विवेचन का स्तुत्य प्रयास किया है। उन्होंने एक तो देशों के आधार पर रीति या मार्ग के वर्गीकरण का विरोध किया है और दूसरे इस प्रकार वर्गीकृत की गई रीतियों में जो विभेद किया गया है कि वैदर्भी रीति सबसे श्रेष्ठ है और गौडी सबसे कमतर है- का भी विरोध किया है। उनका कहना है कि वैदर्भी रीति को श्रेष्ठ मानने पर अन्य रीतियाँ व्यर्थ हो जायेंगी और ऐसा कौन मनुष्य होगा जो उत्तम वस्तु को छोड़कर अधम या मध्यम को ग्रहण करेगा, क्योंकि काव्यरचना कोई दरिद्र का दान नहीं है।

 

स्पष्ट ही कुन्तक का वर्गीकरण वामन की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक है। उनके अनुसार तीन प्रकार की काव्यशैलियाँ हो सकती हैं। एक में वस्तु में सहज सौन्दर्य का उन्मेष होता है। तो दूसरे में अलंकारों द्वारा सामान्य वस्तु को भी खराद पर चढ़ा कर चमकीला बनाया जाता है और तीसरी में सहज एवं यत्नसाध्य दोनों प्रकार के सौंदर्य का समन्वय होता है। इस प्रकार कुन्तक के अनुसार सहज, अलंकृत और सहजालंकृत ये तीन प्रकार की शैलियाँ हो सकती हैं। निश्चय ही वामन इतनी स्पष्टता के साथ वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली रीतियों के स्वरूप का उद्घाटन ही कर सके हैं, फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि वामन ने अपने पूर्ववर्ती भरत, भामह और दण्डी की

 

शैलीविभाजन की परम्परा को अधिक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया और आगे आने वाले कुन्त जैसे आचार्यों के लिए मार्ग प्रशस्त किया, जिस पर चलकर वे अपने मार्गों की स्थापना कर सके।

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