ध्वनिसिद्धान्त का प्रवर्तन| ध्वनिकाव्य के भेद | Dhwani Kavya Ke Bhed

Admin
0

ध्वनिसिद्धान्त का प्रवर्तन

ध्वनिसिद्धान्त का प्रवर्तन| ध्वनिकाव्य के भेद | Dhwani Kavya Ke Bhed


 

ध्वनिसिद्धान्त का प्रवर्तन

ध्वनि को काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए 'ध्वन्यालोकनामक अनुपमन्थरत्न का प्रणयन करने वाले आचार्य आनन्दवर्धन भरतीय काव्यशास्त्रियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनके ग्रन्थका अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि उन्हें 'ध्वनिनामक इस अद्भुत तत्व की स्थापना के लिए पर्याप्त संषर्घ करना पड़ा था। दरअसल आनन्दवर्धन स्वयं को ध्वनिसिद्धान्त का प्रवर्तक नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि चिर अतीत में यह सिद्धान्त प्रतिष्ठित था लेकिन कालक्रम से लुप्त हो गया। उन्होंने यह कहा कि आचार्यों ने पहले ही ध्वनि के विषय में कहा है। ध्वनिकार की ध्वनिविषयक मान्यताओं का अनेक आचार्यों ने विरोध किया। भट्टनायककुन्तकमहिमभट्ट आदि आचार्यों का इस सन्दर्भ में उल्लेख किया जा सकता है। ध्वनिसिद्धान्त ध्वन्यालोक की पहली कारिका में ही आन्दवर्धन ने अपने विरोधियों के सन्दर्भ में उल्लेख किया है। उनका कहना

 

काव्यस्यात्माध्वनिर्बुधैर्यः समाम्नात्पूर्व- 

स्तस्याभावं जगदुरपरे भाक्तमाहुस्तमन्यैः । 

केचिद् वाचां स्थितमविषये तÜ वमूचुस्तदीयं । 

तेन ब्रूमः सहृदय मनःप्रीतये तत्स्वरूपम्।। (ध्वन्यालोक1/1) 


(-काव्य की आत्मा ध्वनि हैऐसा विद्वानों ने पहले भी कहा है लेकिन कुछ लोग 1. सध् अभाव कहते हैं2. कुछ उसे भाक्त (लक्षणा से सम्बद्ध) कहते हैं3. कुछ उसे वाणी का विषय (अर्थात् जिसको शब्दों से नहीं कहा जा सकता है) मानते हैंइसीलिए सहृदयों के मन की प्रसन्नता के लिए हम (ध्वनिवादी) उसके स्वरूप के विषय में बताते हैं।) यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि उन्होंने इस तत्व की प्रतिष्ठा में अद्भुत सफलता प्राप्त की और इससे भी अधिक प्रसन्नता की बात यह है कि इस प्रतिष्ठा को बनाने में उन्हें ध्वन्यालोक पर लोचन टीका प्रस्तुत करने वाले आचार्य अभिनवगुप्तकाव्यप्रकाशकार मम्मटसाहित्यदर्पणकार विश्वनाथरसगंगाधरकार पण्डितराज जगन्नाथ आदि आचार्यों का प्रबल और हार्दिक समर्थन भी मिला।

 

उपर्युक्त कारिका प्रस्तुत करने के बाद आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वनि का स्वरूप इस प्रकार बताया है-यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनी कृत्स्वार्थीव्यंङ्क्तः काव्यविशेष: स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः । (ध्वन्यालोक1 / 13 ) - जहाँ शब्द और अर्थ अपने उसी (अर्थात् ) मूल अर्थ को छोड़कर किसी अन्य व्यंजित होने वाले अर्थ को ग्रहण करते हैंउसे विद्वान् ध्वनि कहते हैं। आचार्य मम्मट ने ध्वनिकाव्य को उत्तम काव्य की संज्ञा देते हुए उसका लक्षण किया है- इदमुत्तममतिशयिनि व्यंग्ये वाच्याद् ध्वनिर्बुधैः कथितः । काव्यप्रकाश आचार्य विश्वनाथ ने भी ध्वनिकाव्य को उत्तम काव्य माना है- वाच्यातिशयिनी व्यंग्ये ध्वनिस्तत्काव्यमुत्त्मम साहित्यदर्पणपण्डितराज जगन्नाथ का भी मत है- -शब्दार्थो यत्र गुणीभावितात्मानौ कमप्यर्थमभिव्यंक्तस्तदाद्यम्- रसगंगाधर.

 

स्पष्ट है कि आचार्य मम्मटआचार्य विश्वनाथ तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने ध्वनि को उम काव्य की कोटि में रखते हुए उसका जो स्वरूप बताया हैवह आनन्दवर्धन के ध्वनिलक्षण की ही प्रतिच्छाया है। तदनुसार जहाँ शब्द तथा / अथवा अर्थ अपने आप को गुणीभूत करके उस (प्रतीयमान) अर्थ को अभिव्यक्त करते हैंउस काव्यविशेष को विद्वान् लोग 'ध्वनिकहते हैं। अर्थात् काव्य में वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ की प्रधानता होने पर 'ध्वनिहोती है। आचार्य

 

आनन्दवर्धन ने इस कारिका में 'बुधैर्यः समाम्नात्पूर्व:इस कथन से यह भी स्पष्ट किया है कोई काल्पनिक वस्तु नहीं हैजैसा कि ध्वनिविरोधी कहते हैं। ध्वनि का स्वरूप बताते हुए आनन्दवर्धन ने 'सूरिभि:शब्द का प्रयोग किया है और सूरिभि: का अर्थ 'विद्वान्बताया है और विद्वानों में भी सर्वप्रथम स्थान का अधिकारी वैयाकरणों को माना है। आगे चलकर आचार्य मम्मट ने भी ध्वनि को पारिभाषित करते हुए यह माना है कि वैयाकरणों ने ध्वनि शब्द का व्यवहार किया है। दोनों आचार्य यह मानते हैं कि उन्होंने ध्वनि का व्यवहार वैयाकरणों में देखा है। और वैयाकरण श्रूयमाण वर्णों में तथा स्फोटरूप व्यंग्य के व्यंजक शब्द में ध्वनि का व्यवहार करते हैं।


ध्वनि के पाँच अर्थ 

आनन्दवर्धन के ध्वनिलक्षण की व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त ने भी वैयाकरणों स्फोटसिद्धान्त के आधार पर ध्वनि के पाँच अर्थ किये हैं-

 

(क) ध्वनति इति ध्वनिः (वाचक शब्द ) 

(ख) ध्वनति इति ध्वनि: ( वाच्यार्थ ) 

(ग) ध्वन्यते इति ध्वनिः (व्यंग्यार्थ ) 

(घ) ध्वननमिति इति ध्वनिः (व्यंजनाव्यापार) तथा 

(ड्) काव्यमिति व्यपदेश्यश्च योऽर्थः सोऽपि ध्वनिः । उक्त प्रकार- ध्वनिचतुष्टयमयत्वात्। (व्यंजनाव्यापार)

 

इस ध्वनितत्व की स्थापना के लिए आनन्दवर्धन ने पहले ध्वनिविषयक अभाववादियोंभाक्तवादियों और अलक्षणीयतावादियों- तीन विरोधियों के मतों को उद्धृत किया है। उनका कहना है कि अभाववादी मानते हैं कि शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं। अनुप्रासादि अलंकार शब्द की चारुता में हेतु हैंउपमादि अलंकार अर्थ की चारुता के कारण हैं। वर्णसंघटना के धर्म माधुर्यादिगुण भी देखने को मिलते हैंउपनागरिका आदि वृत्तियाँ और वैदर्भी आदि रीतियाँ भी सुनी गई हैं। इन सबके अतिरिक्त ध्वनि नाम की कोई वस्तु नहीं है। यदि ध्वनि में काव्य की कल्पना कर भी ली जाए तो भी यह सिद्धान्त सभी विद्वानो को मान्य नहीं हो सकताक्योंकि विद्वान् अलंकारगुणरीतिवृत्ति आदि को ही काव्य का तत्त्व मानते हैं और इन तत्वों से सम्पन्न शब्दार्थयुगल को काव्य मानते हैंध्वनि को नहीं (ध्वन्यालोक1/1 कारिका का व्याख्याभाग)। ध्वनि को रमणीयता का ही कारण मानने पर उसका अन्तर्भाव रमणीयता के उपर्युक्त हेतुओं- अलंकारोंगुणों इत्यादि में ही कर दिया जाना चाहिए। अलग से ध्वनि शब्द की चर्चा करने की जरूरत नहीं है।

 

स्पष्ट है कि अभाववादी ध्वनि नामक पृथक् तत्त्व को नही मानतेभाक्तवादी उसे मानकर उसका अन्तर्भाव लक्षणा में कर देते हैं और अलक्षणीयतावादी ध्वनि को मानते तो हैंपर उसका लक्षण करने में स्वयं को असमर्थ मानते हैं। इन विरोधों का खण्डन करते हुए आनन्दवर्धन कहना है कि-

 

1. वाच्यविशेष अथवा वाचक विशेष से अभिव्यक्त अर्थ ध्वनि है। अतएव ध्वनि वाच्यवाचक के चारुत्व हेतु अर्थात् अलंकारों से भिन्न सत्ता रखनेवाला तत्त्व है। ध्वनि में प्रतीमानार्थ प्रमुख हैअलंकारों का सम्बन्ध वाच्यवाचक से है। अलंकारों में ध्वनि का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता अतः अभाववादियों का विरोध अनुचित है।

 

2. ध्वनि और लक्षणा में अभेद नहीं हो सकताक्योंकि लक्षणा मुख्यार्थ से भिन्न लेकिन रूढिया प्रयोजन के कारण अन्यार्थ की अभिव्यक्ति करती हैजबकि ध्वनि में रूढ़ि या प्रयोजन की बाध्यता नहीं होतीवहाँ तो वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ की प्रधानता होती है। अतः भाक्तवादियों का विरोध भी गलत है।

 

3. भाक्तवादियों ने ध्वनि का लक्षण तो किया ही है और ध्वनिवादियों ने भी अनेक प्रकार से ध्वनि का लक्षण कर दिया है अत: अलक्षणीयतावादियों का विरोध स्वतः ही समाप्त हो जाता है। आनन्दवर्धन ने उपर्युक्त विरोधों का खण्डन करते हुए ध्वनि को काव्य की आत्मा मानकर कहा कि सहृदयों द्वारा प्रशंसित जो अर्थ काव्य की आत्मा के रूप में पतिष्ठित हैउसके दो भेद हैं- वाच्य और प्रतीयमान।

 

यो अर्थ : सहृदयश्लाघ्यः काव्यात्मेति व्यवस्थितः । 

वाच्यप्रतीमानाख्यौ तस्य भेदाबुभौ स्मृतौ । (ध्वन्यालोक1/2)

 

वाच्य अर्थ उपमा आदि अलंकारों से प्रसिद्ध है और प्रतीयमान अर्थ सुन्दरी ललना के प्रसिद्ध अवयवों से भिन्न लावण्य के समान महाकवियों की वाणी में सन्निहित रहता है-

 

प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्तु वाणीषु महाकवीनाम् 

यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु । (ध्वन्यालोक1/4) 


काव्य की आत्मा यही अर्थ है। इस प्रतीयमान अर्थ को और उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ शब्द विशेष को पहचानने का यत्न महाकवियों को करना चाहिए। जैसे आलोकार्थी दीपक के लिए यत्नवान् होता हैवैसे ही आदरवान् कवि कविप्रतीयमान अर्थ के लिए वाच्यार्थ का उपादान करता है। वाच्यवाचकव्यंग्यार्थव्यंजनाव्यापार और काव्य इन पाँचों को ध्वनि कहते हैं। उक्त्यन्तर से जो चारुत्व प्रकाशित नहीं किया जा सकताउसे प्रकाशित करने वाला व्यंजना व्यापार युक्त शब्द ही ध्वनि कहलाता है। ध्वनिसिद्धान्त यह मानता है कि काव्य में जो कुछ कह दिया गया हैमहत्त्व उसका नहीं हैमहत्त्व उसका है जो नहीं कहा गयाजो अनकहा रह गयाध्वनिसिद्धान्त उस अनकहे की व्याख्या करता है।

 

ध्वनिकाव्य के भेद 

ध्वनि सिद्धान्त एक सार्वजनीन सिद्धान्त हैं और काव्य के मूल तत्त्व को आत्मसात् किये हुए है। इस सिद्धान्त के सन्दर्भ में संक्षेप में कहा जा सकता है कि काव्य की चरम सिद्धि रस है और उस रस का अनिवार्य वाहक है ध्वनि। आचार्यों ने ध्वनि के अनेक भेद किये हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से ध्वनि के तीन भेद हैं- रसादिध्वनिवस्तुध्वनि और अलंकारध्वनि । ध्वनि की प्रधानता - अप्रधानता की दृष्टि से काव्य के तीन भेद हैं- ध्वनिप्रधान काव्य (उत्तम काव्य)गुणीभूतव्यंग्य काव्य(मध्यम काव्य ) और चित्रकाव्य (अवर काव्य)। जिस काव्य में वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ प्रधान होता हैवह ध्वनिप्रधान उत्तम काव्य है। जिस काव्य में वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ गौण या कम चमत्कारक होता हैवह गुणीभूतव्यंग्य नामक मध्यम काव्य है और जिस काव्य में व्यंग्यार्थ नहीं होतावह चित्रकाव्य नामक अवर या अधम काव्य है। व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ पर आश्रित रहता है अतः ध्वनि भी अभिधा और लक्षणा पर आधारित है। इस तरह ध्वनि के मुख्य दो भेद हैं- लक्षणामूला (अविवक्षितवाच्यध्वनि) तथा अभिधामूला ( विवक्षितवाच्यध्वनि)। जहाँ वाच्यार्थ की विवक्षा या प्रयोजन नहीं होतावहाँ लक्षणामूला ध्वनि है और जहाँ वाच्यार्थ भी प्रयोजनीय हो वहाँ अभिधामूला ध्वनि है। लक्षणामूलाध्वनि के अर्थान्तरसंक्रमित (जिस ध्वनि में वाच्यार्थ अपना पूरा तिरोभाव न करके अपना अर्थ रखते हुए अन्य अर्थ में संक्रमण करता है) तथा अत्यन्त तिरस्कृत (जहाँ वाच्यार्थ का सर्वथा त्याग हो जाता है) दो भेद हैं। अभिधामूला ध्वनि के भी संलक्ष्यक्रमध्वनि (जहाँ वाच्यार्थ का स्पष्ट बोध होने के बाद व्यंग्यार्थ प्रकट हो)तथा असंलक्ष्यक्रमध्वनि (जहाँ वाच्यार्थ ग्रहण करने का क्रम लक्षित नहीं होता)। आचार्य मम्मट ने ध्वनि के शुद्ध 51 भेद बताए हैं. ध्वनि के इन भेदोपभेदों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि रसअलंकार और वस्तु- ये तीन वस्तुएँ जहाँ ध्वनित होकर व्यक्त होती हैंवहाँ ध्वनि का विषय होता है। इन तीनों को ध्वनित करने वाला वाचक अर्थ अप्रधान होता है और ध्वन्यर्थ मुख्य होता है। पर कहीं कहीं ऐसा भी होता है कि ध्वनि प्रधान न होकर गौण होती है। ऐसे स्थान पर आनन्दवर्धन के अनुसार काव्य का दूसरा भेद-गुणीभूतव्यंग्यकाव्य होता है। 


गुणीभूतव्यंग्यकाव्य के आठ भेद हैं-

 

गुणीभूतव्यंग्यकाव्य के आठ भेद हैं-

1. अगूढ़ (जिसमें व्यंग्य की प्रतीति सहजता से हो जाती है),

 2. अपरांग (जहाँ वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ एक दूसरे के अंग हों)

3. वाच्यसिद्ध्यंग (जहाँ व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ की सिद्धि में अंग बन जाए),

 4.अस्फुट( ( जहाँ व्यंग्य गूढ. हो)

5. सन्दिग्धप्रधान ( वाच्यार्थ प्रधान है या व्यंग्यार्थ - यह सन्देह हो)

6. तुल्यप्रधान ( वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ का समान महत्व हो )

7. काक्वाक्षिप्त (कण्ठध्वनि से व्यंग्यार्थ प्रकट हो) और 

8. असुन्दर (जहाँ व्यंग्य में सौन्दर्य न हो । 


एक तीसरे प्रकार के काव्य की भी कल्पना की गई हैजिसमें व्यंग्यार्थ की अपेक्षा वाच्यार्थ प्रधान होता हैवह अवर या चित्रकाव्य है। इसके दो भेद हैं- शब्दचित्र और अर्थचित्र । प्राय: शब्दालंकार शब्दचित्र और अर्थालंकार अर्थचित्र के अन्तर्गत आ जाते हैं।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top