प्रयोगात्मक अभिकल्प |एक अच्छे प्रायोगिक अभिकल्प की कसौटी |Experimental design

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प्रयोगात्मक अभिकल्प , एक अच्छे प्रायोगिक अभिकल्प की कसौटी 

प्रयोगात्मक अभिकल्प |एक अच्छे प्रायोगिक अभिकल्प की कसौटी |Experimental design



प्रयोगात्मक अभिकल्प 

जिस प्रकार कोई वास्तुकार किसी भवन के निर्माण के लिये पहले एक ब्लूप्रिन्ट तैयार करता हैउसी प्रकार एक शोधकर्ता शोध कार्य को सुचारू रूप से करने के लिए एक प्रयोगात्मक अभिकल्प (Research Design) तैयार करता है। प्रायोगिक अभिकल्प में उन चरों का वर्णन किया जाता है जिनका हमें अध्ययन करना होता हैचरों को मापने के लिए जिन उपकरणों का प्रयोग किया जाएगा उसका वर्णन किया जाता हैन्यादर्श जिसका हमें अध्ययन करना है उसका वर्णन किया जाता हैऑकड़ों को इकट्ठा करने की विधि तथा आंकड़ो को विश्लेषित करने की सांख्यिकीय विधियों के बारे में बताया जाता है।

 

1 प्रयोगात्मक अभिकल्प प्रसरण नियन्त्रण प्रणाली के रूप में (Experimental Design as Variance Control Mechanism) :-

 

शोध अभिकल्प को प्रसरण नियन्त्रण प्रणाली के रूप में देखा जाता है। इसमें प्रसरण को नियन्त्रित किया जाता है। प्रयोगात्मक प्रसरण (Experimental variance) या क्रमबद्ध प्रसरण (Systematic variance) को उच्चतम किया जाता हैत्रुटि प्रसरण (Error variance) को निम्नवत किया जाता है तथा वाहय चरों (Extraneous variables) का नियन्त्रण किया जाता है। प्रायोगात्मक अभिकल्प के द्वारा प्रसरण को नियन्त्रित करने के सांख्यिकीय सिद्धान्त को " अधिकतम - न्यूनतम - नियन्त्रण सिद्धान्त' (Principal of Max - Min-Con) कहा जा सकता है।

 

2 प्रयोगात्मक प्रसरण को अधिकतम करना (Maximize Experimental Variance) -

 

प्रयोगात्मक प्रसरण का अर्थ है- आश्रित चर में उत्पन्न प्रसरण जो कि शोधकर्ता द्वारा स्वतन्त्र चर मे जोड़-तोड़ करके किया जाता है। शोध अभिकल्प का तकनीकी उद्देश्य होता है कि प्रयोगात्मक प्रसरण को अधिकतम किया जाए। 

शोध अभिकल्प ऐसा हो जिसमें जहां तक सम्भव हो प्रयोगात्मक अवस्थाएं (Experimental Conditions) एक दूसरे से अधिक अधिक अन्तर रखती हों। प्रयोगात्मक अवस्थाएं जितनी अधिक से अधिक भिन्न होगीआश्रित चर पर उतना ही अधिक प्रयोगात्मक प्रसरण देखा जा सकेगा।

 

3 त्रुटि प्रसरण को निम्नतम करना (Minimize Error Variance ) - 

प्रयोगात्मक अभिकल्प का उद्देश्य है त्रुटि प्रसरणको निम्नतम करना । किसीभी प्रयोग में त्रुटि प्रसरण को कम करने का प्रयास किया जाना चाहिए त्रुटि प्रसरण वैसे प्रसरण को कहा जाता है जो शोध में ऐसे कारकों से उत्पन्न होता है जो शोधकर्ता के नियन्त्रण से बाहर होता है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण त्रुटि प्रसरण होता है जो शोधकर्ता के नियन्त्रण से बाहर होता है।

 

त्रुटि प्रसरण का दूसरा कारक मापन त्रुटियों से सम्बन्धित होता है। ऐसे कारकों में एक प्रयास से दूसरे प्रयास में होने वाली अनुक्रियों में भिन्नताप्रयोज्यों द्वारा अनुमान लगाना तथा थकान आदि है ।

 

त्रुटि प्रसरण को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक एक दूसरे से अन्तक्रिया करके एक-दूसरे से प्रभाव को समाप्त करने की प्रवृत्ति रखते हैं। इस प्रवृत्ति के कारण त्रुटि प्रसरण को आत्मपूरक (Self-Compensating) कहा जाता है। त्रुटि प्रसरण यादृच्छिक त्रुटियों पर आधारित होता है इसलिये यह अपूर्वकथनीय (Unpredictable) होता है।

 

त्रुटि प्रसरण को दो विधियों से कम किया जा सकता है। 

(i) नियन्त्रित दशाओं में यदि प्रयोग किया जाए तो त्रुटि प्रसरण को कम किया जा सकता है। 

(ii) मापन की विश्वसनीयता को बढ़ाकर त्रुटि प्रसरण को निम्नतम किय जा सकता है।

 


4 वाह्य चरों को नियन्त्रित करना (To Control Extraneous Variable):- 

वाह्य चरों का जहां तक सम्भव हो नियन्त्रण किया जाना चाहिये । वाह्य चरों का नियन्त्रण कई विधियों से किया जा सकता हैजैसे- विलोपनयादृच्छिकीकरणवाहय चर को स्वतन्त्र चर के रूप में बदलकर प्रयोज्यो को सुमेलित करकेसमूहों को सुमेलित करके तथा सह प्रसरण विश्लेषण ।

 

एक अच्छे प्रायोगिक अभिकल्प की कसौटी : 

1 उपयुक्तता (Appropriateness) 

प्रायोगिक अभिकल्प को उपयुक्त होना चाहिए तभी प्रयोग के विश्वसनीय परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं । प्रायोगिक अभिकल्प जटिल या सरल न होकर उपयुक्त होनी चाहिये। उपयुक्त अभिकल्प के चयन द्वारा शोधकर्ता अध्ययन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वस्तुनिष्ठ विधि से प्रयोगात्मक अवस्थाएं व्यवस्थित करता है।

 

2 पर्याप्त नियन्त्रण ( Adequacy of Control) 

प्रायोगिक अभिकल्प ऐसा होना चाहिए जिसमें वाह्य चरों पर पर्याप्त नियन्त्रण किया जा सके। वाह्य चरों पर पर्याप्त नियन्त्रण से ही शोध के विश्वसनीय परिणाम प्राप्त किये जा सकते है । वाह्य चरों का नियन्त्रण कई विधि यों से किया जाता है परन्तु यादृच्छिकीकरण के द्वारा सभी वाह्य चरों का नियन्त्रण किया जा सकता है।

 

3 वैधता (Validity) 

किसी भी प्रायोगिक अभिकल्प के लिये तीसरी कसौटी है- वैधता । प्रायोगिक अभिकल्प को वैध होना चाहिए। वैधता दो प्रकार की होती है- आन्तरिक वैधता तथा वाहय वैधता

 

4 आन्तरिक वैधता - 

प्रयोगात्मक अनुसन्धान का उददेश्य है कि स्वतन्त्र चर का प्रभाव आश्रित चर देखा जाएइसके लिये सभी वाहय चरों पर नियन्त्रण किया जाए। किसी भी प्रयोगात्मक अभिकल्प में इस उद्देश्य को किस सीमा तक प्राप्त किया गया हैउसकी आन्तरिक वैधता को बताता है। आन्तरिक वैधता मूलरूप से नियन्त्रण की समस्या से सम्बन्धित है। 

कैम्पबेल तथा स्टैनले के अनुसार आठ प्रकार के वाह्य चर किसी भी प्रायोगिक अभिकल्प की आन्तरिक वैधता को प्रभावित करते हैं।

 

(i) इतिहास (History) -

 इतिहास का अर्थ है कुछ अप्रत्याशित घटनाएं जो प्रयोग के समय सकारात्मक रूप से या नकारात्मक रूप से आश्रित चर को प्रभावित करती है। 

यदि किसी शिक्षक को प्रयोग के लिए प्रशिक्षित किया जाए लेकिन पूरा होने से पहले उसका स्थानान्तरण हो जाए तो प्रयोग का प्रयोग परिणाम प्रभावित होगा। 

यदि किसी राजनीतिक कारण से अप्रत्याशित रूप से स्कूल बन्द हो जाए प्रयोग के बीच में या छात्रों के द्वारा हड़ताल कर दी जाए तो यह सभी कारण प्रयोग के पारिणाम को प्रभावित करेंगे । इन कारकों का प्रभाव भी आश्रित घर पर पड़ेगा।

 

(ii) परिपक्वता (Maturity ) :-

 लम्बे समय तक चलने वाले प्रयोगों में यह देखा जाता है कि प्रयोग की अवधि में प्रयोज्यों में परिवर्तनपरिपक्वता की वजह से हो जाते हैं उक्त सभी आश्रित चर में होने वाले परिवर्तन के कारण हो सकते हैं तथा प्रयोग के परिणाम को प्रभावित करते हैं 

यदि किसी प्रशिक्षण का प्रभाव हमें शैक्षिक उपलब्धि पर देखना है तथा प्रशिक्षण एव वर्ष का हो तो शैक्षिक उपलब्धि में होने वाला परिवर्तन केवल प्रशिक्षण का प्रभाव नही हो सकता। एक वर्ष में छात्रों की मानसिक योग्यता का विकास अधिक हो सकता हैउसके कारण भी शैक्षिक उपलब्धि बढ़ सकती है।

 

(iii) पूर्व - परीक्षण (Pre-testing ) :- 

बहुत से प्रयोगात्मक अनुसन्धान में पूर्व परीक्षण किये जाते हैं तथा फिर उपचार देने के बाद (स्वतन्त्र चर में जोड़-तोड़ करने के बाद) उसी परीक्षण को उन्हीं प्रयोज्यों पर पुनः प्रशासित किया जाता है। सामान्य रूप से यह देखने को मिलता है कि पूर्व - परीक्षण अभ्यास का कार्य करता है। पश्च- परीक्षण में जो प्राप्तांक आते हैं वह केवल उपचार के कारण न होकर पूर्व परीक्षण का अभ्यास के रूप में कार्य करने के कारण भी हो सकता है तथा आन्तरिक वैधता को प्रभावित करते हैं।

 

(iv) मापन त्रुटि (Measurement Error) :- 

किसी चर का मापन करने के लिए विभिन्न प्रकार के उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। यदि प्रयोग में लाए गये उपकरण विश्वसनीय नहीं है तो प्रयोग की आन्तरिक वैधता प्रभावित होती है। 

शोधकर्ता यदि उपकरण का सही तरीके से प्रयोग नहीं कर पाता तथा यदि परीक्षण को प्रशासित करने के लिए प्रशिक्षण नहीं दिया गया तो चर के मापन में त्रुटि हो सकती है।

 

(v) सांख्यिकीय प्रतिगमन (Statistical Regression) :- 

कुछ प्रयोगों में  पूर्व - परीक्षण तथा पश्च- परीक्षण दोनों करना आवश्यक होता है। यदि शोधकर्ता किसी ऐसे प्रयोज्य का चयन कर लेता है जो अपने गुणों में या तो अति श्रेष्ठ है या निकृष्ट (Extreme cases) तो सामान्य रूप से ऐसा देखा जाता है कि जो प्रयोज्य पूर्व - परीक्षण पर निम्न अंक प्राप्त करते हैं वह पश्च- परीक्षण पर उच्च अंक प्राप्त करते हैं। जो प्रयोज्य पूर्व-परीक्षण पर उच्च अंक प्राप्त करते हैं वह पर्श्व- परीक्षण पर निम्न अंक प्राप्त करते हैं इसे ही सांख्यिकीय प्रतिगमन कहते हैं। पश्च- परीक्षण पर प्राप्त अंक उपचार के कारण न होकर सांख्यिकीय प्रतिगमन के कारण हो सकते है। इस घटना से प्रयोग की आन्तरिक वैधता प्रभावित होती है।


(vi) प्रायोगिक नश्वरता (Experimental Martality ) :- 

जो प्रयोग लम्बे समय तक चलते हैं उनमें सामान्य रूप से यह देखा जाता है कि प्रयोग की अवधि में ही कुछ प्रयोज्यों की अनुपलब्धता हो जाती है। प्रयोगकर्ता प्रायोगिक समूह तथा नियन्त्रित समूह में यादृच्छिकीकरण विधि से प्रयोज्यों को आबंटित करता है लेकिन बीच में कुछ प्रयोज्यों को छोड़ देने से प्रयोग के अन्तिम परिणाम प्रभावित होते हैं।

 

(vii) चयन पूर्वाग्रह ( Selection Bias ) :- 

न्यादर्श को जनसंख्या का प्रतिनिधि त्व करना चाहिए। यादृच्छिक न्यादर्श प्रविधियों के प्रयोग से ऐसा न्यादर्श चुना जा सकता है। यदि शोधकर्ता ने यादृच्छिक विधि से न्यादर्श चयन नही किया है या प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूह को समतुल्य नहीं बनाया गया तो न्यादर्श का चयन सही नहीं होगा। इस कारण सही परिणाम नहीं प्राप्त हो सकेंगे।

 

(viii) चयन तथा परिपक्वता की अन्तःक्रिया ( Interaction Effect ) :- 

न्यादर्श का चयन तथा परिपक्वता का प्रभाव प्रयोग की आन्तरिक वैधता को प्रभावित करता है लेकिन इन दोनों की अन्तर्क्रिया का प्रभाव भी आन्तरिक वैधता पर पड़ता है। इस तरह की अन्तर्क्रिया का प्रभाव उस स्थिति में पड़ता है जब उपचार को यादृच्छिक ढंग से न आंबटित करके प्रयोज्य स्वयं किसी एक प्रकार के उपचार का चयन कर लेते हैं। किसी विशेष प्रकार के उपचार के चयन का कारण आश्रित चर को प्रभावित कर सकता है।

 

यदि दो विधियों से किसी एक प्रकरण को पढ़ाया जाए तथा इन विधियों की प्रभावशीलता का अध्यन किया जाएतथा समूह का चयन ऐसे किया कि एक समूह में अधिक परिपक्व प्रयोज्य हो तो दोनों विधियों की प्रभावशीलता का सही आंकलन नहीं किया जा सकता ।

 

(ख) वाहय वैधता (External validity) :- 

किसी भी प्रयोगके परिणामों को कितनी अधिक जनसंख्या में सामान्यीकृत किया जा सकता है यह उस प्रयोग की वाहय वैधता होती है। परिणामों को जितनी अधिक जनसंख्या पर सामान्यीकृत किया जा सकता है उस प्रयोग की वाहय वैधता उतनी ही अधिक होती है। वाहय वैधता को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं।

 

(i) पूर्व-उपचार (Pre- treatment ) :- 

जब एक ही समूह नियन्त्रित तथा प्रयोगात्मक दोनों रूपों में कार्य करता है तो पूर्व-उपचार का प्रभाव वाहय वैधता पर पड़ता है। एक ही समूह को बारी-बारी से नियन्त्रित समूह तथा प्रयोगात्मक समूह बनाया जाता है तो पूर्व-उपचार के प्रभाव को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में उन प्रयोज्यों पर परिणामों को सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता जिन पर पूर्व उपचार नहीं किया गया है।

 

(ii) प्रयोग की कृत्रिम परिस्थिति (Artificiality of Experimental Setting):- 

प्रयोगशाला अनुसन्धान ( Laboratory Experiment) में लगभग सभी वाहय चरों को नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है और यही नियन्त्रण प्रयोग को कृत्रिम बनाता है। वास्तविक जीवन की स्थितियों में इस प्रकार की कृत्रिमता नहीं होती और न ही यह सम्भव है कि कृत्रिम स्थितियों को उत्पन्न किया जा सके। इसी कारण इन कृत्रिम परिस्थितियों में किए गये अनुसन्धान के परिणामों को सामान्यीकृत करने की बहुत सीमाएं होती है। इन परिस्थितियों में किए गये अनुसन्धनों की वाहय वैधता बहुत कम होती है।

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