विशिष्ट आदिकालीन रचनाएं और उनकी भाषा |Aadikalin vishisth Rachnayen

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विशिष्ट आदिकालीन रचनाएं और उनकी भाषा

विशिष्ट आदिकालीन रचनाएं और उनकी भाषा |Aadikalin vishisth Rachnayen


 

विशिष्ट आदिकालीन रचनाएं और उनकी भाषा

हिंदी साहित्य के आदिकालीन की भाषिक अभिव्यक्ति के संबंध में आप इस इकाई के आरंभ से अभी तक इतना तो भली प्रकार समझ चुके हैं कि आदिकाल न तो अपभ्रंश भाषा रचना कर्म की अतिश्यता का द्योतक है और न तत्कालीन प्रचलित लोक भाषाओं से भिन्न रूपों का सम्यक रूप से या तुलनात्मक रूप से ऐतिहासिकता की मांग कर सकता है। इसका कारण साहित्य के अध्येता होने के कारण आप स्वयं ही जानते हैं कि रचना कर्म की समयावधि में भाषाव्याकरण के बंधनों से परे रचनाकार अपने भावोत्कर्ष को शब्द देता है तथा तत्क्षण भाषाकिस शब्द का प्रयोग करेगा वह स्वयं नहीं जानता क्योंकि रचनाकार अवगत रूपों को लेखनी के स्रोत में आगे बढ़ाता हैभाषा स्वत: उसका काव्यरूप और संरचना का संस्कार बन आती है। स्वयंभू कृत पउम चरिउ - स्वयंभू अपभ्रंश और जैन धर्म में सन्निहित राम कथा की परम्परा का परिचय देते हैं। यद्यपि उनका मत स्पष्ट है कि उन्होंने पूर्व प्रचलित रामकथा परंपरा से प्रेरणा ग्रहण की है। वे इस ग्रंथ के प्रारंभिक भाग में प्रचलित राम कथा की महत्ता प्रतिपादित करते है -

 

ववसाउ तोवि णउ परिहरि हमि । 

वरि रड्डाबद्धु कब्बु करनि।। 

सामण्णे भास छुडु साण्डउ। 

छु आगम खुत्ति काविघडउ 

छुडू होंहू सुहासिय वयणाऊं ॥ 

गामिल्ल भास परिहरणाई ||

 

काव्य रचना का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए कवि स्वयंभू कहते हैं कि मैं काव्य रचना के शास्त्रीय पक्ष को नहीं जानता हूँ फिर भी काव्य सर्जना के व्यवसाय को छोड़ नहीं पा रहा हूँ । प्रत्युत मैं ड्डा छंद में (छन्दों बद्ध रूप में) काव्य की रचना कर रहा हूँ। मेरी कामना है कि मैं सामान्य भाषा (देशी या ग्रामीण भाषा में जो कुछ लिखूं वह जो कुछ कथन होवह सुभाषित हो जाए। आप इस कथन से स्वयंभू के विचार अवश्य समझ गए होंगे कि वे जिस भाषा में अपने रचनाकाल में रामकथा रच रहे हैं वह उस समय की परिनिष्ठित अपभ्रंश नहीं हैदेशभाषा या ग्रामीणभाषा है। उक्त पंक्तियों में आगत शब्दों का अर्थ परिचय आपको अर्थ समझने की सुविधा देगा -

 

शब्दार्थ - 

ववसाउ = व्यवसाय (काव्य सर्जना ) । 

तोवि णउ परिहर हमि = तब भी नहीं छोड़ रहा हूँ । 

वरि रडडाबद्ध= प्रयुक्त रड्डा छन्द बद्ध । 

कब्बु करनि = काव्य की रचना कर रहा हूँ। 

सामण्णे भास = सामान्य भाषा 

छुडु सावडउ = प्रयत्नपूर्वक कुछ ।

 छुड आगम खुन्ति = कुछ आगम युक्ति। 

काविध उ उ = रचना में कर रहा हूँ। 

छुडु घोन्ति सुहासियवरणाउ = वह वचन (कथन) सुभासित हो। 

गमिल्ल भास = ग्रामीण (देशी) भाषा। 

परिहरणाइ  छोड़ रहा हूँ ।

 

आप समझ पाए होंगे कि किस प्रकार आदि काल की भाषा देशी से परिनिष्ठित होती है।

 

स्वयंभू के पउम चरिउ की भाषाभिव्यक्ति का मनन करने का अवसर आपको मिला ही है। अब आपके समक्ष अब्दुर्रहमान ( अहददमाण) द्वारा लिखित सन्देशरासक की भाषाभिव्यक्ति का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है आदिकालीन भाषा की बहुरूपता का एक परिचय आप संदेश रासक में पायेंगे।

 

पउदडंउ पेसिज झाल अलकंतिय  

भय भेसिय अइरावइ गयणि रिववंतिया || 

रसहि सरस बब्बीहिय णिरूतिप्पंति जलि  

यह रेह हि रेहइ घवघण जंतितलि ॥

 

वर्षा ऋतु में विरहिणी नायिका कहती है कि हे पथिक । जब विद्युत-ज्वाल आकाश में चमकती है तभी पगडंडी भी दिखलाई देती हैअन्यथा यह भय से ग्रस्त करने वाला ऐरावत जैसा कला आकाश भी मुझे आज जलाता है। इस वर्षा ऋतु में जलवर्षा के कारण तृप्त हुए पपीहे मग्न होकर मधुर शोर कर रहे हैं तथा बगुलों की पंक्तियाँ इन बादलों के नीचे शोभित होती हैं काव्य अर्थ के साथ शब्दों की अर्थाभिव्यक्ति दर्शनीय है.

 

यह अपभ्रंश भाषा का श्रेष्ठ उदाहरण होगा। स्वयंभू से चलकर अब्दुर्रहमान तक अपभ्रंश की इस अभिव्यक्ति में स्पष्टतः अंतर आभासित होता दिखाई देता है।

 

ऊपर स्वयंभू कृत वर्षा ऋतु वर्णन में भाषा अभिव्यक्ति का कौशल आप देख ही चुके हैंअब्दुर्रहमान की वर्षाकालीन विरह दशा का भाषा कौशल परवर्ती कालीन काव्य के स्तर पर वर्षाकालीन काव्य के स्तर पर देख लीजिए -

 

णाय विउ हरूद्ध फणिदिहिं दह दिसिहिं । 

हुइ असंचर मग्ग महं तं महाविसिहि ।। 

हरियाउल घरवलउ कयबिण महामहि । 

कियउ भंगु अंगंनि अणंगिण मह अहिउ ।।

 

विरहणी नायिक पथिक से कहती है कि इस वर्षाकाल में नागों एवं फणिधरों से दस दिशाओं के मार्ग अवरूद्ध हो गए हैं और अत्यधिक जल वर्षा के कारण सभी मार्गों पर आवागमन बंद हो गया है। सम्पूर्ण पृथ्वी (घरा मंडल) हरिताकुल होने के साथ ही कदम्ब पुष्पों की सुगंधि से परिपूर्ण हो गई है तथा कामदेव ने मेरे अंग प्रत्यंग को विरह के कारण अधिक अंगभंग कर दिया है। कवि विरहिणी की अभिव्यक्ति जिस रूप आप पढ़ चुके हैं। कथानान्तर में आपने कुछ विशेष पाया ही हैअब और देख जा सकता है। शब्दार्थ के रूप में यह और देखा जा सकता है

 

शब्दार्थ - 

णाय = नाग। 

णिवउ = निविड़ । 

पहरूद्ध = पथ रोक कर के। 

फणिरहिं सांपफणिधर । 

दस दिसिहिं = दस दिशाएँ। 

असंचार मग्ग = मार्ग अवरूद्ध । 

महानिसिहि = महाविषधरो या भयंकर वर्षा जल से। 

मह = मध्य। 

तं = वहाँ । 

हरियाउल = हरिताकुल 

धरणी = धरती । 

अणंगिण = अनंगकामदेव । 

मह = मह = मध्य। 

अहिउ = अधिक। 

 

उपरिवर्णित दो रचनाओं की भाषा और उसमें अभिव्यक्ति कौशल का अंतर अभी-अभी आप पढ़ चुके हैं। वीसलदेव रासो को आदिकालीन काव्य की आधार पुस्तक (सामग्री) के रूप आचार्य शुक्ल ने स्वीकार किया था। जिस अपभ्रंश में स्वयंभू ने काव्य रचना प्रस्तुत की थीउसे आप पढ़ चुके हैं फिर उसके परवर्ती रचनाकारों में सन्देशरासक की भाषाभिव्यक्ति का परिचय भी आप पा चुके हैं। बीसलदेव रासो की परवर्ती भाषाभिव्यक्ति प्रथम दो रचनाओं से पूर्णतः अंतर रखती हैं। यद्यपि संदेश रासक की भांति ही बीसलदेव रास संदेश काव्य हैवीरगाथा काव्य नहीं है - यह आपको स्मरण होगा ही। अब इस रासकाव्य की भाषाभिव्यक्ति का परिचय पाइए -

 

उठि उठि गवरि करिइ सिणगार 

लिपहर मोतिय कइ हार || 

नागफणी कइ त केति 

छोटी कसण पयउहर खींच।। 

प्रीय म्हारउ चाल्हा उलगाई। 

जीवन राखूं चि ।

 

सखियाँ राजमती (बीसलदेव - विग्रहराज की पत्नी) को संबोधित करती हैं - गोरी ! तुम शीघ्र उठो और अपना श्रृंगार पूरा करो। तुम अपने गले में मोती का हार पहन लो तथा अपने कानों में तुम्हारे प्रिय सर्प के फन के आकार के आभूषण कर लो (यान अब तुम्हारे पति आ रहे हैअतः अपना श्रृंगार पूरा करो)। सखियाँ अब तक के ढीले और अस्त-व्यस्त वस्त्रों की ओर ध्यान देते हुए राज से कहती हैं कि तुम अपने स्तनों पर कंचुकी के बन्ध छोटे कर के उन्हें कस दो ताकि यौवन और उभर सके।

 

यह भी विरह काव्य है लेकिन उपर्युक्त का वाक्यांश पति के आगमन के समय की भाव एवं भाषा अभिव्यक्ति का उदाहरण आपके सामने रखता है। इससे वीसलदेव रास तक आते-आते भाषाभिव्यक्ति के अंतर को आप समझ गए होंगे। इससे आगत शब्दावली का अर्थ द्रष्टव्य -

 

शब्दार्थ - 

गवरि = गोरी (राजमती)। 

करइ सिंण्गार = श्रृंगार करो। 

गलि पइहरउ = गल में पहनो । 

मोतिय कड हार = मोती का हार । 

नागफणी कइ तड़कलि = सर्प के फन के समान कर्णभूषण। 

छोटी कसण = छोटी कसछोटी घर के कसना । 

पयउहर खींच = पयोधर पर खींचकर कंचुकी कासकर बांधो। 

प्रीय = प्रियतम। 

म्हारउ = हमारा। 

चाल्या डलगई = परदेश से चल दिया है। 

जु = जो।

म्ह = मेरा । 

जीवन राखूं सींचि = यौवन संचित कर रखूं

 

कवि चंदबरदाई पृथ्वीराज चौहान के दरबारी था राजाश्रित कवि और बालसखा थे। उन्हें षटभाषा ज्ञाता के रूप रेखांकित किया गया है यानी वे अरबीफारसीसंस्कृतअपभ्रंशराजस्थानी एवं हिंदी भाषाओं को पूरी तरह जानते थे। पृथ्वीराज रासो में उनकी इस भाषा बहुलता का परिचय मिलता है।

 

पृथ्वीराजरासो की भाषाभिव्यक्ति के उदाहरण के रूप में यहाँ शशिवृत्ता वर्णन (समय 25) का एक काव्यांश प्रस्तुत कर भाषाभिव्यक्ति का स्वरूप प्रतिपादित करना चाहेंगे। चंद शशिवृत्ता की वयःसंधि का उल्लेख करते है -

 

सिर अंत आवन बसंतबालह सैसव गम। 

अलिन पंष कोकिल सुकंठसजि गुंड मिलत भ्रम ।। 

मुर मारूत मुरै चलै मुरै मुरि बैस प्रमानं ।

छ कोपर सिस फुट्टिआन किस्सोर रंगानं ।।

 

आदिकालीन काव्य के आधार ग्रंथों में सम्मिलित पृथ्वीराज रासो की भाषा उपरिलिखित तीन कृत्तियों से भिन्न भाषा है। जिसमें राजस्थानी एवं हिंदी का मिश्रित स्वरूप परिलक्षित रहता है। पृथ्वीराज रासो का रचना के आरंभ में कवि ने कहा है. -

 

उक्ति धर्म विशालस्य । राजनीति नवरस | 

खट भाषा पुराणं च । कुरानं कथित मया ।।

 

इसमें कवि के अनुसार अपभ्रंश और अवहट्ट की चाशनी में राजस्थानीब्रजीफारसी भाषाओं का सम्मिश्रण है जो काव्य की सशक्त भाषागत अभिव्यक्ति बनकर हमारे सामने आता है।

 

आदिकालीन भाषा के क्रमागत विकास का स्वरूप आप देख ही चुके हैं। भाषा की दृष्टि में आध ग्रंथों में गृहित चार ग्रंथों अपभ्रंश परवर्ती और आदिकालीन हिंदी की सहज अभिव्यक्ति मिलती है। जिसमें लोकभाषा का जीवनतत्व और सरसता व्यापक रूप से उभरती है। यहाँ पर आपके समक्ष बेलि किसन रूकमणी रे का एक काव्यांश प्रस्तुत करते हैं -

 

जम्पजीव नहीं आवतौ जाणे 

जोवण जावणहार जण । 

बहु बिलखी बीछड़ती बाला। 

काम - विराम छिपाड़ण काज 

बाल संघाती बालपण।। 

आगलि पित-मात रसन्ती अंमणि, 

लाजवती अंगि एह लाज विधि, 

लाज करन्ती आवै लाज।।

 

कवि रूक्मिणी की वयःसंधि का उल्लेख करते हैं कि रूक्मिणी अपने यौवन का आगमन देखकर उसे अस्थिर (शीघ्र विदा हो जाने वाला) मानकर अपने हृदय में व्याकुल होने लगी तथा अपनी बाल्यावस्था के साथी बचपन के बिछुड़ने के कारण अत्यन्त दुखी होती है। रूक्मिणी को अंग विकास के कारण माता-पिता के सामने जाते हुए लज्जा आने लगी है तथा स्वयं भी अनुभव करने लगी हैक्योंकि उसके अंगों में कामदेव बस गया है तभी वह उन्हें अपने माता-पिता से छिपाना चाहती है भाषाभिव्यक्ति विषयक पाठ के अंतिम रूप में आपके सामने एक रचना का स्वरूप और रखते हैं। परमाल रासो (जगनिक कृत) परवर्ती काल की रचना हैउसका अपभ्रंश या अवहट्ठ भाषा से कोई संबंध नहीं है। उसकी भाषा का एक स्वरूप द्रष्टव्य है -

 

बारह वरिस लै कूकर जीए 

औ तेरह लै जिए सियार । 

बरस अठारह छत्री जीवे 

आगे जीवन को धिक्कार ।

 

यह भाषा आदिकाल की भाषिक सीमा की ओर संकेत करती है और स्पष्टतः यह संकेत देती है कि आदिकाल की भाषा की अभिव्यक्ति इस उक्त उद्धृत भाषा का रूप कभी नहीं ले सकती।

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