आदिकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ | Aadikalin Sahityaik Condition

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आदिकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ

आदिकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ | Aadikalin Sahityaik Condition


 

आदिकालीन साहित्यिक परिस्थितियाँ


त्रिभाषात्मक साहित्यिक सर्जना - 

आदिकालीन हिन्दी साहित्य का विवेचन करते हुए आपके सामने यह प्रस्तुत किया जा चुका है कि तत्कालीन समय में परंपरागत संस्कृत साहित्य धारा में प्राकृत और अपभ्रंश की साहित्य सर्जना मूलकधारणा और जुड़ गई थी। इसीलिए आदिकाल की साहित्यिक परिस्थितिसाहित्य एवं भाषा के स्वरूप तथा स्थिति विशेष के अध्ययन की अपेक्षा रखती है। आदिकाल की राजनीतिकसामाजिकसांस्कृतिकधार्मिक परिस्थितियों की अस्थिरता और अराजकताका अध्ययन अभी तक आप कर ही चुके हैं। अब आप आदिकालीन साहित्य एवं भाषा की परिस्थितियाँ कैसी थीं यह भी जान लीजिए। नवीं से ग्यारहवी शती ईस्वी तक कन्नौज और कश्मीर संस्कृत साहित्य के मुख्य केन्द्र थे और इस काल खण्ड में एक ओर संस्कृत साहित्य धारा के आनन्दवर्धनअमिनव गुप्तकुन्तकक्षेमेन्द्रभोजदेवमम्मटराजशेखर तथा विश्वनाथ जैसे काव्यशास्त्री तो दूसरी ओर शंकरकुमारिल भट्टएवं रामानुज जैसे दर्शनिकों और भवभूति श्री 1, जयदेव जैसे साहित्यकारों का सर्जनात्मक सहयोग था ।

 

इसी काल खण्ड में प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं की साहित्य सर्जना भी हो रही थी। स्वयंभूपुष्पदंत तथा धनपाल जैसे जैन कवियों ने अपनी प्राकृत एवं अपभ्रंश तथा पुरानी हिन्दी की मिश्रित रचनाएं भी प्रस्तुत की थीं। सरहपाशबरपाकणहपागोरखनाथगोपीचंद जैसे नाथ सिद्धों अपभ्रंश तथा लोकभाषा हिंदी में अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। राजशेखर की कर्पूरमंजरीअमरूकका अमरूशतक तथा हाल की आर्यासप्तशतीअपभ्रंश की उत्तम कृतियों इसी कालखण्ड की देन हैं। वास्तव में यह काल मीमांसा - साहित्य सर्जना की प्रवृत्तियों का रहा हैं। आप ये जान लें कि संस्कृत भाषी साहित्य तत्कालीन राज प्रवृत्ति सूचक है तो प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य धर्म ग्रंथ मूलक भाषा की प्रवृत्ति का परिचालक है और हिंदी जन मानस की प्रवृत्ति की रचनात्मक वृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है।

 

आदिकालीन साहित्य का विशिष्ट स्वरूप - 

सामान्यत: इसमें अतिश्योक्ति ही है कि आदिकाल वीरगाथात्मक काव्य में आश्रयदाताओं के शौर्य गानप्रशस्ति प्रकाशन और अतिरंजना पूर्ण अमिसिकतताका काल है। भावगत इकाई में यह अध्ययन कर चुके हैं कि इसी भ्रम के कारण काल खण्ड को वीरगाथा काल कहने के लिए आचार्य शुक्ल को दुविधा में डाला था। अब आप अध्ययन कर यह अवश्य ही अनुभव करेंगे कि दसवीं से चौदहवीं शताब्दी ईस्वीं का यह काल खण्ड साहित्य और भाषा की दृष्टि से विकास का काल था । युद्धों की निरंतरता और वैदेशिक आक्रांताओं द्वारा इस देश को तहस-नहस करने के बीच भी आश्रयदाताओं की साहित्यिक अभिरूचि की सशक्तता के परिणाम स्वरूप इस काल में निम्न प्रकार से भाषा एवं साहित्य के स्वरुप का अववाहन किया जा सकता है

 

आदिकालीन भाषा एवं साहित्य 

क. संस्कृत साहित्य 

  • 1. वैदिक संस्कृत साहित्य 
  • 2 . लौकिक संस्कृत साहित्य

 

ख. प्राकृत साहित्य 

1. संस्कृतेतर साहित्य 

2. अपभ्रंश साहित्य 

3. देशभाषा साहित्य 


ग. धर्म संप्रदाय गत साहित्य 

  1. स्फुट साहित्य
  2. बौद्ध साहित्य
  3. जैन साहित्य

 

घ. देश भाषा साहित्य

 

विषम परिस्थितियों में भी आदिकाल में वीरगाथाभक्ति एवं श्रंगार के साथ धार्मिकलौकिक और नीतिपरक आध्यात्मिक रचनाएं लिखी गई हैं। संकेत रूप में आप पुन: जान लीजिए कि इस युग और परिवेश में चंद बरदाईविद्यापतिअमीर खुसरोंस्वयंभूपुष्पदंतरामसिंहसरहपाकण्हपागोरखनाथअब्दुर्रहमाननरपति नाल्ह तथा जगनिक आदि ने राष्ट्रीय भावना से दूर रहकर आश्रयदाताओं के प्रशस्ति- गायनशौर्य-वर्णन की अतिशयताऐतिहासिक विसंगतियों के बीच विकसित काव्यधारा में भक्तिनीति और प्रकृति का चित्रण भी किया गया है। उक्त साहित्य सर्जना के आधार पर आचार्य शुक्ल का यह कथन अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है - " आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिकसामाजिकसांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। अत: कारण-स्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है ( रामचंद्र शुक्ल हिन्दी साहित्य का इतिहास. 

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