आदिकाल की आधारभूत सामग्री | आदिकाल की प्रतिनिधि रचनाएं | Aadikal Ki pramukh Rachnayen

Admin
0

 

आदिकाल की आधारभूत सामग्री, आदिकाल की प्रतिनिधि रचनाएं

आदिकाल की आधारभूत सामग्री | आदिकाल की प्रतिनिधि रचनाएं | Aadikal Ki pramukh Rachnayen

 

1 आदिकाल की नव्य सामग्री 

अभी तक के अध्ययन के उपरान्त आज यह भली भाँति जान चुके हैं कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा आदिकाल के लिए गृहीत बारह पुस्तकों की विषय-सामग्री वीरगाथा काल के नाम की सार्थकता सिद्ध नहीं कर पाती कुछ मात्र नोटिस या सूचना मात्र थीं कुछ वीर गाथात्मक प्रवृत्तिमूलक नहीं थींकुछ अपूर्ण और प्रेमपरक थी। अतः विकल्प के रूप में आदिकाल को ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने समर्थन दिया है। इस प्रकार आदिकाल नामकरण के निर्धारण में निम्नांकित है। आधारभूत सामग्री

 

1. स्वयंभू -पउम चरिउ (पद्म चरित-रामचरित) रिट्णेमि चरिउ (अरिष्टनेमि चरित)

2. पुष्पदन्त -पाय कुमार चरिउ (नागकुमार चरित)

3. हरिभद्र सूरि -नेमिनाथ चरिउ (नेमिनाथ चरित)

4. धनपाल -  भविष्यतकथाकरकंड चरिउजसहर चरिउ

5. जोइन्दु -परमात्मा प्रकाश 

6. रामसिंह -पाहुड़ दोहा 

7. सरहपा -दोहाकोश

8. अद्दहमाण - संदेश रासक 

9. हेमचन्द्र - प्राकृत व्याकरण (दोहा काव्य) 

10. दलपति विजय- बीसलदेव रासो 

11. चन्दबरदाई - पृथ्वीराज रासो 

12. कुशल शर्मा-ढोला मारू दूहा (लोककाव्य)   

13. अज्ञात - वसंत विलास फागु 

14. विद्यापति - कीर्तिलताकीर्ति पताका 

15. अमीर खुसरो - पहेलियां

 

आदिकाल की प्रतिनिधि रचनाएं 

अभी तक आप आदिकाल की उपलब्ध नव्य सामग्री से परिचित हो चुके हैं। इकाई के इस भाग में आप आदिकाल की प्रतिनिधि रचनाओं से परिचित हो सकेंगे। इतना तो आप जान ही चुके हैं कि इस युग में शौर्य युक्त प्रवृत्तियों ही नहीं थी अपितु अन्य अनेक प्रवृत्तियों भी एक साथ थीं। परिणाम स्वरूप वीररसात्मक काव्य धारा के साथ श्रंगार रस सिक्त रचनाओं का प्रणयन भी हुआ। । लोक कथाओं पर आधारित प्रेमकथाएं भी लिखी गई। लौकिक काव्य (पहेली और मुकरी) की भी रचना हुई। यही नहीं इस काल खण्ड में अगर अपभ्रंश भाषा कृतियों प्राप्त हुई हैं तो ब्रज राजस्थानी मिश्रित भाषा और मैथिली में साहित्य सर्जना हुई थी साथ साथ खड़ी बोली में रचनाएँ प्राप्त हुई हैं..

 

1. पृथ्वीराज रासो 

2. बीसलदेव रास 

3. ढोल मारू रा देहा 

4. विद्यापति काव्य 

5. अमीर खुसरो की पहेलियाँ 

6. प्राकृत व्याकरण 

7. सन्देश रासक 

8. भाविसत्त कहा 

9. पाहुड़द

 

पृथ्वीराज रासो - 

रासोकाव्य परम्परा में अनेकशः रचनाएँ हुई हैं और इनमें स्वरूप वैविध्य भी हैं. पृथ्वीराज रासो आदिकाल की प्रतिनिधि कृति है। पृथ्वीराज रासो का रचयिता चन्दबरदाई पृथ्वीराज चौहान का दरबारी कवि था तथा दरबारी काव्य परम्परा की प्रशस्ति मूलक रूढियों से भरे अपने आश्रय दाता के यशगान हेतु रासो की रचना की है। जैसा कि अभी संकेत किया जा चुका है पृथ्वीराज रासो प्रशस्ति काव्य है । कविचंदबरदाई ने अपने आश्रय दाता का प्रशस्ति परक वर्णन किया है तथा उसे ईश्वर तक कहा है और तत्कालीन राजनीतिधर्मयोगकामशास्त्रशकुननगर ,युद्धसेना की सज्जाविवाहसंगीतनृत्यफलफूलपशुपक्षीऋतु-वर्णनसंयोगवियोगश्रृंगारबसंतोत्स्व इत्यादी सभी का वर्णन भारतीय काव्य शास्त्रीरय परम्परा के अनुरूप किया है। परिणामस्वरूप ऐतिहासिकता अनैतिहसिकता प्रामाणिकता अप्रमाणिकता के अनेक प्रश्नों के रहते हुए पृथ्वीराज रासो साहित्य और तत्कालीन समाज दोनों की चित्तवृत्तियों का प्रतिबिम्ब हैं । पृथ्वीराज रासो के वर्ण्य-विषय पर विचार करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- पृथ्वीराज रासो ऐसी ही रस,भय,अलंकारयुद्धबद्ध कथा थी जिसका मुख्य विषय नायक की प्रेमलीलाकन्याहरण और शत्रु-पराजय था।

 

बीसलदेव रास- 

काल खण्ड के नाम के विकल्प - आदिकाल- के चयन और वीरगाथाकाल नाम के व्याज्य के निकर्ष पर देखा जाए तो पृथ्वीराज रासो में जहाँ वीर एवं श्रृंगार की प्रधानता है वहीं वीसल देव रास मूलतः श्रृंगार रस प्रधान विशेषकर वियोग श्रृगांर काव्य है । इसके रचयिता नरपति नाह है और रचनाकाल 1155 ईस्वी माना जाता है।

 

वीसलदेव रास एक विरह काव्य है। जिसमें वीसल देव की रानी का विरह वर्णन किया गया है. भोज परमार की पुत्री राजमती से विवाह के तुरन्त बाद राजमती की गर्वोक्ति सुनकर वीसलदेव उड़ीसा चला जाता है। बारह वर्ष तक राजमती वियोग की ज्वाला में जलती रहती है। इसके बाद राजमती अपने राज पुरोहित से अपने पति के लिए सन्देश भिजवाती है। जब तक राजा लौटता है तब तक राजमती अपने पिता के घर जा चुकी होती है। बीसलदेव उड़ीसा से लौटकर अपनी ससुराल जाकर अपनी पत्नी को घर ले आता है।

 

ढोला मारू रा दूहा - 

अभी तक आपने आदिकाल की दो महत्वपूर्ण कृतियों का परिचय प्राप्त लिया है जो अपभ्रंश भाषा से इतर आदिकाल की तत्कालीन भाषा प्रवाह का परिनिष्ठित भाषा रूप लेकर रची गई है जो राजस्थान एवं ब्रज भाषा के साथ विविध भाषाओं की शब्दावली से युक्त हैं .. इस बार आप लोकाश्रित एवं तत्कालीन लोक भाषा काव्य का परिचय पायेंगे। यह ढोला मारू रा दूहा नाम से प्रसिद्ध लोक गाथा काव्य है। लोक कथा या लोक गाथा का रचयिता व्यक्ति न होकर लोक ही होता हो और उसके पाठ में समयानुसार भिन्नता की सम्भवना होती है। ढोला मारू रा दूहा का रचयिता कुशल शर्मा कहे जाते हैं तथा इसका रचना काल ग्याहरवीं शताब्दी है।

 

विद्यापति काव्य - 

विद्यापति हिन्दी और आदिकाल के प्रमुख कवि हैं चौदहवी-पंद्रहवी शताब्दी के मध्य विद्यापति तिरहुत के राजा कीर्ति सिंह के दरबारी कवि थे और उनकी शौर्यता का चित्रण ही कवि ने अपनी कीर्तिलता नामक पुस्तक में किया है। दूसरी ऐसी ही प्रशस्ति कथा कीर्तिपताका में है। इन दोनों काव्यों की भाषा को उन्होंने अवहटठ्अपभ्रंशद्ध कहा है.

 

अमीर खुसरो पहेलियाँ - 

अमीर खुसरो आदिकाल के ऐसे प्रमुख कवि हैं जो अपने समय से आगे की खड़ी बोली के सूत्र-प्रसारक कहे जा सकते हैं। आचार्य रामचन्द्र के अनुसार उनका लेखन 1293 ई के आसपास आरम्भ हो गया था। उन्होंने तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली भाषा में कविता की । लेकिन आप यह भी जान लीजिए कि अमीर खुसरो ने ब्रजभाषा में भी कविता लेखन किया था पर उस पर खड़ी बोली का स्पष्ट प्रभाव था यथा

 

उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्र दो ध्यान । 

देखत में साधु है निकट पाप की खान ।। 

खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग। 

तन मोरो मन पीउ को दोउ भए एकरंग ।। 

गारी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस । 

चल खुसरो घर आपनै रैन भई यह देस ॥

 

अमीर खुसरो ने पहेलियों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि ये आठ से आठ सौ से अधिक वर्ष पूर्व लिखी गई होंगी। 

यथा- 

एक थात मोती भरा सबके सिर आँधा धरा । 

चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे।

 

अमीर खुसरो अरबी फारसीतुर्कीब्रज और हिन्दी के विद्वान कवि थे। साथ ही उन्हें संस्कृत भाषा भी थोड़ा ज्ञान था। सूचना के स्तर पर आपको बताया जा सकता है कि उन्होंने 99 पुस्तकें लिखी थी । लेकिन इनके बीसबाईस ग्रन्थ ही प्राप्त होते हैं।

 

प्राकृत व्याकरण - 

आदिकाल के अपभ्रंश काव्य के रूप में अब आप ऐसी कृति का परिचय पाऐंगे जो दसवीं शताब्दी में रचित सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन के नाम से प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ है और उसके रचयिता हेमचन्द्र हैं। इस कृति में हेमचन्द्र ने संस्कृतप्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का समावेश किया है किन्तु विशेष बात यह है कि अपभ्रंश का उदाहरण देते हुए उन्होंने पूरा दोहा ही उद्धृत किया है परन्तु उनके रचयिताओं के विषय में कोई संकेत नहीं किया है हेमचन्द्र के इस कृ व्याकरण को आदिकाल की निर्णायक कृतियों के रूप में उल्लेख किया जाना आपको सहज आश्चर्य में डाल सकता है क्योंकि यह शब्दानुशासन यानी व्याकरण की पुस्तक ही प्रतीत होती लेकिन व्याकरण कृति होते हुए भी इसमें प्रयुक्त दोहों का चयन हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती या तथुगीन रचनाकारों की रचनाओं से किया है। ये दोहे व्याकरण से अधिक तत्कालीन समय एवं परिवेश का यथार्थ प्रस्तुत करते हैं क्योंकि ये दोहे उस काल की लोक भावनाओं से परिपूर्ण है।

 

सन्देश रासक - 

संदेशरासक अहद्द्द्माण या अब्दुर्रहमान रचित खण्ड काव्य है। अहद्दमाण कबीर की भाँति जुलाहा परिवार से थे तथा मुल्तान निवासी थे। उन्होंन स्वयं लिखा है- मैं मलेच्छ देशवासी तंतुवा भीरसेन का पुत्र हूँ। उनकी कृति सन्देश रासक जो एक सन्देश काव्य है. इसके रचना काल के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है अतः इसे ग्यारहवी से चौदहवीं के मध्य की रचना माना जाता है। सन्देश रासक वियोगविरहश्रृंगार की रचना है। इसकी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में इतना कहा जा सकता है कि प्रिय के परेदश जाने और वहाँ से लौटने में विलम्ब होने के कारण प्रियतमा पत्नी नायिका का हृदय विरहकातर हो उठता है । अहद्द्द्माण ने इस कृति के बीच-बीच में प्राकृत गाथाएं संजोयी हैं। इसमें विरहिणी नायिका एक पथिक से पति को सन्देश भिजवाती है । कवि ने दो सौ तेईस छन्दों में कथा प्रस्तुत करते हुए प्रत्येक छन्द को स्वयं स्वतंत्र रखा है क्योंकि कवि को विरहाभिव्यक्ति का उल्लेख करना है कथा कहना मात्र उसका उद्देश्य नहीं है. सन्देश रासक तीन प्रक्रमों में विभाजित और 223 छन्दों में रचित ऐसा सन्देश काव्य है जिसका अध्ययन करके यह विधिवत् जान पायेंगे कि इसका प्रथम प्रक्रम मंगलाचरणकवि का व्यक्तिगत परिचय ग्रन्थ रचना का उद्देश्य तथा आत्मनिवेदन से अनुपूरित है। दूसरे प्रक्रम से मूल कथा आरंभ होती है सूत्र इतना ही है कि विजय नगर की एक प्रोषितपतिका अपने प्रिय के वियोग में रोती हुई एक दिन राजमार्ग से जाते हुए एक बटोही को देखती है और दौड़कर उसे रोकती है। उसे जब यह पता चलता है कि वह बटोही साभार से आ रहा है और स्तंभ तीर्थ को जा रहा है तो वह पथिक से निवेदन करती है कि अर्थलोभ के कारण उसका प्रिय उसे छोड़ कर स्तम्भ तीर्थ चला गया है इसीलिए कृपा करके मेरा सन्देश को ले जाओ पथिक को संदेश देकर नायिका ज्यों ही उसे विदा करती है कि दक्षिण दिशा से उसका प्रिय आता हुआ दिखाई देता है। तीसरे प्रक्रम में अब्दुर्रहमान कृतिका समापन करता है जिसे पढ़कर निश्चित आप जान पायेंगे कि नायिका का कार्य अचानक सिद्ध हो जाता है . उसी प्रकार पाठकों को भी यह अनुभव होता है कि कवि को कथा से कोई भी मतलब नहीं था उसका उद्देश्य साम्भर नगर के जीवनपेड़-पौधों तथा ऋतु वर्णन के साथ प्रोषितपतिका की विरह भावना का वर्ण करना था. काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से सन्देश रासक अपभ्रंश साहित्य में विशेष स्थान रखता है।

 

भविस्यत्त कहा - 

जैन कवि धनपाल रचित भविस्यत्त कहा अपभ्रंश में लिखित दसवीं शती की ऐसी काव्य कृति है जिसमें तीन प्रकार की कथाएँ बाईस संधियों में जुडी हुई है। अभी तक आप जानते रहे हैं कि जैन काव्य धार्मिक है और आचार्य शुक्ल ने उन्हें हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के निमित्त आधार ग्रंथ के रूप में गणनीय तक नहीं माना था। यद्यपि जैन साहित्य में धर्म से विलग साहित्यिक कृतियों का अभाव नहीं था। उन्ही में से एक कृति भविस्यत्त कहा है। यह वर्णन हृदयग्राही है जिसमें श्रृंगार एवं वीररस के साथ शान्त रस का परिपाक होता है।

 

आपके ज्ञानवर्द्धन के लिए यह उल्लेखनीय है कि कवि धनपाल का यह काव्य शुद्ध घरेलू ढंग की कहानी पर आधारित है जिसमें दो विवाहों का दुःखद पक्ष उभरता है। कणिक पुत्र भविष्यदत्त की कथा अपने सौतेले भाई बंधुदत्त द्वारा कई बार छले जानेजिन महिमाजैन चिन्तन के कारण सुखद परिणति तक पहुंचती है। यह प्रमुख कथा चौदह सन्धियों तक विस्तार पाती है।

 

पहुडा  दोहा - 

राजस्थान के रामसिंह द्वारा लिखित दो सो बाईस दोहोछन्दों में लिखित लघुकाव्य पाहुड़ दोहा का संपादन परवर्ती काल में हीरालाल जैन द्वारा किया गया है। उनके अनुसार जैनियों में पाहुड शब्द का प्रयोग किसी विजय के प्रतिपादन के लिए किया जाता है। अब आप यह जान लीजिए कि इस कृति का रचना काल में वास्तव में ऐसा युग था जिसमें प्रत्येक धर्म के भीतर इसके उदारमना चिन्तक कवि पैदा हुए थे जो अपने मत और समाज की रूढियों का विरोध करते हुए मानवता की सामान्य भावभूमि पर एक साथ खडे थे। इसका अन्य मतों से कोई विरोध नहीं था। वे सबके प्रति सहिष्णु थे और उनका विश्वास था कि सभी मत एक ही दिशा की ओर ले जाते हैं और एक ही परमतत्व को विविध नामो से पुकारते हैं।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top