आदिकालीन काव्य विवेचना | आदिकाल में प्रचलित अपभ्रंश | Aadikaalin Kavya Vivechna

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 आदिकालीन काव्य विवेचना , आदिकाल में प्रचलित अपभ्रंश 

आदिकालीन काव्य विवेचना | आदिकाल में प्रचलित अपभ्रंश | Aadikaalin Kavya Vivechna

आदिकालीन काव्य विवेचना

 

अब तक के अध्ययन से आप जान चुकें हैं कि आदिकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अस्थिरता तथा बिखराव का काल था और ऐसी विषम परिस्थितियों ने उस काल के रचनाकारों या दरबारी कवियों को जिस प्रकार का परिवेशगत प्रोत्साहन दिया, सर्जक प्रतिभा ने वैसी ही सर्जनात्मक ऊर्जा भी प्रदान की है। आचार्य शुक्ल का यह कथन भली-भांति अपना स्वरूप ग्रहण करता है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उसका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का  इतिहास कहलाता है। (हिंदी साहित्य का इतिहास). 

 

उक्त आधार पर ही अब आपके समक्ष आदिकाल में प्रचलित अपभ्रंश और हिंदी भाषाओं के साहित्य की निम्न सारणियों का विवेचन किया जा रहा है-

 

1 अपभ्रंश और हिंदी का वीर काव्य 

आप पहले भी जान चुके हैं कि आदिकाल में अपभ्रंश भाषा में साहित्य-सर्जना हो रही थी। अपभ्रंश भाषा में रचित चरित-काव्यों में पुष्पदंत कृत नागकुमार चरित (णायकुमार चरिउ ) और जसहर चरित (जसहर चरिउ) प्रमुख है। इनके कथानायक वीरता और शौर्य का जीवंत प्रतिमान है, पर इन्हें ऐतिहासिक वृत्त नहीं माना जा सकता, क्योंकि इतिहास में उनका कोई उल्लेख नहीं है। इस कालखण्ड में हिंदी में जो भी चरितकाव्य लिखे गए, उनको 'रासो' काव्य कहा गया। आपको पृथ्वीराज रासोका नाम स्मरण होगा। इसी प्रकार इस कालखण्ड में हमीर रासो, खुमाण रासो आदि का उल्लेख है और वे भी इतिहास समस्त चरित्र तो हैं, पर कवि-कल्पना पर आधारित रूप में उनके राज-दरबार, शौर्य, विवाह, वीरता का अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन ही उपलब्ध है। अपभ्रंश में जहाँ पौराणिक और अनैतिहासिक कथा नायकों एवं उनके सहयोगियों की कीर्ति-गाथाएं गायी गई हैं, वही हिंदी में पात्रों को ऐतिहासिक परिवेश से ग्रहण भर किया गया है और शेष विवरण कवि-कल्पना शक्ति की देन ही रहा है।

 

2 अपभ्रंश और हिंदी का भक्तिकाव्य

 

अपभ्रंश साहित्य में एक ओर जैन कवियों द्वारा राम और कृष्ण तो दूसरी ओर सिद्धों-नाथों कवियों द्वारा धार्मिक रूढियों और बाह्यडम्बरों का विरोध करते हुए अंतस्साधना पर बल दिया गया है। इस प्रकार अपभ्रंश भाषा एवं साहित्य में भक्ति की धारा का एक सुस्पष्ट स्वरूप उभरता है, जो राम और कृष्ण के काव्य का परिचायक है भले ही हिंदी की भक्तिधारा पर आदिकालीन अपभ्रंश में लिखित राम और कृष्ण काव्य का कोई स्पष्ट प्रभाव रेखांकित नहीं होता है। हिंदी के आदिकालीन काव्य में राम और कृष्ण कथा का उल्लेख (पृथ्वीराज रासो) में मिलता है, पर इसका स्पष्ट प्रभाव आगे भक्तिकाल में देखा जा सके संभव नहीं लगता। यद्यपि इस कालखण्ड में सिद्ध-नाथ भक्तिकाव्य प्रादुर्भाव का प्रभाव आदिकाल-परवर्ती कवि कबीर पर देखा जा सकता। इस निर्गुणिया कबीर के संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि "यह सम्पूर्णत: भारतीय है और बौद्ध धर्म के अंतिम सिद्धों और नाथ पंथी योगियों के पदादि से उसका सीधा संबंध है।" अतः हिंदी की आदिकाल-परवर्ती ज्ञानश्रयी धारा के सूत्र सरहपा, शबरपा और कण्हपा के रूप में विद्यमान मिलते

 

3 अपभ्रंश और हिंदी का श्रृंगार काव्य 

अभी तक आप आदिकाल के अपभ्रंश एवं हिंदी के काव्यों में चरित्रांकन और भक्तिमयता के कतिपय रूपों का विवेचन पढ़ चुके हैं। इस अंश में आपको तद्युगीन श्रृंगार चित्रण का परिचय प्राप्त होगा। इस कालखण्ड की अपभ्रंश काव्य परंपरा में हेमचंद्र के व्याकरण में व्यक्त श्रृंगार भावना को परे छोड़ भी दे (क्योंकि इससे चमत्कार प्रधानता है जो आगे चलकर रीतिकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर थी) तो अब्दुल रहमान कृत सन्देश रासक (बारहवीं शती) को अस्वीकार नहीं कर सकते। यह अपभ्रंश भाषा में लिखित एक विरह एवं सन्देश काव्य है। अपने में स्वतंत्र प्रत्येक छन्द होते हुए 223 छन्दों में एक विरह कथा पिरोई गई है।

 

सन्देश रासक की परम्परा में इस कालखण्ड की हिंदी में भी वीसलदेव रास और ढोलामारू रा दूहा (क्रमश: चौदहवीं एवं पंद्रहवी शती ईस्वी) उपलब्ध हैं। इनमें से बीसल देव मूलत: विरह काव्य है और सन्देश रासक से कहीं अधिक लोक जीवन का प्रभाव लिए है। इसके छंद लोकगीत से साम्य रखते प्रतीत होते हैं । अत: इसे आप सन्देश रासक का अनुकरण कर्ता काव्य नहीं कह पायेंगे। दूसरे काव्य ढोला मारू रा दूहा को आप उक्त दोनों से कदाचित इस रूप में भिन्न पाएंगे कि विरह काव्य होते हुए भी इसे कथा काव्य (कथा-प्रधान) के रूप में प्रस्तुत किया गया है तथा आप यह अंतर भी देख सकेंगे कि इसमें सन्देश वाहक क्रौंच पक्षी था फिर ढाँढी है - जबकि संदेश शासक में नायिका अपना सन्देश एक पथिक से कहती हैं और वीसलदेव रासो में राज्य के पंडित को सन्देश वाहक बताया जाता है। यह शैली की दृष्टि से लोकगीत के निकट है. 

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