मीरा मुक्तावली ( व्याख्या भाग ) | मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या | Meera Muktavali Explanation in Hindi - Part 02

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 मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या  (Meera Muktavali Explanation in Hindi)

मीरा मुक्तावली ( व्याख्या भाग ) | मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या | Meera Muktavali  Explanation in Hindi - Part 02



मीरा मुक्तावली शब्दार्थ व्याख्या-  Part -02

माई म्हाणो सुपणा माँ परण्याँ दीनानाथ । 

छप्पण कोटाँ जणाँ पधारयाँ दुल्हो सिरी ब्रजनाथ 

सुपणा माँ तोरण बंध्या री सुपणामाँ गया हाथ । 

सुपणाँ माँ म्हारे परण गया पायाँ अचल सोहाग ।

मीरा रो गिरधर मिल्या रीपुरब जणम रो भाग ॥ 28 ॥ 


पाठान्तर

माई री म्हाँने सपणे माँ परणी गोपाल । 

राती पी की चुनरी पहरीमँहदी पान रसाल।

कांई करों और संग भाँवरम्होंने जग जंजाल 

मीरा प्रभु गिरधर लाल सूँकरी सगाई हाल

 

इस पद के कई पाठान्तर प्राप्त हैं। उसका कारण पाठों में प्रयुक्त भिन्नार्थक शब्द नहीं है। अपितु विभिन्न लेखकों ने अपनी मतभिन्नता प्रदर्शित करने के लिये पद के शब्दों तथा शब्दरूपों में हेरफेर कर दिया है। इससे कई पाठान्तर प्राप्त होने लगे हैं।

 

शब्दार्थ -

 म्हाणो = मेरा 

सुपणा = स्वप्न 

मां =में 

परण्यां= परिणय कर लियाविवाह कर लिया। 

छप्पण कोटा = छप्पन करोड़। 

जणाँ जनमनुष्यबराती पधारियाँ पधारेआये। 

दूल्हो = दूल्हावर 

सिरी= श्री 

तोरण = द्वार बन्धन । 

बंधयारी= बाँध दिया। 

गह्य पकड़ा। 

परण= परिणयविवाह या प्रतिज्ञा । 

अचल = अटल। 

सुहाग= सौभाग्य 

पुरव= पूर्वपहले 

भाग =भाग्य।

 

व्याख्या - 

हे सखि ! स्वप्न में श्रीकृष्ण दीनानाथ ने मेरा विवाह अपने साथ कर लिया। (स्वप्न में मेरे साथ दीनानाथ श्री कृष्ण का विवाह हो गया) मेरे विवाह की बारात में छप्पन करोड़ मनुष्य आये। उनमें दूल्हा के रूप में श्री ब्रजनाथ श्रीकृष्ण थे। मेरे स्वप्न में ही मुख्य द्वार पर आमों के पत्तों की मंगल मालाओं का बन्धन बंध गया। स्वप्न में ही श्रीकृष्ण ने मेरा हाथ पकड़ लियाअर्थात् पाणिग्रहण संस्कार हो गया। इस प्रकार स्वप्न में ही मेरा विवाह हो गया (अथवा मेरी श्रीकृष्ण से विवाह करने की प्रतिज्ञा पूरी हो गई। मैंने अटल सौभाग्य प्राप्त कर लिया है। मीरा कहती है कि पूर्व जन्म के पुण्यों के कारण अथवा पहले जन्म में किये कर्मों से प्राप्त भाग्य के कारण ही मुझे श्रीकृष्ण पति के रूप में प्राप्त हो गए हैं।

 

विशिष्ट-

भक्ति पद्धति में स्वप्न की स्थिति भी इष्टदेव के मिलन के लिए मानी गई है। 


थें मत बरजाँ माइड़ी शब्दार्थ व्याख्या

थें मत बरजाँ माइड़ीसाध दरसण जावाँ 

स्याम रूप हिरदाँ बसाँम्हारे ओर णा भावाँ । 

सब सोवाँ सुख नीदड़ी म्हाणे नेण जगावाँ । 

ग्याण नंसा जग बावरा ज्याकूं स्याम णा भावाँ । 

माँ हिरदाँ वस्या साँवरो म्हारे णींद न आवाँ । 

चौमास्याँ री बावड़ी ज्याँ कूँ नीर णा पीवाँ 

हरि निर्झर अमृत झरयाम्हारी प्यास दुझावाँ । 

रूप सुरंगा साँवरोमुख निरखण जावाँ । 

मीरा व्याकुल बिरहिणी अपनी कर ल्यावां ॥29

 

शब्दार्थ-

थें = तुम । 

बरजाँ= रोको। 

माइड़ी= माँ 

दरसण = दर्शन। 

हिरदा = हृदय में 

बसाँ = बसा हुआ है। 

ओर = और। 

भावाँ=अच्छा लगता। 

चौमास्याँ की बावड़ी=  चौमासे या वर्षा ऋतु में भर जाने वाली बावरी। 

नीर = जल । 

निर्झर = झरना। 

रूप सुरंगा = सुन्दर।

 निरखण = देखने ।

 

व्याख्या - 

हे माँ अथवा सखि ! तुम मुझे मत रोको। मैं साधुओं के दर्शन के लिए जाती हूं। श्रीकृष्ण का सुन्दर रूप मेरे हृदय में बसा हुआ है। मुझे और कोई अच्छा नहीं लगता। श्रीकृष्ण के रूप के अतिरिक्त किसी दूसरे का रूप नहीं भाता। सब लोग सुख की नींद सोते हैं। परन्तु मेरे नयन जागते रहते हैं। नींद ही नहीं आती। जगत् में जिन्हें श्रीकृष्ण प्रिय नहीं हैं। उनका ज्ञान नष्ट हो चुका है। वह जगत् (वे लोग) ही पागल हो गया हैजिसे श्रीकृष्ण अच्छा नहीं लगता। मेरे हृदय में श्रीकृष्ण बसा हुआ है। इसलिए मुझे नींद नहीं आती। मेरे लिए (मीरा के लिये) श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य सब देवता गण चौमासे के (वर्षा ऋतु) जल से भरी बावड़ी के समान हैं। मैं उनकी पूजा नहीं कर सकती। न ही वे मुझे प्रिय हैं। क्योंकि वर्षा ऋतु का जल कोई नहीं पीता। ऐसे ही मैं श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी देव को अपना इष्ट प्रिय नहीं मान सकती। श्रीकृष्ण अमृत को देने वाले झरने के समान हैं। इस झरने के अमृतजल से ही मेरे हृदय की प्यास बुझ सकती है। श्रीकृष्ण का रूप मोहक एवं सुन्दर हैं। सांवला रूप मनभाता है। मैं उसी का सुन्दर मुख देखने के लिए जी रही हूं। मीरा कहती है कि मैं श्री कृष्ण के वियोग में बेचैन हूँ। इसलिए हे श्रीकृष्ण ! हे प्रिय ! मुझे अपना लोअपनी प्रिय मान लो ।

 

विशिष्ट-

इस पद में “चौमास्यां री बावड़ी ज्याँ कूँ नीर णा पीवाँ" पद्यांश में दृष्टान्त अलंकार है। क्योंकि वर्षा ऋतु के जलवाली बावड़ी के जल के समान ही अन्य देवों की पूजा को माना गया है।

 

"हरि निर्झर अमृत झऱ्या" पद्यांश में रूपकालंकार की छटा है। हरि (भगवानइष्टदेव) को ही मीरा ने निर्भर मान लिया है। हरि पर अमृत वाले निर्झर का आरोप किया गया है। झरने के जल पर अमृत का आरोप है। अतः रूपकालंकार सुन्दर रूप में समन्वित है।

 

बरजी री म्हां स्याम विणा न शब्दार्थ व्याख्या


बरजी री म्हां स्याम विणा न रह्यां ॥टेक॥ 

साध संगत हरि सुख पाल्यूँ जग सूँ दूर रह्याँ 

तण मण म्हारों जावाँ जास्याँम्हारो सीस लह्यां ।

मण म्हारो लाग्याँ गिरधारीजगरा बोल सह्याँ 

मीरा रे प्रभु हरि अविनासीथारी सरणा गह्यां ॥ 30 ॥

 

शब्दार्थ

वरजी = रोकी हुईमना करने पर 

संगत =संगति 

जग सू  = संसार से 

दूर रह्यौ = दूर रहती हूँ 

जावी - जास्याँ = जाता हैचला जाए। 

सीस=शीशसिर। 

लह्याँ = ले लिया जावेकाट लिया जावे। 

जगरा = झगड़ा 

जगरा=संसार का। 

बोल = बोलीकड़वे वचनव्यंग्य भरे शब्द 

थारी = तुम्हारी। 

सरण = शरण 

गह्याँ = पकड़ती हूँ ।

 

व्याख्या- 

मुझे श्रीकृष्ण की उपासना करने से रोका गया। परन्तु रोकने पर भी मैं श्रीकृष्ण के बिना न रह सकती हूंन रह सकी। साधों भगवान के भक्तों की संगति में रहकर अपने प्रिय श्याम को मिलने का सुख प्राप्त करती हूं और संसार की मोह-ममता से दूर रहती हूं। मेरा शरीर और मन तो जाने वाला है। विनाश को प्राप्त करने वाला है। इसलिए यदि शरीर और मन जाता है तो जाए। मेरा तो सिर भी श्याम के चरणों में समर्पित है। मेरा सिर ले लिया जावे तो भी मुझे कोई खेद नहीं है। मेरा मन श्रीकृष्ण के प्रेम में रम गया हैतल्लीन हो गया है। इस कारण मैं झगड़े और कटु वचन अथवा व्यंग्य भरे वचनों को भी सुन लूँगी। अथवा श्रीकृष्ण से प्रेम होने के कारण मैं संसार के लोगों द्वारा कहे जाने वाले व्यंग्य वचनों को भी सुन लूँगी। मीरा कहती है कि मेरे प्रभु तो अविनाशीअमर हैं। 1 इसलिए हे भगवन्! मैंने तुम्हारी शरण ग्रहण कर ली है। इसलिए शरण में आने के कारण अब मेरी रक्षा कीजिए।

 

विशिष्ट - इस पद की तीसरी पंक्ति में “जावा जास्या" पाठ है। जिसका अर्थ जाता हैजाने वाला है तो जाए। किया गया है। परन्तु यदि पाठ “आवाँ जास्याँ" माना जाए तो अर्थ में गम्भीरता आ जाती है। क्योंकि शरीर को “आने जाने वाला" होना लोक प्रसिद्ध है। शरीर नष्ट होता रहता है साथ ही मन भी नष्ट हो जाता है। इसलिए “आवां जारयाँ" पाठ अधिक संगत हैं यह पद "कामोद राग" में गाया गया है।

 

इस पद में मीरा के अन्तःकरण में संसार के प्रति उपेक्षा की भावना प्रबल रूप में दिखाई पड़ती है। वह अपने मन की दृढ़ता एवं भक्ति भावना की पावनता के कारण किसी भी बाह्य आक्षेप को सहन करने के लिए सर्वथा सशक्त रूप में प्रस्तुत है । इस पद में अपने भक्ति प्रेमपूर्ण आन्तरिक जगत् में बाह्य जगत् की कटुता को सहज ही सहन करके वह अपने मार्ग पर अडिग रहने की चुनौती देती-सी लगती है।

 

आज म्हाँरो साधु जननों संग रे  शब्दार्थ व्याख्या

आज म्हाँरो साधु जननों संग रेराणा म्हाँरा भाग भल्याँ ॥ टेक ॥ 

साधु जननो संग जो करियेचढ़े ते चौगणों रंग रे । 

साकत जननो संग न करियेपड़े भजन में भंग रे । 

अठसठ तीरथ संतों ने चरणो कोटि कासी ने कोटि गंग रे । 

निन्दा कर से नरज कुण्ड माँजासे थासे आंधना अपंग रे । 

मीरा के प्रभु गिरधर नागरसन्तो नी रज म्हारे अंग रे ॥ 31 ॥

 

शब्दार्थ 

साधुजनों = साधुजनों के साथ 

साधु लोगों का संग = संगति 

चढ़ते = पढ़ जाता है। 

रंग= रंगतप्रभाव। 

साकत = शाक्त लोग (हृदयहीन माने जाने वाले बलि पूजक लोग 

ठसठ तीरथ =अड़सठ तीर्थ

स्थान संतों ने चरणो= सन्तों के चरणों में ही 

कोटि = करोड़ों 

सोय = वही 

करसे = करेगा। 

नरककुंड मा = नरक के कुंड में 

जासे = जायेगा । 

थासे = हो जायेगा। 

आँधला = अन्धा 

अपंग = अंगों में विकार वाला 

सन्तो नी = सन्तों की,  सन्तों के चरणों की 

रज =धूल 

जंग = जंगों मेंपर

 

व्याख्या - 

हे राणा ! आज मेरे भाग्य का शुभ समय है। भाग्य अच्छा है कि मुझे साधुजनों की संगति प्राप्त हुई है। जो भगवान् का भक्त साधुजनों की संगति करता है। उस पर भक्ति का चौगुणा रंग चढ़ जाता है शाक्त लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वे हृदयहीन होते हैंबलिपूजन में विश्वास करते हैं। इस कारण शाक्त लोगों की संगति करने से भगवान के नाम को भजने में (भक्ति करने में) विघ्न पड़ते हैं। रुकावटें आती हैं। सन्तों के चरणों की सेवा करने से अड़सठ तीर्थों की यात्रा करने के समान पुण्य प्राप्त होता है। करोड़ बार काशी जाने और गंगा में करोड़ों बार स्नान करने से जो पुण्य मिलता हैवही सन्तों की चरण सेवा से सहज में मिल जाता है। सन्तों की निंदा करने वाला नरक के कुंड में जाएगा। वह अंधा और अंगहीन हो जाएगा। मीरा के स्वामी तो गिरधर नागर श्रीकृष्ण हैं। और सन्तों के चरणों की धूल मेरे (मीरा के) अंगों में लगी हुई है। सन्तों के चरणों की धूल की कृपा से मैं पवित्र हो गई हूँ।

 

विशिष्ट - 

इस पद में शाक्त जनों की संगति का विरोध प्रकट किया गया है। मीरा के इन वचनों से लगता है। कि युद्ध - प्रिय वंश की महारानी होने के कारण वह राणा कुल में दुर्गापूजा तथा तत्सम्बन्धी शाक्त आचार-विचार देखती रही होंगी। मीरा को बलिमांसमदिरादि का क्रम अपने जीवन के अनुकूल नहीं लगा था। इसलिए वैष्णव जनों का पक्ष लेते हुए उसने शाक्तों पर कटु व्यंग्य किया है। इस व्यंग्य में तत्कालीन भक्ति-क्षेत्र में शाक्तों की निंदनीय स्थिति का भी ज्ञान हो जाता है।

 

कबीर ने भी शाक्तों का विरोध किया था। उन्हें वैष्णव जन की झोंपड़ी प्रिय थी। वे शाक्तों के बड़गांव से भी दूर भागते थे। निम्नलिखित पद इसी भावना का परिचायक है।

 

चंदन की कुटकी भली ना बबूर की अबराउं । 

वैश्नों की छपरी भलीना साक्त का बड़गाँउ । 


शाक्तों के आचार-विचार का विरोध वैष्णव भक्तों द्वारा सामाजिक स्तर पर परम्परागत था। इसीलिए भी मीरा ने वैष्णवजनों का पक्ष लिया है।

 

चौगणी रंग चढ़ना', 'भजन में भंग पड़ना', 'अंग रज लोजैसे मुहावरों का प्रयोग भावाभिव्यक्ति को सफल बनाता है।

 

माई म्हां गोविन्द गुण गास्याँ  शब्दार्थ व्याख्या

माई म्हां गोविन्द गुण गास्याँ ॥ टेक ॥ 

चरणाम्रित रो नेम सकारे नित उठ दरसण जास्याँ 

हरि मन्दिर माँ निरत करावाँ घूँघर्यां धमकास्याँ । 

स्याम गाम रो झाँझ चलास्याँ भो सागर तर जास्याँ । 

यो संसार बीडरों काँटो गैल प्रीतम अटकास्याँ । 

मीरा रे प्रभु गिरधर नागर गुन गावाँ सुख पायाँ ॥31

 

शब्दार्थ - 

गास्याँ = गाऊंगी। 

चरणाम्रित = भगवान के चरणों को धोने से प्राप्त जल ( यह जल भक्त अमृततुल्य मानते हैं)। 

नेम= नियम। 

सकारे-सवेरे । 

नित = नित्यप्रतिदिन 

जास्याँ = जाऊँगी। 

माँ = में 

करावाँ = करवाती हूँ । 

घूँघरया = घुँघरू । 

धमकास्याँ = बजावेगीबजाऊँगी। 

गाम = गाँवस्थान। 

झांझ = जहाज। 

भो सागर = संसार रूपी समुद्र । 

तर = तैरनापार कर जाना 

यो = यह 

बीडरो = झरबेरी के कांटों का घेरा। 

गैल = पासनिकट 

अटकास्यां= अटकायेगा । 

गावाँ = गाती हूं।

 

व्याख्या- 

हे सखि ! मैं तो श्री कृष्ण (गोविंद) के गुणों को गाऊँगी। नियमपूर्वक प्रातः उनके चरणों का अमृतजल लेने तथा दर्शन करने के लिये जाऊँगी। भगवान् के मन्दिर मे नृत्य ( रासलीलाकीर्तन) आदि भी करवाती हूं। उस नृत्य में अपने घुँघुरुओं की मधुर ध्वनि भी करूँगी। घुघुरू भी जोर से बजाऊँगी। श्याम के गाँव में पहुंचने के लिए भक्ति का जहाज (बेड़ा) चलाऊँगी और संसाररूपी सागर से पार हो जाऊँगी। यह संसार झरबेरी के कांटों के समान हैं। यहाँ मनुष्य मोह मायाममता में फँस जाता है। इस में मुझे मेरा प्रिय श्रीकृष्ण ही फँसा गया हैं। मीरा के प्रभु गिरधर नागर हैं। मीरा कहती हैं कि वह उनके गुण गाएँगी और अनन्त सुख पायेंगी।

 

विशिष्ट - 

इस पद में 'गोविंदशब्द ध्यान देने योग्य हैं। गोविंद का अर्थ "गवां विन्दते" इति गोविंदः है। गो इन्द्रियाँ कहलाती हैंइन्द्रियों को वश में करने वाला आत्मरूप होने से भगवान का नाम गोविंद भी है। गोचारक होने वाला अर्थ पृथक है। मीरा ने इस पद में इन्द्रियवशकारी भगवान का गुणगान किया है।

 

(2) “स्याम गाम रो झाँक चलस्या" पाठ के स्थान पर किन्हीं प्रतियों में “स्याम नाम से झाँक चलास्याँ" पाठ भी मिलता है। तब अर्थ होगा कि श्रीकृष्ण के नाम की झाँझ बजाकर मैं संसार रूपी समुद्र से पार उतर जाऊँगी। यहाँ लिपि के कारण होने वाले अन्तर से दोनों अर्थों में रमणीयता रहती है। 

(3) भागवत में श्रवण-कीर्तनस्मरण आदि भक्ति-विधियों की चर्चा है। उसी पद्धति से यहाँ आत्मनिवेदनकीर्तन- दास्य आदि का अवलम्बन किया गया है। भागवत का यह श्लोक प्रसिद्ध है

 

श्रवणं कीर्तन विष्णोस्मरणं पाद सेवनम् । 

अर्चन वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।

 

(4) क्षेमेन्द्र के औचित्य सम्प्रदाय के अनुसार यह व्रतौचित्य का सुंदर उदाहरण माना जाना चाहिये। क्योंकि मीरा अपने जीवन-व्रत पर अटल रही।

 

(5) पद में अन्त्यानुप्रास की छटा है। रीति की दृष्टि से यह पद पांचाली का माना जाना चाहिये क्योंकि मीरा पाञ्चाल प्रदेश के अन्तर्गत ही निवास करती थी। पूरिया कल्याण राग का यह पद गेयता में बड़ा प्रभावशाली है। 


नहिं भावै थाँरो देसलड़ो शब्दार्थ व्याख्या

नहिं भावै थाँरो देसलड़ो रंगरूड़ो ॥टेक॥ 

थारे देसों में राणा साध नहीं छैलोग बसै सब कूड़ो । 

गहणा गाँठी राणा हम सब त्यागा त्याग्यो कररो चूड़ो 

काजल टीको हम सब त्याग त्याग्यो है बांधन जूड़ो । 

मीरा के प्रभु गिरधर नागर बर पायों छै पूरो ॥ 33 ॥

 

शब्दार्थ - 

भावै = अच्छा लगता। 

थाराँ = तुम्हारा। 

देसलड़ो = देश ।

रंगरूड़ो = अच्छे रंग का सुन्दरविचित्रतापूर्ण । 

साध - साधु-सन्तजन । 

कूड़ो = कूड़ाबेकार निकम्मे 

गहणा = गहना 

गांठी = गांठ-गहनों की गांठसब गहनों की पोटली 

कर रो = हाथ का 

चूड़ो =चूड़ा। हाथी दान्त का दना हुआ चूड़ा। 

छै=है। 

बांधन=बांधनाअथवा जूड़े का बंधन बांधने वाला आभूषण ।

 

व्याख्या - 

हे राणा ! मुझे तुम्हारा यह सुन्दर अथवा विचित्र देश अच्छा नहीं लगता है। हे राणा ! तुम्हारे इस देश में साधु (सन्तभक्त) लोग नहीं रहते हैं। जो लोग तुम्हारे देश में बसते हैं। वे सब कूड़ा हैं। दुर्जन तथा बेकार हैं इन लोगों का भक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। मैंने गहनों की पोटली भी छोड़ दी हैंगहने और वस्त्र सब छोड़ दिये हैं। हाथ में पहना हुआ हाथी दांत का बना चूड़ा भी त्याग दिया है। आँखों में लगने वाला काजल और माथे पर लगाने योग्य टीका (बिंदी) को भी मैंने त्याग दिया है जूड़ा बांधना भी छोड़ दिया है। जूड़े को बांधने वाला बंधन नामक गहना भी छोड़ दिया है। मीरा कहती है कि उस का प्रभु गिरधर नागर हैउसने श्रीकृष्ण को सर्वगुणपूर्ण वर के रूप में प्राप्त कर लिया है। अतः उसे आभूषण नहीं चाहिए।

 

विशिष्ट - 

इस पद में मीरा की सांसारिक सुख भोग के सब पदार्थों को त्यागने की स्पष्टोक्ति है। राणा (देवरा ) के दिये सभी आभूषण आदि सुख सामग्री की चिन्ता मीरा ने नहीं की। भक्तिहीन जन मीरा के मत में कूड़ा हैं। खिन्न एवं क्षुब्ध मीरा की वाणी कितनी स्पष्टभाषिणी बन गई है।

 

(1) भक्ति के अनुसार कोई व्यक्ति भक्त तभी बन सकता हैजबकि वह सांसारिक पदार्थों का मोह सर्वथा त्याग दे। यह तनुजा भक्ति कही जाती है। इस पद में मीरा का भक्ति भाव तनुजा भक्ति का ही है।


राणा जी म्हाने या बदनामी लगे शब्दार्थ व्याख्या

राणा जी म्हाने या बदनामी लगे मीठी ॥ टेक ॥ 

कोई निन्दो कोई बिन्दो मैं चलूँगी चाल अनूठी। 

सन्त संगति मा ग्यान सुणै छीं दुरजन लोगँ ने दीठी। 

मीरा रो प्रभु गिरधर नागर दुरजन जलो जा अंगीठी ॥ 34 ॥ 


शब्दार्थ - 

मीठी = भलीअच्छी 

निदो=निंदा करे। 

विन्दो = वंदना करेप्रशंसा करे। 

चाल = गति 

अनूठी=अनोखी (उल्टी - भिन्न मार्ग से)। 

मा=सेमें।

 

व्याख्या -

 हे राणा जी ! मुझे श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम के कारण होने वाली बदनामी अच्छी लगती है। वास्तव में यह बदनामी मुझे मधुर लगती एवं भाती है। इस प्रेम के कारण चाहे कोई व्यक्ति मेरी निन्दा करे चाहे कोई मेरी प्रशंसा करेपरन्तु मैं अपनी अनोखी चाल चलती रहूंगी। श्रीकृष्ण के प्रेम भक्ति सम्बन्धी अनोखे मार्ग पर आरूढ़ रहूंगी। सन्तों की संगति में बैठने के कारण मैंने ज्ञान सुन लिया है। ज्ञान प्राप्त कर लिया है। इस ज्ञान वार्ता को सुनते हुए दुर्जनों ने मुझे देख लिया और मेरे बारे में अनेक दुर्वचन कहे हैं। मीरा कहती है कि उसके रक्षक स्वामी गिरधर नागर हैं। इसलिए दुर्जन यदि शत्रुता की अंगीठी में जलते हैंतो जलें। वे दुर्जन मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। मुझ पर उनके बुरे वचनों या व्यंग्यवाणों का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता।

 

विशिष्ट - 

इस पद में मीरा ने अपने जीवन में प्राप्त होने वाली बदनामी का स्पष्ट निर्देश किया है। श्रीकृष्ण की भक्ति के कारण सामाजिक रूप से राज परिवार में उसे बदनामी सहनी पड़ीदुर्जनों के जो कड़वे वचन सुनने पड़ेउन सबका स्पष्ट उल्लेख यहाँ किया गया है। भगवद् भक्ति के कारण अपने संरक्षण का भाव भी व्यक्त किया गया है। ईश्वर स्वयं भगवान् अथवा इष्ट देव जब संरक्षक हैं तब संसार के दुर्जन क्या बिगाड़ सकते हैं। इसी दृढ़ धारणा को यहाँ अभिव्यक्ति मिली है।

 

राणा जी थें क्योंने राखों शब्दार्थ व्याख्या

राणा जी थें क्योंने राखों म्हाँसूं बैर ॥ टेक ॥ 

थे तो राणा जी म्हाँने इसड़ा लागो ज्यों बच्छन में कैर । 

महल अटारी हम सब त्यागात्याग्यो थाँरो बसनो सहर । 

काजल टीकी राणा हम सब त्याग्याभगवी चादर पहर । 

मीरा के प्रभु गिरधर नागरइमरित कर दियो जहर ॥ 35 ॥

 

पाठान्तर- 

1. मारूँ घर मेवाड़ मेरतो त्याग दियो थारो सहर । 

2. धारे रूस्यां राणा कुछ नहिं बिगड़ेअब हरि कीन्ही मेहर 

3. मीरा के प्रभु गिरधर नागर दृढ़ कर पी गई जहर ।


शब्दार्थ -

क्याँ ने = किस कारण से। 

म्हाँसु =  मुझ से 

बैर = शत्रुतादुश्मनी। 

म्हाँने = मुझे 

इसड़ा = ऐसा। 

लागो = लगता है। 

ज्यों = जैसे। 

ब्रच्छन=वृक्षों। 

कैर = करील 

थोरों = तुम्हारा 

बसनो = निवास योग्य

सहर = शहर। 

टीका = बिंदी । 

भगवीं = चादर = भगवे कपड़े। 

इमरित = अमृत ।

 

व्याख्या-

हे राणा जी! तुमने (आपने ) मुझ से क्यों शत्रुता ठान ली है। राणा ! तुम तो मुझे ऐसे लगते होजैसे हरे-भरे वृक्षों में करील का बिना पत्तों वाला कंटीला वृक्ष होता है। तात्पर्य यह कि सन्त जनोंभगवद्जनों के मध्य तुम निष्प्रभाव तथा अखरने वाले लगते हो। सन्तों जैसी शीतलता तथा सरसता तुम में नहीं है। मैंने (मीरा ने तुम्हारे महलों और अटारी को छोड़ दिया है और तुम्हारे शहर में निवास भी त्याग दिया है। मैंने भगवे वस्त्र (भक्तजनों के) पहन लिये हैं और सांसारिक सुख के प्रतीक आँखों में लगाने योग्य काजल तथा माथे पर लगाया जाने वाला टीका लगाना भी छोड़ दिया है। मेरे प्रभु गिरिधर नागर हैं। उन्होंने मेरे लिए जहर को अमृत के रूप में परिवर्तित कर दिया है। इसलिए जहर का प्रभाव भी मुझ पर नहीं हुआ। वह तो अमृत बन गया है।

 

विशिष्ट - 

इस पद में मीरा ने राणा को फटकारने के साथ ही स्वयं भगवे वस्त्र धारण करने की बात कह दी है। इससे यह संकेत मिलता है कि मीरा संन्यासिनी हो गयी थी। वह राजसी वस्त्र त्याग कर संन्यासिनी बन गयी थी । इस पद में मन की अपराजेय मनोवृत्ति का परिचय दिया गया है तथा राज- प्रलोभनों को झटके से छोड़ देने का आत्मबल भी धर्णित है।

 

सीसोधो रूठ्यो तो म्हाँरो काँई शब्दार्थ व्याख्या


सीसोधो रूठ्यो तो म्हाँरो काँई कर लेसी । 

म्हें तो गुण गोविन्द का गास्याहो माई ॥ टेक ॥ 

राणो जी रूठ्यो बाँरो देस रखासी  

हरि रूठ्याँ  कुम्हलास्याँहो माई ।

लोक  लाज कीकाण ना मानू 

निरभै निसाण स्याम  घुरास्याँहो मानूँ ।

स्कायाम नाम की  झाँझ चलास्याँ

भवसागर नाम तर   जास्याँ हो माई । 

मीरा सरण  संबल , गिरधर की।

 चरण कँवल लपटास्याँहो माई ||36||


शब्दार्थ-

सीसोद्यो= सिसोदिया वंश के राणा 

रूठ्यो = रूठ गयानाराज हो गया। 

काँई-क्या। 

करलेसी=कर लेगा। 

गास्याँ = गाऊँगी। 

बांरो = अपनाउनका 

रखासी = रखेगा। 

कुम्हलास्याँ = कुम्हला जाऊँगी। 

काण= मर्यादा 

निरभे= निडर होकर । 

निसाण = निशाननगाड़ा 

की घुरास्याँ = बजाऊँगी। 

चलास्याँ = चलाऊँगी। 

भवसागर = संसार रूपी समुद्र 

तर=पारउद्धार पाना। 

सबल = शक्तिशाली में 

लपटास्याँ = लिपट जाऊँगी।

 

व्याख्या - 

हे सखि ! सिसोदिया वंशीय राणा यदि मुझसे रूठ जाएगा तो मेरा क्या कर लेगा। मेरा क्या बिगाड़ गामैं तो श्रीकृष्ण के गुणों का गान करूँगी। सदा उनके गुणों का कीर्तन करूँगी। यदि राणा रूठ जाएँगे तो उनका देश उन्हें मुबारक! राणा रूठने पर अपना देश रखेगा और मैं उसके देश से निर्वासित कर दी जाऊँगी। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण के नाराज होने पर मैं मुरझा जाऊँगी। मेरी जीवन शक्ति ही समाप्त हो जाएगी। सांसारिक लाज की मर्यादा को मैं नहीं मानती। इसलिए निडर होकर मैं अपनी भक्ति भावना का नगाड़ा बजाऊँगी। तात्पर्य यह कि संसार में श्रीकृष्ण के प्रति अपने पावन प्रेम को सर्वत्र एवं सर्व ज्ञात कर दूंगी। श्रीकृष्ण के नाम का जहाज चलाऊँगी और उस नाम रूपी जहाज पर चढ़कर संसार रूपी समुद्र से पास जाऊँगी। अपना उद्धार कर लूँगी। मैंने तो शक्तिशाली सांवरे गिरिधर की शरण ले ली है और उनके चरणों से लिपटी रहूंगी। अतः मैं निःशंक हूं। मुझे किसी प्रकार की असुरक्षा का भय नहीं है।

 

अलंकार-

इस पद में अधिक अलंकार है। अधिक अलंकार में आधार और आधेय की लघुता और गुरुता का वर्णन रहता है परन्तु कभी आधार गुरु कभी लघु होता है। यहाँ भी सांसारिक बड़े-बड़े आधारों का त्याग कर भगवान के चरण कमल जैसे लघु आधार को ग्रहण किया गया है। इसलिए दूसरा अधिक अलंकार है परन्तु उन चरण कमलों को जब संसारव्यापी मान लिया जाए तब मीरा रूप में आधेय लघु हो जायेगा। ऐसी दशा में प्रथम अधिक अलंकार होगा। "चरण कमल" में रूपकालंकार भी है।

 

सबल शब्द का एक पाठान्तर "साँवल" भी मिलता है। साँवल का अर्थ सांवरा है। सांवला अर्थ भी लिया जा सकता है। 

मीरा ने इस पद के भावों को अन्य पदों में भी अभिव्यक्त किया है। “माई म्हां गोविन्द गुण गास्यां" नाम पद में भी इन्ही भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। वास्तव में मीरा के मन में अपने पारिवारिक सम्बन्धियों के प्रति विद्रोह भावना भरी थी। वही बार-बार व्यक्त हो जाती थी।

 

पग बाँध घुँ घयाँ नाच्याँ री शब्दार्थ व्याख्या


पग बाँध घुँ घयाँ नाच्याँ री॥ 

लोग कहाँ मीरा बावरी सासु कह्याँ कुलनासी री। 

विष रो प्यालो राणा भेज्याँ पीवाँ मीरा हाँसी री ॥ 

तण मण वार्यां हरि चरणा माँ दरसण अमरित प्यास्याँ री । 

मीरा रे प्रभु गिरधर नागर धारी सरणाँ आस्याँ री ॥37

 

पाठान्तर

 दूसरी पंक्ति से पहले यह पंक्ति और मिलती है। 

"मैं तो मेरे नारायण कीआपहि हो गई दासी री।"

 

शब्दार्थ - 

पग = पैरों में 

घुंघर्यां = घुंघरू 

बावरी = पगली 

सासु- = सास। 

कुलनासी=कुल पर कलंक लगाने वालीकुल नष्ट करने वाली । 

विष रो = विष काजहर का 

पीवां = पीती हुई। 

हाँसी = हँसीखुश रही 

तणमण = तन मन । 

वाऱ्यां=न्योछावर करने से। 

अमरित = अमृत । 

प्यास्यां = पीऊँगी। 

थारी = तुम्हारी। 

आस्याँ = आ गई हूँ।

 

व्याख्या-

मीरा कहती हैं कि मैं पांवों में घुंघरू बांध कर नाच करती हूं। इस कारण लोग कहते हैं कि मीरा पगली हो गई है। सास कहती हैं कि उसके कुल को इस (मीरा) ने कलंकित कर दिया है। राणा ने मुझे मारने के लिए जहर का प्याला भेजा। उनका विचार था कि जहर का प्याला पीने से मेरी मृत्यु हो जाएगी परन्तु मैंने उस प्याले को हँसी में (हँसते-हँसते) पी लिया है। मैंने अपना शरीर तथा मन श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया है। इसलिए मैं दर्शन रूपी अमृत पियूंगी। अपने इष्टदेव के दर्शनों से मेरी प्यास बुझ जाएगी। मीरा कहती हैं कि हे मेरे गिरिधर नागर प्रभो ! मैं तुम्हारी शरण में आ गई हूं। अब मैं निश्चित हूं। मुझे किसी प्रकार का बाह्य सांसारिक भय नहीं रहा।

 

विशिष्ट - 

इस पद में मीरा ने अपने ऊपर ढाये जाने वाले पारिवारिक अत्याचारों का स्पष्ट वर्णन किया है। नारी हृदय की कोमलता अत्याचारों की पीड़ा को सहती रही। हँसी से सहती रही। परन्तु अपने विश्वास एवं ध्येय से एक पग पीछे न हटी। यही पावन भाव इस पद में व्यक्त है।

 

साँवरियो रंग राचाँ राणा शब्दार्थ व्याख्या


साँवरियो रंग राचाँ राणासाँवरियो रंग राचाँ ॥ टेक ॥ 

ताल पखावज मिरद्ङ्ग बाजासाधाँ धागे णाच्याँ । 

बूझया मारणे मदण वावरीस्याम प्रीतम्हाँ काचाँ । 

विष रो प्यालो राणा भेज्याँआरोग्याँ णा जाँच्याँ 

मीरा रे प्रभू गिरधर नागरजनम जनम रो साचाँ ॥38

 


पाठान्तर 

इस पद के कई पाठान्तर मिलते हैं। यहाँ एक ही दिया जा रहा है। 

साँवरे रंग राची राणा जी शब्दार्थ व्याख्या


साँवरे रंग राची राणा जी हूँ तो ।

बाँध घूंघरू प्रेम के हूँ हरि  हरि आगे नाची । 

एक निरखत है एक परखत हैंएक करत मेरी हाँसी । 

और लोग म्हारी काँई करसीहूं हरि जी की दासी ॥ 

राणा विष को प्याला भेज्याहूं तो हिम्मत सांची।

मीरा स्याम चरण लाग रही है सांची ॥ 


शब्दार्थ - 

रंग राचौ =रंग में रंग गई प्रेम में डूब गई 

ताल = तालीदोलक की तालध्वनि 

साधा = साधुओं 

नाच्यां=नाची। 

बूझया= समझा 

माणे = मुझे। 

मदन = कामदेव काचाँ कच्चा 

आरोग्याँ = खा लियापी लिया । 

णा जाँच्या=न जांचान जाँच की।

 

व्याख्या 

मीरा कहती है कि हे राणा! मैं तो अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण के रंग में रंग गई हूं। अतः तालियाँ बजा-बजाकर सन्तों के आगे भी नाचती रहती हूं। मुझे इस विषय में किसी प्रकार की लज्जा नहीं है। मेरे बारे में परिवार के लोगों ने समझा कि कामातुर होकर पागल हो गई हूं। श्री कृष्ण की प्रीति भी कच्ची हैस्थायी नहीं है। राणा ने इन्हीं कारणों से क्रोधित होकर जहर का प्याला भेजा। उस प्याले की जाँच न करके मैंने पी लिया। मेरे स्वामी गिरिधर नागर श्रीकृष्ण हैं। उनका और मेरा सम्बन्ध जन्म जन्मान्तर से है और वह सम्बन्ध सच्चा है। कच्चा नहीं है।

 

विशिष्ट - " 

इस पद की तीसरी पंक्ति का अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है कि मां ने मुझे बहुत समझाया और कहा कि तू (मीरा) श्रीकृष्ण के प्रेम में पागल हो गई हैश्रीकृष्ण की प्रीति कच्ची है। श्रीकृष्ण का प्रेम सच्चा नहीं है।" परन्तु यह अर्थ औचित्य का स्पर्श नहीं करता। अतः ठीक नहीं लगता ।

 

ऐसी भावना मीरा ने अन्य पदों में भी व्यक्त की है जैसे-

 

1. मेरी उण की प्रीत पुराणी उण बिन पल न रहाऊं । 

2. पूर्व जन्म की प्रीत पुराणी सो क्यूँ छोड़ी जाय । 

3. मीरा कूं प्रभु दरसण दीज्यो जनम जनम की चेली । 

4. मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे पूरब जनम का साथी ।

 

राणा जी थें जहर दियो शब्दार्थ व्याख्या

राणा जी थें जहर दियो म्हे जाणी ॥ टेक ॥ 

जैसे कंचन दहत अगिन मेंनिकसत बारावाणी । 

लोक लाज कुल काण जगत कीदइ बहाया जस पाणी ॥ 

अपने घर का परदा कर ले मैं अबला बौराणी 

तरकस तीर लग्यो मेरे हियरेगरक गयो सणकाणी ॥ 

सब संतन पर तन मन वारौं चरण कंवल लपटाणी । 

मीरा के प्रभु राखि लई हैदासी अपणी जाणी ॥ 39 ॥

 

शब्दार्थ - 

थें = तुम ने । 

म्हें = मैंने 

जाणी-जान लिया। 

दहत = तपाया जाता है। 

निकसत = निकलता है। 

वारावाणी - चमकीला । 

कुलकाणी = कुल की मर्यादा। 

जगत की = संसार की मर्यादा या लज्जा । 

दइ बहाय = बहा दी 

जस-जैसे 

पाणी- पानी 

परदा =ओट 

अबला = बलहीनस्त्री 

तरकस = तीर तरकश से निकलने वाला तीरलोगों के शब्द रूपी बाण। 

हियरे=हृदय पर 

गरक गयो = गर्क गयाडूब गयाचुभ गया। 

सणकाणी = सनक गईसनकी हो गई। 

वारी = न्योछावर कर दूं। 

कंवल-कमल 

लपटाणी लिपट गई हूँ। 

जाणी= जानकरसमझकर।

 

व्याख्या - 

हे राणा ! तुम ने मुझे प्याले में जहर भेजा था। मैं इस बात को जान गई थीतब भी मैंने उस जहर को पी लिया और मेरी भावना इस प्रकार अधिक सत्य सिद्ध हो गई। मेरी भक्ति भावना वैसे ही चमक उठीजैसे सोना। (धातु) आग में जलाये ( गलाए जाने पर चमकीला होकर निकलता हैकुन्दन बन जाता है। मैंने लोक-मर्यादा तथा कुल की मर्यादा को भी ऐसे ही बहा दिया हैजैसे पानी बहा दिया जाता है। लोक के उपहास तथा कुल के सम्बन्धियों की व्यंग्य भरी उक्तियों की चिन्ता नहीं की। हे राजन! आप अपने ही घर का परदा कर लें। अपने आप को ही छिपा लें। मैं तो एक पागल स्त्री हो गयी हूं। ऐसा श्रीकृष्ण के प्रेम में स्वाभाविक है। अतः अब आप ( राजन ! ) स्वयं ही परे हट जाइए। अपने को छिपा लीजिए। छिपना भी परदे के पीछे छिपने के समान होना चाहिए। मेरे अन्तःकरण में अपने प्रिय श्याम की भक्ति एवं प्रेम के तरकश से निकला हुआ तीर लग गया हैवह तीर गहरा लगा हैअतः मैं सनकी हो गई हूंऔर कुलमर्यादा की चिन्ता नहीं करती मैं अपने तन मन को साधु-सन्तों पर न्यौछावर करने को प्रस्तुत हूं। जीवन भर साधुओं महात्माओं की सेवा करूँगी। अपने इष्ट देव श्रीकृष्ण के चरणों से लिपट गयी हूंचरण कमल ही मेरा आश्रय स्थल हैंमीरा के प्रभु उसे अपनी दासी (सेविका) समझ कर रक्षा करेंगे।

 

विशिष्ट - 

इस पद में दृढ़तापूर्वक आत्मविश्वास के भाव की अभिव्यक्ति है। सम्बन्धियों द्वारा दिया जाने वाला दारुण कष्ट भी मीरा को भक्ति मार्ग से विचलित नहीं कर सका। यही भाव यहां प्रस्तुत है। जैसे कंचन दहत अगनि में... उदाहरण नामक अलंकार है। चरणकंवल में स्वाभाविक ही रूपकालंकार की छटा है।

 

माई म्हाँ गोविन्द गुण गाणा शब्दार्थ व्याख्या

माई म्हाँ गोविन्द गुण गाणा ॥ टेक ॥ 

राजा रूठ्याँ नगरी त्यागाँहरि रूठ्याँ कहँ जाणा । 

राणी भेज्या विषरो प्याला चरणामृत पी जाणा । 

काला नाग पिटारयाँ भेज्यासालगराम पिछाणा । 

मीरा तो अब प्रेम दिवाणीसाँवलिया वर पाणा ॥40

 

शब्दार्थ - 

म्हाँ = मैंने 

गाणा = गाना है ( गाऊंगी। 

रूठ्यां= नाराज होने पर 

विषरो = जहर का 

नाग = सर्प 

सालागराम = शालिग्राम 

पिछाणा = पहचानामाना। 

दिवाणी = दीवानीतल्लीन 

वर=पति। 

पाणा=पाना है। 


व्याख्या - 

हे सखि ! मुझें तो अब जीवन भर गोविंद (श्रीकृष्ण) के गुणों को गाना है। यदि राजा मुझसे रूठ जाए तो मैं उसकी नगरी छोड़ सकती हूंपरन्तु अपने इष्ट देव भगवान श्री कृष्ण के रूठ जाने (नाराज) हो जाने पर कहाँ सकती हूं। राणा ने मेरी जीवनलीला समाप्त करने के लिए विष से भरा (जहर भरा) प्याला भेजा। मैंने उसे श्रीकृष्ण के चरणों का अमृत जल माना और पी गयी। काला सर्प पिटारी में बंद करके इसने के लिए भेजा गया। उस नाग को भी मैंने शालिग्राम के रूप में पहचाना। वह मीरा तो अब श्री कृष्ण के प्रेम में तल्लीन होने के कारण पगली लगती है। मुझे तो उसी श्याम वर्ण वाले श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करना है। विशिष्ट - इस पद में सांसारिक सम्बन्धियों द्वारा दिये जाने वाले कष्टों के वर्णन के द्वारा मीरा ने अपनी अटल भक्ति का परिचय दिया है। मीरा ने विष का प्याला तथा कालेनाग के द्वारा होने वाले जीवन-नाश की चिन्ता नहीं की और अपने भक्तिभाव के कारण मृत्यु से बच गयी। भक्ति के असाधारण प्रभाव को इस पद में प्रकट किया गया है।

 

1. इस पद में दो स्थानों पर भ्रम (भ्रांतिमान् ) अलंकार है। विष के प्याले को श्रीकृष्ण के चरणामृत के रूप में समझा। वह इसलिये क्योंकि श्री कृष्ण का रंग श्याम है। उनका चरणामृत भी इसी वर्ण का होगा। जहर का रंग भी इस भांति का होता है। इसलिए सन्देह न किया अपितु जहर को चरणामृत ही मान लिया। काले नाग को शालिग्राम मानना ही इसी अलंकार की छटा प्रकट करता है। भ्रमालंकार में एक पदार्थ को देखते हुए भी निश्चित रूप से दूसरा माना जाता है। अतस्मिन्तद् बुद्धिः होती है। (जो जैसा नहीं हैउसे वैसा मान लिया जाता है) इसलिए दोनों स्थानों पर भ्रातिमान अलंकार की छटा है।

 

यो तो रंग धत्ताँ लग्यो ए माय शब्दार्थ व्याख्या


यो तो रंग धत्ताँ लग्यो ए माय ॥ टेक ॥ 

पिया पियाला अमर रस का चढ़ गई घूम घुमाय । .

यो तो अमल म्हाँरो कबहुँ न उतरेकोट करो न उपाय । 

साँप पिटारो राणा जी भेज्योद्यो मेड़तणी गल डार । 

विष को प्यालो राणा जी मेल्योद्यो मेड़तणी ने पाय । 

कर चरणामृत पी गई रेगुण गोविन्द रा गाय । 

पिया पियाला नाम का रेओर न रंग सोहाय । 

मीरा कहै प्रभु गिरधर नागरकांचो रंग उड़ जाय ॥ 41 ॥

 

शब्दार्थ-

यो तो=यह तो। 

धत्त = पक्काखूब गहराबहुत अधिक। 

लग्यो = लग गया। 

अमररस=अमरता देने वाला भगवद् भक्ति का रस 

घूम = नशामस्ती घुमाय चक्कर खा कर चक्कर देकरचकराकर 

अमल = नशा । 

कोट= कोटिकरोड़ों 

द्यो = दिया। 

मेड़तणी = मेड़ता की रहने वाली। 

डार =डालदो। 

नौसर हार = नौ लड़ियों वाला हार । 

मेल्यो = भेजादिया। 

गाय = गा कर 

सोहाय = अच्छा लगता। 

कांचो = कच्चा

 

व्याख्या 

हे मां (अथवा सखि ) । मुझ पर भगवान श्रीकृष्ण के भक्ति भाव एवं प्रेम का रंग गहरा चढ़ गया है। मैंने अमर कर देने वाले प्रेम रस का प्याला पी लिया है और उस के नशे में मुझे चक्कर आ गया है। अब यह चक्कर देने वाला प्रेमामृत रस का नशा कभी उतरने वाला नहीं है। इसे उतारने के लिये चाहे करोड़ों उपाय भी क्यों न कर लिये जाएँतब भी यह नशा नहीं उतरेगा। राणा ने पिटारी में सांप रख कर मुझे मारने के लिये भेजा परन्तु मेड़तावासिनी (मैं) ने उसे गले में डाल लिया। उसे हंसते हंसते गले से लगा लियाउस सर्प को नी लड़ियों वाले हार के समान समझ कर गले में पहना। राणा जी ने जहर का प्याला भेजाउसे भी मेड़तावासिनी ने (मीरा ने ) पी लिया। गोविंद के गुणों का गान करती रही और जहर को अपने इष्टदेव श्री कृष्ण का चरणामृत मानकर पी गयी। अब तो मैंने इष्टदेव के नाम का ही प्याला पी लिया है। अब और कोई रंग अच्छा नहीं लगता। मुझे उन के नाम के अतिरिक्त दूसरी बात नहीं सुहाती । मीरा के स्वामी तो श्रीकृष्ण हैं। उनके नाम का रंग पक्का है। यह रंग नहीं उतरेगा। कच्चा रंग तो उड़ जाता हैपक्का नहीं छूटता।

 

विशिष्ट - 

इस पद में भी दोनों घटनाओं का वर्णन है परन्तु पद में "मेड़तणी" शब्द ध्यान देने योग्य है। मीरा के अन्तःकरण का कुल क्रमागत राजसी गुण यहां प्रकट हैंयहाँ रजोगुण की प्रधानता है। मेड़ता की वासिनी होने का उसे गौरव है। वह भीषण कष्टों से पार होने की क्षमता रखती है। इसी पद में गिरिधर शब्द भी है जो श्रीकृष्ण की लीलाओं की रजोगुण प्रधानता का द्योतक है। "मेड़तणी" और 'गिरिधरशब्द शक्ति एवं आत्मविश्वास को दर्शाने के लिए प्रयुक्त हैं। यहाँ मीरा का वंशज रजोगुण उभर आया है। मातृ कुल के गौरव से समन्वित हो कर अपनी कष्टपरायणता की सामर्थ्य का परिचय इस पद में दिया गया है।

 

अलंकार:- 

काले नाग पर नौ लड़ी वाले हार का आरोप रूपकालंकार की छटा दिखाता है। 


मीरा मगन भई हरि के गुण गाय शब्दार्थ व्याख्या

मीरा मगन भई हरि के गुण गाय ॥ टेक ॥ 

साँप पिटारा राणा भेज्योंमीरा हाथ दियो जाय ।

 न्हाय धोय जब देखण लागीसालिगराम गई पाय । 

जहर का प्याला राणा भेज्याअमृत दीन्ह बनाय । 

न्हाय धोय जब पीवण लागी हो अमर अँचाय । 

सूल सेज राणा ने भेजीदीज्यो मीरा सुलाय 

साँझ भई मीरा सोवण लागीमानो फूल बिछाय 

मीरा के प्रभु सदा सहाईराधे विधन हटाय 

भजन भाव में मस्त डोलतीगिरधर पै बलि जाय ॥ 42 ॥

 

शब्दार्थ 

मगनमग्न, = तल्लीन 

दीन्ह = दिया। 

अंचाय =पी कर 

सूल सेज = सूलों की सेज (शूलों की शय्या - 

सहाई = सहायक 

डोलती= घूमती 

जाय= बलिहारी जाती हूँ।

 

व्याख्या- 

अपने इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण के गुणों को गा-गा कर मीरा उन गीतों में ही तल्लीन हो गई है। उन गीतों में ही अपने आप को डुबोए हुए है। राणा ने पिटारे में सांप को बंद करके भेजा और वह सांप वाला पिटारा जाकर मीरा के हाथ में दे दिया गया। नहा धोकर जब मीरा उस पिटारे को देखने लगी तो सांप की अपेक्षा उसे शालिग्राम के रूप में पाया गया। राणा ने मीरा की जीवन लीला समाप्त करने के लिये जहर से भरा हुआ प्याला भेजाभगवान ने अपनी कृपाशक्ति से उसे अमृत बना दिया। नहा-धो कर (स्नानोपरांत) जब मीरा उस भरे प्याले को पीने लगी तो पी कर अमर हो गई। कांटों भरी शय्या भी राणा ने भेजी और मीरा को उस पर सुलाने के लिये कहा। संध्या हुई और जब मीरा उस कांटों भरी शय्या पर सोने लगी तो वह ऐसे लगीमानो फूलों की शय्या हो। मीरा के प्रभु ही उस के सदा सहायक हैंजिन्होंने उस की जीवन-यात्रा में आने वाले सभी विघ्नों को दूर कर दिया है। मीरा तो अपने इष्ट के लिए गाए जाने वाले भजनों (भक्ति गीतों) के भाव की मस्ती में ही रहती है। भाव दशा में ही लीन रहती है और वह अपने गिरिधर गोपाल पर अपने आप न्योछावर होती है।

 

विशिष्ट - 

इस पद में क्रमागत सर्प तथा जहर की घटना के साथ ही शूलों वाली शय्या का वर्णन भी दिया गया है। जो उनके जीवन की कष्ट गाथा की एक बड़ी कड़ी है। अलंकार - इस पद में 'साँझ भई मीरा सोवण लागी मानो फूल बिछाय पद में उत्प्रेक्षालंकार है । मानो, (मनुजनु) शब्दों से उत्प्रेक्षा अलंकार का बोध होता है। उत्प्रेक्षा में कल्पना मूलकता अवश्य रहती है। इसलिए “सूरसेज" में फूल सेज की कल्पना की गयी है।


हेली म्हाँसू हरि विनि रह्यो न जाय शब्दार्थ व्याख्या

हेली म्हाँसू हरि विनि रह्यो न जाय ॥ टेक ॥ 

सास लड़ें मेरी नन्द खिजावेराणा रह्या रिसाय । 

पहरो भी राख्यौ चौकी बिठारयोताला दियो जड़ाय 

पूर्व जनम की प्रीत पुराणीसोक्यूँ छोड़ी जाय। 

मीरा के प्रभु गिरधर नागरअवरु न आवे म्हाँरी दाय ||42|| 


पाठान्तर - 

तीसरी और चौथी पंक्ति में एक पाठान्तर प्राप्त होता है 

चौकी मेलौ भले ही सजनीताला द्यो न जड़ाई

पूर्व जन्म की प्रीत हमारीसो कहां रहे लुकाइ ॥

 

शब्दार्थः -

 हेली-अरी । 

म्हाँयूँ = हम सेमुझ से 

बिनि = बिना । 

रह्यो = रहा 

नन्द = ननदपति की बहन । 

खिजाये= खिजाती है। तंग करती है। 

जड़ा = जड़ दिया हैडलवा दिया है। 

प्रीत= प्रेम 

पुराणी= पुरानी 

अवरु= अन्यऔर।

म्हारो = हमारा 

दाय= पसंद ।

 

व्याख्या:- 

हे सखि ! भगवान के बिना मुझसे रहा नहीं जाता। इस भगवठप्रेम के कारण मेरी सास मुझसे लड़ती हैऔर ननद भी तंग करती है। राणा तो क्रोधित ही रहता है। मुझे घर से बाहर न निकलने देने के लिए पहरा रखा गया और सिपाहियों की चौकी भी बिठाई गयी। ताले लगा कर मुझे कोठरी में बन्द भी रखा गया। श्रीकृष्ण से मेरा पूर्वजन्म का प्रेम है। वह अब कैसे छोड़ा जा सकता है। मीरा के स्वामी तो चतुर गिरधारी हैं। मुझे तो उनके अतिरिक्त अन्य कोई भी देवता पसन्द नहीं आता है।

 

विशिष्ट 

पारिवारिक जनों (सास-ननद तथा राणा) द्वारा दिये जाने वाले दैनिक कष्टों का उल्लेख इस पद में है। 


जाण्याँ णा प्रभु मिलण बिध क्यों होय शब्दार्थ व्याख्या

जाण्याँ णा प्रभु मिलण बिध क्यों होय ॥ टेक ॥ 

आया म्हारे आँगवा फिर गया मैं जाण्या खोय । 

जोवत मग रैण बीताँ दिवस बीताँ जोय 

हरि पधारों आँगणाँ गयी मैं अभागण सोय । 

बिरह व्याकुल अनल अन्तर कलणाँ पड़ता होय । 

दासी मीरा लाल गिरधर मिल णा बिछड्या कोय ॥ 43 ॥

 

शब्दार्थः - 

जाण्या णा= जाना नहीं। 

विध-विधि

क्याँ = कैसे। 

होय = होती है। 

आँगणा-आंगन में

जोवता = देखते । 

मग = रास्ता 

रैण बीताँ = रात बीत गयी। 

अनल=आग 

अन्तर-बीच में 

कलणाँ = चैन नहीं 

पड़ता होय = पड़ता है। 

मिल णा बिछड्या कोय-मिल कर कोई न बिछुड़े।

 

व्याख्या:- 

मीरा कहती है कि मैं यह नहीं जानती कि भगवान से मिलने की रीति क्या है। वह मेरे घर के आंगन में आया और लौट कर चला गया। मैंने उसे खो कर ही समझा। तात्पर्य यह कि जब वह मेरा इष्ट देव भगवान श्रीकृष्ण मेरे घर में आकर वापस चला गयातब मैंने जाना कि वह मेरा ही प्रियतम था। उस के आने की प्रतीक्षा में रास्ता देखते-देखते राह बीत गई। और दिन भी उसके आने की राह देखते-देखते बीत गया। भगवान मेरे आंगन में आ कर चला भी गयापरन्तु मैं आभागिन सोती ही रही। वियोग की आग से मेरा हृदय जल रहा है। बहुत व्याकुलता बढ़ गयी है। इस व्याकुलता के कारण चैन नहीं पड़ता है गिरिधर श्रीकृष्ण की दासी मीरा कहती है कि मिलकर किसी को भी बिछोड़ा नहीं हो । अर्थात् प्रिय से मिलन होने के अनन्तर किसी को भी अपने प्रिय का वियोग न सहना पड़े । 

विशिष्टः- यह पद वियोग श्रृंगार का उदात्त उदाहरण है। यहाँ अंतःकरण के वियोग का आन्तरिक पक्ष सुन्दर रूप में चित्रित हुआ है।

 

अन्य कवियों से तुलना:- 

कबिरा देखत दिन गयानिस भी देखत जाइ । 

विरहणि पिव पावै नहीं जियरा तलफै माई ॥ 

मीरा ने भी कबीर की भाँति अपने प्रिय के वियोग में मानसिक व्याकुलता की अभिव्यक्ति की है।

 
जोगियाजी निसदिन जोॐ बाट शब्दार्थ व्याख्या

जोगियाजी निसदिन जोॐ बाट ॥ टेक ॥ 

पाँव न चाले पंथ दूले होआड़ा औघट घाट । 

नगर आइ जोगी रम गया रेमो मन प्रीति न पाइ । 

मैं भोली भोलापन कीन्होंराख्यौं नहिं बिलमाइ । 

जोगिया हूँ जोवत बोही दिन बीताअजहूँ आयो नाहिं। 

बिरह बुझावण अन्तरि आवोतपन लगी तन माहिं । 

के तो जोगी जग में नाहीं कैर बिसारी मोइ 

काँई करूं कित जाऊँरी सजनी नेण गुमायो रोइ 

आरति तेरी अन्तरि मेरेआवो अपनी जाणि । 

मीरा व्याकुल बिरहिणी रेतुम बिन तलफत प्राणी ॥ 44 ॥

 

शब्दार्थ-

जोगिया=योगीप्रिय। 

निस दिन = रात दिन 

जोऊँ= देखती हूं। 

बाट= रास्ता । 

चलै-चलते। 

पंथ = रास्ता ।

दुहेलो=कठिनदुर्गम । 

आड़ा = मध्य-मध्य मेंबीच-बीच में रुकावटों भरा 

औघट =अटपटा खराबकठिनता से पार होने वाला। 

घाट = पार करने का स्थल 

रम गया = लीन हो गयालोगों में मिल गया। 

बिलगाई बिलगाकरउलझाकर । 

बो हो= बहुत से। 

अजहुं=आज तक। 

बुझावण=बुझाने के लिए। बिरह की आग शान्त करने के लिये । 

अन्तरि=अन्तर मेंहृदय में आवो आओ। 

तपन = अग्नितापज्वाला तन शरीर। 

माँहि = में। 

कैं तो =या तो 

कैर= अथवा । 

विसारी = भुला दिया। 

मोह मुझे 

काँई करूँ = क्या करूँ 

नैग गुमायो = आँखें गंवा दींआँखें खोदीं। 

रोइ = रो कर 

आरति= आर्तलालसा, (आरती भी अर्थ हो सकता है)। 

अपनी जाणि =अपना जान कर अपनी प्रतिज्ञा के । अनुसार 

तलफत = तड़पते हैं। 

प्राणि = प्राण ।

 

व्याख्या 

मीरा कहती है कि हे प्रियतम! मैं तेरे आने की प्रतीक्षा में रात-दिन रास्ता देखती रहती हूं। प्रेम की आकुलता के कारण मेरे पाँव नहीं चलते। रास्ता भी बड़ा बीहड़ है। कठिन है। इस पर चलना कठिन है। इसका घाट भी विघ्नों (रुकावटों) से भरा हुआ है। बड़ा ही अटपटा घाट है। मैं पार नहीं पहुंच सकती। नगर में आ कर योगी वहाँ की शोभा में तल्लीन हो गया। मेरे मन की प्रीति को वह नहीं पहचान सका। मैं तो सरल स्वभाव की थी। इसी भोलेपन में ही रही। उसे अपने प्रेम में उलझाये नहीं रखा। प्रियतम का मार्ग देखते-देखते बहुत दिन बीत गये परन्तु वह आज दिन तक भी नहीं आया। हे प्रियतम ! मेरे हृदय में लगी विरह की आग को बुझाने के लिये आ जाओ। मेरे शरीर में वियोग की आग की तपन लगी हुई है। सारा शरीर जल रहा है। इसलिये मेरे हृदय में आकर इस अग्नि को शान्त करो। वह योगी अब तक मेरे घर वापस नहीं आया। इससे प्रतीत होता है कि या तो वह योगी इस संसार में नहीं रहाअथवा उसने मुझे ही भुला दिया है। हे सखि ! अब मैं क्या करूँकहाँ जाऊँमैं तो उसके वियोग में रो रो कर आँखें भी खो बैठी हूं। हे प्रियतम ! तुम्हारी आरती तो मेरे अन्तःकरण में है। अर्थात् तुम्हारी आकृति मेरे हृदय में है। (अथवा मैं अपने प्रेम भाव के कारण अन्तःकरण में आर्त्त भक्त की भाँति हो गयी हूं, (द्रोपदी भी तो आर्त भक्त थीभगवान उसके उद्धार के लिये आये थे। तब भाई के नाते आए थे। अब प्रियतम के नाते ही उद्धार करने के लिए आ जाओ) एक अर्थ यह भी किया जाता है कि मेरा अन्तःकरण तुम से मिलने की लालसा में जल रहा है। इसलिय मेरे अन्तःकरण को शान्त करने के लिए आओ (परशुराम चतुर्वेदी ने यही अर्थ लिया है) हे प्रियतम! मीरा वियोग में व्याकुल है। तुम्हारे बिना मेरे प्राण तड़पते हैं और कष्ट पाते हैं।

 

विशिष्ट - 

मीरा ने वियोगदशा का वर्णन इस पद में किया है। वर्णन में नारी सुलभ स्वाभाविकता है। सरलता है। शारीरिक विरह के माध्यम से शारीरिक पावनीकरण का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है। डिम्भादि के वर्णन का बंधन न माना जाए तो इस पद में स्वभावोक्ति अलंकार मानने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि सरल प्रियतमा अपने प्रियतम के वियोग में इसी भाव को व्यक्त करती है।

 

विद्यापतिकबीरजायसी तथा मंझन जैसे कवियों ने भी इसी प्रकार के भाव वियोगदशा में व्यक्त किये हैं।

 

विद्यापति - 

सखि मोर पिया अबहु न आमोल कुलिस-हिया । 

नरवर खोआ लोलूं दिवस लिखि लिखिनयन अँधाओलूँ पिया पथ देखि ॥

 

कबीर - 

अँखड़िया झाँई पड़ी पंथ निहारि निहारि । 

जीभड़ियाँ छाला पड्याराम पुकारि पुकारि ॥ 


अखायाँ तरशाँ दरसण प्यासी शब्दार्थ व्याख्या


अखायाँ तरशाँ दरसण प्यासी

मग जोवाँ दिन बीताँ सजणीगैण पड्या दुखरासी 

डारा बैठ्या कोयल बोल्याबोल सुण्या री गासी । 

कड़वा बोल लोक जग बोल्या कारस्याँ म्हारी हाँसी । 

मीरा हरि के हाथ विकाणीजणम जणम री दासी ॥ 45 ॥

  

शब्दार्थ - 

अखयाँ = आँखें । 

तरशाँ = तरसती हैं। 

जोवां = ढूंढती हैं । खोजती हैं। 

बीताँ-बीतते हैं। 

डारा = डाली । 

बैट्या= बैठ कर । 

गासी = दुःख से भरा हुआ। 

बिकाणी - बिकी हुई

 

व्याख्या - 

हे सखी! मेरी आँखें अपने प्रिय इष्टदेव के दर्शन के लिये तरसती हैं। प्रिय के दर्शन के लिये प्यासी आँखे तरसती हैं। बिना दर्शन किये प्यास नहीं बुझेगी। प्रिय का रास्ता देखते देखते ही दिन बीत जाता है। आँखें दुःख से भर गई हैं। आँखों को प्रिय के वियोग के कारण बहुत कष्ट है। यदि "पैण" की अपेक्षा "रेण” शब्द रख लें तो अर्थ अधिक उपयुक्त होगा। दिन बीत जाने के पश्चात् रात आ जाती है तब वियोग का दुःख बढ़ जाता है। वृक्ष की डाली पर बैठी हुई कोयल का स्वर जब सुना तो वह दुःख से भरा हुआ ही सुनाई पड़ा। जग के लोगो ने भी कड़वी बोली ही बोली। इन लोगों ने भी मीठे वचन नहीं कहेअपितु इन बोलियों (वचनों) में भी मेरी हँसी ही उड़ाई गई। मीरा कहती है कि वास्तविकता तो यह है कि वह अपने भगवान् के हाथों बिक चुकी है। आत्मसमर्पण कर चुकी है। परन्तु एक जन्म से ही दासी नहीं हैआदि जन्म-जन्मान्तर से वह अपने भगवान की सेविका है।

 

पाठशोध - 

इस पद में “ण” पद की अपेक्षा "रेण” पाठ होना चाहिये। तभी पद के पूर्वार्द्ध में प्रयुक्त किया गया “दिन" शब्द सार्थक होता है। “ण” शब्द से अर्थ औचित्य में दोष आता है। 

सूरदास ने भी दर्शन बिना प्यासे नेत्रों का वर्णन किया है। मीरा तथा सूरदास की भावना में साम्य है और वैषम्य भी। सूरदास ने लोक को कुछ नहीं कहा। मीरा ने जगत् को उलाहना दिया है। यह अन्तर अवश्य द्रष्टव्य है

 

सूरदास- 

अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी ॥ 

देख्यां चाहति कमल नैन कौंनिसिदिन रहति उदासी। 

आए ऊधौ फिरि गए आँगनडारि गये उर फाँसी । 

केसरि तिलक मोतिनि की मालावृन्दावन के बासी । 

काहु के मन की कोउ जानतलोगनि के मन हाँसी । 

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौंकरबत लैहों कासी ॥ सूरसागर - पृ. 151

 

कृष्णदासचतुर्भुजदासतुलसीदास आदि कवियों के काव्य में भी दर्शनार्थ व्याकुल होने की चर्चा है। भक्त का अपने इष्टदेव के पावन दर्शन से नेत्रों की प्यास बुझाने का वर्णन करना सामान्य रीति रही हैं।

 

जोगी मत जा मत जा मत जापाइ परूँ मैं तेरी चेरी हौं शब्दार्थ व्याख्या

 

जोगी मत जा मत जा मत जापाइ परूँ मैं तेरी चेरी हौं ॥ टेक ॥ 

प्रेम भगति को पैड़ों ही न्यारों हमको गैल बात जा 

अगर चंदण की चिता वणाउँअपने हाथ जला जा 

जल बल भई भस्म की ढेरीअपने अंग लगा जा 

मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर जोत में जोत मिला जा ॥ 46 ॥

 

शब्दार्थ- 

पाँऊ परूँ = पाँव पड़ती हूंविनय करती हूं। 

चेरी = दासीसेविका। 

पैंडो = रास्ता। 

गैल =गलीसाथमार्ग। 

अगर=एक सुगन्धित पदार्थ 

बणाऊँ = बना देती हूं। 

जला जा=प्रज्वलित करते जाओ। 

ढेरी-ढेरराशिसमूह । 

जोत=ज्योति

 

व्याख्या - 

हे योगी! तुम मत जाओ। मैं तुम्हारे पाँवों पड़ती हूंप्रार्थना करती हूंमैं तुम्हारी सेविका हूं। प्रेम से "भरी भक्ति भावना का रास्ता ही अनोखा है। वह साधारण रास्ता नहीं है। मुझे भी उस रास्ते पर चलने की विधि बताते जाओ। अथवा मुझे (हमें अपने लिये बहुवचन का प्रयोग) भी अपने साथ संगति में रख कर उस प्रेम भक्ति के मार्ग को बताते जाओ। मैं अगर और चन्दन की लकड़ियों से चिता बना लेती हूँ। तुम अपने हाथों से इस चिता में आग लगा जाओ। इस चिता में जल जाने पर मैं केवल राख का समूह हो जाऊँगी। तब तुम उस भस्म को अपने अंगों में लगाते जाओ। मीरा कहती हैं कि हे प्रभु! गिरिधर नागर! इस प्रकार मेरे शरीर के भस्म होने पर ज्योति ज्योति में लीन हो जाएगी। शरीर की भस्म तो शरीर में लिपट जाएगी और जीवात्मा तुम्हारे आत्मांश में समा जाएगी।

 

विशिष्ट - 

कबीरजायसीगुरु नानक आदि सन्तों के वचनों में भी यह भावना विद्यमान है। इस भावना का व्यापक रूप भक्ति काव्य में सर्वत्र प्राप्त हैं जैसे

 

यह तन जारौं मसि करूँक्यूँ धुँवा जाई सरग्गि । 

मति वै राम दया करेंबरसि बुझावे अग्गि ॥ -कबीर


भारतीय वेदान्तवाद के अनुसार इस पद में अद्वैत होने की भावना को प्रस्तुत किया गया है। भक्ति क्षेत्र में सगुण के माध्यम से इस भावना को व्यक्त किया गया है।

 

थें जीम्या गिरधरलाल शब्दार्थ व्याख्या

थें जीम्या गिरधरलाल 

मीरा दासी अरज कर्यों छैम्हारों लाल दयाल 

छप्पन भोग छतीश बिंजणपावाँ जन प्रतिपाल । 

राजभोग आरोग्याँ गिरधरसणमुख राखाँ थाल । 

मीरा दासी सरणा ज्याशींकीज्याँ वेग निहाल ||47||

 

शब्दार्थ - 

जीम्या - भोजन करना है। 

अरज = प्रार्थना । 

दयाल = दयालु 

बिजण = व्यंजनसब्जियाँ 

प्रतिपाल= रक्षक । 

आरोग्यां= खाने पर। सम्मुख सामने

ज्याशी= जाती हूँ । 

.बेग= शीघ्र 

निहाल = कृपा से कृतार्थ

 

व्याख्या - 

हे श्री कृष्ण ! गिरिधरलाल ! आपको भोजन करना है। तो आप भोजन कीजिये। मीरा प्रार्थना करती है। मेरे गिरिधर गोपाल अत्यन्त कृपालु हैं। मैं अपने भक्तों की रक्षा करने वाले भगवान के सामने छप्पन प्रकार के भोज्य-पदार्थों तथा छत्तीस प्रकार की सब्जियों से भरे हुए थाल को रखती हूं। वे इसे खायेंगे। दासी मीरा अपने इष्टदेव की शरणागत है। इसलिए भगवान शीघ्र अपनी कृपा से मुझे (मीरा को) कृतार्थ कीजिये ।

 

विशिष्ट - 

मीरा के युग में वृन्दावन में भगवान को भोग लगाने की जो परम्परा विद्यमान थी। मीरा ने उसी का वर्णन किया है। यह परम्परा आज तक भी विद्यमान है।

 

छोड़ मत जाज्यो जी महाराज शब्दार्थ व्याख्या

छोड़ मत जाज्यो जी महाराज ||टेक ॥ 

म्हा अबला बल म्हारो गिरधरथें म्हारों सरताज 

ग़हा गुणहीन गुणागर नागरम्हा हिवड़ो से साज 

जग तारण भो भीत निवारणथें राख्याँ गजराज । 

हारया जीवन सरण रावलाँकठे जावाँ ब्रजराज । 

मीरा रे प्रभु और णा काँईराखा अब री लाज 48 ॥

 

शब्दार्थ 

अबला -निर्बल स्त्री 

सरताज =सिर का ताजस्वामी 

गुणागर = गुणों का घरगुणी 

हिबड़ो = हृदय 

रावला =  तुम्हारी 

कठे = कहाँ 

 

व्याख्या - 

हे महाराज ! श्रीकृष्ण! मुझे छोड़कर मत जावें। मैं अत्यन्त निर्बल स्त्री हूं। मेरे बल तो गिरधर श्री कृष्ण ही हैं। इसलिये हे श्रीकृष्ण तुम ही मेरे सिर के ताज हो मेरे स्वामी हो मैं तो सर्वधा गुण-रहित हूं और आप 1 नटनागर कृष्ण हैं इसीलिये सभी गुणों के एकमात्र स्थान हैं। आप ही मेरे हृदय का शृंगार हैं। संसार से पार उतारने वाले भी आप ही हैं। संसार में आने वाले कष्टों का निवारण करने वाले भी आप ही हैं। तुम्हीं ने (आप ने) गजराज की रक्षा की थी। जीवन में हार जाने पर केवल तुम्हारी शरण प्राप्त होती हैं। इसलिए और कहाँ जायें। मीरा को अपने इष्टदेव के अतिरिक्त और कोई आश्रय स्थल नहीं है। इसलिये मीरा की लोक-मर्यादा की रक्षा कीजिये।

 

विशिष्ट - 

इस पद में गजराज की कथा दी गई है। शापवश गज-ग्राह दोनों ही पास-पास रहते थे। गजराज अपनी हथनियों समेत जल पीने गया। वहाँ उसे ग्राह ने पकड़ लिया। कई युगों तक संघर्ष चलता रहा। अन्त में भगवान् ने स्वयं आकर गज को मुक्त किया। गज ने अपनी मुक्ति के लिये सरोवर के एक पुष्प को सूँड़ में उठा कर आकाश की ओर देखा था तभी भगवान् को उसके उद्धार की स्मृति आई और गजेन्द्र मोक्ष मिल गया। इस पद में तुल्य अलंकार हैजिसका लक्षण 'अलंकार रत्नाकरमें शोभाकर मिश्र ने दिया है-निवृत्तावन्योदयस्तुल्यम् । 

 

ऐसी लगन लगाइ कहाँ तू जासी शब्दार्थ व्याख्या

ऐसी लगन लगाइ कहाँ तू जासी ॥ टेक ॥ 

तुम देखे बिन कलि न परति हैतलफि तलफि जिव जासी

तेरे खातिर जोगण हूँगीकरवत लूँगी कासी । 

मीरा के प्रभु गिरधर नागरचरण कँवल की दासी ॥ 49 ॥

 

शब्दार्थ - 

लगन लगाइ = लगन लगा करप्रेम जगा कर। 

जासी = जायेगा। 

कलि= कलचैन। 

तलफि तलफि= तड़प तड़प कर । 

जिव= जीवजीवात्मा 

करवत लूंगी कासी = काशी नगरी में करवट लूंगीआरे से अपना शरीर चिरवा दूँगी।

 

व्याख्या - 

मीरा कहती है कि हे इष्टदेव! तुमने ऐसी प्रेम की लगन लगाई है। अतः अब कहाँ जाओगे। तुम्हारे दर्शन किये बिना मुझे चैन नहीं पड़ता है। तुम्हारे बिना तो यह जीवात्मा तड़प-तड़प कर ही रह जायेगी। जीवात्मा का तो विनाश नहीं होता। शरीर ही नष्ट होता है। मैं तेरे लिये योगिन बन जाऊँगी। अपने इन्द्रिय समूह पर नियंत्रण कर लूँगी और काशी करवट भी ले लूँगी। वहाँ जाकर असह्य कष्ट भी सहने को तैयार रहूंगी। मीरा के प्रभु तो श्रीकृष्ण गिरिधारी हैं। वे चतुर हैं। मीरा तो उनके चरणकमलों की सेविका है। किसी अन्य इष्टदेव की पूजा नहीं करना चाहती।

 

विशिष्ट - 

1 ) करवत लूँगी कासी - काशी में धर्मान्ध लोगों ने ऐसा कुँआ बनवा दिया थाजहाँ धर्म ईश्वर विश्वासी व्यक्तियों को धोखे से ले आते और उसका सब कुछ लेकर उसे नीचे देखने के लिये कहते। व्यक्ति जैसे ही नीचे देखतावह गिर जाता और भूमिगत आरे से चिर जाता और मृत्युलोक पहुंच जाता है। यह है करवट काशी की निर्मम कथा ।

 

(2) चरणकंवल में रूपकालंकार है। चरणों पर कमल का आरोप किया गया है।

 

पिया म्हरि नैणा आगाँ रहज्यो जी शब्दार्थ व्याख्या

पिया म्हरि नैणा आगाँ रहज्यो जी ॥ टेक ॥ 

नैणाँ आगाँ रहज्योंम्हणे भूल गो जान्यो जी 

भौ सागर म्हाँ बूझ्या चाहाँस्याम वेग सुध लीज्यो जी। 

राणा भेज्या विष रो प्यालोथें इमरत बर दीज्यो जी । 

मीरा रे प्रभु गिरधर नागरमिल बिछुड़न मत कीज्यो जी ॥ 50 ॥

 

शब्दार्थ - 

आगा- आगे 

रहज्यो जी = रहिये जी 

जाज्यो जी = जाइए जी 

वेग = शीघ्र 

सुध = खबर। 


व्याख्या 

हे प्रिय ! आप सदा ही मेरी आंखो के सामने रहिए। इसलिये कि मेरे मन में किसी प्रकार का विकार न आने पाएगा। मेरी आँखों के सामने रहिए और मुझे भूल मत जाइए। मैं तो संसार रूपी समुद्र में (मोहादि के कारण ) डूबना चाहती हूं इसलिये मेरी खबर शीघ्र ही लीजिए। ताकि मैं कोई ऐसा कर्म मोहवश न कर दूँजिससे बाद में पछताना पड़े। राजा ने नाराज होने के कारण जहर का प्याला भेजा परन्तु आपने उसे अमृत में बदल दिया। (अथवा उसे अमृत के रूप में परिवर्तित कर दिया) मीरा कहती है कि मेरे गिरिधर नागर प्रभु ! मिल जाने के पश्चात् बिछुड़ जाने की रीति को मत चलाइए। इससे मुझे बेहद कष्ट होगा।

 

विशिष्ट - 

(1) भौ सागर पद में रूपकालंकार है । क्योंकि भव पर सागर का आरोप किया गया है। 

(2) इस पद में संसार के मायाजाल से छुटकारा पाने के लिये भगवान के प्रति भक्ति भावना व्यक्त की गई है और मीरा इष्टदेव से भक्त के संरक्षण के लिए तल्लीनतापूर्वक निवेदन करती है ।

 

 थांणें काँई कांई बोल सुणावा म्हाँरा साँवराँ गिरधारी शब्दार्थ व्याख्या


थांणें काँई कांई बोल सुणावा म्हाँरा साँवराँ गिरधारी ॥ टेक ॥ 

पूरब जणम री प्रीत पुराणीजावा णां गिरधारी । 

सुन्दर बदन जोवतां साजण थारी छबि बलिहारी । 

म्हारे आँगण स्याम पधारोमंगल गावाँ नारी । 

मोती चौक पुरावाँ णेणांतण मण डाएँ वारी । 

चरण सरण री दासी मीराजणम जणम री क्वाँरी ॥ 51

 

शब्दार्थ- 

थाँणे= तुम्हें। 

काँई काँई = क्या-क्या कैसे। 

जोवताँ = देखती हूं। 

डाराँवारी = न्यौछावर कर देती हूं। 

क्वाँरी = कुमारीअविवाहित।

 

व्याख्या- 

तुम्हें क्या-क्या वचन सुनाऊँ क्या कुछ कहूँ। हे सांवले श्रीकृष्ण! तुम ही मेरे प्रिय हो मेरी प्रीति पूर्व जन्म से चली आ रही है। इसे किसी प्रकार भी मत तोड़ देना हे प्रिय ! मैं तुम्हारे सुन्दर मुख को देखती हूं और तुम्हारी मुख- शोभा पर न्यौछावर जाती हूं। हे स्वामी! तुम मेरे आँगन में आओ! नारियाँ (भक्त स्त्रियाँ) तुम्हारे आने पर मंगलमय गान गाएंगी। मैं नयनों के मोतियों (आँखों के आँसुओं से) चौक पूरती हूँ। चौक सजाती हूँ और अपने शरीर और मन को तुझ पर न्यौछावर करती हूं। हे भगवन् ! मीरा तो तुम्हारे चरणों की दासी है। वह तो जन्म जन्मान्तर से अविवाहित है। मीरा ने तो अपने इष्टदेव को छोड़कर किसी सांसारिक पुरुष को अपना पति नहीं माना है।

 

विशिष्ट - 

"मोती चौक पुरावा णेणा" पद्यांश में निरंग रूपक है। इसमें आँखों के आँसुओं में मोतियों का आरोप किया गया है।

 

देखाँ माई हरि मण काठ कियाँ शब्दार्थ व्याख्या


देखाँ माई हरि मण काठ कियाँ ॥ टेक ॥ 

आवण कह गयाँ अजाँ ण आयाकर म्हारे कौल गयाँ । 

खान पान सुध बुध सब बिसऱ्यांकाइ म्हारो प्राण जियां । 

थारो कोल विरुद्ध जग थारोथे काँई बिसर गया । 

मीरा रे प्रभु गिरधर नागरथे विण फटा हियाँ ॥ 52 ॥

 

शब्दार्थ - 

काठ = कठोरलकड़ी जैसा सूखा। 

अजा=आज तक 

कौल= वायदा 

जियाँ = जिएगा। 

बिसर = भुला देना । 

फटा = हियाँ हृदय फट गया हैदुःख की चरम स्थिति ।

 

व्याख्या -

 हे सखी! देखोभगवान ने अपना मन कितना कठोर कर लिया है अथवा लकड़ी की भाँति रूखा-सूखा बना लिया है। आने के लिये (दर्शन देने के लिए) कह गये परन्तु आज तक (अभी तक नहीं आएयद्यपि आने के लिए मुझको वचन दे गए थे उसके न आने के कारण मुझे खान-पान की चिन्ता भी भूल गयी है। मुझे अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए खाने पीने का भी होश नहीं है। ऐसा होने से मेरे प्राण किस प्रकार जीवित रहेंगे।

 

हे इष्टदेव! तुम्हारा वचन ही विरोधात्मक हो गया है इसलिए तुम्हारे वचन के अनुसार सारा संसार ही मेरे विरोध में हो गया है। अतः स्पष्ट बताओ कि तुम मुझे क्यों भूल गये हो। मीरा कहती है कि हे मेरे गिरिधरचतुर स्वामी श्रीकृष्ण ! तुम्हारे बिना मेरा हृदय फट गया हैविदीर्ण हो गया है। वियोग से अत्यन्त पीड़ित हो गया है।

 

विशिष्ट - 

"मण काठ" में सांग रूपकालंकार है। मण पर काठ का आरोप है। इसके अतिरिक्त मन के काठ करने का तात्पर्य रूखा-सूखा अथवा शुष्कहृदयहीन होने से है। कठोर तो अभिधात्मक स्थिति का बोधक है परन्तु मन के काठ करने का तात्पर्य है कि वियोगिनी मीरा की किसी भी प्रार्थना को न सुनने के लिए हृदय को अपने में ही केन्द्रित कर लेना है ताकि किसी अन्य की विनती का प्रभाव ही न पड़े। प्रादेशिक बोलियों के कारण इस पाठ में कई पाठान्तर हो गये हैं। “आवण" शब्द के स्थान पर 'आवनतथा “अजां" के स्थान पर “अजहु" के प्रयोग से पाठान्तर बन गए हैं।


 जोगिया के प्रीत कियाँ दुःख होइ शब्दार्थ व्याख्या

जोगिया के प्रीत कियाँ दुःख होइ ॥ टेक ॥ 

प्रीत कियाँ सुख ना मोरी सजनीजोगी मित न कोइ । 

रात दिवस कल नाहिं परत हैतुम मिलियाँ बिनि मोइ । 

ऐसी सूरत या जग माँही फेरि न देखी सोइ । 

मीरा रे प्रभु कबरे मिलोगेमिलियां आनँद होइ ॥ 53 ॥

 

शब्दार्थ-

प्रीत=प्रीति । 

मित=मित्र । 

कल= चैन। 

फेरि=पुनः । 

कब रे= कब । 

आनँद=आनन्द 


व्याख्या-

हे सखी! योगी से प्रीति (प्रेम) करने पर दुःख होगा ही। सजनी ! प्रीति करने पर सुख नहीं हो सकता क्योंकि योगी किसी का मित्र नहीं होता और हे योगी! तुम से बिना मिले मुझे रात दिन आराम नहीं पड़ता है। चैन नहीं आता है। ऐसी आकृति ( शक्ल ) इस संसार में फिर देखने को नहीं प्राप्त हो सकती। मीरा कहती है कि हे मेरे इष्टदेव प्रभु! अब तुम कब मिलोगे। तुम्हारे मिलने पर ही आनन्द होता है। तुम्हारे वियोग में तो दशा दुःखमयी रहती है।

 

विशिष्ट - 

(1) इस पद में जोगी शब्द ले बहुधा सिद्ध और नाथपंथी योगियों की चर्चा की गई है परन्तु संभावना के अतिरिक्त यह अधिक औचित्यपूर्ण लगता है कि मीरा ने श्रीकृष्ण का "योगी" रूप ही यहाँ माना है। क्योंकि श्रीकृष्ण योगेश्वर और योगीराजयोगीश्वर भी है। गोपी भावना से विरहात्मक स्थिति में मीरा ने इस पद को कहा है। अतः योगीराज का प्रयोग सिद्ध और नाथ सम्प्रदाय की परम्परा में स्वीकार न किया जाएअपितु विशुद्ध भक्ति भाव क्षेत्र में ही उसे लिया जाए।

 

(2) प्रीति करने से सुख न होने की चर्चा मीरा ने की है। लौकिक स्तर पर प्रेम करने वालों को भी अन्य लोगों के बाग बाण सहन करने पड़ते हैं। यही स्थिति प्रारम्भ में उन भक्तों को भी सहन करनी पड़ती है जो संसार त्यागकर भक्त बनते हैं। जनता उन भक्तों पर लांछन लगाती हैउन पर व्यंग्य बाण छोड़ती है और मीरा के नारी होने के कारण उस पर तो अनेक प्रकार के लांछन लगाए गए। अतः दुःख स्वाभाविक है परन्तु भक्ति में रम जाने पर जनता श्रद्धा करने लगती है और तब भक्तजनों को भक्ति काल के समय में इन श्रद्धालु जनों से विघ्न पड़ने से कष्ट होता है। समर्पण के मार्ग पर भी सभी प्रकार के दुःखों को सहन करना पड़ता है। वास्तव में मीरा ने मनोवैज्ञानिक स्तर पर भक्ति मार्ग की यथार्थता को व्यक्त किया है।

 

जोगिया री प्रीतड़ी है दुखड़ा रो मूल शब्दार्थ व्याख्या

जोगिया री प्रीतड़ी है दुखड़ा रो मूल ॥ टेक ॥ 

हिल मिल बात बणावत मीठीपीछे जावत भूल ॥ 

तोड़त जेज करत नहिं सजनीजैसे चमेली के फूल 

मीरा कहै प्रभु तुमरे दरस बिनलगत हिवड़ा में सूल 54 



शब्दार्थ - 

प्रीतड़ी - प्रीतप्रेम 

दुखड़ा = दुःख । 

मूल = कारण 

वणावत = बनाता है। 

पीछे =बाद में। 

जेज=देर । 

दरस = दर्शन। 

हिवड़ा= हृदय 

सूल= शूलकाँटावेदना।

 

व्याख्या- 

हे सखी! योगी से प्रीति लगाना दुःख का कारण हो जाता है। पहले तो हिलमिल कर अत्यन्त प्रेम से बातें बनाता है और बाद में भूल जाता है। हे सखी! यह अपनी प्रीति को तोड़ते हुए ऐसे ही देर नहीं लगाता जैसे कि चमेली के फूल को तोड़ने में देर नहीं लगती। मीरा कहती है कि हे प्रभु प्रियतम ! तुम्हारे दर्शन के बिना हमारे हृदय में कांटे चुभते हैं और वेदना की अनुभूति होती है।

 

विशिष्ट - 

इस पद में दृष्टान्तालंकार का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। “तोड़त जेज करत नहीं सजनी जैसे चमेली के फूल" - इस पद्यांश में कई विद्वान् पद से उपमालंकार कह सकते हैंपरन्तु इसमें दृष्टान्तालंकार है क्योंकि प्रीति का टूटना उपमेय वाक्य के लिए चमेली का फूल उपमान वाक्य बनकर प्रयुक्त है। पुनः चमेली गन्ध-सूक्ष्मता तथा प्रीति की भावसूक्ष्मता का व्यापार भी उपमान उपमेय वाक्य बना कर रखे गये हैं । अतः दृष्टांतालंकार ही औचित्यपूर्ण है। उदाहरणालंकार मानना भी उपयुक्त नहीं है ।

 

कोई दिन याद करोगे रमता राम शब्दार्थ व्याख्या

कोई दिन याद करोगे रमता राम अतीत ॥ टेक ॥ 

आसण माड़ अडिग होय बैठायाही भजन की रीत। 

मैं तो जाणू संग चलेगाछाँड़ि गया अधबीच 

आत न दीसे जात न दीसेजोगी किसका मीत । 

मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर चरणन आवे चीत ॥ 55

 

शब्दार्थ- 

कोई दिन = कभी-कभीकिसी न किसी दिन 

रमता= रमण-शीलएक स्थान पर न टिकने वाला । 

अतीत= निर्लेपमुक्ततीनों गुणों (सत्वरजतप) से परे। 

आसन माड़= आसन लगाकर आसन जमाकर 

अडिग= न डिगने वालास्थिर 

चीत= चित्तसुधयाद

 

व्याख्या -

 हे निर्लिप्तहे त्रिगुणातीत इष्टदेव ! मुझे कभी न कभी अथवा किसी न किसी दिन तो याद कीजिये । आप सब प्राणियों में रमणशील हैं तथा राम होने के कारण आप में सब योगी लोग रमण करते हैंतल्लीन रहते हैं। (राम रमन्ते योगिनोऽस्मिन् इति रामः) आसन लगाकरध्यानावस्थित होकर निश्चल भाव से बैठ गये हैं। क्या यही भजन की रीति है एक अर्थ यह भी हो सकता है कि मैं मीरा आसन लगा कर निश्चल होकर बैठ जाऊँ। क्या यही भक्ति करने की रीति है। मैं (मीरा) तो जानती थी कि प्रीति के अनन्तर जीवन भर साथ चलेगापरन्तु मुझे तो आप आधे मार्ग में ही छोड़ गये हैं। आप ऐसे योगी हैं जो आते-जाते दिखाई नहीं देतेवास्तव में योगी किसका मित्र होता है। किसी का नहीं। मीरा कहती है कि मेरे प्रभु गिरिधर नागर ! मेरा मन आपके चरणों में ही लगा हुआ है।

 

विशिष्ट -

 इद पद पर बहुधा आलोचकों ने नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव माना है परन्तु लगता नहीं क्योंकि श्रीकृष्ण योगीश्वर भी हैं और रामावतार भी राम का अर्थ है जिसमें योगी लोग रमण करते हैंउसे हम राम कहते हैं। भगवान त्रिगुणातीत भी माने जाते हैं। तमोगुण एवं सत्त्वगुण से भगवान अतीत होते हैं। अतः योगीराम एवं अतीत शब्द से नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव नहीं माना जाना चाहिए। 

यह पद थोड़े परिवर्तन के साथ चन्द्रसखी के नाम से भी कहा जाता है। 


जाणा रे मोहणाजाणां थारी प्रीत शब्दार्थ व्याख्या

जाणा रे मोहणाजाणां थारी प्रीत ॥ टेक ॥ 

प्रेम भगति से पैड़ा म्हारोअवरु ण जाणाँ रीत 

इमरत पाइ विषाँ क्यूँ दीज्याँ कूण गांव री रीत । 

मीरा रे प्रभु हरि अविणासीअपणो जणारो भीत ॥ 56 ॥ 


पाठान्तर - 

जाओ निरमोइए रेझीनी थाँरी प्रीत ॥ टेक ॥ 

मीरा कहे प्रभु गिरधर नागरआप गरज के मीत ।

लगन लगी जब और प्रीत छी अब अछु आँवलो रीत । 

अमृत पाय विष क्यूँ दीजै कोण गाँव री रीत ।

 

शब्दार्थ - 

थारी  = तुम्हारी। 

पैंडा = रास्ता। 

रीत रीति=ढंग । 

पाइ= पीकर 

अविनाशी= अमर ।

 

व्याख्या- 

हे मन मोहन! मैंने तुम्हारी प्रीति को भली-भांति समझ लिया है। मेरे जीवन का मार्ग प्रेम और भक्ति भाव से भरा हुआ है। मैं इस मार्ग के अतिरिक्त किसी और को नहीं जाती हूं। मैंने तो दर्शन रूपी अमृत पिया है। अब वियोग का विष क्यों देते हो। यह कौन से स्थान की रीति-विधि है। प्रेम में तो ऐसा नहीं होता। मीरा कहती है कि हे अविनाशी इष्टदेव तुम मुझे अब अपना मित्र समझकर अपना लो।

 

जावादे जावादे जोगी किसका मीत ॥ टेक ॥ 

सदा उदासी रहै मोरि सजनीनिपट अटपटी रीत । 

बोलत बचन मधुर से मानूँजोरत नाहीं प्रीत । 

मैं जानूँ या पार निभैगीछांड़ि चले अधबीच । 

मीरा रे प्रभु स्याम मनोहर प्रेम पियारा मीत ॥ 57 ॥

 

शब्दार्थ - 

जावा दे= जाने दे। 

मीत=मित्र 

उदासि=उदासीननिरपेक्ष। 

मोरी =मेरी 

निपट= बिल्कुल। 

अटपटी = बेढंगी । 

जोरत=जोड़ता। 

पार निभैगी = जीवन के पार तक निभेगीमृत्यु तक निभती रहेगी ।

 

व्याख्या - 

हे सखी! जाने दे। जाने दे! योगी किसका मित्र होता है। इसकी रीति सर्वथा बेढंगी है कि यह अपने प्रीति करने वाले के प्रति भी उदासीन ही रहता है। मैं यह मानती हूं कि यह सदा मीठे-मीठे वचन बोलता हैपरन्तु इसकी विशेषता यह है कि प्रीति किसी से नहीं जोड़ता है। अपितु प्रीति के बारे में सदा उदासीन रहता है। मैं समझती थी कि मेरी प्रीति मृत्यु पर्यन्त चलेगी परन्तु यह योगी तो आधे मार्ग में ही छोड़ चला है। पूरे जीवन की तो बात ही दूर की है। मीरा कहती है कि हे मेरे प्रभु श्याम मनोहर ! तुम ही वास्तव में मेरे प्रिय मित्र होइसलिए मेरा त्याग मत करो। सदा अपनी शरण में रखो।

 

विशिष्ट - 

इस पद की अंतिम पंक्ति में श्री कृष्ण के प्रति अपनी निष्ठा स्पष्ट करने से यह बात संदेह उपजाती है कि "योगी" कोई अन्य व्यक्ति हैजिसके प्रति मीरा अपने भावों को स्पष्ट करती है कि वह योगी तो उदासीन रहता है। परन्तु “योगी” शब्द को नाथ पंथियों से सम्बद्ध नहीं मानना चाहिए।

 

(2) पार निभाना मुहावरा हैइसका प्रयोग लौकिक प्रेम के क्षेत्र में किया जाता है। मीरा ने उसे भक्ति-क्षेत्र में भी इसी लाक्षणिकता से प्रयुक्त किया है।

 

धूतारां जोगी एकरस् हँसि बोलि शब्दार्थ व्याख्या

धूतारां जोगी एकरस् हँसि बोलि ॥ टेक ॥ 

जगत बदीत करी मनमोहनकहा बजावत ढोल । 

अंग भभूति गले मृतछालातू जन गुड़िया खोल । 

सदन सरोज बदन की सोभाऊभी जोऊँ कपोल । 

सेली नाद बभूत न बटवोअजूँ मुनी मुख खोल । 

चढ़ती बैस नैण अणियालेतू घरि धरि कत डोल । 

मीरा रे प्रभु हरि अविनासीचेरी भई बिन मोल ॥ 58 ॥

 

पाठान्तर

 

धूतारा एक बेरिया मुख खोल रे । 

कान कुन्डल गल बीच सैली अब तेरी मुनी मुख खोल रे । 

रास रच्यो वंशी वट यमुनातादिन कीनी कोल रे|| 

पूर्व जन्म की मैं हूं गोपिया अधविच पड गयो झोल रे 

जगत बंदी ते तुम करी मोहन अब क्यों बजावे ढोल रे । 

तेरे कारण सब जग त्याग्यो अब मोहे कर सों लोल रे । 

मीरा के प्रभु गिरधर नागरचेरी भई बिन मोल रे ।

 

शब्दार्थ - 

धूतारा = धूर्तछलीधोखेबाज। 

एकरसूं =एक बार तो 

वदीत = प्रसिद्ध 

वदीत = हठ कर के 

करी=की। 

गुड़िया खोल = रहस्य बता देभेद का पर्दा खोल दे। 

सदन = नवीननयाताजा 

सरोज = कमल 

अभी = खड़ी खड़ी । 

कपोल=गालमुख-मंडल। 

सैली =योगियों की माला अथवा चादर । 

नाद = योगियों के बजाने का बाजासींग । 

वर्भूत= विभूतिभस्मधूनी की राख 

बटवो = योगियों का बटुआ या थैला 

अजू=अब भी 

मुनी=मौनीचुप रहने वाला । 

चढ़ती वैस= जबानी 

अनियाले अनियारेतीखे। 

चेरी = चेलीशिष्या दासीसेविका।

 

व्याख्या - 

हे कपटी योगी! मुझसे एक बार तो बात कर ले। एक दूसरा अर्थ यह है कि हे धूतारा (वाद्य यन्त्र विशेष) लिए रहने वाले योगी। मुझसे एक रस होकर (सर्वथा स्पष्ट एवं निष्कपट होकर) हँसकर बोल ले। हे मन को मोह लेने वाले मोहन ! तुमने संसार में मेरे साथ बढ़-चढ़कर व्यवहार कर दिया है। अथवा मेरे प्रेम को संसार में विदित कर दिया है। अब ढोल बजाने से क्या होता है। एक दूसरा अर्थ यह भी किया जाता है कि मेरी तुम्हारी (मनमोहन श्रीकृष्ण तथा मीरा की ) प्रीति जगत् में प्रसिद्ध हो गई है अतः मीरा कहती हैं कि मैंने भी इस प्रीति को सारे संसार में ज्ञात कर दिया हैछिपा नहीं रखा है। अपने शरीर के अंगों पर भस्मगले में मृगछाला पहन ली हैं अतः तू संसार के सामने प्रेम के रहस्य की बात को बता दे छिपा कर मत रख कमल के समान तुम्हारा शरीर एवं मुख की शोभा को मैं खड़ी खड़ी देखती हूं। दूसरा अर्थ यह भी किया गया है कि नवीन सद्यविकसित कमल के समान सुन्दर तुम्हारे मुख की शोभा को मैं प्रतीक्षा में खड़ी खड़ी देखती हूं। तुम्हारे कपोलों को भी मैं खड़ी खड़ी देखती हूं। मेरे पास योगियों जैसी चादरबाघ- सींगभस्म तथा शैला भी नहीं है। हे मौनी! तू अब भी मुख खोल कर वार्तालाप कर तुम्हारी जवानी चढ़ रही है। आँखें तीक्ष्ण हैं। अतः तू घर-घर मत जा मीरा कहती है कि मेरे स्वामी तो अविनाशी भगवान हैं। मैं तो उनकी बिना मोल की सेविकाशिष्या एवं दासी हूं।

 

विशिष्ट - 

इस पद में "योगी" का जो रूप चित्रण है। उससे लगता है कि उस काल में जवान योगी जनता को जल देने के लिए घूमते थे। मीरा ने उन्हें देखा था इसलिये ऐसे योगियों को घर-घर घूमने से मना करती है। और सामाजिक स्थिति का संरक्षण करती है। इसके साथ ही अपनी भक्ति भावना की श्री कृष्ण के प्रति दृढ़ता का भी ज्ञापन कर देती है। इस तरह मीरा ने तत्कालीन जंत्र पंथियों के बाह्य आडम्बरमय रूप का विरोध किया है और अपने निर्विकारात्मक योगीश्वर का समर्थन किया है। कृष्ण भक्त होने के कारण मीरा ने "अविनासी" शब्द का प्रयोग किया है। “हरि शब्द" भगवान विष्णु का अवतार होने के कारण श्रीकृष्ण के लिए प्रयुक्त किया गया है। इस पद में “बिन मोल चेरी होना" मुहावरा भावना बोधक ढंग से प्रयुक्त है।

 

रमईया मेरे तो ही लागी नेह शब्दार्थ व्याख्या

रमईया मेरे तो ही लागी नेह 

लगी प्रीति जिन तोडै रे बालाअधिकौ कीजै नेह ॥ टेक ॥ 

जै हूँ ऐसी जानती रे बालाँप्रीति कीयाँ दुष होय 

नगर ढंढोरा फेरती रेप्रीत करो मत कोय ॥ 

शीर न बाजे आरी रेमूरण न कीजै मिंत । 

षिण ताता षिण सीतला रेषिण बैरी षिण मिंत॥ 

प्रीत करै ते बावरा रेकरि तोड़े ते कूर 

प्रीत निभावण दल के षंभणते कोई बिरला सूर। 

तुम गजगीरी को चूँतरी रेहम बालू की भीत। 

अब तो भ्यां कैसे वर्णे रेपूरब जनम की प्रीत । 

एकै थाणे रोपिया रेइक आँवो इक बूल। 

वाको रस नीको लगे रेवाकी भाग सूल ॥ 

ज्यूँ डूगर का वाहला रेयूँ ओछा तणा संनेह । 

बहता वहै जी उतावला रेवे तो लटक बतावे छेह ॥ 

आयो साँवण भादवा रेबोलण सगा मोर । 

मीरा कूँ हरिजन मिल्या रेले गया पवन झकोर 59

 

शब्दार्थ - 

रमईया = रामपति 

नेह=प्रेमप्रीति 

बाला = प्रियतम। 

अकरी (आरी) = अत्युष्णबहुत गर्मषिण-क्षण 

बावरा = पागल 

क्रूर=क्रूरबुरानीच

षंभण = थामना। 

सूर=सूरमा 

गजगीरी विशेष नामगच किया हुआ चबूतरासुदृढ़ चबूतरा। 

बालू = रेत । 

भीत = दीवार 

थाणे = स्थानजगह में 

आँवो =आम 

वूल= बबूल का पेड़। 

भागे= भाग्य में। 

सूल= काँटा 

बाहला=स्रोतबहने वाला झरना। 

ओछा तणा= ओछे व्यक्तिनीच मनुष्य । 

तण = का 

उतावला = उमड़कर 

छह= तोड़ देता हैनष्ट कर देता हैमनुष्य विनाश कर लेता है।

 

व्याख्या- 

हे रमैया! हे मेरे इष्टदेव ! हे रमणीय श्याम ! मेरी तो तुझ से ही प्रीति लगी हुई है प्रियतम! अब इस लगी हुई प्रीति को मत तोड़िये अपितु मुझ से और अधिक प्रेम कीजिए। हे प्रिय ! यदि मैं यह तथ्य जानती कि प्रीति 'तुमसेभगवान से भी करने पर दुःख होता है तो मैं नगर भर में ढिंढोरा फेर देती कि कोई भी किसी से प्रीति मत करना। तात्पर्य यह कि सब स्थानों पर यह प्रसिद्धि हो जाती कि प्रीति (भगवत् प्रीति) भी दुःखदायक है। है प्रियतम! दूध बहुत गर्म होतब भी नहीं पीना चाहिए। न ही मूर्ख व्यक्ति से मित्रता करनी चाहिए। जैसे दूध क्षण भर में गर्म हो जाता है और क्षण भर में शीतल हो जाता है। इसी भाँति मूर्ख व्यक्ति भी क्षण भर में क्रोधवश शत्रु बन जाता है। और क्रोध उतरते ही मित्र बन जाता है। प्रीति करने वाले को लोक में पागल कहते है। (लौकिक और अलौकिक दोनों स्तर पर यही स्थिति हैं) और जो प्रीति करने के पश्चात् उसे तोड़ देता है। उस प्रीति को नहीं निभाता है। उसे संसार में लोग नीचकृतघ्न अथवा विश्वासघाती कहते हैं। प्रीति करने के पश्चात् उसको निभाने वालाविघ्नों को नष्ट कर के चलने वाला। ('दिल के भणपाठ माना जाए तो अर्थ होगा कि दिल को थाम कर चलने वालाधैर्यशाली व्यक्ति) कोई अनोखा ही शूर होता है। (भक्ति क्षेत्र का सूरमाजो संसार के लोगों के व्यंग्य बाणों को सहन कर लेवे) हे प्रियतम! तुम तो पक्का बना हुआ चबूतरा हो अथवा गजगिरि स्थान (पर्वत विशेष के पत्थरों से) के शिलाखण्डों से बने चबूतरे की भाँति हो और मैं रेत की दीवार की भाँति हूँ। जो स्थायी नहींगिर पड़ने वाली है। तब भी मेरी ओर तुम्हारी प्रीति ( पूर्वजन्म जन्मान्तर की है) पूर्व जन्म से चली आ रही है। अब इसे कैसे भी बना रहना चाहिए। टूटना नहीं चाहिए। इसे न टूटने देने का श्रेय एक मात्र तुम्हें ही प्राप्त हो सकता है। संसार में एक ही स्थान पर आम का पौधा और कीकर का पेड़ लगाया जाए तो विधि का विधान यह होता है कि आम का रस अच्छा 'मधुरलगता है। सब को भाता है। प्रिय लगता है और उस कीकर के भाग्य के काँटे आते हैं। जो सब को चुभते हैं। इसी प्रकार संसार के प्राणियों में कुछ को भगवद् भक्ति का मधुर रस प्राप्त होता है और कुछ को मोहमद-क्रोधादि के कारण कांटों के चुभने के समान पीड़ा ही उपलब्ध होती है। नीच मनुष्यों की प्रीति छोटी-छोटी पहाड़ियों से गिरने वाले पानी के स्रोत की भांति स्थिर नहीं होतीवह पानी का स्रोत बड़ी तीव्रता से बहता है परन्तु शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। इसी भाँति ओछे व्यक्ति का प्रेम भी बड़े उत्साह से आरम्भ होता है और शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। सावन और भादों मास का समय आ गया है और वर्षा हो रही है। मोर कूकने लगे हैं। मीरा को सावन ऋतु की भाँति शीतलता देने वाले भगवद् भक्त मिले हैं। भक्तजनों के मिलने से शीतलता मिली है। परन्तु यह शीतलता हवा के झोंके के समान हैं जैसे झोंका आता और चला जाता है। उसी भांति सत्संगति भी स्थायी नहीं रहती। स्थायी शीतलता तो अपनी भगवत्प्रीति से ही प्राप्त हो सकती है।

 

विशिष्ट - 

(1) इस पद में मीरा ने भगवत् प्रेम के मार्ग की कठिनाइयों का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है। अपने प्रियतम के कठोरदयामयलहरी -स्थिररसिक। शुष्क होने का अपना मनोगत चित्र - चित्रित किया है। साथ ही अपने अटूट प्रेम का परिचय भी दिया है।

 

(2) पीर न पाजे आकरी रे.....पद में प्रतिवस्तूपमा का उदाहरण सुन्दर बना है। कुछ विद्वान् इसमें निदर्शनालंकार की छटा देखते हैं। उसके अनुसार दूध और मूर्ख की क्रियाएँ परिणाम भिन्न होने पर भी मूलतः दोनों में हानि रूप समान धर्म हैं अतः निदर्शनालंकार है।

 

(3) दृष्टांत अलंकार की छटा दर्शनीय है। गजगीरी को चूँतरौ रे बालू की भीतज्यों डूगर का बाहला रे यूँ ओछा तणा सनेह बतावे छेह आदि पदों में दृष्टांतालंकार सुन्दर बन पड़ा है।

 

गिरधर रीसाणा कौन शब्दार्थ व्याख्या

गिरधर रीसाणा कौन गुणाँ ॥ टेक ॥ 

कछुक आँगुण हम पै काढ़ोंमैं भी कान सुणाँ ॥ 

मैं तो दासी थारी जनम जनम की थे साहब सुगुणा 

मीरा कहे प्रभु गिरधर नागरथारोई नाम भणा ॥ 60 

शब्दार्थ - 

रीसाणा = अप्रसन्न हुआनाराज हुआ। 

कौन गुणा = किस कारण से 

कान सुणा - कानों से सुनूँजानूँ । 

साहब = स्वामी । 

सुगुणा = गुण शाली 

थारोई = तुम्हारा ही 

भणा = कहती हूंलेती हूंजपती हूं।

 

व्याख्या 

हे गिरिधर! हे श्रीकृष्ण तुम किस कारण से मुझसे नाराज हो। कुछ दोष हममें भी बताओनिकालो अथवा सिद्ध करो। उन दोषों को मैं भी अपने कानों से सुनूँ। मैं तो तुम्हारी जन्म जन्मान्तर से सेविका हूं। और मेरे स्वामी तुम तो बहुत गुणी और श्रेष्ठ हो। मीरा कहती है कि है चतुर गिरिधर! मैं तो केवल तुम्हारा ही नाम लेती हूं । तुम्हारे अतिरिक्त किसी अन्य देव का ध्यान नहीं करती।

 

विशिष्ट-इस पद में मीरा की भक्ति भावना की दृढ़ता के साक्षात् दर्शन होते हैं। आत्म दृढ़ता के कारण मीरा कहती है कि वह अपने दोषों को कानों से सुनने के लिए प्रस्तुत है ताकि दोषों को सुन कर उन्हें दूर कर सके। परन्तु भीतरी भाव यह है कि दोष आएंगे कहाँ से मीरा तो जन्म जन्मान्तर से भगवन्नाम लेती आ रही हैअतः दोषों के लिए अवकाश कहाँ। इस दृष्टि से मीरा की भक्तिभावना की सुदृढ़ता यहाँ प्रकट है।

 

म्हारे डेरे आज्यो जी महाराज शब्दार्थ व्याख्या

म्हारे डेरे आज्यो जी महाराज। 

चुणि चुणि कलियाँ सेज बिछायी नख सिख पहस्यो साज ॥ 

जनम जनम की दासी तेरी तुम मेरे सिरताज । 

मीरा के प्रभु हरि विनासी दरसन दीज्यौ आज 61 ॥

 

शब्दार्थ- 

म्हारे = हमारे 

डेरे = स्थान परनिवास स्थान पर 

चुणि चुणि=  चुन-चुनकर 

सेज = शय्या

नखसिख = पांव के नाखूनों से लेकर सिर की शिखा (चोटी) तकसारे शरीर पर 

सिरताज =  सिर के ताजसिर की शोभा । 

व्याख्या

हे महाराज (राजाओं के राजा) श्री कृष्ण! आप मेरे डेरे पर आइए। मेरे निवास स्थान पर आ कर मुझे दर्शन दीजिए। आप के विराजने के लिए कलियों को चुन-चुन कर शय्या बनाई है और आप को रिझाने के लिए आप के अनुकूल ही मैंने सारे शरीर में शृंगार किया है। गोपी भाव से प्रिय के अनुकूल अपने आप को सजाया है। (तुम) आप मेरे सिरताज हैं। मैं तुम्हारी जन्म जन्मान्तर की दासी हूं। हे प्रभु आप तो सब पीड़ा हरने वाले अविनाशी हैं। इस लिये मुझे दर्शन दीजिए।

 

विशिष्ट - इस पद में मीरा का विनय भाव प्रस्तुत है। वह अपने इस देव को महाराज और सिरताज से कम समझने वाली नहीं है। उसके अन्तः करण में भगवन् की सर्वोत्तम आकृति अपना स्थान बनाए हुए है।

 हरि थें हरया जण की भीर शब्दार्थ व्याख्या 

हरि थें हरया जण की भीर ॥टेक॥

द्रोपता री  लाज राख्याँ थे बढ़ायाँ चीर ॥

 भगत कारण रूप नरहरिधर्यों आप सरीर ।

 बूढ़ता कारण गजराज लाज राख्याँकटवाँ कुँजर भीर 

दासि मीरा लाल गिरधरहरौं कटवाँ म्हारी भीर ॥62 ॥

 

पाठान्तर

हरि तुम हरो जन की भीर ॥ टेक ॥

द्रोपदी की लाज राखी तुम बढ़ायो चीर 

भक्त कारन रूप नरहरि धरयाँ आप शरीर ॥ 

हिरन कश्यप मारि लीन्होंधरयौ नाहिन धीर ॥

 बूड़त गजराज राख्यौकियों बाहर नीर ॥ 

दासी मीरा लाल गिरधरचरण कँवल पे सीर ॥

 

शब्दार्थ 

हऱ्या = दूर की। 

जण की = जन की अपने भक्त की। 

भीर=पीड़ाकष्टदुःख 

लाज = लज्जा ची

र= वस्त्र

नरहरि= मनुष्य और सिंह का रूपनृसिंह रूप । 

बूड़ता = डूबता हुआ। 

कुंजर =  गजराज

हराँ =  दूर कीजिए। 

व्याख्या

हे भगवन् ! तुमने अपने भक्तों की पीड़ा को सदा दूर किया है। तुमने चीरों को बढ़ा कर द्रोपदी की लज्जा को बचाया है और प्रहलाद के कष्ट दूर करने के लिये नृसिंह का अवतार (शरीर धारण) धारण किया है। प्रह्लाद को बचा लिया तथा हिरण्यकश्यप (प्रहलाद के पिता) को नष्ट किया। गजराज को डूबते हुए देख कर तुमने ही उसका उद्धार कियाउसे बचाया। हाथी की पीड़ा को नष्ट किया और उसे बचा लिया। मीरा कहती है कि है गिरिधर श्रीकृष्ण! मेरी पीड़ा को भी दूर कीजिए। मेरे कष्ट का निवारण भी कीजिए। मैं तुम्हारी दासी हूं। अतः कष्टों को दूर कीजिए।

 

विशिष्ट

इस पद में मीरा ने इतिहास को देखा है और भारतीय इतिहास में द्रोपदी और प्रह्लाद की चर्चा है। इन दोनों भक्तों की रक्षा भगवान ने की हैं। यह इतिहास प्रसिद्ध है। गजराज की रक्षा की कथा भी ज्ञात है। इन भक्तों के उदाहरणों से मीरा ने अपनी रक्षा के लिए भी प्रार्थना की है।

अब तो निभायाँबाहँ गह्याँ री लाज शब्दार्थ व्याख्या

 

अब तो निभायाँबाहँ गह्याँ री लाज ॥ टेक ॥ 

असरण सरण कहाँ गिरधारीपतित उधारत पाज। 

भोसागर मझधार अधाराँ थें विण घणो अकाज । 

जुग जुग भीर हरौँ भगताँरी दीश्याँ मोच्छ नेवाज ॥ 

मीरा सरण गहाँ चरणों रीलाज रखाँ महाराज ॥ 63 ॥

 

पाठान्तर

 

अब तो निभाया सरेगी। बाँह गहे की लाज । 

समरथ सरन तुम्हारी सइयाँसरब सुधारण काज ॥ 

भवसागर संसार अपरबलजामें तुम हो जहाज । 

निरधारों आधार जगत गुरुतुम बिन होय अकाज ॥ 

जुग-जुग भीर हरि भक्त कीदीनी मोक्ष समाज । 

मीरा सरण गही चरणन कीलाज रखो महाराज ॥

 

शब्दार्थ 

निभायाँ = निभा दीजिएअपना वचन पूरा कर दीजिए। 

गहयां पकड़ने की 

पाज प्रतिज्ञा । 

अधारा निराधारबिना आधार के 

अकाज = हानि 

दीश्यां दीजिए। 

नेवाज = कृपालु

व्याख्या

हे भगवान! अब तो आप मेरी बाँह पकड़ने की लाज निभा लीजिए। मुझे अपना लेने की मर्यादा का पालन कीजिए। हे गिरिधारी! तुम अशरणोंनिराश्रितों को शरण देने वाले हो और पापियोंपतितों का उद्धार करना तुम्हारी प्रतिज्ञा है मैं संसार रूपी सागर के बीच में निराधार निराश्रित पड़ी हुई हूँ। तुम्हारे द्वारा उद्धार किए बिना बहुत हानि होगी। हे भगवन् तुमने युग-युग में अपने भक्तों के कष्टों को दूर किया है। इस लिए कृपालु होने के कारण मुझे मोक्ष दीजिए। हे महाराज। मीरा ने आपके चरणों की शरण ग्रहण की है इसलिए इस बात की ( मर्यादा) रखिए कि आपकी शरण में आने वाले भक्त की रक्षा हो। उसे कष्ट न पहुंचे।

 

विशिष्ट 

1 ) इस पद में मीरा की विनय सहित शरणागत् प्रपत्ति भक्ति का परिचय मिलता है। वह निराधार होने के कारण भगवान के चरणों में आ गई है। अतः अब भगवान उसके रक्षक हैं। 

(2) भो सागर में (भव रूपी सागर) में रूपक अलंकार की व्यापक छटा है। सागर में अनन्त जीव एवं पदार्थ है संसार में भी ऐसी ही स्थिति है।

 

हरि बिन कुण गति मेरी ॥ टेक 

तुम मेरे प्रतिपाल कहियेमैं रावरी चेरी। 

आदि अन्त निज नाँव तेरोहीया में फेरी । 

बेरि बेरि पुकारि कहूँप्रभु आरति है तेरी

यो संसार विकार सागरबीच में घेरी । 

नाव फाटी प्रभु पाल बाँधो बूड़त है बेरी । 

विरहणि पिव की बाट जोवै राखियाँ नेरी 

दासि मीरा राम रटत हैसरण हूँ तेरी ॥ 64

 

शब्दार्थ

कूण गति = कौन सी दशा 

प्रतिपाल= रक्षक 

रावरी = तुम्हारी 

चेरी= सेविकाचेली 

आदि अन्त = आरम्भ से लेकर अन्त तक 

नाव = नाम 

हीया में फेरी =  हृदय में नाम फेरती रहती हूं। हृदय में नाम लेती रहती हूं। 

बेरि-बेरि= बार-बारजल्दी-जल्दी 

आरति = आरती उतारनाउत्कट चाह अथवा आर्त्त भक्त की पुकार 

विकार = दोष 

घेरी = घिर गई हूं। 

पाल बाँधो = पाल तानोपाल चढ़ाओ। 

बेरी = बेड़ीनौका। 

पिव की =  प्रिय की 

बाट जोवै = रास्ता देखती है। 

नेरी =  निकट

 

व्याख्या 

हे भगवन् तुम्हारे बिना मेरी गति कहाँ हैंतुम ही मेरे रक्षक हो मैं तुम्हारी सेविका हूं। शिष्या हूं। मैं आदि से अन्त तक जन्म से मृत्यु तक तुम्हारा ही अपना नाम रह जाता है। इसलिये मैं अपने हृदय में तुम्हारे ही नाम को जपती रहती हूं बार-बार पुकार कर कहती हूँ कि भगवन् मैं तुम्हारी आरती करती हूँ। अथवा आर्त (दुःखी) भक्त की भाँति बार-बार प्रार्थना करती हूँ। यह संसार दोषों से भरा हुआ समुद्र है मैं इसके बीच में घिर गई हूँ। मेरी जीवन नौका टूट-फूट गई है। इसलिये तुम मेरे उद्धार के लिये पाल को बाँध दो सहारा दे दो। मेरी जीवन- नौका डूब रही है। मैं तो वियोगिनी हूँ। इसलिये प्रिय का (तुम्हारा ) मार्ग देखती रहती हूँ। इस लिए तुम मुझे अपने निकट रख लो। हे भगवन्! मीरा तुम्हारी दासी है। मैं तुम्हारा नाम लेती रहती हूँ। मैं (मीरा) तुम्हारी शरणागत हूँ

 

विशिष्ट  

शरणागत भक्त का निवेदन इस पद में है। 

भक्ति भाव के आर्त्त भेद का रूप भी इस पद में दृष्टिगत होता है।

 

नोट  (1) यौ संसार विकार सागर - में रूपकालंकार की छटा है।


प्रभु जी थें कहाँ गया नेहड़ा लगाय शब्दार्थ व्याख्या 

 

प्रभु जी थें कहाँ गया नेहड़ा लगाय ॥ टेक ॥ 

छोड्या म्हां विस्वास संगातीप्रेमी बाती जलाय । 

बिरह समंद में छोड़ गया छोनेह री नाव चलाय। 

मीरा रे प्रभु कबरे मिलोगे थे विण रह्याँ णा जाय ॥65

 पाठान्तर

प्रभु जी थे कहाँ गयो नेहड़ा लगाय । टेक ।

छोड़ गया अब कौन बिसासीप्रेम की बाती जलाय ॥

बिरह समन्द में छोड़ गया छोनेह की नाव चलाय ।

मीरा के प्रभु कबरे मिलोगेतुम बिन रह्यो न जाय।।

 

शब्दार्थ  

नेहड़ा = नेहप्रेम 

संगाती =  साथी 

बाती जलाय =  बत्ती को जला कर 

समँद= समुद्र । 

रह्याँ = रहा। 

व्याख्या 

हे भगवन् ! तुम प्रीति लगाने के बाद कहाँ चले गये। तुम मेरे विश्वास के साथी थेतुमने मुझे क्यों छोड़ दिया। प्रेम की बत्ती जला कर तुम कहाँ चले गये। अथवा ( संगाती) शब्द के स्थान पर 'संघातीशब्द रख लिया जाए। तब यह अर्थ होगा कि मेरे अन्तःकरण में प्रेम की आभा जला कर तुम विश्वासघात करके मुझे छोड़ गये। प्रेम की नौका चला कर तत्पश्चात् मुझे वियोग के समुद्र मे छोड़ गये हो। मीरा कहती है कि मेरे प्रभु तुम मुझे कब मिलोगे। तुम्हारे बिना मुझ से रहा नहीं जाता।

 

विशिष्ट - 

(1) इस पद में आत्मनिवेदनात्मक भक्ति का उज्ज्वल रूप है। मीरा अपने प्रेम और तज्जनित विरह के सम्बन्ध में अपना हृदयगत भाव स्पष्टतः कहती है।

(2) 'विरह समंदमें रूपकालंकार की शोभा है। विरह सागर की भाँति अथाह एवं गम्भीर होता है। 'प्रेम री बातीएवं 'नेह री नावपद्यांशों में रूपकालंकार नहीं मानना चाहिये। 'प्रेमबातीतथा 'नेहनावप्रयोग होता तो रूपकालंकार बनता। 'रीशब्द से काकेकी ( सम्बन्ध कारक) का बोध हो जाता है। अतः रूपकालंकार नहीं बन सकता।

 

डारि गयो मनमोहन पासी शब्दार्थ व्याख्या 

 

डारि गयो मनमोहन पासी ॥ टेक ॥

आँबाँ की डालि कोइल इक बोलैमेरो मरण अरु जग केरी हाँसी । 

बिरह की मारी मैं बन बन डोलूँप्राण तजूँ करवत ल्यूँ कासी ।

मीरा के प्रभु हरि अविनासीतुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी  66 

 

शब्दार्थ

डारि गयो डाल गया। 

पासी फाँसीफन्दा 

आँबा=आम 

जग केरी = संसार की। 

हाँसी =हँसी । 

करवत ल्यूँ कासी=करवट लूंगी काशी में ,आरे से चिरना। 

अविनासी- जिसका विनाश न हो।

 

व्याख्या 

मीरा कहती है कि मन को मोहने वाला श्रीकृष्ण मेरे गले में प्रेम की फाँसी डाल गया है। आम की - डाल पर बैठी हुई एक कोयल बोलती है। उसकी मधुर ध्वनि सुन कर मैं तो वियोग में मरी जाती हूँ और संसार के लिये यह हँसी का विषय बन गया है। प्रेम के वियोग में पीड़ित में तो वन-वन में घूमती फिरती हूँ। प्राण छोड़ने को तत्पर हूँ। काशी करवट लेने को भी तैयार हूँ। मीरा कहती है कि मेरे प्रभु भगवानअविनाशी हैं इसलिये हे प्रभु! तुम मेरे ठाकुर (स्वामी) हो और मैं तुम्हारी सेविका हूँ। इसलिये अपनी शरण में मुझे ले लो।

 

विशिष्ट - 

(1) कोयल की मधुर ध्वनि के कारण मीरा के अन्तःकरण का भगवत् प्रेम के कारण पीड़ित होना वरिह का अलौकिकीकरण है। लौकिक उपकरणों के द्वारा अलौकिक प्रेम के विरह का रूप यहाँ प्रस्तुत किया गया है। 

(2) इस पद में असंगति अलंकार है। क्योंकि आम की डाली पर कोयल बोलती है और मरण का प्रभाव मीरा पर होता है। कारण कोयल डाली पर है और कार्य मीरा का हृदय अन्य स्थान पर कारण कार्य के भिन्न देश में होने से असंगति अलंकार की संगति यहाँ है।

 

समानान्तर भाव - सूरदास -

 नेह लगाय त्यागि गये तृन सम,

 डारि गये गल फाँसी 

माई म्हाँरी हॉरी हरिहू न बूझयाँ बात॥ टेक ॥

पंड माँसूँ प्राण पापीनिकसि क्यूँ णा जात

पटा णा खोल्या मुखां णा बोल्याँसाँझ भयाँ परभात

अबोलणाँ जुग बीतण लागो कायाँरी कुसलात 

सावण आवण हरि आवण रीसुण्या म्हाणे बात 

घोर रैणाँ बीजु चमकाँ बार गिणतां प्रभात 

मीरा दासी स्याम राती ललक जीवणां जात 67


 

पाठान्तर

  माई म्हारी हरिजी न बूझी बात।

पिण्ड माँ सूँ प्राण पापी निकस क्यूँ नहीं जात । 

पट न खोल्या मुखाँ न बोल्यासाँझ भई परभात । 

अबोलणा जुग बीतण लागोतो काहे की कुसलात । 

सुपन में हरि दरस दीन्हों गैण जाप्युं हरि जात । 

नैण म्हारा उघड़ आया रही मन पछतात । 

रैण अंधेरी विरह घेरीतारा गिणति निस जात। 

ले कटारी कंठ चीखें करूँगी अपघात । 

आवण आवण होय रह्यो रे नहिं आवण की बात । 

मीरा व्याकुल विरहणी रे बाल ज्यूँ बिललात ॥

 

शब्दार्थ

बूझ्याँ बात =बात न बूझीपूछा या समझा। 

पंड पिण्डशरीर 

माँसू=में से । 

निकसि=निकल । 

पटा= कपड़ापरदाघूँघट 

साँझ = सन्ध्या 

भया हो गया। 

प्रभात=सवेरा 

अबोलणाँ बिना बोले । 

जुग युगलम्बा समय। 

कायाँ री= कैसी। 

कुसलात = कुशलता। 

आवण आना। 

रैण=रात 

बीजु=बिजली 

बार गिनता दिन गिनते-गिनते । समय गिनते-गिनते । 

राती अनुरक्त हुई। 

ललक =ललकते हुएचाह में 

जात=जा रहा है।

 

व्याख्या 

हे सखी! हरि ने हमारी बात भी नहीं पूछी। हमसे किसी प्रकार की बातचीत नहीं की। मेरे इस शरीर से यह पापी प्राण क्यों नहीं निकल जाते। मैंने अपना पर्दा भी नहीं उठाया और मुख से भी कुछ नहीं बोला। संध्या से लेकर समय बीतते प्रातः काल हो गया। बिना बोले ही युग (लम्बा समय बीतने लगा। कुशलता कैसीकुशलता किस प्रकार हो सकती है। हरि ने सावन मास में आने के लिये कहा था। हमने यह बात सुनी थी। रात्रि भयंकर अन्धकार से भी हुई है बिजली चमकती है। समय गिनते-गिनते दिन चढ़ता है। मीरा कहती है कि मैं तो श्रीकृष्ण की दासी हूँ। मेरा जीवन ललकते-ललकते ही बीता जा रहा है। दर्शन की चाह में ही बीत रहा है।

 

विशिष्ट

विरह की दशा का चित्र इस पद में दिया गया है। प्रकृति का उद्दीपन रूप भी इस पद में विद्यमान है। 


परम सनेही राम की नीति ओलूरी आये शब्दार्थ व्याख्या 

परम सनेही राम की नीति ओलूरी आये ॥ टेक ॥ 

राम हमारे हम हैं राम केहरि बिन कछू न सुहावै 

आवण कह गये अजहूँ न आए जिवड़ो अति उकलावै । 

तुम दरसण की आम रमैयाकब हरि दरस दिखावै । 

चरणकंवल की लगन लगी नितबिन दरसणु दुख पावै। 

मीरा कूँ प्रभु दरसण दीज्योआनँद बरण्युं न जावै ॥ 68 ॥