जायसी की लेखन कुशलता काव्य-कौशल | जायसी की काव्यगत विशेषताएँ (भावपक्ष एवं कलापक्ष) | Jayasi Ki Lekhan Kushalta

Admin
0

जायसी की लेखन कुशलता काव्य-कौशल

जायसी की लेखन कुशलता काव्य-कौशल | जायसी की काव्यगत विशेषताएँ (भावपक्ष एवं कलापक्ष) | Jayasi Ki Lekhan Kushalta

 

मलिक मोहम्मद जायसी जीवन परिचय 

 

जायसी का पूरा नाम मलिक मोहम्मद जायसी था। उनका जन्म 1492 ई. में राय बरेली जिले के जायस नगर (उ.प्र.) में हुआ था। वह एक सूफी कवि थे। वे अमेठी के राजा के आग्रह पर अमेठी चले आए थे। इनकी चार रचनाएँ प्राप्त होती हैं- पद्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, चित्रलेखा ।

 

'पद्मावत' महाकाव्य जायसी की प्रसिद्धि का आधार है। इसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के मिलन का वर्णन है। जायसी सूफी कवि थे। हिन्दी की प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा में उनका शीर्ष स्थान हैं। उनका पद्मावत हिन्दी साहित्य की एक मूल्यवान कृति है। यह एक प्रबन्ध-काव्य है ।

 

जायसी का काव्य- कौशल 

मलिक मुहम्मद जायसी को प्रेममार्गी निर्गुण-भक्ति शाखा के कवियों में प्रतिनिधि कवि माना जाता है। अब तक जायसी द्वारा रचित 'पद्मावत', 'आखिरी कलाम, चित्र रेखा', 'कराहनामा', 'मसलानामा' आदि रचनाएँ प्राप्त हुई । इन ग्रन्थों में पद्मावत' सर्वोत्कृष्ट रचना है। वास्तविकता यह है कि जायसी की काव्य प्रतिभा का विकसित रूप 'पद्मावत' में ही मिलता है।

 

जायसी निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और जिसकी प्राप्ति के लिए 'प्रेम' की ईश्वर से वियोग की तीव्र प्रेमानुभूति ही भक्त को साधना पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करती है। यह भक्ति भावना 'पद्मावत' में प्रभावशाली रूप से व्यक्त हुई है। जायसी का विरह-वर्णन और विरह भावना की अनुभूति अत्यन्त मर्मस्पर्शी है। यदि यह कहा जाए कि सौन्दर्य एवं विरह की अभिव्यक्ति में जायसी हिन्दी काव्य-जगत के सर्वाधिक प्रतिभाशाली कवि थे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जायसी एक रहस्यवादी कवि थे। इन्होंने 'पद्मावत' में स्थूल पात्रों के माध्यम से सूक्ष्म दार्शनिक भावनाओं को अभिव्यक्ति दी है। इसमें ईश्वर एवं जीव के पारस्परिक प्रेम की अभिव्यंजना दाम्पत्य भाव से की गई है।

 

जायसी की प्रबन्ध-पटुता - 

आचार्य वामन ने काव्य के दो भेद बताए हैं। अनिबद्ध काव्य और निबद्ध काव्य । इनमें से प्रथम मुक्तक काव्य और दूसरे को प्रबन्ध-काव्य कहा गया। 

अनिबद्धमुक्तक निबद्ध प्रबन्ध रूपमिति प्रसिद्ध आचार्य शुक्ल ने प्रबन्ध काव्य के रूप पर विचार करते हुए स्वीकार किया कि - "यदि प्रबन्ध काव्य एक वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता ।" प्रबन्ध काव्य की विशेषताओं का उल्लेख आनन्दवर्धनाचार्य ने इस प्रकार किया

 

1. ऐतिहासिक या कल्पित कथावस्तु । 

2. प्रासंगिक कथाओं की योजना । 

3. नाटकीय सन्धियों की योजना ।

4. रसात्मक वर्णनों की प्रधानता ।

5. अलंकारों की रसानुरूप योजना ।

 

आचार्य शुक्ल ने जायसी ग्रंथावली की भूमिका में प्रबन्ध काव्य के लिए दो ही आवश्यक तत्व माने हैं (1) इतिवृत्तात्मकता, (2) रसात्मकता ।

 

जायसी कृत पद्मावत एक सफल प्रबन्ध काव्य है, इसमें कोई संदेह नहीं। आचार्य शुक्ल ने स्वयं उसे 'प्रबन्ध काव्य' कहा है और डॉ. शंभुनाथ सिंह ने उसे 'रोमांचक महाकाव्य' की संज्ञा दी है। यहाँ हम जायसी की प्रबन्ध पटुता पर विचार करेंगे।

 

1. कथानक - 

इसकी कथा मिश्रित है। आचार्य शुक्ल के अनुसार पूर्वार्द्ध तो बिल्कुल कहानी है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक आधार पर है पर इसमें एक सुसम्बद्ध कथा राजा रत्नसेन और पद्मावती के विरह-मिलन की है। इसकी कथा सानुबन्ध है क्योंकि आदि, मध्य और अवसान शृंखलाबद्ध एवं सुसम्बद्ध हैं और कथा प्रवाह आद्यांत प्रवाह के साथ चला है। अतः ऐतिहासिक और कल्पित कथा का सुसम्बद्ध निर्वाह बराबर हुआ है।

 

2. प्रासंगिक कथाएँ - 

आचार्यों ने प्रबन्ध काव्य की कथा वस्तु के दो प्रकार बताए हैं- आधिकारिक और प्रासंगिक । मुख्य कथा आधिकारिक होती है-जैसे राज रत्नसेन और पद्मावती की कथा। जो कथाएँ बीच-बीच में या प्रासंगिक रूप में आती हैं, वे प्रासंगिक कथाएं कहलाती हैं। सफल प्रबन्ध काव्य की यह विशेषता है कि ये प्रासंगिक कथाएं मूल कथा से मेल खाती हुई, उसको गति प्रदान करती हुई, उसके उत्कर्ष में सहायक होनी चाहिए। पद्मावत की सभी प्रासंगिक कथाएं इसी कोटि की हैं। हीरामन तोता का प्रसंग, राघव चेतन का वृत्तान्त, शिव-पार्वती का आगमन आदि ।

 

3. रसात्मकता या रोचकता - 

रोचकता का आधार रसात्मक वस्तु वर्णन ही है। पद्मावत में रोचक और सरस दोनों ही प्रकार के प्रसंग पर्याप्त मात्रा में आए हैं। जिसमें से कुछ प्रमुख ये हैं- मायके में कुमारियों की स्वच्छन्द क्रीड़ा, नागमती का शोक, रत्नसेन की सूली व्यवस्था समुद्री दुर्घटना, गोरा-बादत युद्ध आदि डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत ने इस प्रसंग में स्वीकार किया है कि उसकी सबसे बड़ी विशेषता है-जायसी का इतिवृत्तात्मक तथा रसात्मक वर्णनों में सन्तुलन बनाए रखना। यह इस प्रकार सम्भव हो सका कि उन्होंने एक दो इतिवृत्तात्मक प्रसंग देकर कोई न कोई रसात्मक प्रसंग उपस्थित कर दिया है।

 

4. नायक - 

प्रायः यह कहा जाता है कि शास्त्रीय लक्षणों के अनुरूप पद्मावत के नायक का स्वरूप नहीं है। पर ये लक्षण तो महाकाव्य के लिए निर्धारित हैं। फिर रत्नसेन राजा हैं, वीर हैं और प्रेमी हैं, कष्ट सहने में सक्षम हैं, 1 साहसी हैं, अभिजात कुल जन्मा हैं। अतः उसकी यह विशेषताएँ उसे धीरोदात्तनायक के समकक्ष ला खड़ा करती हैं।

 

5. उद्देश्य 

अरस्तु के अनुसार महाकाव्य में किसी पूर्ण कार्य का उल्लेख होना चाहिए। उसी को हमारे यहाँ - उद्देश्य माना गया है। यह तो निर्विवाद सत्य है कि इसका उद्देश्य लौकिक प्रेम वर्णन के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना और प्रिय मिलन के अनन्त शक्ति की अनुभूति की व्यंजना ही है जावसी ने अपने इस 'कार्य' या उद्देश्य के आधार पर समस्त कथाओं की योजना की है, उन्हें नाटकीय सन्धियों के आधार पर सूत्रबद्ध भी किया है।

 

6. अरस्तु की मान्यता और जायसी की प्रबन्ध पटुता

अरस्तु ने प्रबन्ध काव्य के लिए कुछ बातों को महत्व दिया है- (i) कथानक की नाटकीय ढंग से योजना, (ii) उसमें किसी पूर्ण कार्य का उल्लेख, (iii) कथा में प्रारम्भ, मध्य एवं अवसान की योजना, (iv) कथानक का सरल या मिश्रित, नैतिक या कष्टपूर्ण होना, (v) प्रासंगिक कथाओं की सुसम्बद्ध योजना, (vi) भव्य एवं आकर्षक शैली।

 

इन कसौटियों के आधार पर यदि जायसी के पद्मावत पर विचार किया जाए तो हमें पता चलेगा कि कथा की पूर्ण नाटकीय ढंग से योजना हुई है। अचानक हीरामन का आगमन और रत्नसेन का पद्मावती के वियोग में घर छोड़कर निकल जाना, इसका प्रमाण है। अन्य कथाएं भी इसी प्रकार हैं। पूर्ण कार्य की चर्चा ऊपर हो चुकी है, पद्मावती जन्म से राजा रत्नसेन के सिंहलगढ़ पहुंचने की कथा आदि भाग' ही कही जा सकती है, पद्मावती विवाह से लेकर सिंहलद्वीप से प्रस्थान तक की कथा को 'मध्य भाग' माना जाता है, और राघव चेतन के चितौड़ छोड़कर जाने से लेकर पद्मावती के सती होने की घटना 'अन्त' भाग ही है। कथा सरल भी है, मिश्रित भाषा है और कष्टपूर्ण भी । नागमती वियोग, समुद्र घटना, रत्नसेन के कष्ट, बुद्ध और सती जैसी घटनाएँ नैतिक और कष्टपूर्ण स्थितियों को उभारती हैं। प्रासंगिक कथाएँ सम्बद्ध हैं और शैली भव्य और आकर्षक है।

 

अतः भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही कसौटियों पर कसकर यदि हम पद्मावत के प्रबन्ध-शिल्प पर विचार करें। तो यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि वह एक सफल प्रबन्ध काव्य है जिसमें जायसी की प्रबन्ध पटुता की श्रेष्ठता के दर्शन होते हैं।

 

जायसी की काव्यगत विशेषताएँ (भावपक्ष एवं कलापक्ष)

 

कलापक्ष के अनेक आधार हैं और जायसी महाकवि थे, अतः महाकाव्य के आधार पर उनके कलापक्ष पर विवेचन होना अपेक्षित है। परंतु यहाँ महाकाव्य का नहीं जायसी के कलापक्ष का विवेचन प्रस्तुत है। जिसमें भाव रस, भाषा, अलंकार छन्द आदि पर विचार किया जाएगा।

 

1. भाव और रस परिपाक 

जायसी ने पद्मावत में सभी रसों का उत्कर्ष दिखाया है और उसका वर्णन अपने पूर्ण आवेग के साथ किया है। शृंगार रस की व्यंजना करने में जायसी ने कोई कोताही नहीं की है, उनका विप्रलम्भ श्रृंगार तो उत्कृष्ट कोटि का है नागमती का वियोग हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। 

शृंगार के बाद शान्त रस की व्यंजना भी जायसी ने पर्याप्त मात्रा में की है, निर्वेद की स्थिति इन पंक्तियों से स्पष्ट उभरती दिखायी देती है जिनमें संसार की असारता मृत्यु के आते ही सब कुछ यहां छोड़कर चले जाना हैव्यंजना कितने सहज ढंग से हुई हैं

 

"काल आइ देखराई सौटी उड़ि जिड चला छोड़िकै माटी। 

हाथ झारि जस चला जुआरी । तजा राज होइ चला भिखारी ।"" 


करुण रस की व्यंजना भी हुई है- पद्मावती के सिंहलगढ़ से विदाई के अवसर पर करुण रस की व्यंजना हुई है-

 

रवितभाय न बहुरत बारा। रतन चला, घर भी अन्धियारा ।

 

इसी प्रकार वात्सल्य, भयानक, अद्भुत, वीर, वीभत्स और रौद्र रसों की भी व्यंजना अत्यन्त सफल ढंग से हुई है । केवल हास्य का अभाव है, इन रसों की सफल योजना के साथ विभाव अनुभाव, संचारी भावों की भी मनोरम झाँकियाँ उभरी हैं, जायसी की भावुकता ने भाव वर्णन में सजीवता ला दी है।

 

2. जायसी की भाषा 

जायसी की भाषा की निम्न विशेषताएँ हैं

 

(क) अल्पाक्षर प्रयोग - 

डॉ. वासुदेव शरण के अनुसार उनकी भाषा की एक विशेषता 'अल्पाक्षर विशिष्टता' भी है। अर्थात् जहां अधिक शब्द कहने हो वहां कम शब्दों से काम चलाना

 

"चन्दन चोप पवन असपीऊ । 

भइड चतुर सम कस भा जीऊ।।"

 

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने कहा है कि जायसी ने यहाँ 'चन्दन' 'चोप' शब्द का प्रयोग करके 'स्त्री रूपी चन्दन रस की व्यंजना की है। 


(ख) अवधी की मिठास - 

जायसी की भाषा की मधुरता की प्रशंसा आचार्य शुक्ल ने इन शब्दों में की है- "जायसी की भाषा बहुत ही मधुर है पर उसका माधुर्य निराला है उसमें अवधी अपनी निज की स्वाभाविक मिठास लिए हुए है।" नागमती वियोग खंड में लोक प्रचलित बारहमासा शैली के प्रयोग के समय तो भाषा बेइन्तहा मधुर हो गयी है

 

"बरसै मेह, चुवहि नैनाहे। छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा ।"

 

(ग) लोकोक्ति-मुहावरे - 

जायसी की भाषा का माधुर्य लोक प्रचलित लोकोक्ति और मुहावरों की छटा से भी निखरा है- 


"कान दुरै जेहि पहिरे, का लेइ वरबसो सनि ।” 


इसी प्रकार एक मुहावरा भी देखिए -

 

"जौ लहि मथे न कोई देह जीऊ । 

सूधी अंगरि न निकसै घीऊ ।। "

 

3. अलंकार योजना- 

जायसी ने सादृश्य मूलक अलंकारों में से उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, सांगरूपक, रूपकातिशयोक्ति अलंकारों का प्रयोग अधिक किया है, जिसने अर्थ गांभीर्य में सहायक होकर भावोत्कर्ष भी किया है, उत्प्रेक्षा उनका सबसे प्रिय अलंकार है इसका प्रयोग बड़ा मनोहारी हुआ है

 

“पुहुप सुगन्ध करहिं ऐति आसा । 

मकु हिरकाइ लेइ हम पासा।।"

 

इसके अतिरिक्त प्रायः सभी प्रचलित अलंकारों का सहज प्रयोग जायसी ने किया है-व्यतिरेक, तद्गुण, विभावना, संदेह आदि की योजना भी बड़े मधुर ढंग से हुई है। अतिशयोक्ति की छटा देखिए-

 

"तेहि कपोल बाएँ तिल परा 

जेइ तिल देखा जा तिल तिल जरा ।।"

 

4. छन्द-योजना - 

जायसी ने दोहा-चौपाई शैली अपनाई है। यह शैली अपने में कितनी प्रभावी रही है, इसका अन्दाज दो बातों से लगाया जा सकता है कि पद्मावत की सरसता का आधार जहां उसकी भाव-व्यंजना है, वहीं इस शैली ने उसमें जान-सी डाल दी है, दूसरे तुलसीदास को भी यह शैली इतनी पसन्द आयी कि रामचरितमानस की रचना भी इसी दोहा - चौपाई शैली में हुई है।

 

 

जायसी की लेखन कुशलता सारांश  


जायसी सूफी कवि थे । हिन्दी की प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा में उनका शीर्ष स्थान है। उनका पद्मावत हिन्दी साहित्य की एक मूल्यवान कृति है । वह एक प्रबन्ध-काव्य है। जायसी कृत पद्मावत एक सफल प्रबन्ध काव्य है । 

भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही कसौटियों पर कसकर यदि हम पद्मावत के प्रबन्ध - शिल्प पर विचार करें तो यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि वह एक सफल प्रबन्ध काव्य है जिसमें जायसी की प्रबन्ध पटुता की श्रेष्ठता के दर्शन होते हैं। जायसी ने पद्मावत में सभी रसों का उत्कर्ष दिखाया है और उसका वर्णन अपने पूर्ण आवेग के साथ किया है। शृंगार रस की व्यंजना करने में जायसी ने कोई कोताही नहीं की है, उनका विप्रलम्भ शृंगार तो उत्कृष्ट कोटि का है। 

जायसी की भाषा की मधुरता की प्रशंसा आचार्य शुक्ल ने इन शब्दों में की है - "जायसी की भाषा बहुत ही मधुर है पर उसका माधुर्य निराला है उसमें अवधी अपनी निज की स्वाभाविक मिठास लिए हुए है।" नागमती वियोग खंड में लोक-प्रचलित बारहमासा शैली के प्रयोग के समय तो भाषा बेइन्तहा मधुर हो गई है।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top