सूरसागर की तात्विक समीक्षा एवं शिल्प विधान | Sursagar Ki Tatvik Samiksha

Admin
0

 सूरसागर की तात्विक समीक्षा एवं शिल्प विधान

सूरसागर की तात्विक समीक्षा एवं शिल्प विधान | Sursagar Ki Tatvik Samiksha



 प्रस्तावना ( Introduction) 

काव्य और शिल्पविधान - काव्य का इष्ट है-रस, जिनकी प्रतिष्ठा कवि दो प्रकार से करता है- ( 1 ) भावगत तुष्टि से तथा ( 2 ) कलागत रमणीयता से यह कलागत रमणीयता भी मूलतः शिल्पविधान की ही प्रर्ण्य है। कवि की अनुभूति इसी के माध्यम से प्रकट होकर रसिक हृदय तक पहुँचती है और साधारणीकरण का माध्यम बनती है। दूसरे शब्दों में, कवि-कथ्य को साकार करने एवं रसिक-हृदयों तक पहुँचाने का कार्य शिल्प-विधान ही करता है। यही कारण है कि काव्य-कला का यह अभिन्न अंग माना गया है। इसी का सविस्तृत परिचय देते हुये एक काव्यशास्त्रीय रूपक में कहा गया है", कविता एक लावण्यमयी सुन्दरी है। शब्दार्थ इसका तन है, अलंकार आभूषण, रीति अवयवों का गठन तथा गुण स्वभाव ।'

 

सूरसागर की तात्विक समीक्षा एवं शिल्प विधान

 

  • शिल्पविधान का तात्पर्य- शिल्पविधान' दो शब्दों से मिलकर बना है-शिल्प + विधान 'शिल्प' का शब्दार्थ है- 'कला' जबकि 'विधान' का अर्थ है- संयोजन। इस प्रकार शिल्पविधि का शब्दार्थ होगा-कला अथवा कलागत संयोजन । कलागत-तुष्टि, अभिव्यंजना बहिर्पक्ष अथवा अभिव्यक्ति कौशल आदि भी इसी के पर्यायसूचक शब्द हैं। संक्षेप में, भाषा, अलंकार, छन्द और काव्य-रूप आदि शिल्प के विविध अंग हैं और इनका समुचित संयोजन करना ही समग्रतः शिल्पविधान । दृष्टव्य बात यह भी है कि यह कोई बाह्य अथवा भिन्न तत्व नहीं, 'काव्य' का ही अन्तरंग और अभिन्न पक्ष है।

 

सूरकाव्य का शिल्प-विधान-

श्रेष्ठ कवि अथवा उसके काव्य का अन्तर्बाह्य सब कुछ मधुर होता है- 'मधुराधिपतेरखिलम् मधुरम् । निःसन्देह सूर और उनका काव्य इसी कोटि का है। 'साहित्य-लहरी' का आचार्यत्व हो अथवा 'सूर सूरावली' और सबसे अधिक 'सूरसागर' का काव्य-कौशल, सूरकाव्य के साहित्यिक या काव्यात्मक गुणों के परिचायक हैं। निःसन्देह महाकवि सूर ने काव्याचार्यों की संगति नहीं भोगी थी, काव्यशास्त्रियों के चरणों में बैठकर सूत्र व्याख्याओं को नहीं रहा था किन्तु फिर भी सूर ने काव्यशास्त्र का अपूर्व ज्ञान संजोया, जैसा कि 'साहित्य - लहरी' से स्पष्ट भी हो जाता है। दूसरे, डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया के शब्दों में, 'सूर की जन्म भूमि 'साही', सूर का साधना क्षेत्र, 'गौघाट' (रुनकता-आगरा) तथा उपासना- क्षेत्र परासोली (गोवर्धन - मथुरा) तीनों ही ब्रजभाषा क्षेत्र में स्थित हैं।' तीसरे, 'सूर न तो कबीर की भाँति घुमक्कड़ थे और न उन्होंने तुलसी की भाँति दो भाषाओं का प्रयोग किया, इस दृष्टि से वह एक भाषा (ब्रज) निष्ठ थे।" चौथे, 'सूरसागर' आदि समस्त सूरकाव्य का मूल वर्ण्य ब्रज से सम्बन्धित है। फलतः इन सबका प्रभाव सूर के शिल्प-विधान पर पड़ना स्वाभाविक ही है। सच तो यह है कि सूर के काव्य का समस्त शिल्प-विधान नाना विशेषताओं से युक्त है। प्रमाण है. 


'सूरकाव्य' की शिल्पगत विशेषताएँ जो निम्नांकित हैं

 

भाषा विषयक

 

शब्दावली - 

सूर ब्रजभाषा के प्रथम कवि हैं। अपने समस्त काव्य में उन्होंने इसी भाषा को मुख्यतः अपनाया है। यह तत्कालीन जनसमाज की लोक भाषा थी जिसको सूर ने 'भाषा' नाम दिया है- “सूरदास सोई कहे पद भाषा, करि गाई।" यही कारण है कि यहाँ पर मुख्यतः ब्रजभाषा की लोक-प्रचलित शब्दावली की प्रधानता है यथा आंखि, सोई, पतिआरौ, दोऊ, सेए, बटाऊ, मुआल, सिरनोई, जनियत, जुवतिनि, अंजोरी, सकुचात तथा सकोरत आदि । भाषा को अधिकाधिक स्वाभाविक बनाने के लिये कहीं शब्दों में व्यंजनादि बदले गये हैं (यथा रिसि, रिचा), तो कहीं उनको तोड़ा-मरोड़ा गया है (यथा किलकी, मिलकी)। ध्वननशीलता भी इसका एक बड़ा गुण है यथा अरबाई, झमकत, लखिखत, गहरात आदि। 


कहीं-कहीं इसमें अन्य भाषाओं के शब्द भी मिलते हैं यथा-

 

संस्कृत - 

(i) अम्बुज, अधोमुख, कमल-दललोचन, निरालंब, वसुधा, अवज्ञा, खगपति, करभ, पिनाक, राका, संघात, गृह, अजिर आदि तत्सम शब्द । 

(i) तद्भव - 

जोजन, कलेद, परतीति, भिनुसार, मरजाद, स्वारथ, स्रवन, औसर, कान्ह, पंखी, हियरो, अटारी, बछल, बिज्जु, आदि तद्भव शब्द । 

लोक-प्रचलित देशज शब्द - 

यथा करतूति, करनी, उहकावे, तलबेली, मूँड, लाहा, खोही, छाक, डहकाओबागरि, धारी, दुर, लटबांसी आदि । 

स्व-निर्मित

यथा ज्योतिक, मसानी, उतजीग, उषाधा, बिचवाना आदि । 

अरबी-फारसी- तरवारि, दिवसी, दागना, हद, तारव, गुमान, दगा आदि पंजाबी महंगी, प्यारी, पा, बिरियाँ । 

पूर्वी - हमार, गोड, आपने ।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही कहा है “सूर में चलती भाषा - कोमलता है ..... भाषा की स्वाभाविकता में बाधा नहीं पड़ने पाई है।.... कहने का तात्पर्य यह है कि सूर की भाषा बहुत चलती हुई और स्वाभाविक है। काव्य-भाषा से होने से यद्यपि उसमें कहीं-कहीं संस्कृत के पद, कवि के समय से पूर्व परम्परागत प्रयोग तथा ब्रज से दूर-दूर के प्रदेशों के शब्द भी आ मिले हैं, पर उनकी मात्रा इतनी नहीं है कि भाषा के स्वरूप में कुछ अन्तर पड़े या कृत्रिमता आवे ।' सच तो यह है कि "भाव-सम्राट सूर के मनोदशा विशेष चित्रण में भाषा को भाव के समान्तर लाने के लिये प्रस्तुत्य प्रयास किया है। भाषा को प्रवाह और प्रभाव प्रदान करने वाली मिली-जुली शब्दावली उसी प्रयास का एक अंग और सूर की उस समन्वयवादी का प्रतीक है।"

 

मुहावरे लोकोक्तियाँ

 

भाषा के अन्तर्गत मुहावरों का विशिष्ट महत्त्व होता है। कारण? एक ओर तो मुहावरे अर्थ-व्यंजना को बढ़ाते हैं और दूसरी ओर उसको रोचक, सबल, प्रामाणिक, स्वाभाविक और संक्षिप्त बनाने में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त समाज का संचित अनुभव और मनोवैज्ञानिकता जैसे गुण भी इनमें मिलते हैं। कहना न होगा कि सूर की भाषा को भी मुहावरों ने इन सभी गुणों से युक्त तो बनाया ही है, वाग्वैदग्ध्य से भी शक्ति सम्पन्न बना दिया है। सूर द्वारा प्रयुक्त अधिकांश मुहावरे ब्रज प्रदेश में प्रचलित रहे हैं और सबसे अधिक मात्रा ( और गुण में) 'भ्रमरगीत - प्रसंग' में मिलते हैं। कुछ प्रमुख मुहावरे इसी सत्य के परिचायक हैं यथा गगन के तारे गिनना, चाम के दाम लगाना, एक डार के तोरे, इक दूजे हांसी, जी में सल रहना, जरे पर जारत, पवन को भुजा बनाना, पोच करना, धतुरा खाये फिरना, बारह बाने तथा एक ही सांचे से काढ़ना आदि। सच तो यह है कि सूरकाव्य में मुहावरों का विस्तृत कोष है। डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया के अनुसार तो केवल आँख से सम्बन्धित सैकड़ों मुहावरे केवल "भ्रमरगीत' में उपलब्ध हैं।

 

मुहावरे वाले गुण लोकोक्तियों में भी होते हैं। इसी से भाषा में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। साधारणतः 'लोकोक्तियाँ किसी सारगर्भित विचारपूर्ण वाक्य अथवा परम्परागत कथा, इतिहास किंवा ज्ञानोपदेशमय सूक्ति के रूप में कथनी की पुष्टि के लिये प्रयुक्त होती हैं।" भ्रमरगीत में तो इन्होंने वचन वक्रता का कार्य भी किया है। सूर ने लोकोक्तियों को दो ओर से सबल बनाया है। एक तो लोक प्रचलित लोकोक्तियों को सटीक रूप से प्रयुक्त किया गया है, यथा

 

" ले आये हो नफा जानि के सबै वस्तु अकरी 

कहौ कौन पै कढ़त कनूका जिन अठि भुसी पछोरी ॥ 


दूसरे, सूर ने कुछ लोकोक्तियों का निर्माण भी किया है, यथा

 

(i) 'मूरी के पातन के बदले को मुक्ताहल दैहै ।

(ii) 'सूरजदास दिगम्बर पुर तैं रजक कहा त्यौहाइ ।'

 

समग्रतः कुछ प्रमुख लोकोक्तियाँ देखिये जिनका प्रयोग 'भ्रमरगीत' में किया गया है-अपने स्वारथ के सब कोउ, अपनो दूध छाड़ि को पीवे खार कूप के वारि, काकी भूख गई मन जाडू, जे आवें ते कारे, तुमसौं प्रेम कथा का काब मनहु काटिबो घास, लवादेइ धराधरि में कौन रंक को भूप, हठि नाव चलावत सूर सुझाव तजै नहीं कारौ कीजै कोटि उपाय आदि ।

 

शब्द शक्ति-

सूर में अभिधा, लक्षणा और व्यंजना तीनों शब्द-शक्तियाँ मिलती हैं और वह भी अपने सशक्त और प्रभावशाली रूप में। इनमें भी प्रधानता है अन्तिम दो की। कुछ उदाहरण देखिये

 

(i) "मधुकर स्याम हमारे चोर । 

मन हरि लियो माधुरी मूरति चितै नयन की कोर ॥"

 

(ii) " ऊधो ! तुम साथी मोरे ।

मेरे कहे विलख मानोगे, कोटि कुटिल लैं जोर ।"

 

(iii) प्रकृति जोइ जाके अंग परी । 

स्वान पूंछ कोटिक जा लागै, सूधि न काहू करी ।"

 

वाग्वैदग्ध्य - 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही कहा है, 'सूरदास जी में सहृदयता और भावुकता है, प्रायः उतनी ही चतुरता और वाग्वैदग्ध्यता (Wit) भी है। किसी बात को कहने के न जाने कितने टेढ़े-सीधे ढंग उन्हें मालूम थे।" यही कारण है कि तुलसी वाली गम्भीरता का यहाँ पूर्णतया अभाव है। दूसरी ओर गोपियों के कथनों में आद्योपांत वचन चातुर्य और वाग्वैदग्ध्य भरा पड़ा है। यहाँ तक कि बारम्बार पुनरावृत्ति पर भी यह खलता नहीं है। निम्नलिखित कुछ उदाहरण इसी सत्य के परिचायक हैं

 

(i) "सन्देसनि मधुवन कूप भरे । 

जो कोउ पथिक गए हैं ह्यातें फिरि नहीं गवन करे। 

के वै स्याम सिखाये समोधे, के वे बिच मरे ।" 


 

(ii) "ऊधो ! जानियो ज्ञान तिहारो । 

जाने कहा राजगति लीला, अन्त अहीर विचारो ।”

 

सच तो यह है कि भ्रमरगीत में गोपियों का एक-एक कथन मूलतः कवि के वचन चातुर्य और वाग्वैदग्ध्य-शक्ति का परिचायक है। वास्तव में उच्चकोटि के कवि ही इस प्रकार के वाग्वैदग्ध्य के अधिकारी होते हैं। यह कहना अत्युक्ति न होगा कि इसी एक विशेषता के कारण सूर के पद एक वर्ण्य विशेष से सम्बन्धित होने पर भी एकरसता - दोष से अछूते बच गये हैं गोपियाँ कभी तो ज्ञान मार्ग के व्यावहारिक पक्ष की कठिनाइयों की ओर संकेत करके, कभी ज्ञानमार्गी एकांगिता को आधार बनाकर और कभी ज्ञानोपदेश की शैलीगत दुर्बोधता को लक्ष्य करके तरह-तरह से उद्धव को छकाती हैं और अन्त में उद्धव को छकाने के साथ-साथ प्रभावित भी करती हैं। यही कथन सूर के दृष्टकूट पदों, विनय पदों और वात्सल्यमय पदों आदि पर चरितार्थ होता है। राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ से अधिक वाक्-कौशल भला और कहाँ मिल सकता है?

 
संगीतात्मकता-

‘सूरसागर' के सभी पद विविध राग-रागनियों में बंधे हैं। उनकी लययुक्त शब्दावली संक्षिप्त आकार और भाव-परिपूर्णता आदि भी उनको पूर्णतया गेय बना देती हैं। संगीत की रक्षा के लिये ही सूर ने प्रायः प्रसाद गुण युक्त शब्दावली को ही अधिक ग्रहण किया है। डॉ. मनमोहन गौतम ने इस विषय में ठीक ही कहा है, "सूर के पदों का गेयत्व अपूर्व है ......सूर के गीतों में शास्त्रीय स्वर-लय का पूर्ण विधान है फिर भी सूर के गीत शास्त्रीय संगीत मात्र नहीं हैं। उनमें ..... प्रधानता है शब्द संगीत की ।..... संगीत शब्द सौन्दर्य या अर्थसौरम्य में किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न नहीं करता। वह तो शब्दों की रमणीयता, ध्वन्यात्मकता और स्वर-लहरी से अर्थ में सौष्ठव और कल्पना में कमनीयता भरता है।..... पदगत शब्द संगीत अनुभूति की सूक्ष्मता को मूर्तिमान कर देता है।.....साथ ही दन्त्य वर्णों की बहुलता और सानुनासिक ध्वनि के संयोग से उसका गेयत्व सघन कर दिया गया है।"

 


अलंकार विषयक 

सूरकाव्य में अलंकारों का सागर है, कोई भी गोताखोर चाहे जितने अलंकार निकाल ले फिर भी ये अलंकार सायास नहीं आये वरन् पूर्णतया स्वाभाविक और भाव सबलता के सहायक रूप में आये हैं। इनका मूलोद्देश्य है- सौन्दर्य का बोध कराना। डॉ. हरवंश लाल शर्मा (सूरकाव्य की आलोचना) ने ठीक कहा है, "किसी वस्तु के साक्षात्कार से जब कवि की सौन्दर्यानुभूति सजग हो उठती है, हृदय तल्लीन हो जाता है तो उसकी कल्पना उस वस्तु के सौन्दर्य को अधिक हृदयग्राही और प्रभावोत्पादक बनाने के लिये अप्रस्तुत व्यापार योजना का सन्निवेश करने लगती है, उस समय कवि की रचना में अलंकारों का समावेश स्वतः हो जाता है।" कहना न होगा कि सूरकाव्य में अलंकार इसी रूप में प्रयुक्त हुए हैं।

 

सूर के काव्य में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों मिलते हैं। इनमें भी प्रधानता दूसरे प्रकार के अर्थात् अर्थालंकारों की है। अर्थालंकारों में भी सबसे अधिक साम्यमूलक अलंकार आये हैं और इनमें भी सारूप्य या सादृश्य, साधर्म्य और प्रभाव साम्य तीनों प्रकार के अलंकार हैं। जैसा कि डॉ. विश्वनाथ शुक्ल ने (सूर की साहित्य साधना ) कहा है, “उनके प्रियतम अलंकार, उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा हैं जिनके सुन्दर और अतिशय कलात्मक प्रयोग में सम्भवतः कोई हिन्दी कवि इनके समकक्ष नहीं ठहर सकता।.... सांगरूपक पर तो.....सूरदास का असाधारण अधिकार है .....सूर के सांगरूपक उनकी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति, तत्तत् शास्त्रों के ज्ञान और अनुभूति के अतुल गाम्भीर्य से उद्भुत हैं।" इसी भाँति डॉ. हरवंश लाल शर्मा का मत है, “अनुप्रास का प्रयोग तो सूरकाव्य में अत्यन्त ही स्वाभाविक है क्योंकि अनुप्रास द्वारा जहाँ एक ओर ध्वन्यात्मक सौन्दर्य का विधान होता है, वहाँ दूसरी ओर उसके वातावरण की सृष्टि भी । वीप्सा अलंकार कवि के हृदय की भक्ति भावना का ही परिचायक कहा जा सकता है क्योंकि उसका प्रयोग उन्होंने राधा और कृष्ण के अंग-प्रत्यंग के सौन्दर्य- रसापान से तृप्त न होकर बार-बार स्वरूप वर्णन में किया है। वक्रोक्ति का प्रयोग व्यंग्योक्तियों में है।..... विरहणी गोपियों की उक्तियाँ तो उनके भावों के साथ व्यंग्य को भी लेकर निकलती हैं, इसलिये उनमें वक्रोक्ति के सुन्दर उदाहरण भरे पड़े हैं।" इनके अतिरिक्त व्याजनिन्दा, संगति, विभावना, विरोधाभास, विषम, अनन्वय, सन्देह, भ्रान्ति, उल्लेख, अपन्हुति, दृष्टान्त आदि अनेक उदाहरण व्याप्त हैं। कुछ उदाहरण देखिये

 

(i) रूपकातिशयोक्ति 

" खजन मीन भृंग, वारिज, मृग पर दृग अति रुचि पाई।"

 

(ii) उत्प्रेक्षा, रूपक और अनुप्रास

 

"देखियत चहुं दिसि ते घन घोर । 

मानो मत मदन के हथियनु बलकरि बन्धन तोरे ॥ 

स्याम सुभग तन चुअत गण्डमद बरसत थोरे-थोरे । 

रुकत न पौन महावत हू पै मुख न अंकुस भोरे ॥”

 

(iii) व्यतिरेक

 

"उपमा नैन न एक गही। 

कवि जन कहत कहत सब आए सुखि करि नाहिं कही ॥"

 

(iv) अतिशयोक्ति

 

"नयन सजल, कागद अति कोमल, कर अंगुली अति ताती 

परसत जरै, विलोकन भीजै, दुहं भाँति दुख छाती ॥"

 

(v) अनुप्रास 

“ऊधो! कोकिल कूजत कानन ॥"

 

(vi) सन्देह 

"तिहारी प्रीति किधौं तरबारि?"

 

(vii) वक्रोक्ति 

"मधुकर! त्याग जोग सन्देसो । 

भली स्याम कुसलात सुनाई सुनतहिं भयो अंदेसो ॥"

 

इस प्रकार,सूरकाव्य विशेषतः भ्रमरगीत में अलंकारों का अनन्त वैभव विकीर्ण है। स्वभावोक्ति में तो उनसे आगे विश्व का सम्भवतः कोई ही कवि बढ़ सका हो।..... अलंकार उनके काव्य में सहज समाविष्ट होकर उसकी चारुताnको अतिशय प्रदान कर रहे हैं।” सच तो यह है कि “सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो अलंकारशास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है । "

 

छन्द विषयक - 

सूर के सभी पद गीतात्मक है। उनमें छन्दों का वैविध्य तो नहीं है, केवल पद प्रकार की दृष्टि से उनको विविधापरक माना जा सकता है। अधिकांश पद षट्पदी हैं जिनमें सवैय्या, रोला और छप्पय का स्वतन्त्र और मिश्रित रूप मिलता है। कुछ पद काफी बड़े और कुछ बहुत बड़े छन्दों में बद्ध हैं यथा “उद्धव - गोपी संवाद” के पद। कहीं-कहीं लोक छन्दों यथा होली, विरवा, कजरी आदि का उदाहरण भी देखा जा सकता है यथा 'तुम्हारें बिरह, ब्रजनाथ, अहो प्रिय' नयनन नदी बढ़ी' तथा 'ऊधो का उपदेस सुनौ किन कान दे।' कहीं-कहीं चौपाई छन्द भी हैं यथा “हो तुम ब्रजनाथ पठायो । आतमज्ञान सिखावन आये।"

 

काव्य-रूप-विषयक - 

समस्त सूरकाव्य प्रबन्धात्मक मुक्तक है। तात्पर्य यह है कि इसमें प्रबन्ध की एक हल्की योजना-रेखा है किन्तु सभी पद अपने में स्वतन्त्र भी हैं। गीतात्मकता के सभी गुणों से युक्त होने के कारण सभी पद गेय हैं। सच तो, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, यह है कि 'सूर की रचना जयदेव और विद्यापति के गीत काव्यों की शैली पर है, जिसमें सुर और लय के सौन्दर्य या माधुर्य का भी रस परिपाक में बहुत कुछ योग्य रहता है ।" इस शैली को भी कवि ने उच्च कोटि का बनाकर प्रस्तुत किया है।

 

निष्कर्ष -

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सूर के काव्य का शिल्प पक्ष भी उच्च कोटि का है और विविध विशेषताओं से युक्त होने के कारण विशिष्ट भी है। वास्तव में, सूर के भाव विधान की भाँति उनके काव्य का शिल्प विधान भी अत्युत्तम है। क्या भाषा और क्या अलंकार, क्या छन्द योजना और क्या काव्य-रूप, सूर और उनका काव्य सभी अनुपम हैं, अत्युत्तम हैं, नवीनताओं और मौलिकताओं से परिपूर्ण हैं।

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top