सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या ( गोकुल लीला ) | Sursagar Explanation in Hindi

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सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या ( गोकुल लीला )

सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या ( गोकुल लीला ) | Sursagar Explanation in Hindi
 

प्रस्तावना ( Introduction )

 

सूरदास के काव्य में आत्माभिव्यंजन, भावप्रवणता, मधुरता संगीतात्मकता जैसे सभी गुण विद्यमान हैं। सूरदास ने कृष्ण के प्रेम में पगी गोपियों के रसासिक्त हृदय की भावानुभूतियों को सूर ने गीतिकाव्य के द्वारा अभिव्यक्त कर पाठकों को मधुर भावों के अवगाहन करने का जो सुअवसर प्रदान किया है, उसके लिए हिन्दी काव्य जगत उनका सदैव ऋणी रहेगा।

 

सूरसागर के प्रमुख पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या (1)

 

नवल निकुंज नवल नवला मिलि, शब्दार्थ व्याख्या -

नवल निकुंज नवल नवला मिलि, नवल निकेतन रुचिर बनाए  

बिलसत विपिन बिलास बिबिध बर, बारिज बदन बिकच सचु पाए || 

लागत चंद्र मयूख सुतिय तनु, लता भवन- रंध्रनि मग आए। 

मनहु मदन-बल्ली पर हिमकर, सींचत सुधा घाट सत नाए ॥ 

सुनिसुनि सूचित स्त्रवन जिय सुन्दरि, मोन किये मोदति मन लाए । 

सूर सखी राधा माधव मिलि क्रीड़त रति रतिपतिहि लजाए ॥

 

शब्दार्थ- 

नवल =नये 

नवल = कृष्ण 

नवला = राधा 

रुचिर = सुन्दर 

निकेतन = निवास-स्थान । 

बिलसत = सुशोभित ।

बिपिन = वन 

वर = सुन्दर 

बारिज बदन = कमलमुख 

विकच = प्रफुल्लित । 

सचु = सचमुच । 

मयूख = किरण। 

सुतिय = श्रेष्ठ स्त्री । 

मदन-बल्ली = काम-लतानारी-शरीर 

हिमकर= ओस। 

मोदति = आनन्दित । 

रति काम-क्रीड़ाएं। 

रतिपतिहि =रति का स्वामी, कामदेव ।

 

प्रसंग - 

श्रीकृष्णप्रिया राधा और अन्य सखियों के साथ यमुना तट पर विहार करते हैं और नाना प्रकार की संयोगकालीन क्रीड़ायें करते हैं। इन्हीं का परिचय देते हुए कोई गोपिका अपनी सखी से कहती है

 

व्याख्या -

 (वृन्दावन स्थित यमुना नदी के तट पर नये-नये निकुंज है जहां पर कृष्ण और राधा ने मिलकर और सुन्दर निवास-स्थल (मिलन स्थल) बना लिये हैं। वहाँ पर तरह-तरह के सुन्दर विलासों से युक्त वन नए-नए सुशोभित हैं जहां कमलमुखी (राधा-कृष्ण) प्रफुल्लित होकर सुख पाते हैं। चन्द्रमा की किरणें (चन्द्रिका) सुन्दर स्त्री (राधा) के शरीर पर पड़ती हैं मानों अमृत की धारा से ओस के माध्यम से चन्द्रमा काम लता ( नारी-तन) को सींच रहा है। (राधा-कृष्ण की इन प्रेम-क्रीड़ाओं के वर्णन को) सुन्दर सखी कानों से और ध्यानपूर्वक सुनती है और चुपचाप मन ही मन आनंदित होती है। राधा और माधव मिलकर काम क्रीड़ायें करते हैं जिनको देखकर रतिपति-कामदेव भी लजा जाते हैं।

 

विशेष - 

1. अलंकार- (क) अनुप्रास नवल निकेतन, बिलसत... विकच, तिय तनु, सुनि... स्त्रवन। (ख) यमक - नवल नवल । (ग) रूपक वारिज बदन। (घ) उत्प्रेक्षा- लागत..... सत् नाए। (ङ) पुनरुक्ति- सुनि सुनि । (च) अतिशयोक्ति-रतिपतिहिं लजाए। 

2. यहाँ पर प्रकृति का पृष्ठभूमि और उद्दीपन रूप में अंकन है। 

3. भावसाम्य 

'नव वृन्दावन नव-नव तरुगन । 

नव नव विकसित फूल ॥

 

अद्भुत एक अनुपम बाग  शब्दार्थ व्याख्या -


अद्भुत एक अनुपम बाग। 

जुगल कमल पर गज तर क्रीड़त, तापर सिंह करत अनुराग ॥ 

हरि पर सरबर सर पर गिरिबर, गिरि पर फूलैं कंज पराग 

रुचिर कपोत बसत ता ऊपर, ता ऊपर अमृतफल लाग ॥ 

फल पर पुहुप, पुहुप पर पल्लव, ता पर सुक पिक मृग मद काग । 

खंजन धनुष चन्द्रमा ऊपर ता ऊपर इक मनिधर नाग ॥ 

अंग-अंग प्रति और छबि, उपमा ताकौ करत न त्याग। 

सूरदास प्रभु पियौ सुधारस मानो अधरनि के बड़ भाग ॥

 

शब्दार्थ- 

अनुपम = अतुलनीय 

जुगल = दो 

गजवर = सुन्दर हाथी, जँघाएं 

तापर = उस पर 

सिंह = कटि

हरि = सिंह,कटि

सरवर = सरोवर, नाभिप्रदेश 

गिरिवर =सुन्दर पर्वत, वक्षस्थल 

कंज-पराग = परागमय ,कमल, स्तन। 

कपोत = कबूतर, ग्रीवा 

अमृतफल = ठोड़ी 

पुहुप = पुष्प, तिल

पल्लव = कोंपल, अधर 

सुक पिक = तोता और कोयल, नाक और वाणी 

मृगमद = कस्तूरी, बिन्दी 

काम = कौआ, केश लटें 

खंजन = नेत्र 

धनुष = भौंहें 

चन्द्रमा = मस्तक

नांग = सर्प, वेणी 

अधरनि =अधरों के 

बड़भाग  = सौभाग्य।

 

प्रसंग - 

राधा का बाह्य (शारीरिक) सौन्दर्य अनुपम है और उसके शरीर का एक-एक अंग-प्रत्यंग अतुलनीय है। इसी का वर्णन करते हुए कोई सखी (दूती अथवा गोपिका) अपनी सखी (अथवा नायक श्रीकृष्ण) से कहती है. 


व्याख्या - 

( राधा का शरीर ) एक आश्चर्यजनक तथा अतुलनीय उद्यान है प्रमाण ? इस उपवन (शरीर) में दो कमलों (जैसे चरणों) पर सुन्दर हाथी (जैसी जंघाएं) क्रीड़ा करती हैं और उस पर सिंह (जैसे कटि प्रदेश) अनुराग करता है। इस सिंह (कटि प्रदेश) पर एक सरोवर (नाभि ) है तथा उस पर श्रेष्ठ पर्वत (जैसे पयोधर) जिस पर परागयुक्त कमल (स्तन) फूले हैं। उसके ऊपर सुन्दर कपोत (ग्रीवा) निवास करता है तथा उसके ऊपर अमृतफल (ठुड्डी) लगा है। इस अमृतफल पर पुष्प (तिल) है तथा उस पर कोंपल (जैसे अरुणाघर) जिस पर तोता, कोयल, कस्तूरी और कौआ (अर्थात् क्रमशः नाक, वाणी, कस्तूरी की बिन्दी तथा केश-लटे) शोभित हैं। खंजन (नेत्र), धनुष (भौहें) तथा ऊपर चन्द्रमा (मस्तक) है जिसके ऊपर एक मणिधारी सर्प (मणिजटिल आभूषण) है। इतना ही नहीं, प्रत्येक अंग-प्रत्यंग का सौन्दर्य भी अलग-अलग है जिनका त्याग उपमा भी नहीं करती। सूर के प्रभु कृष्ण इस ( राधा - सौन्दर्य के ) अमृत रस का पान करो (करते हैं) मानो (उनके) अधर बड़े भाग्यशाली हैं।

 

विशेष - 

1. सौन्दर्यान्तर्गत नख-शिख वर्णन की परम्परा का यहाँ पर पूरा पालन किया गया है। 

2. यह पद कवि की कूट शैली का परिचायक है।

3. अलंकार- (क) रूपकातिशयोक्ति - समस्त पद में। (ख) पुनरुक्ति-पुडप, अंग-अंग, और-और। (ग) उत्प्रेक्षा -सूरदास .... बड़ीभाग। 

4. सभी उपमान परम्परागत हैं। 


5. भावसाम्य 

माधव कि कहब सुन्दरि रूपे । 

पल्लवराज चरनजुग सोभित गति गजरादक माने। 

कनक- कदलि पर सिंध समारल तापर मेरू समाने ॥ 

मेरू ऊपर दुइ कमल फुलायल नाल बिना रुचि पाई। 

सारंग नयन बयन पुनि सारंग, सारंग तसु समधाने ||

 

प्रिया - मुख देखो स्याम निहारि  शब्दार्थ व्याख्या -

प्रिया - मुख देखो स्याम निहारि । 

कहि न जाइ आनन की शोभा रही बिचारि बिचारि ॥ 

छीरोदक घूंघट हातो करि, सन्मुख दियौ उघारि । 

मनी सुधाकर दुग्ध सिन्धु तैं कयौ कलंक पखारि ॥ 

मुक्ता मांग सीस पर सोभित राजति इहिं आकारि । 

मानौ उडुगन जानि नवल ससि, आए करन जुहारि ॥ 

भाल लाल- सिन्दूर-बिंदु पर मृगमद दियौ सुधारि ॥ 

मनौ बधूक-कुसम ऊपर अलि बैठ्यौ पंख पसारि ॥

चंचल नैन चहूं दिसि चितवत जुग खंजन अनुहारि

मनौ परसपर करत लराई कीर बचाई रारि ॥ 

बेसरि के मुक्ता में झांई बरन बिराजति चारि । 

मानौ सुरगुरु, स्त्रुक, भौम, सनि चमकत चंद मंझारि ॥ 

अधर बिंब बिच दसन बिराजत दुति दामिनि चमकारि । 

चिबुक - बिन्दु बिच दियौ विधाता रूप सींब निरुवारि ॥ 

तरिवन स्त्रवन रतन मनि भूषित सिर सीमल संवारि । 

जनु जुग भानु दुहूं दिसि उगए, भयौ द्विधा तमहारि ॥ 

लाल भाल कुच बीच विराजति, सखियन गुही सिंगारि ।

मनहुं धुई निर्धूम अग्नि पर, तप, बैठे त्रिपुरारि ॥ 

सन्मुख दृष्टि परै मनमोहन लज्जित भई सुकुमारि । 

लीन्हीं उमगि उठाई अंक भरि, सूरदास बलिहारि ॥

 

शब्दार्थ - 

आनन = मुख । 

विचारि= सोचकर 

छीरोदक = दूध के समान श्वेत वस्त्र 

हातो = अलग। 

दुग्ध सिन्धु = क्षीरसागर 

कलंक = कालिमा 

पखारि= धोकर 

मुक्ता =  मोतियों से युक्त 

राजति = सुशोभित 

इहि आकारि = इस रूप में। 

उडुगन = नक्षत्र 

नवल = नया 

जुहारि = प्रणाम 

भाल = माथा 

मृगमद = कस्तूरी।

बधूक कुसुम = लाल रंग का एक पुष्प 

अलि = भ्रमर 

जुग = दो 

अनुहार = समान 

कीर = तोता, नाक 

बेसरि = एक आभूषण, नथ 

झाँई = प्रतिबिम्ब 

वरन = वर्ण, रंग 

सुरगुरु = बृहस्पति, पीला रंग 

भौम = मंगल, लाल रंग । 

मझारि = में 

बिंब = विम्बाफल। 

दुति = धुति, कान्ति 

चिबुक = ठोड़ी 

सींव = सीमा 

तिरुवारि = सुलझाकर 

तरिवन = बुन्दे। 

तमहारि = अंधकार 

कुच= वक्ष 

धुई = धुनी 

त्रिपुरारि = त्रिपुर-शत्रु, शिव 

अंक = गोद, आलिंगन

 

व्याख्या - 

दूती या गोपी कहती हैं, “हे कृष्ण ! जरा इस प्रियतमा का मुख तो देखो। इसके सुन्दर मुख की शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके सौन्दर्य को मैं तो केवल सोच-सोच कर ही रह जाती हूँ। दूध के समान श्वेत वस्त्र के घूंघट को कृष्ण के सम्मुख करके उसने खोल दिया, मानो किसी ने चन्द्रमा को क्षीर सागर से उसके कलंक को धोकर निकाला हो मोतियों से युक्त माँग उसके शीश पर इस प्रकार शोभित हो रही है मानो नक्षत्रों का समूह उसके मुख रूपी चन्द्रमा को प्रणाम करने आया हो। उसके माथे पर सुन्दर सिन्दूर की लाल बिन्दी, ऊपर कस्तूरी का तिलक ऐसा प्रतीत होता है मानो लाल बन्धूक पुष्प के ऊपर भ्रमर पंख फैलाकर बैठा हो। खंजन पक्षी के जोड़े की समता करने वाले उसके दोनों चंचल नेत्र चारों ओर देखते रहते हैं, मानो कलह हो जाने के कारण उन्होंने शोर मचा दिया हो लेकिन तोते (नाक) ने इसको बचा दिया। नाक की नथ के मोती से पड़ने वाली परछाई चार रंग की होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है, मानो बृहस्पति (पीला) शुक्र (श्वेत) मंगल (लाल) और शनि (नीला, काला) के बीच में इन्द्र (नासिका) विराज रहे हों। उसके होंठ बिम्ब फल के समान हैं। उनके बीच में दाँतों की शोभा ऐसी है जैसे बिजली की चमक। उसके चिबुक के बीच के बिन्दु में मानो विधाता ने सौंदर्य की सीमा को सुलझाकर डाल दिया हो । रत्नमणि से युक्त बुन्दों से कान युक्त हैं और सिर सीमान्त तक संवारा हुआ है। उस प्रकाश पुंज की उपमा देने के लिये किस चीज की समानता दूँ? उसको इस प्रकार कहा जा सकता है मानो दसों दिशाओं में अनेक सूर्य निकल आये हों, जिनसे भयभीत होकर अन्धकार पाताल में जा छिपा हो सखियों ने अच्छी प्रकार से लाल पुष्पों की सुन्दर माला से हीरे की पंक्तियों वाले हार से उसे सजाया है। इस दशा में वह ऐसी प्रतीत होती हैं मानो शिवजी धुवें-रहित अग्नि की धूनी पर बैठे हुए तप रहे हों। इस प्रकार की सुन्दरी नायिका के सामने जब मनमोहन आ गये और उन पर दृष्टि पड़ी, तो वह सुकुमारी लज्जित हो गई। कृष्ण ने उसे उमंग में भरकर उठाकर हृदय से लगा लिया। इस दृश्य पर कवि सूरदास बलिहारी जाते हैं।

 

विशेष - 

1. यहाँ पर दूती या गोपी परोक्षतः राधा के मुख-सौन्दर्य का अतिशयोक्ति-परक वर्णन करके नायक (कृष्ण) को उत्तेजित - प्रेरित करती है जो शृंगार-काव्य की एक कवि-परम्परा है। 

2. यहाँ पर काव्यशास्त्रीय दृष्टि से, राधा का वासकसज्जा नायिका के रूप में चित्रण किया गया है। 3. अलंकार- (क) अतिशयोक्ति-कहि न ...... बिचारि (ख) पुनरुक्ति-बिचारि बिचारि । (ग) रूपक - छीरोदक घूंघट (घ) उत्प्रेक्षा- छीरोदक त्रिपुरारि । (ङ) मानवीकरण - उडुगन । (च) उपमा-अधर बिंब, दुति दामिनि। (छ) अनुप्रास- सिर.....संवारि, जनु जुग।

4. कवि का अनुभाव-चित्रण दृष्टव्य है। 

5. यहाँ पर उल्लिखित सौन्दर्य-प्रसाधन कवि के लोक-ज्ञान के परिचायक हैं।

 

स्याम भए राधा बस ऐसे शब्दार्थ व्याख्या


स्याम भए राधा बस ऐसे। 

चातक स्वाति, चकोर चन्द ज्यौं चक्रवाक रवि जैसे ॥ 

नाद कुरंग, मीन-जल की गति, ज्यौं तनु के बस छाया । 

इकटक नैन अंग छबि मोहे, थकित भए पति जाया ॥ 

उठ बैठत बैठे उठत हैं, चलें चलत सुध नाहीं 

सूरदास बड़भागिनि राधा, समुझि मनहिं मुसुकाहीं ॥

 

शब्दार्थ-

स्वाति = एक नक्षत्र विशेष 

चक्रवाक = चकवा 

नाद = संगीत की ध्वनि 

कुरंग = मृग 

जाया = पत्नी, राधा

 बड़भागिनि = सौभाग्यवाती। 

 

प्रसंग 

राधा के सौन्दर्य पर कृष्ण न केवल मुग्ध हो उठे वरन् पूरी तरह से उसके वश में हो गये। निःसन्देह (सामान्य नारी की भाँति) राधा इस पर प्रसन्न हो अपने को सौभाग्यवती मानती है। इसी का वर्णन करते हुए कोई सखी कहती है

 

व्याख्या -

 कृष्ण तो राधा के ( सौन्दर्य के वश में इस प्रकार हो गये हैं जैसे कि चातक स्वाति नक्षत्र में हुई वर्षा के, मछली जल के तथा परछाई शरीर के वश में रहती है। उनके अलपक नेत्र राधा के शरीर की छवि पर मोहित हैं, यहाँ तक कि पत्नी (राधा) की छवि को देख पति (कृष्ण) के नेत्र थक गये हैं। (इतना ही नहीं, कृष्ण अपनी सुध-बुध तक खो बैठे हैं)। इसी से स्थिति तो यह हो गयी है कि वे उठते ही बैठ जाते हैं और बैठते ही उठ जाते हैं, चलते हैं तो चलने की सुध की नहीं रहती (अथवा राधा के बैठने पर बैठते हैं और उठने पर उठते हैं तथा चलने पर स्वयं भी चल देते हैं। उन्हें कोई सुधि नहीं है)। राधा बड़ी सौभाग्यवती है जो (कृष्ण की इस अवस्था को ) समझकर मन ही मन प्रसन्न होती है (अथवा अपने को सौभाग्यवती समझकर मन ही मन आनन्दित होती है)।

 

विशेष - 

1. अलंकार - उपमा स्याम छाया। 

2. चातक, चकोर, चक्रवाक, कुरंग तथा मीन प्रेम की अनन्यता के परम्परागत काव्य-प्रतीक हैं। यहाँ पर कवि ने इन्हीं से सम्बन्धित कवि समयों का प्रयोग किया है। 

3. भावसाम्य

 

(क) “कहा लड़ते दृग करै, परे लाल बेहाल। 

कहुँ मुरली कहुँ पीतपट, कहूँ मुकटु बनमाल ॥" 


(ख) "कहुँ बनमाल कहुँ गुंजननि की माल कहुँ । 

संग सखा ग्वाल ऐसे हाल भूलि गये हैं। 

घूंघट की ओट है के चितयो कि चोट करि 

लालन तो लोटपोट तबहीं ते भये हैं।। "


(ग) नागरि छवि पर रीझे स्याम 

कबहुँक वारत हैं पीताम्बर, कबहुँक वारत मुक्ता दाम ॥

 

(घ) होश जाता ही रहा, वरना जब वो आते हैं तब नहीं आता ।

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